अमीर चन्द वैश्य
विजेन्द्र का रचना संसार
कविता संग्रह
1.त्रास , 1966 आलोक प्रकाशन भरतपुर
2.ये आकृतिया तुम्हारी, 1980 वाणी,दि.
3.चैत की लाल टहनी, 1982.संभावना प्र.
4.उठे गूमडे नीले, 1983,सारदासदन, इलहाबाद
5. धरती कामधेनु से प्यारी, 1990,परिमल,इलहाबाद
6.ऋतु का पहला फूल, 1994.पंचशीर,जयपुर
7.उदित क्षितिज पर, सौनेट, कि,घ.प्र. दि.
8.घना के पाखी, 2000, सार्थक.प्र. दि.
9.पहले तुम्हारा खिलना, 2004.ज्ञानपीठ .दि
10.वसंत के पार, 2006,शान्ति पु.मं. दि.
11. आधीरात के रंग. (चित्रों पर कविताएँ). 2006.कृति ओर प्रकाशन .जयपुर
12.कवि ने कहा, कि.घर प्र दि
13.दूब के तिनके, पिल्ग्रिम प्र.वाराणसी
14.पकना ही अखिल है, 2009 नेशनल, दि.
15.ऑच मे तपा कुन्दन, 2010.रायल.प्र.जो.पुर
16.भीगे डैनो वाला गरुड़, 2010बो.प्र.जयपुर
17.जनशक्ति, 2011, लंबी कविता .अनुभवप्र .दि.
18.बुझे स्तंभो की छाया. 2012.रायल.जोधपुर
19.कठफूला बास, 4 लंबी कविताए. रा.जोधपुर
20.बनते मिटते पाव रेत मे, बाग्मय प्र जयपुर
21.बेघर का बना देश, 2014.सा भ.इलहाबाद
22.मैने देखा है पृथ्वी को रोते, 2014.नयी कि.दि.
23.ढल रहा है दिन, 2015.नयी कि.दि.
24.लोहा ही सच है ,2015, बो.प्र.जयपुर
डायरी
1.कवि की अंतर्यात्रा.2008शिल्पायन,दि.
2.धरती के अदृश्यदृश्य 2010अभिषेक प्र.दि.
3.सतह के नीचे,2010,वाञग्मय प्र .जयपूर
4.अनजानी पगडंडिया-१,2017.अभिषेक. दि.
5.अनजानी पगडंडिया भाग 2, 2017अभिषेक .दि.
आलोचना
1 कविता और मेरा समय 2000आर.पी.पी.एचज.पुर
सौन्दर्यशास्त्र
1.सौन्दर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता 2007
अभिषेक. दि.
2.सौन्दर्यशास्त्र के नये क्षितिज,2016वाग्मय प्र.जय.पु
2.सौन्दर्यशास्त्र : प्रश्न और जिग्यासाये ,2016वा.मय.प्र जयपुर
आत्मकथा,2017, अभिषेक दि.
विश्व के लोकधर्मी कवि, 2017,अभिषेक. दि.
काव्य नाटक
अग्नि पुरुष, 2006 सार्थक प्र .दि .
क्रौञच वध , 2006 ज्ञानपीठ, दि.
साक्षात्कार
कवि से संवाद सं. डा.सत्यपाल सिह
काव्य रचनावली
विजेन्द्र की काव्य रचनावली प्रकाशित 13 भाग.
विजेन्द्र की लोकचेतना और उनका व्यक्तित्व मार्क्सवादी विचारधारा से अनुशासित है. उन्होंने अपनी काव्य-साधना करते हुए मार्क्सवाद से जो आलोक प्राप्त किया, उसके प्रकाश में उन्होंने अपनी मान्यताएँ सुनिश्चित कीं. अपनी मान्यता के अनुसार वह भारतीय शब्द लोक को सर्वहारा का समानार्थी मानते हैं. वह लोक के उत्सवधर्मी रूप की अपेक्षा उसके संघर्षधर्मी रूप को रूपायित करते हैं. उनका कहना है कि जो रचनाकार अपने देशकाल की द्वन्द्वात्मक समाजिक गतिकी का कलात्मक निरूपण करता है, और यथास्थिति का विरोध करता है, वही सच्चे अर्थों में समकालीन है और आधुनिक भी. इसी विचारभूमि पर पैर जमाकर विजेन्द्र हिन्दी के लोकविमुख आधुनिकतावादी कवियों- अज्ञेय, श्रीकान्त वर्मा, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी आदि का तीखा विरोध करते हैं. कविता के नये प्रतिमानों से उनकी गहरी असहमति है. यही कारण है कि हिन्दी आलोचना ने उन्हें उपेक्षित समझकर हासिये पर ढकेल दिया. लेकिन इतिहास विधाता ने उनके प्रति न्याय किया. और अब वह आलोचना के केन्द्र में हैं.
काव्य रूपों की दृष्टि से विजेन्द्र का काव्य वैविध्यपूर्ण है. वस्तुतः वह लम्बी कविताओं के समर्थ कवि हैं. लगभग साठ लम्बी कविताएँ प्रकाश में आ चुकी हैं. आजादी के बाद विजेन्द्र ने सर्वाधिक लम्बी कविताओं की रचना की है. इन कविताओं के केन्द्र में लोक के श्रमशील जनों के चरित्र उनके प्राकृतिक परिवेश के सौन्दर्य चित्रों के साथ उपस्थापित किए गए हैं.
इनके अलावा विजेन्द्र ने अपने काव्यगुरू एवं सॉनेट स्रष्टा त्रिलोचन की परम्परा आगे बढ़ाते हुए सॉनेट भी रचे हैं. अँग्र्रेजी के महान नाटककार शेक्सपियर के नाटकों के अध्येता विजेन्द्र ने दो काव्य नाटकों- अग्निपुरूष एवं क्रौंच वध की रचना करके सिद्ध किया है कि वह नाट्य शैली में भी अपने समय की प्रतिरोधमूलक कविता रचने में समर्थ हैं. त्रिलोचन के समान विजेन्द्र ने कुछ छोटी कविताएँ भी रची हैं. इनमें दूब के तिनके उल्लेखनीय है. इसमें उन्होंने परम्परागत दोहा छन्द को समकालीन समाज की अन्तर्वस्तु से जोड़कर अपने सामर्थ्य का प्रमाण प्रस्तुत किया है . उनके दोहों में खड़ी बोली के साथ-साथ ब्रज भाषा का लचीलापन अनायास शामिल हो गया है. अधोलिखित दोहे देखिए-
पाले से गेहूं गया, सूखा से सब ज्वार,
सूद करज पर बढ़ रहा, मिट्टी ऐसी ख्वार.
