महान कविताएँ धर्मग्रंथ बनने के लिए अभिशप्त हैं. इन महान शापित कविताओं ने हमारे बोध को गिरवी बना लिया है. वे इतनी ताकतवर हैं कि स्वीकृत पाठ के इतर उनके अन्यान्य पाठ के अन्वेषण का प्रयास आत्मघाती साबित होता है. यह रामचरितमानस के साथ हुआ है और अब कबीर के साथ हो रहा है. कविता की कोई किताब घर-घर पहुंच जाए यह उसकी ताकत है पर उसे केवल बांचा जाए ‘पढ़ा’ न जाए यह हमारी आस्था का आतंक है.
आस्था के इस आतंक से जूझते हुए इन पवित्र पोथिओं के समाज वैज्ञनिक और साहित्यिक अध्ययन के प्रयास भी चल रहे हैं. युवा अध्येयता सर्वेश सिंह ने रामचरितमानस में शैव और वैष्णव द्वंद्व को काशी और प्रयाग की स्पर्धा के रूप में देखा है और एक साहित्यक कृति के रूप में इसे समझते हुए राम, सीता और रावण के ‘प्रेम त्रिकोण’ का आख्यान प्रस्तुत किया है. बहस – मुबाहिसे के लिए आप सब का आमंत्रण है.
रामचरितमानस : पाठ, अंतरपाठ
सर्वेश सिंह
सर्वेश सिंह
बहुरि बंद खल गन सत् भाएँ. जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ..
क्या आप तुलसीदास के रामचरितमानस के लंकाकाण्ड की चौपाई- ‘प्रभु ताते उर हतईं न तेही. एहि के ह्रदय बसत वैदेही.’ से रूबरू हैं? यह राक्षसी त्रिजटा है, जो सीता से कहती है कि ‘राम, रावण के ह्रदय में, बाण इसलिये नहीं मार रहे क्योंकि उसमें सीता बसती हैं’. जबकि हम सब यही जानते और मानते हैं कि नाभि में अमृत होने की वजह से रावण मर नहीं रहा था. मुझे लगता है कि ऐसी ही अन्य कई गुमनाम चौपाइयों, दोहों और सोरठों से मानस में कथात्मक यथार्थ का जो एक अलग और वास्तविक अर्थ-वलय बनता है उसे जाना जाए. दरअसल, आलोचकों और कथा-वाचकों ने हमारे आँखों में अपने अर्थ की पट्टी बाँध दी है. एक अदभुत कथा को खींच-तान कर लुगदी बना दिया गया है. कवियों पर उसका गहरा प्रभाव बना रहा. छायावादी निराला को इसने अत्यंत प्रभावित किया जिसका परिणाम राम की शक्तिपूजा है,पर आगे हम देखेंगे कि यह मानस से अधिक यथार्थवादी कविता नहीं है. खैर, त्रिलोचन भी कहते हैं- ‘तुलसी बाबा मैंने कविता तुमसे सीखी’.
दरअसल, प्रगतिवादी दौर में इस ग्रन्थ की लोकप्रिय सत्ता को जबदस्त चुनौती मिली. मानस के विचार-पक्ष को प्रश्नांकित किया गया. इसमें सामंती मूल्यों का साहित्यिक-संस्थायन देखा गया. कुछ आलोचकों ने इसे धर्म-ग्रन्थ घोषित कर दिया. मुक्तिबोध जैसे कवि-आलोचक ने मानस को पतनशील कविता बताया तथा इसकी आधुनिक प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किये. आज भी, रामचरितमानस एक अत्यंत विवादास्पद कविता के रूप में हमारे सामने है. हिन्दी की दलित एवं स्त्री धारा में यह उपेक्षित है. दलित गुटों ने तो इसे सार्वजनिक रूप से जलाया भी है. स्त्री-विमर्श में भी यह विरोध की प्रमुख किताबों में है. स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से मानस के अंशों को धीरे-धीरे हटाया जा रहा है. क्या सचमुच मानस की कविता की अर्थवत्ता हमारे समय में खत्म हो चुकी है? भारत की अधिकाँश जनता को जिस कविता ने अभी भी एक भाव-धारा में बाँध रखा है क्या उसका साहित्यिक और सामाजिक मूल्य अब कुछ नहीं है? क्या मानस धर्मान्धता का प्रचार करने वाली एक खतरनाक पुस्तक है जिसे मंदिरों तक ही सीमित रहने देना चाहिए? क्या वह हिंदू-जिहाद का प्रचार करने वाली आसमानी किताब है? सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे. अरथ अमित अति आखर थोरे. का रचनात्मक आदर्श रखने वाला काव्य-ग्रन्थ रामचरितमानस क्या आज प्रासंगिक नही है?