भ्रष्टाचारी कह रहे, गठित करो आयोग,
चोर चोर सब एक हैं, माँगें छप्पन भोग.
जो चट्टानें तोड़ता, वह तोड़ेगा जाल,
उसने लोहा गला कर, ढाल लिया है काल.
विजेन्द्र ने दोहे के अलावा बरवै छन्द का भी अच्छा प्रयोग किया है. लोकधर्मी कवि होने के नाते उनकी कविता में धरमपुर, भरतपुर, चुरू, जयपुर, फरीदाबाद आदि के स्थानीय जन-जीवन के अनेक क्रियाशील चित्र परिलक्षित होते हैं, जो समाज की यथास्थिति को तोड़ने का प्रयास भी करते हैं. यही कारण है कि विजेन्द्र जनशक्ति प्रति अटूट आस्था रखते हैं. वस्तुतः वह श्रमसौन्दर्य के समर्थ कवि हैं. उन्होंने अपनी कविता के केन्द्र में भारत के कोटि-कोटि भूखे-दूखे किसानों, मजदूरों, संघर्षशील नारियों के चरित्र रूपायित करके निराला, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन की काव्य परम्परा को अपने स्टाइल से श्रीसमृद्ध किया है.
डा. रामविलास शर्मा का कथन है कि यदि भारत के किसान को जानना चाहते हो तो प्रेमचन्द का साहित्य पढ़ो. विजेन्द्र ने इस बात को गाँठ बाँधा और भारतीय किसान को अपना लोकनायक माना. किसी अन्य समकालीन कवि ने ऐसी स्थापना प्रस्तुत नहीं की है. विजेन्द्र अपने लोकनायक के बारे में कहते हैं-
“अन्न ही में है बल, वीर्य
सूर्य के ताप का
हवा के वेग का
जल की लहर का
अग्नि के तेज का
कृषक के प्राण का
अन्न ही ईश्वर है
कण प्रतिकण में
बसी है गति
जो उगाता है खेत को कमा कर
वही है नायक लोक का.”
(बनते मिटते पाँव रेत में, पेज न.16)
इस छोटी सी कविता में क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर का समावेश अनायास हुआ है. किसान की खेती-बाड़ी इन पाँचों तत्वों के सहारे फलती-फूलती है. अन्न ही ईश्वर है कहकर कवि ने किसान की महिमा की ओर संकेत किया है. कविता पढ़ते ही याद आने लगता है कि अन्न ब्रह्म है. इस प्रकार विजेन्द्र ने अपनी कविता को परम्परा से जोड़ने का रचनात्मक प्रयास लगातार किया है.
श्रमसौन्दर्य के कवि विजेन्द्र की कविता में श्रमशील वर्गों-किसानों और मजदूरों के जीवन-प्रसंग, उनके संघर्ष, उनके सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश का निरूपण वर्णनात्मक कलात्मक ढंग से किया है. आजकल के भूमण्डलीकरण के दौर में भारतीय किसानों की दुर्दशा कोई अपरिचित नहीं है. कर्ज के भार और मौसम की मार से खेती किसानी जी का जंजाल बन गई है. छोटे किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा है. फसल बिकने पर उनका लागत मूल्य भी उन्हें नहीं प्राप्त होता है. अब तक अनगिनत किसान आत्महत्या भी कर चुके हैं. परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उन्होंने प्रतिरोध बन्द कर दिया. पिछले दिनों किसानों के अनेक प्रदर्शन हो चुके हैं. लोकधर्मी कवि विजेन्द्र किसानों की संगठित जनशक्ति से भली भाँत परिचित है.
1970 के दशक में रचित उनकी लम्बी कविता कठफूला बाँस इसका प्रमाण है. इसके केन्द्र में भरतपुर के समीप स्थित मलाह गाँव के कर्मठ किसान हैं. कविता के वाचक ने उनके जीवन संघर्ष का वर्णन इस प्रकार किया है कि पाठक को लगता है कि उसके सामने मंच पर आज की रामलीला हो रही है. किसानों की दुखभरी रामकथा तभी समाप्त होगी, जब उत्पीड़क और शोषक व्यवस्था का खलनायक रावण मारा जाएगा. वाचक तटस्थ भाव से कहता है कि अभिजन या प्रभु वर्ग को भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि इतिहास कठफूला बाँस है. हकीकत यह है कि इतिहास के गर्भ में किसानों की संघर्ष गाथाएँ छिपी हैं. उनसे प्रेरणा लेकर वर्तमान व्यवस्था बदली जा सकती है. इसके लिए किसानों के संगठन की जरूरत है. इतिहास साक्षी है कि औरंगजेब के शासनकाल में गोकुलाजाट ने विद्रोह का नेतृत्व किया था. जनशक्ति ने फिरंगियों के छक्के छुड़ाए थे. इतिहास दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि अखिल भारतीय स्तर पर संगठित होकर दीनहीन किसान और मजदूर अपने वोट की ताकत से पूँजीवादी व्यवस्था बदल सकते हैं. विजेन्द्र की यह ओजस्वी कविता करूणामूलक प्रतिरोध का सौन्दर्य रचती है. यही कारण है कि इसकी भाषाई संरचना लोकजीवन के निकट है.
1970 दशक में ही विजेन्द्र की पहली लम्बी कविता जनशक्ति भी प्रकाशित हुई थी. लोक की संघटित जनशक्ति के प्रति आस्थावान् विजेन्द्र इस कविता में उस जनशक्ति का वर्णन करते हैं जिसने अपने कौशल से सभ्यता और संस्कृति की रचना की और जो आग्नेय चट्टानों को तोड़ सकती है, पहाड़ फोड़ सकती है, जलधारा प्रभाहित कर सकती है. फिर वह अपने बल से वर्तमान व्यवस्था क्यों नहीं बदल सकती. वास्तविकता तो यह है कि वर्तमान व्यवस्था ने जनशक्ति को धर्म, सम्प्रदाय, जाति, रंग और लिंग के विभेदों में विभक्त कर दिया है. विजेन्द्र यह मानते हैं कि इन सारे विभेदों को किसानों और मजदूरों की एकता से काटा जा सकता है. मुक्ति का द्वार खोला जा सकता है. यही कारण है कि कविता का प्रारम्भ काटना क्रिया से होता है-
“मैंने आवाज सुनी
जो अन्दर से कहती है
तू ही हँसिया क्यों न ले
और काट उसी से
यह आवाज उपजती है
इन कहने सुनने वाली बातों से
चट्टानें नहीं पिघलेंगी
ये धातुओं से निर्मित हैं
ऐसे ये धारें नहीं रखी जाएँगी
अरअसल, काटने वालों की शक्लें और हैं.”
काटनेवालों की शक्लें उन हट्टे-कट्टे श्रमजीवी लोगों की हैं, जिनसे मध्यवर्गीय कवि अपना आत्मीय सम्बन्ध जोड़ना चाहता है. वह ऐसे जनों के हाड़तोड़ श्रम के असंख्य रूप निकट से देखकर उन्हें बिम्बों में रूपायित करता है. वह कहता है कि कठोर श्रम से धूपायित दाग वाले जनपदवासी दूर से चिकनी मिट्टी लाते हैं. खादर से लाते हैं दूब-दाब संटे. ये बड़े कठोर हैं. बड़े निडर, बड़े धीरजधारी.
सारांश यह है कि जनशक्ति रचनाकार के व्यक्तित्व का रूपान्तरण करती है. वह अपना मध्यवर्गीय चरित्र बदलता है और मेहनत करनेवाले लोगों से और उनके परिवेश से अपना गहरा रिश्ता जोड़ता है. यही कारण है कि विजेन्द्र ने अपनी काव्य-साधना के दौर में सार्थक लम्बी कविताओं की रचना लगातार की है. आजादी के बाद वह ऐसे कवि हैं जिन्होंने सर्वाधिक लम्बी कविताएँ रचकर अपने देशकाल की संघर्षशील वास्तविकता का कलात्मक निरूपण वर्णनात्मक शैली में किया है. अपनी परम्परा से जुड़े होने के कारण विजेन्द्र ने निराला और मुक्तिबोध से प्रेरणा लेकर लम्बी कविताओं में अनेक अविस्मरणीय चरित्रों की सृष्टि करके समकालीन कविता को श्रीसमृद्ध किया है इस दृष्टि से उनकी कविताओं के उल्लेखनीय चरित्र हैं- गंगोली, तस्वीरन, लादू, रामदयाल, मागो, अल्लादी, साबिर, मुर्दा सीने वाला, ढोंगी तान्त्रिक बाबा, नत्थू माली, नूरजहाँ, मिस मालती, मीना, काली माई, रूक्मिनी, शब्बीर, मनोहर, लच्छमी, करिया अहिरवार, कानसिंह, पारो, दादी माइर्, लकड़हारा, खलनायक बाबूखाँ, जुम्मन मियाँ, मिठ्ठन, पाल राब्सन और कवि स्वयं.
आधी सदी शीर्षक कविता में विजेन्द्र ने स्वयं के जीवन संघर्ष को उपस्थिति करके सामन्ती संस्कारों का प्रखर विरोध करते हुए अपने व्यक्तित्व रूपान्तरण का संकेत किया है. जिस प्रकार सरोज स्मृति निराला की संघर्ष भरी आत्मकथा है उसी प्रकार आधी सदी भी विजेन्द्र की है. यदि निराला दहेज प्रथा के विरोध में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की तीखी आलोचना करते हैं तो विजेन्द्र ठाकुर विरादरी के मिथ्या अभिमानी लोगों की. यह कविता विजेन्द्र के व्यक्तित्व रूपान्तरण का कलात्मक निदर्शन है.
लोकचेतना से प्रेरित विजेन्द्र ने उपर्युक्त चरित्रों की संक्रियाओं के द्वारा सामन्ती उत्पीड़न और पूँजीवादी शोषण का विरोध किया है और समतामूलक समाज का सपना देखा है. मिठ्ठन शीर्षक कविता के केन्द्र में भरतपुर निवासी बौने कद का साधारण व्यक्ति मिठ्ठन है, जो नगाड़ा बजाने में निपुण है. रचनाकार उसके इस हुनर का सम्मान करता है और उसके नगाड़ा वादन से उस ढोंगी पुजारी का पर्दाफाश करता है जो मंसा देवी की मठिया का पुजारी है. वह कामलोलुप ढोंगी शैतान मठिया में आनेवाली कनक वदनाओं को कनखियों से लखता है. कवि ने बड़े कलात्मक ढंग से मिठ्ठन के नगाड़े की ध्वनि को प्रतिरोध की आवाज में बदल दिया है-
\”जब लगता है धौंसा मिठ्ठन का
नहर का काला जल हिलता है
पके पत्ते गिरते हैं
हवा से टूटकर
नगाड़े की ध्वनि से उत्पन्न थरथराहट से
जागता है मन के भीतर का
सोया मन.’’
यहाँ ध्वनि यह है कि प्रतिरोध की जोरदार आवाज से मन के भीतर सोया हुआ दूसरा मन अर्थात् सत्य की चेतना जाग जाती है और वह समाज को बदलने की चेष्टा करती है.
विजेन्द्र की लोक-चेतना भारत तक सीमित न होकर वह विश्वव्यापी है. इसका प्रमाण है लम्बी कविता पाल राब्सन. पाल राब्सन अमरीका का अश्वेत महान गायक था. उसके गायन से गोरी अमरीकी सत्ता डरती थी. उसकी गद्य कृति का नाम हिअर आई स्टैंड़, जिसने अश्वेतों को आदोलित कर दिया था. पाल राब्सन को सम्बोधित इस कविता में कवि ने कहा-
“श्वेत सत्ता ने किया है दमन कवियों का
गायकों का, चिन्तकों का
तुम्हें याद है तुम्हारे पिता
दास थे इन्हीं श्वेतों के
अश्वेतों ने दिया है अपना रक्त
अपना पसीना, अपना श्रम अमरीका को बनाने में.’