इन प्रश्नों को मुट्ठी में भीचे, सहमा-सा मैं मानस के नजदीक गया. पढ़ा और गुना – सांगोपांग. फिर, भीतर-बाहर के अंतर्ज्ञान ने एक व्यापक बोध भी मिला. अतीत एक अत्यंत महीन छन्नी है, उसमें से वही छन कर वर्तमान में आता है जो प्रासंगिक होता है. और तब मैंने पाया कि मानस अभी भी लोक कंठ में मौजूद है- ऐक्य रचती भाव-धारा के रूप में. तो क्या हम शिक्षित लोग ही उसे गलत तरीके से पढ़ रहे हैं ? जबकि, मैंने पढ़ा, तुलसी साफ़-साफ़ कह रहे हैं- ‘उभय अगम जुग सुगम नाम तें. कहेहुँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें.’ यानी ब्रह्म से मुझे मतलब नहीं, नाम-रूप धारी सृष्टि में मैं नाम को अपनाता हूँ. और यह नाम भक्त के मन में सामाजिक सक्रियता की आग है. आप मानस ध्यान से पढ़े तो जरूर लगेगा कि उनकी चिंता ब्रह्म आदि धार्मिक-आध्यात्मिक प्रश्नों से उतनी नहीं जितनी संसार और लोगों की रहनी से है. वे इसी चिंता और संकल्प से मानस को लिखते दीखते हैं. यह झूठी सोच है कि क्षरते वर्ण धर्म से उत्पन्न क्षोभ और संशय ने यह उनसे लिखवाया. इसलिये, मेरी विनती है कि ‘दाहिने-बाएँ’ की खलता छोड़ व शंका त्याग मानस को फिर से और ध्यान से पढ़ा जाय.
सो सब हेतु कहब मैं गाई. कथा प्रबंध विचित्र बनाई
सर्वप्रथम, मेरे मत में, मानस मूलतः एक साहित्यिक ग्रन्थ है अतः उसे उसी निगाह से पढ़ना और मूल्यांकित करना चाहिए. अधिकांशतः तो तुलसी खुद समझ की डोर पकड़ा देते हैं, पर कहीं-कहीं खुद अपने विवेक का भी प्रशिक्षण करना पड़ता है. मानस का आरम्भ ही होता है-
वर्णानामर्थसंघानाम रसानां छंदसामपि .
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ .
अर्थात वर्ण और अर्थ का संघनन. और यही भामह कहते हैं- ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम. और यही पश्चिम का आलोचक भी कहता है-best words in best order with profound meaning. थोडा अलग हटकर, वाणी के देवता की वंदना है किन्तु वंदना तो अहमन्यता, अहंकार का तिरस्करण है. कबीर और तुलसी में शायद यही बुनियादी अंतर है. आँखिन की देखी का सात्त्विक अहंकार है कबीर में और इसी से उनकी कविता भक्ति को एक सीमा के बाद खुन्नस में बदल देती है, जिसके प्रतिक्रियात्मक रूप सकरात्मक एवं नकरात्मक दोनों हैं. हालाँकि स्वयं तुलसी कबीर को अपना संगी ही मानते हैं- अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा.
मानस के रूप में कोई उपनिषद या दर्शन-ग्रन्थ लिखने का भाव उनका नहीं है. उनका संकल्प भनिति विचित्र सुकवि कृत है. अर्थात वे कविता या साहित्य की रचना में प्रवृत्त होते हैं. इसीलिए, साहित्येतर उलझनों के शमन हेतु तुलसी समझ के निर्णायक सूक्ष्म सूत्र रचते हैं. ये सूत्र-चौपाइयां बालकाण्ड के बत्तीसवें दोहे के बाद शुरू हो जाती हैं. ये मानस के साहित्यिक, कथात्मक स्वरुप की घोषणा करती महत्त्वपूर्ण चौपाइयां हैं. यथार्थ के कथात्मक-प्रस्तुतीकरण का ये एक मेयार गढ़तीं हैं. इन्हें ध्यान से पढ़े तो तो तुलसी के कथाकार-मानस की सही समझ होगी. तुलसी इनमें कथा-शिल्प की बात कर रहे हैं- ‘सो सब हेतु कहब मैं गाई.कथा प्रबंध विचित्र बनाई..’ आज का कथा-शिल्पी भी यही निवेदन करता है पाठक से.
तुलसी इनमें ठीक वही बात कर रहे होते हैं जो आजकल की फिल्मों या उपन्यासों के आरम्भ में लिखी होती है कि– यह घटना काल्पनिक है, किसी जीवित य मृत व्यक्ति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं….और कथा को अलौकिक या यथार्थातीत घोषित करना यथार्थ से पलायन नहीं अपितु उसकी काल-सीमा का अतिक्रमण करना है. कथा-काल के संदर्भ में, अज्ञेय, ‘अपने बारे में ’ में ‘क्रमहीन सह्वर्तिता’ की जो चर्चा करते हैं, तुलसी वही धारणा रख रहे हैं. हर रचनाकार की चिंता होती है कि उसकी कृति शाश्वत वर्तमान में जिन्दा रहे. अतः’राम’ और ‘अवतार’ शब्द को ही मत पकड़िये, ‘नाना भांति’ पर भी ध्यान रखिये. धर्म या अध्यात्म की बात होती तो किस्सागोई के सिद्धांत रचने की आवश्यकता उन्हें न थी. वे कथा सुनाना चाहतें हैं कविता में वो भी लोक भाषा में.इसलिये सशंकित भी हैं.वह लोकप्रिय होगी या नहीं इसका अंदेशा भी उन्हें है- ‘राम सुकीरति भनिति भदेसा. असमंजस अस मोहि अंदेसा
इसीलिए ऐहतियातन कविता व कथा की सुचिंतित परिकल्पना के साथ वे आगे बढ़ते हैं.जायसी की तरह शाह-ए-वक्त तथा किसी पैगम्बर की स्तुति उन्हें गंवारा नहीं. वे वर्ण और अर्थ के सांसारिक देवता ‘गुरू’ की वंदना पद्य हेतु चाहतें हैं- ‘बंदऊ गुरू पद पदुम परागा.’ ज्ञान-दाता गुरू के प्रति यह समर्पण स्वाभाविक है.किसी को यह सामंती-प्रवृत्ति का प्रतीक लगे तो क्या कहा जाए.
कविता की रचना प्रक्रिया भी वे स्पष्ट कर देते हैं. यहाँ किसी संशय या बाहरी प्रभाव का निषेध है. यह मुक्तिबोध के ‘वाह्य के आभ्यांतरीकरण’ की प्रक्रिया-सी ही है.- ‘ह्रदय सिंधु मति सीप समाना.स्वाति सारदा कहहि सुजाना ../ जौ बरषई बर बारि विचारू.होहिं कवित मुकुतामनि चारु.’ अदभुत है कि ठीक यही प्रक्रिया कबीर की भी है- ‘पिंजर प्रेम प्रकाशिया अंतस भया उजास.मुख कस्तूरी महमई वानी फूटी बास’
इस कविता का लक्ष्य भी स्पष्ट है. राम का केवल नाम भर हैं, वो भी दाल में छौंके की तरह. असली मंशा है- ‘मोरे मन प्रबोध जेहि होई’, ‘मंगल करनि कलिमल हरनि’. सती भी शिव से वही कथा सुनना चाहतीं हैं जो ‘सकल लोक हितकारी ’ है. ‘सुरसरि सम सब कर हित होई’ से भी यही स्पष्टहै.
तो फिर मानस के रचाव व अर्थ पर इतना घमासान क्यों है ? दरअसल इसका कारण हमारे स्वनामधन्य आलोचक-गण हैं. एक प्रवृत्ति सी बन गई है कि ‘तुम कितना ही चीखो-चिल्लाओ,हम तो अपने मन की ही सुनेगें.’ तुलसी बार-बार विनय से कह रहे है कि यह एक काव्य-कथा है कोई एजेंडा नहीं, इसमें कुछ रस है तो ले लो नहीं तो यही मान लो कि- ‘कवित विवेक एक नहिं मोरे’
तुलसी,विनयवत ही,कविता में समाज को रोपते हैं. कविता को एक ‘सामाजिक स्थिरांक’ बनाते हैं.कहने को कह लें की इस विनय की भी एक राजनीति है. किन्तु यह गाँधी-सी राजनीति है. शब्दों के सहारे सामाजिक विन्यास को उलटती-पुलटती यह अदभुत शै है जो चमत्कृत करती है. मानस के अंतस में एक निर्णायक संघर्ष का विन्यास है जो ऊपर के बजबजाते पानी के शोर में सुनाई नहीं देता. मानस में अंतर्गुम्फित यह संघर्ष बेजोड़ है और बेजोड़ है तुलसी का रण-कौशल. यह संघर्ष है- मर्यादा और अमर्यादा के बीच, शुद्ध और अशुद्ध भावना व विचार के बीच, सहज और प्रपंची भक्ति के बीच, सरल और जटिल जीवन दर्शन के बीच. निर्गुण व सगुण अथवा कबीर और तुलसी के बीच नहीं बल्कि यह संघर्ष है ज्ञान के दो महान भारतीय केन्द्रों – प्रयाग और काशी के बीच. मानस,अपने समय में, काशी-केंद्रित ज्ञान का परिष्करण करने वाली और कुछ अंशों में उसका विरोध करती, एक अद्वितीय कथात्मक-कविता है.