जो रचनाकार और कलाकार शोषक सत्ता का प्रबल विरोध करते हैं, उन्हें कुचल दिया जाता है. यह इतिहास का सत्य है. विजेन्द्र जिसका प्रतिरोध करते हैं और स्वयं को राब्सन से एकात्म करते हुए कहते हैं कि मैं भी तो अश्वेत हूँ. दोआबा की मिट्टी से बना हुआ. काली नस्ल का धरती पुत्र. इसलिए हे महागायक, तुम एक बार फिर आओ इस इक्कीसवीं सदी में. सारांश यह है कि लोक का प्रतिरोधी समर लगातार चला है. आज भी चल रहा है और कल भी चलता रहेगा.
विजेन्द्र ने निराला से प्रेरणा ग्रहण कर अपनी निजी काव्य-भाषा और शैली का विकास निरन्तर किया है. इस सन्दर्भ में निराला की प्रसिद्ध रचना तोड़ती पत्थर स्मरणीय है. इस कविता में निराला गर्मी के मौसम में इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती हुई एक मजदूर स्त्री को गौर से देखते हैं. उसकी संक्रियाओं का वर्णन करते हैं और उसकी मनोभावनाओं का भी. इसी प्रकार विजेन्द्र भी गंगोली शीर्षक कविता में सीरदार का हल जोतनेवाले पिता और चैका-बासन करनेवाली माता की पुत्री गंगोली के श्रम-सौन्दर्य का वर्णन करते हैं. उन्होंने निराला के समान देखना क्रिया का प्रयोग किया है- “कटनी करते उसको देखा.” देखा क्रिया पर इस बात का सबूत है कि कविता-केन्द्रित काल्पनिक न होकर वास्तविक है. निराला पत्थर तोड़ती मजदूर स्त्री को दूर से देखते हैं. लेकिन विजेन्द्र अपने चरित्र को निकट से देखकर उससे बातें भी करते हैं. बातों से पता चलता है कि मेहनत करने पर भी पेट पालना दूभर है. काम करते हुए झुके रहने के कारण उसकी माँ शरीर पर बंजर टीले के समान कूभर निकल आया है. कवि को देखकर गंगोली लजा जाती है. कवि ने प्राकृतिक परिवेश के मध्य गंगोली का शब्द चित्र अंकित किया है-
“कटनी थी रब्बी की
सरसों छूते ही
तड़क रही थी.
तेज धूप में
गलपट की आभा
तमक रही थी
हँसिया लेकर मूठ बनाए झुकना
और खड़ा हो जाना
कटे लाँक को
तुरत-फुरत सगुनाते जाना
यही क्रम था.”
कविता का स्थापत्य सुगठित़ है. इसका संदेश यह है कि रात दिन मेहनत करनेवाले लोगों का जीवन मध्यवर्गीय लोगों के जीवन के समान नहीं है. वह इन्द्रधनुष न होकर सिसियाँदी कारा है. उसमें दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध है. जब तक जीवन का यह रूप है, तब तक हमारा लोकतंत्र लोक से कोसों दूर है. कविता संकेत करती है कि वर्तमान व्यवस्था को बदले बिना श्रमसौन्दर्य का सम्मान नहीं होगा.
आजकल भारतीय समाज में लव-जिहाद का कोलाहल है. इस सन्दर्भ में हादिया नामक युवती का प्रकरण सर्वोच्च न्यालय तक पहुँच चुका है. हादिया पेशे से डाक्टर है. उसने अपने माता-पिता का हिन्दू धर्म त्यागकर एक मुस्लिम युवक से विवाह कर लिया. इस बात पर उसके माता-पिता ने उसे प्रताड़ित किया. अब वह कहती है पति से मिलने के बाद ही आजादी महसूस कर सकूँगी. (दैनिक अमर उजाला, 30.11.2017) इस प्रकरण से यह बात जाहिर है कि हमारे समाज में नारियों के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. इसी सन्दर्भ में विजेन्द्र की लम्बी कविता काली माई उल्लेखनीय है. इस लम्बी कथात्मक कविता के केन्द्र में हाथों पर भरोसा करनेवाली कस्तूरी का कर्मठ जीवन है. गाँव में उसे काली माई कहा जाता है, क्योंकि वह तवे के समान काली है. धीमर जाति के सुघड़ युवक निक्का की ब्याहता कस्तूरी अचानक विधवा हो जाने के बाद अपनी सास के साथ रहती है. जीवन चलाने के लिए बकरियाँ पाल लेती है. एक दिन जंगल में अचानक कादिर नाम का लड़का उसके मन में प्रेम बीच बो जाता है, जो उसके बेटे कल्लू के रूप में फलता है.
गाँव इस प्रेम सम्बन्ध को दुराचरण समझता है. कादिर पीटा जाता है. उसका घर फूँका जाता है. पूरा गाँव हिन्दू और मुसलमान में बँट जाता है.कस्तूरी की व्यथा-कथा का यहीं अन्त नहीं होता. उसका बेटा बड़ा होकर उसे अपमानित करता है. वह उसे छोड़कर दिल्ली चला जाता है. समाज द्वारा अपमानित कस्तूरी अकेली रह जाती है. बकरी के बच्चे पालकर अपनी जिन्दगी गुजारती है. ध्यान देने की बात यह है कि रचनाकार ने उसके सक्रिय जीवन जीने की इच्छा का आत्मीय वर्णन किया है-
“बकरी लाती
बकरी के बच्चों को
लेती गोद में
रह जाते पिछे तो टेर लगाती
पर स्वर है भारी
मानो सब कुछ बिखर गया हो.’’
दुख उसका सगा सखा है. फिर भी वह हँसती रहती है और किसी से कुछ नहीं कहती. इस प्रकार रचनाकार ने कस्तूरी के कर्मठ चरित्र का रूपायन करके सामाजिक रूढ़ियों और साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध किया है. विजेन्द्र का यह चरित्र आज और अधिक प्रासंगिक लग रहा है. अनपढ़ कस्तूरी की स्वाधीन चेतना पढ़ी-लिखी हादिया की चेतना से मेल खाती है. कवि कस्तूरी को काली कोइल कहता है. मतलब यह है कि काली कोयल का कंठ मीठा होता है. उसे सुनना सब पसन्द करते हैं. इसी प्रकार कस्तूरी का चरित्र भी पाठक को प्रिय लगता है, क्योंकि वह स्वाधीन चेतना वाली कर्मठ नारी है.