दरअसल, हर युग में ज्ञान के उत्सर्जन के विभिन्न केंद्र होते हैं. तुलसी के समय काशी और प्रयाग ज्ञान के दो प्रतिद्वंदी केंद्र रहे हैं. इतिहास में ऐसा पढ़ा जा सकता है. काशी में शैव विचार प्रबल थे तो प्रयाग में वैष्णव. वामाचार ने शैवागम में कुरीतियां भरी जिसका केन्द्र काशी बना. उधर प्रयाग में वैष्णव एक प्रगतिशील विचार के रूप में प्रसार पा रहा था. तुलसी लोकहित में इसी ज्ञान की संभावना देखते हैं और उसके प्रसारण का संकल्प करते हैं, किन्तु दूसरे की निंदा के बगैर. जाहिर है वे दोनों का समन्वय दिखाते हुए भी एक की प्रगतिशीलता हमेशा ऊपर रखते हैं और वह है- प्रयाग की ज्ञान-राशि. मध्य-काल में, सतह पर चल रही यह लड़ाई मानस में अदभुत ढंग से चित्रित हुई है.
मानस के अर्थ की यही अंतर्धारा है.शब्दों में छुपे इस भाव को, इस तनाव को,आपको महसूस करना पड़ेगा.मानस की बहिर्धारा में आपको सिर्फ राम,शिव,या रावण दिखाई देंगें.एक जादुई लोक दिखाई देगा; भक्ति और धार्मिक प्रत्ययों से भरा हुआ. किन्तु असली यथार्थ, बीच में भी नहीं,सतह पर है. प्रयाग में, नदियों के संगम से प्रेरित तुलसी यहाँ शुभ विचारों के संगम,और अशुभ विचारों के निस्तारण में तल्लीन हैं.बालकाण्ड के पहले दोहे के बाद ही प्रयाग के ज्ञान राशि की महिमा का वर्णन शुरू हो जाता है –‘मुद् मंगलमय संत समाजू .जो जग जंगम तीरथराजू’ प्रयाग के संत-समाज में यह ‘करम-कथा’ साकार होती है. तुलसी इसी स्वर को सहानुभूति,गहराई व व्यापकता देते हैं.भरद्वाज प्रयाग में रहने वाले अपने समय के प्रसिद्ध वैष्णवी ऋषि हैं –‘भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा. तिन्हहिं राम पद अति अनुरागा’ वे तब के सर्वमान्य ऋषि याज्ञवल्क्य से विष्णु-गुण-अंशी राम के बारे में प्रश्न पूछते हैं और इस तरह तुलसी उनके माध्यम से तब के प्रगतिशील प्रयाग-स्कूल की मान्यताओं का कथात्मक-संस्थायन करते है.
भरद्वाज के ये प्रश्न टेढ़े है.बालकाण्ड के तैंतालिसवें दोहे के बाद ये पढ़े जा सकते हैं. ये प्रश्न ‘प्लांटेड’ हैं. कुछ इस तरह कि- ‘सोपि राम महिमा मुनिराया. शिव उपदेश करत करि दाया ..अर्थात पवित्र काशी के धारक जो शिव स्वयं ज्ञान-गुन संपन्न है वे भी राम की भक्ति करते हैं. आखिर वे राम कौन हैं? याज्ञवल्क्य इसका जो उत्तर देते हैं वही मानस-कथा है.
पूरी कथा में राम के विराट रूपक की ओट में शैवागम-प्रसूत तथा अन्य अनर्गल धार्मिक,सामाजिक विचारों का निरसन है जिसका केन्द्र उस समय काशी बना हुआ था. हो न हो, इस वजह से ही मानस का काशी में तात्कालिक तीव्र विरोध हुआ हो . और यह विरोध सांकेतिक नहीं था अपितु तुलसी के प्राण दाँव पर लगे थे.किन्तु तुलसी डटे रहे.कवितावली में तो यहाँ तक कह गए कि- ‘काहू की बेटी से बेटा न बिआहिब/माँग के खाईब/मसीत में सोइब’. अंततः मानस की लोक स्वीकृति के आगे काशी को घुटने टेकने पड़े तथा राम-नाम के सहारे स्वच्छ सामाजिक संस्कारों का बीज बोती प्रयाग की ज्ञान धारा अविरोध प्रवाहित होने लगी.शिव-त्रिशूल पर खड़ी काशी से औघड़ों का निष्कासन हुआ और राम-राम कहते हुए हृदय एक दूसरे के नजदीक आये.