गंगोली से मिलता-जुलता चरित्र है तस्वीरन का, जो अब बड़ी हो चली है. दीन-दुनिया की बातें समझती है. मुसलमान परिवार की यह सयानी लड़की फूल चुनकर मालाएँ बनाती है. उन्हें बेचती है. इससे उसके परिवार का भरण-पोषण होता है. उसके बूढे अब्बा बाग रखाते हैं. उनकी कमर झुक गई है. उसकी माँ को फालिज मार गई है. उसकी मेहनत से घर चलता है. समझदार तस्वीरन आत्मालाप करती हुई हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की ओर संकेत करती है. उसे बुरा लगता है कि लोग उसके परिवार पर शक करते हैं. उसके अहमद भैया को कटुआ कहते हैं. उसके अब्बा से बेगार कराते हैं. उसका बेचैन मन पूछता है-
“कहाँ जाएँ
यह मुलक हमारा भी है”
इस प्रकार रचनाकार इस चरित्र के माध्यम से भारत में फैले हुए साम्प्रदायिक कट्टरपन एवं उत्पीड़न की आलोचना करके धर्म निरपेक्षता के जीवन-मूल्य की स्थापना की है, जो भारत जैसे बहुधर्मी राष्ट्र के लिए जरूरी है. दुर्भाग्य से यह आजकल खतरे में पड़ा हुआ है. भारत के राजनैतिक दल कट्टरपन को बढ़ावा दे रहे हैं.. यह देश के लिए बहुत हानिकार है. आजकल भारतीय समाज में कट्टरपन बढ़ रहा है. दोनों संप्रदायों का. स्मरणीय है कि कट्टरपन के कारण ही भारत के दो टुकड़े हुए थे. आजादी के बाद कट्टरपन ने अल्पसंख्यक समुदायिक के मन में असुरक्षा की भावना बढ़ाई है, जो अब और अधिक गहरी हो गई है. इससे देश की एकता को खतरा पैदा हो गया है. अब जरूरी है कि इस कट्टरपन का रचनात्मक विरोध लगातार किया जाए. विजेन्द्र ने ऐसा ही किया है.
विजेंद्र के चरित्र कठपुतली नहीं हैं वे अपने अनुभव से सीखते हैं. और उसके अनुसार अपना जीवन यापन करते हैं. धरती कामधेनु से ज्यादा प्यारी शीर्षक कविता के केन्द्र में लादू नमक गड़रिया है. उसकी भेड़ें ओले बरसने के कारण मर जाती हैं. ईश्वर पर से उसका विश्वास डिग जाता है. परन्तु चारों ओर खड़े पेड़ देखकर अपने बल पर भरोसा महसूस होता है. वह पेड़ों को धरती का सगा पूत समझता है. इस प्रकार वह जीवन के प्रति अपनी आस्था भी व्यक्त करता है और आशा भरे स्वर में कहता है-
“मुझे भरोसा अब भी भारी
फिर होंगी भेड़ें
गल्ल बनेंगे
रेवड़ ठाड़ी
देख रहा जब से जनमा
इस मरूथल की महिमा न्यारी.
हम जीते हैं
बिना जिलाए और किसी के
बनी रही
यह धरती
कामधेनु से ज्यादा प्यारी.”
रचनाकार ने लादू के चरित्र के माध्यम से पौराणिक कामधेनु को धरती घोषित करके अपनी लोक चेतना का विस्तार किया है. वस्तुतः धरती ही कामधेनु है,
जो हर मनुष्य और प्राणी की कामनाओं की पूर्ति करती है.
चुरू शहर में गधागाड़ी को मिनिस्टर गाड़ी कहा जाता है. ऐसी गाड़ी चलाने वाले व्यक्ति की लड़की का नाम मागो है. वह बकरियाँ चराया करती है. विजेन्द्र उससे बातें करते हैं. अपनापन बढ़ाते हैं और वह अनपढ़ बालिका मरू प्रदेश की अनेक वनस्पतियों का ज्ञान कराती है. इस चरित्र के माध्यम से यह आशय व्यक्त किया गया है कि हम शिक्षित जन जिन अशिक्षित गँवार समझते हैं, उनसे भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है. इस कविता में मागो के संवादों में स्थानीय बोली के शब्दों का रचनात्मक प्रयोग स्वाभाविक रूप से किया गया है.
धरमपुर निवासी अल्लादी लुहार है. एक आँख धचक जाने और हाथ-पाँव में कज होने पर भी वह अपना काम धीरज से करता है. लोगों को जीवन का पाठ पढ़ाता है. स्वाभिमानी है. उसका कर्मठ जीवन पाठक को श्रम करने को पे्ररित करता है. इसी प्रकार साबिर का घोड़ा शीर्षक कविता का साबिर भी अपनी मेहनत से धन कमाकर नया तागा खरीद लेता है. अपने सिकन्दर नामक घोड़े का पूरा ध्यान रखता है. स्वयं भूखा रह जाता है, परन्तु उसे भूखा नहीं रखता है. इसके विपरीत उसका सौतेला बाप उससे कटा-कटा रहता है और उसकी माँ नूरी भी. स्वाभिमानी साबिर लौहसारी में काम पर लग जाता है. परन्तु उसका अकेलापन उसे उदास कर देता है. कवि ने अपने हिय आँख से उसका मन पढ़कर उसकी मनोव्यथा की ओर संकेत किया है. अपने चरित्र के मानसिक द्वन्द्व का निरूपण करने की कला विजेन्द्र ने नाटककार शेक्सपियर से सीखी है.
मुर्दा सीनेवाला शीर्षक कविता के केन्द्र में उपस्थापित अनाम व्यक्ति का चरित्र पहली बार हिन्दी कविता में आया है. यह व्यक्ति पोस्टमार्टम के बाद लाशें सिलने का काम करता है. शराब पीना उसके लिए अनिवार्य है. उसकी पत्नी उससे झगड़ती है. यह चरित्र अपने अनुभव से वर्तमान व्यवस्था के दोष समझ लेता है. और कहता है-
“हुआ होगा आजाद मुलक
मुर्दों की कमी नहीं पिछले चालीस वर्ष से
देख रहा हूँ
बढ़ा बहुत है लावारिस लाशों का नम्बर
कटे-फटे तेज धार से
गुमसुम चोटों से भरकर
लुटी इज्जतें जिनकी
ऐसी निरी औरतें….
लेकिन तनखा बित्त-बित्त बढ़ती है.”