याज्ञवल्क्य शिव-पार्वती आख्यान से कथा शुरू करते हैं. मानस में यह कथा भी सोद्देश्य है. आँखे खोल कर देखें तो यहाँ राम की प्रभुता को शिव द्वारा स्वीकृत करवाया जाता है. शिव विवाह आदि प्रसंगों के माध्यम से शैवत्त्व की गरिमा को घटाया जाता है तथा उसके लोक रंजक, कदाचित, अगंभीर रूप की निर्मिति की जाती है. कथा-स्थापना के क्रम में सर्वप्रथम शिव को परम राम भक्त के रूप में निरुपित किया जाता है. कुम्भज ऋषि से सुनी राम-कथा के बाद उनकी स्थिति ‘सुनी महेश परमसुख मानी’ तथा ‘कही संभु अधिकारी पाई’ और ‘कहत सुनत रघुपति गुन गाथा ’ जैसी हो जाती है. तत्पश्चात राह में जाते हुए सीता के वियोग में घूमते राम-लक्ष्मण को देखकर सती के मन में संदेह होता है. शिव मना करते हैं किन्तु सती परीक्षा लेती हैं और असफल हो लौट आतीं हैं.किन्तु शिव सती के इस कृत्य को स्वीकार नहीं कर पाते- ‘जौ अब करहुं सती सन प्रीती.मिटई भगतिपथु होई अनीती ..’. अंततः नीलकंठ शिव, राम भक्ति की गरिमा की रक्षा हेतु, सती-सी पत्नी के परित्याग का संकल्प लेते हैं- ‘एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाही.शिव संकल्प कीन्ह मन माहीं..’.स्वभाव से कठोर शिव-ज्ञान को यहाँ मृदु राम-भक्ति के सामने झुका दिया जाता है,और वो भी एक बड़े बलिदान के साथ.
किन्तु तुलसी के लिए इतना ही काफी नहीं था. काशी के सामाजिक-सांस्कृतिक दबाव को वे समझते थे. राम को अभी और जमाना था उन्हें.शिव की सामाजिक धार्मिक सत्ता इतनी कमजोर न थी. अतः जरूरी था शिव-मूर्ति पर और काले धब्बों का. इसके लिए वे शिव-विवाह का प्रसंग रचते हैं, जिसकी मानस की कथा में कोई आवश्यकता न थी. विवाह एक सामाजिक प्रथा है, तुलसी शिव को बीच जनवासे में बेपर्दा करते हैं. शिव की बारात में सारे देव गण शामिल हैं.सब साथ चलते हैं कि अचानक विष्णु का यह कथन अचंभित करता है- ‘विलग विलग होई चलहु सब निज निज सहित समाज.’ जब सब अलग हो जाते हैं तो शिव-गणों का दृश्य कुछ यों दिखता है- ‘कोऊ मुख हीन विपुल मुख काहू . बिनु पद कर कोऊ बहु पद बाहू ../ विपुल नयन कोऊ नयन विहीना . रिष्टपुष्ट कोऊ अति तनखीना ..’
मानस में यह अपूर्व वर्णन है. कालिदास में भी यह साहस न था. कई पंक्तियों में वर्णित शिव के बारातियों का ऐसा वीभत्स चित्रण है की जिसका कोई सानी नहीं. सारा नगर देख के डरा हुआ है. लोग हिमवंत की बुराई करते हैं कि कहाँ से बारात बुला ली. ऐसी सामाजिक निंदा कि शिव जैसा वर किसी को न मिले. यह खबर स्त्री-समाज में भी फैलती है.स ती की माँ मैना मूर्छित हो जाती हैं. होश आने पर उनका स्वर अत्यंत दारुण है. उसी कांड के ९५ वें दोहे के बाद उनका प्रचंड विलाप शुरू होता है- जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा. तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा..भले ही अपजस हो,सती को लेकर जल मरें, किन्तु मैना यह विवाह नहीं चाहती.ऐसा लगता है कि जैसे स्वयं सती का मन भी डिगा हुआ है. किन्तु एक भारतीय नारी की तरह वे वर को स्वीकार कर लेतीं हैं- ‘जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं. दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं.. और जैसी की परंपरा है सारा स्त्री-समाज दुःख को घोंट जाता है-
‘सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं.
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं..
इसके विपरीत राम-विवाह का वर्णन शोभातीत है. केवल एक दृश्य देखें- ‘चढ़ी अटारिन्ह देखहि नारी.लिए आरती मंगल थारी/ गावहिं गीत मनोहर नाना.अति आनंदु न जाई बखाना.’
शिव-मूर्ति-भंजन का यह खेल तुलसी यहीं खत्म नहीं करते. आगे धनुष भंग प्रसंग में भी तुलसी शक्ति-सामर्थ्य के आधार पर शिव को एक इंच और छोटा करते हैं. और इस लपेटे में परमवीर परशुराम भी आ जाते हैं. शिव-धनु, शिव के अजित शक्ति का प्रतीक था.किन्तु उसे राम बात ही बात में तोड़ देते हैं-‘लेत चढ़ावत खैचत गाढ़े.काहु न लखा देख सब ठाड़े.’ किसी ने देखा भी नहीं और धनुष टूट गया.और इस पर तुलसी की खुशी देखें- ‘कोदंड खंडेऊ राम तुलसी जयति वचन उचारही.’ सारे जन,देव भी, इस पर खुश हैं-‘देखि लोग सब भये सुखारे.’ ठीक इसी समय परम शिव-भक्त और पराक्रमी परशुराम का प्रवेश होता है.आते ही वे शिव-धनु-भंजक का नाम पूंछते हैं.
तुलसी का कथा-सेंस देखें कि वे परशुराम के मुकाबले लक्ष्मण को खड़ा कर देते हैं.कुछ इस भाव से की तुम्हारे लिए तो यही काफी है! और अपने समय के महान योद्धा को लक्ष्मण खुली चुनौती देते हैं- ‘इहाँ कुम्हडबतिया कोऊ नाहीं.’ न केवल चुनौती अपितु उस शिवभक्त को सरे दरबार अपमानित भी करते हैं- ‘मन मलीन तन सुन्दर कैसे. विष रस भरा कनक घट जैसे’ लक्ष्मण को कोई चुप नहीं कराता. केवल मीठे संकेतों में राम ‘नयन तरेरे’ हैं. परशुराम को तुलसी एक भारी दबाब भरी स्थिति में ला खड़ा कर देते हैं.लोग उन्हें हँसते हुए देखते हैं. सारे राजा-गण तटस्थ हैं. परशुराम कुछ देर तक अपना फरसा पटकते हैं किन्तु वे मन से हारने लगते हैं. अब अंतिम चोट स्वयं राम करते हैं.लगभग धमकी भरे स्वर में कहते हैं- ‘जौ तुम औतेहु मुनि की नाईं. पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं ..’और मन से हारे वीर को बाद में राम कुछ मधुर वचन कहकर खुश करते हैं तथा उसे उसके नए कर्म क्षेत्र -तपोवन- की ओर विदा करते हैं-‘कहि जय जय जय रघुकुलकेतू . भृगुपति गए बनहि तप हेतू ..’ इस तरह शिव और एक परम वीर शिव-भक्त का बालकाण्ड में ही करुण अवसान हो जाता है तथा राम की शक्ति-सामर्थ्य का डंका डिम-डिमाने लगता है.
इस प्रकार धनुष-भंग और विवाह रूपी सामाजिक संस्कार का प्रसंग निर्माण कर तुलसी शिवत्व को अगम अगोचर ही नहीं अपितु कड़े शब्दों में कहें तो अशक्त,निर्वीर्य और असामाजिक बना देते हैं. और फिर तुर्रा ये कि उन्हीं के मुँह से राम की लोक रक्षक एवं मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि निर्मित कर देते हैं. ‘शिव द्रोही मम दास कहावा ’ जैसी पंक्तियाँ केवल संतुलन हेतु हैं.शिव-छवि को जहाँ मेटना था उसे वहाँ मेटा जा चुका होता है मानस में. बाद में मानस में प्रयाग के उसी वैष्णवी ज्ञान का काव्यायन है जिसे तुलसी प्रगतिशील समझते हैं. स्वयं शिव से कथा कहलाकर तुलसी इसका स्थापन करते हैं. इस तरह राम ‘वर’ और शिव ‘अवर’ के रूप में इन प्रसंगों का शमन हो जाता है. आगे शिव मानस कथा की व्यास गद्दी के वरिष्ठ महंत से अधिक नहीं नजर आते- ‘महामंत्र जोई जपत महेशू. काशीं मुकुति हेतु उपदेशू..’.
और तब यह आकस्मिक नहीं कि राम के वन गमन प्रसंग में प्रयाग पहुचने पर तुलसी का शाब्दिक आह्लाद देखते ही बनता है- ‘को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ. कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ\’’और भरद्वाज से उनका मिलन प्रसंग तो अदभुत है-‘मुनि मद मोद न कछु कहि जाई. ब्रह्मानंद रासि जनु पाई.’ इतना ही नहीं, राम से चित्रकूट मिलने जाते भरत का भारद्वाज से विशेष मिलन-प्रसंग भी तुलसी ने रचा है. यह वर्णन भी सोद्देश्य है. किंकर्तव्यविमूढ़ भरत के मन को भारद्वाज पूरी तरह राम-भक्ति में सान देते हैं तथा भरत का चरित्र तीरथराज प्रयाग की कृपा से और भी तीव्रतर अग्रसर होता है.
मुझे तो लगता है की उत्तर-कांड का कलि-वर्णन-प्रसंग भी काशी के जन जीवन का ही चित्र है. कवितावली में भी तुलसी का मन इसी दुश्चिंता से भरा हुआ है.शिव के नाम पर काशी की ज्ञान-राशि पर सवार इस व्यभिचार पर तुलसी प्रयाग की ज्ञान-कुठार से कठोर हमला करते हैं तथा विकल्प रूप में वैष्णवी राम के मर्यादित चरित्र की स्थापना करते हैं. यह प्रयाग स्कूल की ऐतिहासिक विजय थी.बिना ललकारे और बिना लड़े.घरों,मंदिरों में अहर्निश शुरू हुए राम-कीर्तनों ने सजीव शिव को कैलाश में बर्फ-समाधि दे दी.वे दुरूह भक्ति की चीज बन गए.सरसता राम के हीस्से आई.यह युगीन आवश्यकता भी थी.