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि मुर्दा सीनेवाले की दिली हमदर्दी लुटी इज्जतों वाली औरतों के प्रति है. परन्तु वह अपनी घरवाली पर गालियों की बौछार भी करता है. यह चरित्र विजेन्द्र की संवेदनशीलता और तटस्थ सम्बद्धता का अच्छा सबूत है. उन्होंने अपने इस पात्र को आगरा के अस्पताल के सामने लाश सिलते हुए देखा था. आमतौर से ऐसे दृश्यों पर आज के कवियों की दृष्टि कम ही जाती है.
अध बौराया आम शीर्षक कविता के केन्द्र में रूपायित बूढ़े बाबा रामदयाल उर्फ रमद्दिला का चरित्र है. वह धरमपुर का निवासी है. अपने कथनों से जमींदारी व्यवस्था की हकीकत बताता है और साथ ही साथ गाँव के दलितों की निर्भीकता की ओर संकेत भी करता है. आजादी के बाद धनवानों का नया वर्ग सामने आया. ठाकुर पिछड़ गए. जिन जमींदार ठाकुरों का जूता गाँव और आनगाँव में पुजता था, उन्हें अब कोई भी धेले को नहीं गठानता है. कालचक्र ने परिवर्तन उपस्थित कर दिया. जमीदारी व्यवस्था के समाप्त होने पर ठाकुरों की सामन्ती ठसक भी समाप्त हो गई. रचनाकार ने बड़े ही तटस्थ भाव से समय और समाज की समीक्षा की है. लोक विश्वास के अनुसार अध बौराया आम असगुन समझा जाता है. परन्तु परिवर्तन ने उसे सगुन के रूप में बदल दिया.
बाबा आया शीर्षक कविता में ऐसे ढ़ोंगी तान्त्रिक बाबा का चरित्र है, जो अपने चमत्कारों से शिक्षित मध्यवर्ग को प्रभावित करता है. परन्तु मन ही मन अपना अपराध भी स्वीकार करता है. आजकल हमारे समाज में ऐसे ढोंगी और पाखण्डी बाबाओं का वर्चस्व अधिक है. ऐसे बाबा राजसत्ता से अपना सम्बन्ध जोड़कर मनमाने सुख भोगा करते हैं. और अपना प्रताप बढ़ाया करते हैं. आजकल हमारे समाज में अनेक शिक्षित मध्यवर्गीय लोग ऐसे पाखण्ड़ी बाबाओं के प्रति गहरी आस्था रखते हैं. इसका कारण उनका वह अपराधबोध है, जो उनकी बेईमानी से जुड़ा हुआ है. दूसरी ओर दीन-दुखी भी इन बाबाओं के चमत्कारों के झासे आ जाते हैं. उनके भक्त बन जाते हैं. परन्तु जागरूक होने पर वे उनके पाखण्डी चरित्र की पोल भी खोल देते हैं. गम्भीरता से विचार करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि लाभ-लोभ वाली वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के कारण ही ढोगियों का धार्मिक कारोबार चलता रहता है. विजेन्द्र ने इस रचना द्वारा इसी वास्तविकता की ओर संकेत किया है.
लोकधर्मी कवि होने के नाते विजेन्द्र यह मानते हैं कि आज कविता का प्रयोजन सर्वोपरि शिवेतरक्षतये है. अर्थात् हमारे वर्तमान समाज में जो कुछ भी जन विरोधी दुराचरण हो रहा है, उसका विरोध जागरूक रचनाकार को करना चाहिए. अतः विजेन्द्र अपने आस-पास के साधारण जनों से एकात्म होकर उनके जीवन के सुख-दुख वर्णित करके प्रतिरोध की ओर भी संकेत करते हैं. नत्थी नामक कविता में उन्होंने नत्थी माली के वायलनवादन की निपुणता की प्रशंसा की है. वह उसके संगीत अनुराग से अत्यधिक प्रभावित होते हैं और जिजीविषा से भी.
कवि ने संकेत किया है कि धन के अभाव में अनेक साधारण जनों की छिपी प्रतिभाओं का ठीक-ठीक विकास नहीं हो पाता है. लोक कल्याणकारी राज्य में हर व्यक्ति को ऐसे अवसर मिल सकते हैं. परन्तु हमारे वर्तमान समाज में ऐसा नहीं हो रहा है. कवि तेली की अँधेरी गली की मोड़ पर रहनेवाली नूरजहाँ के अभावों की ओर संकेत करते हुए बताता है कि आर्थिक अभाव धार्मिक आस्था को भी कमजोर करते हैं. नारी पात्र नूरजहाँ का नाम विडम्बनापूर्ण है. नाम तो है नूरजहाँ लेकिन उसके घर में नूर नहीं है. यह नाम इतिहास प्रसिद्ध नूरजहाँ की ओर संकेत कर रहा है, जिसका जीवन बादशाही शानशौकत में बीता था. तेलिन नूरजहाँ के दुख से भिन्न मिस मालती का चरित्र है जो निम्न वर्ग से नफरत करती है. उसमें अपने वर्ग का दम्भ है. कवि ने उसके दम्भ की आलोचना करते हुए ईमानदार और संवेदशील बैनी बाबू की प्रशंसा की है, क्योंकि इस भ्रष्ट व्यवस्था में भी उनके जैसे ईमानदार व्यक्ति भी हैं, जो चपरासी के पद से उन्नत होकर कलैक्ट्रेट में डिस्पैच लिपिक के पद पर काम करते हैं. कवि को यह आभास अनायास होता है कि
“जो लगता ऊपर-ऊपर से बंजर है
नीचे टोहो
तो वसुन्धरा उर्वर है.’’
मिस उर्मिल का मध्यवर्गीय चरित्र मिस मालती के समान है. इस चरित्र के माध्यम से अनेक सामाजिक विसंगतियाँ उजागर की गईं हैं. इस वर्ग के लोग निम्न वर्ग से घिरणा करते हैं. मिस उर्मिल के घर में डिनर पार्टी होती है. बड़े-बड़े लोग उसमें आते हैं. लेकिन बगल की खपरैल में हरदेई का घसीटा चबेने के लिए बेजार होता रहता है. सफाईकर्मी मीना का चरित्र मध्यवर्गीय कुलीन व्यक्ति के छिपे मनोभाव का निरूपण करती है कवि ने मन ही मन चलनेवाले एकालाप के द्वारा सामन्ती संसकारों की ईमानदारी अभिव्यक्ति की है.
अपनी मानवीय सहानुभूति के बल से विजेन्द्र ने कालाहाँडी से जयपुर आई हुई रूक्मिनी नामक विस्थापित नारी को निकट से देखा. उससे संवाद किया और उसकी भूख से जन्मी हुई व्यथा अंकित करके जीवन की त्रासद वास्तविकता इस प्रकार उजागर की है-
“धरा है धधकता अंगारा कहीं मन में
नहीं देखता कोई उसे
छूकर
देख, तू देख
मरते बिलखते बच्चे
भूख से
दम तोड़ते कठिन रोगों से
देख बिलकुल सामने अपने
छीनकर खाता बाप बच्चे से
स्वयं जीने को
कहाँ है नेह माता का
कहाँ है बाप की ममता
जान ले भाई
बनते-बगड़ते भूख से भी हैं.”
यह कवितांश तुलसी की याद दिला रहा है, जिन्होंने लिखा है कि पेट के लिए लोग बेटा-बेटी बेचते हैं. पेट की आग बहुत भयंकर होती है. विजेन्द्र की कविता के केन्द्र में पेट की भंयकर आग विद्यमान है. उनका अग्निपुरूष नाटक भूख का ही कलात्मक आख्यान है.
आजकल हमारे देश के किसान बहुत बड़े संकट से गुजर रहे हैं. भूमण्डलीकरण के दौर में उनकी खेती-बाड़ी पिछड़ गई है. विजेन्द्र ने करिया अहिरवार शीर्षक लम्बी कविता के केन्द्र में बुन्देलखण्ड के विस्थापित किसान का चरित्र अंकित किया है, जो दर-दर भटकता हुआ जयपुर पहुँचता है. वहाँ कविता के वाचक कवि से उसका सम्पर्क होता है. दोनों के संवाद से उसकी मनोदशा उजागर होती है. और वह क्रुद्ध होकर वर्तमान व्यवस्था को कोसने लगता है और यह कहता है-
“अभी भरा नहीं है घड़ा पाप का
सोचते सब हैं
डरते हैं
सहते हैं
इन्तजार में
समय कभी बदलेगा….नहीं
तो पैदा होगें हमसे ही नेता जनता के
जो बदलेंगे हुकूमत बगावत से.”
विजेन्द्र ने बाँदा के कर्मयोगी कवि केदारनाथ अग्रवाल का स्मरण करते हुए लिखा है कि हड्डी से लोहे की टक्कर होनेवाली है. उल्लेखनीय है कि हड्डी और लोहे पदों का प्रयोग केदार बाबू ने ही किया है. हड्डी का सम्बन्ध मेहनतकश आदमी से हैं और लोहे का मजबूत व्यवस्था से. कविता में संकेत है कि परिवर्तन लाने के लिए किसानों की अखिल भारतीय जरूरी है. मजदूर संगठनों के साथ किसान एकजुट होकर आन्दोलन करें तो परिवर्तन हो सकता है.
इस प्रकार प्रतिरोध की भावना मुखर है, जो लोग भूले नहीं हैं शीर्षक कविता में भी व्यक्त हुई है. इस कविता के केन्द्र में ठेला लगानेवाला कानसिंह नामक झुझारूं व्यक्ति है. कवि ने उसकी चारित्रिक विशेषताएँ तटस्थ भाव से वर्णित की हैं. उसके बारे में लोग क्या कहते हैं, उनका भी ठीक-ठीक विश्लेषण किया है. कानसिंह भू-स्वामी कर्नल की जमीन आधबटाई पर जोतता है. परन्तु उसका का शोषक रूप देखकर घोषणा कर देता है कि जो जोते धरती उसकी. इस बात पर दोनों पक्षों में संघर्ष होता है. और जीत कानसिंह के संगठित साथियों की होती है.
लोकोन्मुखी सार्थक कविता अपने पाठकों की संवेदना का संस्कार करती है. वह उनका रूपान्तरण भी करती है. लेकिन समाज का रूपान्तरण जनोन्मुखी राजनीति ही करती है. इतिहास इसका साक्षी है. विजेन्द्र की कविता राजनीति-सापेक्ष है. इसलिए उन्होंने अपनी लम्बी कविताओं में वर्तमान पूँजीवादी लोकतंत्र की प्रखर आलोचना की है. उनका कहना है कि हमारे लोकतंत्र का लोहा तप रहा है. अब उसे स्पात में ढलना है. स्पात लोहे की उच्चतम अवस्था है. इसी प्रकार पूँजीवाद की तुलना में समाजवाद उच्चत्तर व्यवस्था है. भारत के कोटि-कोटि भूखे-नंगे लोगों की समस्याओं का समाधान समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है. ऐसी व्यवस्था के लिए समाज में संघर्ष हमेशा चलता रहेगा. आवश्यकता इस बात की है कि उत्पादक वर्गों अर्थात् किसानों और मजदूरों को एक जुट किया जाए. उनमें वर्गीय चेतना जगाई जाए. तभी वे संगठित होकर वर्तमान व्यवस्था बदल सकते हैं. जरूरी नहीं है कि इसके लिए खूनी क्रांति की जाए. जागरूक जन अपने वोटों से आज के दशानन को परास्त कर सकते हैं. और समतामूलक समाज की रचना की ओर बढ़ सकते हैं.
वर्तमान समय में राजनीति का अपराधीकरण हो गया है और अपराध राजनीतीकरण. यह बहुत बड़ा संकट है. विजेन्द्र की सुराज शीर्षक कविता गाँधी के सुराज का स्मरण कराती है. विजेन्द्र की यह खूबी है कि वे लम्बी कविता में जीवन का द्वन्द्वात्मक रूप वर्णित करते हैं. इस कविता के केन्द्र में बाबूखाँ नामक अपराधी राजनेता है. वह अपनी गुण्डई से समाज को आतंकित करता रहता है. कवि ने इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करने के लिए जो विकल्प सोचा है, उसके अनुसार सुराज का सपना देखनेवाले समाज के कुछ समझदार युवक एक राजनैतिक दल का गठन करते हैं. उसे मान्यता दिलवाते हैं. उनके रास्ते में अडचने भी खड़ी होती हैं. लेकिन अन्ततोगत्वा देश की दलित-शोषित जनता सुराज का सपना राजनैतिक दल को विजेता बनाती है. दुष्ट बाबूखाँ चुनाव हार जाता है. उसके कारनामे जनता के सामने उजागर हो जाते हैं. इस प्रकार कविता में दिखाया गया है कि इस संघर्ष में उन लोगांे की जीत होती है, जो रात-दिन श्रम करके निर्माण करते हैं. स्थापत्य की दृष्टि से यह कविता आदि से अन्त तक सुगठित है.
इसमें राष्ट्रपिता गाँधी के रामराज का सपना देखा गया है. रामराज के लिए जरूरी है कि समाज में विषमता के स्थान पर समता की स्थापना हो और पर्यावरण मानव के अनुकूल हो. तुलसी ने ऐसे ही रामराज कि परिकल्पना की है. आजकल हमारे समाज में राम भक्ति का शोर चारों ओर गूँज रहा है. सवाल खड़ा होता है कि हमारे राजनेता मर्यादा पुरूषोत्तम राम के समान लोक का रंजन करनेवाले हैं या नहीं. राम ने तो लोकाराधन के लिए अपनी पत्नी सीता का भी परित्याग कर दिया था. हमारे राजनेता लोक के लिए क्या त्याग कर रहे हैं. जब तक हमारे राजनैतिक और समाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों का समावेश नहीं होता है, तब तक हमारे लोकतान्त्रिक समाज में बुराइयाँ दूर नहीं होगीं. यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार यह जरूरी है कि हमारे नेताओं और अधिकारियों की नीयत सावधान हो. वे अपने संकुचित स्वार्थ से ऊपर उठकर लोकहित के कार्य करें
विजेन्द्र ने अपनी कविताओं में निम्न वर्ग के साधारण जनों को नायकत्व प्रदान करके समकालीन हिन्दी कविता को ठीक दिशा की ओर अग्रसर किया है. उनकी यह लोकचेतना निराला, केदार बाबू, नागार्जुन, त्रिलोचन, मानबहादुर सिंह आदि जैसे लोकधर्मी कवियों के निकट है. समकालीन हिन्दी कविता बोलचाल की भाषा में लिखी जा रही है. फिर भी वह कम सार्थक प्रतीत होती है. इसके कई कारण हैं. केन्द्र में जीवन्त पात्र की उपस्थिति और मूर्त आलंबन न होने के कारण कविता पाठक को बाँध नहीं पाती है. वह गद्यात्मक होने के कारण पाठक को उबाऊ लगती है. विजेन्द्र की लम्बी कविताएँ ऐसे दोषों से मुक्त हैं. यही कारण है कि अन्य कवियों की लम्बी कविताओं की तुलना में उनकी कविताएँ अधिक प्रभावपूर्ण लगती हैं. उदाहरण के लिए वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की लम्बी कविता बाघ उल्लेखनीय है. इस कविता के केन्द्र में बाघ तो है. लेकिन उसका सघन प्रभाव पाठक के चित्त पर अंकित नहीं हो पाता है. यह पहेली अधिक है कविता कम. केदारनाथ सिंह की एक अन्य लम्बी कविता है सन् 47 को याद करते हुए. इसके केन्द्र में मुख्य पात्र नूरमियाँ हैं. कवि ने उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया है. इससे कविता आधी-अधूरी लगती है. इसके विपरीत विजेन्द्र अपनी कविताओं में अपने पात्रों को बोलने का पूरा मौका देते हैं. उनकी चरित्र प्रधान लम्बी कविताएँ प्रतिरोध का स्वर मुखर करती हैं. अज्ञेय की असाध्य वीणा के समान महामौन का राग नहीं अलापती हैं.
लम्बी कविताओं के सन्दर्भ में मुक्तिबोध की रचनाशीलता अग्रगण्य है. उन्होंने अपनी लम्बी कविताओं को विशिष्टता प्रदान की है. फैंटेसी के शिल्प में रचित मुक्तिबोध की लम्बी कविताएँ सहज संप्रेषणीय नहीं हैं. उन्हें समझने के लिए विद्वानों को भी व्यायाम करना पड़ता है और कविताओं का भाष्य भी. इससे आम पाठक कविता के मर्म तक मुश्किल से पहुँच पाता है. इसका कारण यह है कि मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं में श्रमशील वर्ग के प्रतिनिधि चरित्रों के जीवन प्रसंगों और उसके परिवेश की अनुपस्थिति है. उनकी कविताओं में अकेले नायक का आत्मसंघर्ष और अंतर्द्वंद्व अधिक है. उनका प्रतीक विधान बोधगम्य नहीं है. इसके विपरीत विजेन्द्र की लम्बी कविताओं में रूपायित चरित्र पाठकों को अपनी ओर खींच लेते हैं. वे उनके माध्यम से अपने देशकाल की वास्तविकता समझने लगते हैं और वर्तमान व्यवस्था को बदलने का विचार भी उसके मानस में आन्दोलित होने लगते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि मुक्तिबोध की दुरूह लम्बी कविताएँ न समझनेवाले पाठक विजेन्द्र की लम्बी कविताएँ पढ़कर परितोष का अनुभव करते हैं. वस्तुतः विजेन्द्र ने वर्णनात्मक और सवादात्मक शैलियों प्रयोग करके हिन्दी कविता की जातीय परम्परा को आगे बढ़ाया है. उन्होंने निराला के मुक्त छंद का निर्वाह निपुणता से किया है. अन्य समकालीन कवियों में यह निर्वाह बहुत कम लक्षित होता है. ध्यान देने योग्य बात यह है कि आज की कविता छंदों का बन्धन त्याग चुकी है. यदि वह लय का अनुशासन भी छोड़ती है तो वह अपने को उस लोक से नहीं जोड़ पाएगी, जिसके लिए वह रची जाती है. अतः जरूरी है कि परम्परागत छंदों का लयात्मक सावधानी से किया जाए. इसके लिए अपनी परम्परा का ठीक-ठीक ज्ञान अनिवार्य है.
विजेन्द्र की लम्बी कविताओं का वास्तुशिल्प सुगठित है. और भाषा सहज संप्रेषणीय. उनमें लोक का आलोक है, जो युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करता है और आगे भी करता रहेगा.
(पेंटिग विजेन्द्र के हैं)
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अमीर चन्द वैश्य
द्वारा कम्प्यूटर क्लीनिक, चूना मण्डी, बदायूँ, 243601
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