प्रभु ताते उर हतईं न तेही.एहि के हृदय बसत वैदेही
मानस में राम-रावण के बीच की लड़ाई का चित्रण भी उतना मिथिकल नहीं,जितना की समझा जाता है. यह मनोवैज्ञानिक है. यह कहीं-कहीं निराला की शक्तिपूजा को भी पछाड देता है. वस्तुतः, पुराकथा के हर संभव लौकिकीकरण का प्रयास मानस का मूल संघर्ष है. तुलसी कुछ पंडित को देते है तो कुछ पाठक और आलोचक को भी. समझ में न आने वाले धार्मिक और भक्तिपरक प्रत्यय मानस में जरूर हैं. पर मेरा यह निश्चित मत है काव्य-कथा में लौकिक मनोवैज्ञानिकता की धारा अटूट है. रावण वध का अदभुत मनोवैज्ञानिक प्रसंग देखें. बार बार सिर में बाण मारने से भी रावण नहीं मरता. चिंतित,भाग्य की मारी, सीता त्रिजटा से कहती हैं—‘मोर अभाग्य जिआवत ओही. जेहि हौं हरि पद कमल विछोही ..’
सीता को चिंता है कि रावण मरेगा कैसे ? राम के बाण उसके सिर में लगते हैं,किन्तु वह जीवित बचा रहता है.सीता विधि तथा अपने अभाग्य को दोष देती हैं.इस प्रसंग में निराला शक्ति को रावण के साथ खड़ा देखते हैं.किन्तु तुलसी के सामने अजीब असमंजस है.एक तरफ सुर-असुर की चमत्कारिक कथाएँ हैं तो दूसरी ओर उनकी साहित्यिक दृष्टि. लोक में, नाभि में अमृत की स्मृति है तो तुलसी के सम्मुख मिथकों के विपर्यय व नयी उद्भावना का दबाव.फलतः वे एक अनोखा विन्यास रचते हैं. यकीन मानिए,ये काव्यांश आपको चौका सकता है.अतः इसे पूरा पढ़े.त्रिजटा सीता से कहती है-
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी. उर सर लागत मरई सुरारी.
प्रभु ताते उर हतइं न तेही. एहि के ह्रदय बसत वैदेही.
एहि के ह्रदय बस जानकी जानकी उर मम वास है.
मम उदर भुवन अनेक लागत बान सब कर नास है.
काटत सिर होइहि विकल छुटी जाईहि तव ध्यान.
तब रावनहि ह्रदय महुं मरिहहिं रामु सुजान.
शायद इन चौपाइयों की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया. तुलसी की यह अदभुत अभिव्यंजना है.रावण मर नहीं रहा या राम उसे मार नहीं रहे क्योंकि उसके हृदय में जानकी का प्रेम है.रावण उसी शक्ति से लड़ रहा है.कोई दुर्गा नहीं अपितु ‘ध्यान की देवी’ ने उसे अपने अंक में धारण कर रखा है. वह अपने शक्तिशाली आत्म में है. अहंकार में नहीं, ‘पीर’ में है.अतः उसका ध्यान-भंग जरूरी है और इसीलिए राम उसे बार बार घायल कर रहे हैं-ध्यान-च्युति हेतु.क्योंकि मारना दिल में है.और दिल में सीता हैं. अजीब है धनुर्धर राम की मनःस्थिति ! शत्रु अब अकेला बचा है.किन्तु मारने की दुविधा है.मारना ह्रदय में है, किन्तु घात सिर पर रावण के बल से अभिभूत हैं राम शायद.एक स्त्री की कामना से युक्त दुर्निवार-योद्धा. मायावी राक्षस किन्तु अडिग.अकेला बचा,मूर्क्षित,सारथी युद्ध-क्षेत्र से भगा लाया,किन्तु पुनः वापस आ राम को ललकारता हुआ.
वध का एक नैतिक संकट.प्रचंड प्रेमाकुल योद्धा रावण के सामने संयमी राम किंकर्तव्यविमूढ़ ! और तब तुलसी उस मिथक को बीच में लाते हैं. रावण के न मरने पर राम विभीषण की ओर देखते हैं.और तब विभीषण वह रहस्य बताते है-‘नाभिकुंड पियूष बस याकें.नाथ जियत रावनु बल ताकें..’. और तब संयमी राम में प्रचंड क्रोध का जागरण होता है.यह वीर का क्रोध नहीं लगता.राम भेद पा जाते हैं रावण का.दिल को भेदना मुश्किल था शायद.राम ने रावण की आँखों में कुछ देख लिया था.(बाद में सीता की अग्नि परीक्षा संभवतः इसी कारण होती है.) मानस को अगर ठीक से बाँचे तो ठीक यहीं पर राम की आँखों में छल प्रवेश करता है. तुलसी बहुत सम्हालते हैं, किन्तु शब्द बेवफाई पे उतर आते हैं. संशयी,दुविधाग्रस्त राम, क्रूर और असयंमित तरीके से रावण पर वाण-प्रहार करते हैं-
खैंचि सरासन श्रवन लगि छाडे सर इकतीस.
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फणीश.
और इस तरह राक्षस मर जाता है.परम शिव-भक्त,काल को भी जीतने वाला.किन्तु राम-विमुख को कौन बचाए, शिव व काशी तो स्वयं राममय हैं. पर ठहरिये. शब्द सर्जक के गुलाम नहीं. राक्षस मरता है,रावण नहीं.उसकी मौत तो तुलसी के हाथ से फिसले शब्दों ने फ्रीज कर दी है. मृत्यु के बाद भी उसमें ‘वह’ जीवित है.समुन्दर में क्षोभ है और पर्वतों में कंपन.अंग-अंग भंग है.कोई राम के चरणों में पड़ा है तो कोई मंदोदरी के पास गिरा.किसी से बानर भालू खेल रहे हैं.किन्तु, दो टुकड़ों में बंटे सिर वाले रावण के मुख से जिजीविषा की गर्जना जारी है–
धरनि धसई धर धाव प्रचंडा.तब सर हति प्रभु कृत दुई खंडा..
गर्जेउ मरत घोर रव भारी.कहाँ राम रन हतौं पछारी..
यह राक्षस की चीत्कार नहीं लगती.ध्यान से पढ़े तो यह प्रेम-त्रिकोण है.मानस में यह ‘मिथकीय-क्षण’ है,अर्थात मनुष्य के भीतर की मनुष्येतर शक्तियों का प्रस्फुटन.हर कथा इसे पाना चाहती है.किसी कलाकृति का सर्वोत्तम क्षण,जिसमें घनीभूत भावनाओं का संवेग और ताप आँख खोल दे.जेम्स ज्वायस ने जिसे ‘एपीफेनी ’के क्षण कहा है.इन्ही क्षणों में अपने भीतर दबे/दबाए सत्य से साक्षात्कार होता है.मानस की कथा के इन्हीं क्षणों के स्तर पर यथार्थ की गंगा बहती है.किन्तु हम ऊपर के जल में तैरते फूल-मालाओं को मानस समझ बैठतें हैं.हमें मानस के उन्ही स्तरों को छूना होगा.
ये दोनों ही प्रसंग मानस में हैं. यानि अमृत का मिथ भी और एक नितांत लौकिक सी स्थिति जहाँ सीता के प्रति प्रेम भावना के बल से युद्धरत रावण है. किन्तु रावण की नाभि में अमृत से अधिक चिंता राम को उसके हृदय में बैठी सीता के प्रति प्रेम की शक्ति से है जिसे सोखे बिना रावण को नहीं मारा जा सकता. नाभि में अमृत एक मिथक है जबकि हृदय में प्रेम की शक्ति एक वास्तविकता. मध्यकालीन तुलसी के मन में यहाँ द्वैत है. किन्तु आश्चर्य कि अधिकतम गहरे शब्द वास्तविकता के हैं. निराला की शक्तिपूजा में यही चिंता बदलकर देवी-शक्ति का रूप ले लेती है. अब सोचने की बात है की अधिक यथार्थपरक विन्यास तुलसी का है या निराला का.एक देवी के अंक में अहंकारी,युद्धरत रावण को बैठा दिखाता है तो दूसरा रणाग्रही, ध्यानावस्थित,रावण के अंक में बैठी सीता को अचंभित-सा देख लेता है.
तो ये ही मानस के अंतस्थल में तिरते शब्दों के कुछ अर्थ हैं,जिन्हें विनयवत सामने रखा गया है.ऐसे अनेक अर्थ होंगे जो अभी भी खुलने की प्रतीक्षा में हैं. किन्तु कुछ को गीता प्रेस और राम किंकरों ने रोक रखा है तो कुछ को कुछ आलोचकों ने. अब तो मानस विरोध का पूर्वाग्रह इतना प्रबल है कि यह भजन ही सहारा है –‘सांसों की माला में सुमिरु मैं सीता-राम ’.कितने अरमानों से तुलसी मानस का समाहार करते हैं कि- ‘कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम’. किन्तु पता नहीं क्यों हम मानस में इन शब्दों को देखना नहीं चाहते ? मेरी विनती है की मानस-गंगा में गहरे डूबिये, क्योंकि-
वो लाश थी इसलिये तैरती रह गई.
डूबने के लिए जिंदगी चाहिए.
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सर्वेश कुमार सिंह
२५ जून १९७५, प्रयाग
जे.एन.यू. से एम.फिल.और पीएच.डी.
उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में एसोसिएट फेलो के तहत अनुसन्धान-रत
उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में एसोसिएट फेलो के तहत अनुसन्धान-रत
निर्मल वर्मा की कथा भाषा पर पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य
सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष