भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित वरिष्ठ कथाकार संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ पर राजीव रंजन गिरि का यह आलोचनात्मक आलेख उक्त उपन्यास के सभी पक्षों की गंभीर विवेचन करता है. भिखारी ठाकुर के देश – काल से संजीव के समकाल की यात्रा को समेटने में उपन्यास कहाँ चूक गया है, इस पर भी विचार किया गया है. राजीव रंजन की आलोचनात्मक दृष्टी और साहस को उम्मीद की तरह देखा जाना चाहिए.
हीरा भोजपुरी का हेराया बाज़ार में
राजीव रंजन गिरि
१.
संजीव अपने समय के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं. उन्होंने ‘पूत-पूत-पूत-पूत’, ‘अपराध’, ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’, ‘लिटरेचर’, ‘आरोहण’, ‘ट्रैफिक जाम’ और ‘खोज’ जैसी कई लोकप्रिय एवं चर्चित कहानियाँ लिखी हैं. इसके साथ ही संजीव ने ‘किशनगढ़ के अहेरी’, ‘सर्कस’, ‘सावधान! नीचे आग है’, ‘धार’, ‘पाँव तले की दूब’, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’, और ‘सूत्रधार’ उपन्यास भी लिखे हैं. आखिर उनकी कथा में ऐसा क्या है, जो उन्हें उनके समकालीन कथाकारों से अलग करता है? साथ ही उन्हें बतौर महत्त्वपूर्ण कथाकार स्थापित करता है?
संजीव अपनी प्रत्येक रचना के लिए शोध करते हैं. भाषा के स्तर पर और कथ्य के स्तर पर भी. श्रम-साध्य शोध को, अपनी दृष्टि से, कथा में पिरोते हैं. गझिन बनाते हैं. संजीव जहाँ की कथा कहते हैं, मानो वहीं बस जाते हैं. कथा पढक़र पाठक वहाँ की बोली-बानी और भूगोल को भी समझ सकता है. इन सबके साथ, संजीव की वैचारिक दृष्टि भी स्पष्ट दिखती है. संजीव ने जिन मुद्दों पर लिखा है, उसी से उनकी एक अलग पहचान बनती है. उनकी रचनाएँ कलात्मकता के साथ ही उनकी पक्षधरता भी रेखांकित करती हैं. संजीव कथा के लिए जिस विषय का चुनाव करते हैं, उस पर महानगरों के ड्राइंगरूम में बैठकर नहीं लिखा जा सकता. अगर कोई लिखता है तो उस विषय के प्रति ईमानदारी नहीं बरतता. वह रचना विश्वसनीय भी नहीं होती है. अन्तत: कमजोर रचना सिद्ध होती है.
‘सावधान! नीचे आग है’, ‘धार’, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’, या फिर ‘सूत्रधार’ में संजीव ने जिन विषयों पर लिखा है; उन पर लिखने के लिए उन इलाकों में भटकने का साहस भी किया है उन्होंने. तथ्यों को प्राप्त कर, उनके रचनात्मक उपयोग की बेहतर क्षमता भी है उनमें. अपनी किस्सागोई व कलात्मकता के सहारे संजीव, उन विषयों पर, लिखने का जोखिम उठाते हैं.
२.
संजीव का उपन्यास ‘सूत्रधार’ भोजपुरी भाषा के लोक-कलाकार भिखारी ठाकुर
के जीवन पर आधारित है. इस आलेख का दो भाग हैं. पहले हिस्से में बजरिये ‘सूत्रधार’ कथाकार संजीव अपने कथा-नायक भिखारी ठाकुर के जीवन और उस जमाने को, जिस रूप में दिखाना चाहते हैं, उसे जाहिर किया गया है. यह हिस्सा संजीव के पक्ष की व्याख्या है. दूसरे हिस्से में, संजीव के देखन और दिखावन का विश्लेषण करते हुए, उसमें निहित समस्याओं की तरफ इशारा किया गया है; ताकि कथाकार के पक्ष की जाँच-पड़ताल हो सके.
भिखारी ठाकुर का जन्म बिहार के तत्कालीन सारन (अब छपरा) जिला के एक पिछड़े गाँव कुतुबपुर में हुआ था. उनके जन्म की तिथि को लेकर पर्याप्त मतभेद हैं. फिर भी कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 18 दिसम्बर, 1887 को हुआ था. वे चौरासी साल जीवित रहे. उनका निधन 10 जुलाई, 1971 को हुआ. भिखारी ठाकुर द्वारा रचे एवं मंच पर प्रदर्शित किए नाटक ‘बिदेसिया’, ‘गबर-घिचोर’, ‘बेटी-वियोग’ (कई लोग इसे ‘बेटी-बेचवा’ नाम देते हैं.) ‘भाई-विरोध’, ‘विधवा-विलाप’, ‘कलुयग-प्रेम’ एवं ‘नाई-बहार’ भोजपुरी भाषियों के बीच काफी लोकप्रिय रहे हैं. उनकी लोकप्रियता एवं नाटकों को परखते हुए, जगदीशचन्द्र माथुर ने उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ और राहुल सांकृत्यायन ने ‘अनगढ़ हीरा’ कहा था.
अपने प्रारंभिक उपन्यासों से ही संजीव भारतीय समाज की समस्याओं पर बारीक नजर रखते आए हैं. कहना न होगा कि संजीव की अन्तर्दृष्टि उन्हें बारीकी प्रदान करती है. उनके उपन्यास ‘सूत्रधार’ को कुछ लोगों ने ‘आंचलिक उपन्यास’ की संज्ञा दी है; क्योंकि यह उपन्यास भोजपुरी भाषी लोगों की संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं परम्परा को रेखांकित करता है. इस उपन्यास में भोजपुरी भाषी क्षेत्र की मिट्टी की महक है. लेकिन क्या इसकी वजह से सूत्रधार को ‘आंचलिक’ कहा जा सकता है? जवाब होगा, नहीं; क्योंकि आंचलिक उपन्यास में अंचल नायक होता है. कोई व्यक्ति-विशेष नायक नहीं होता. हिन्दी का श्रेष्ठ उपन्यास ‘मैला आँचल’, जो आंचलिक भी है; इसका बेहतरीन उदाहरण है. ‘सूत्रधार’ में भोजपुरी क्षेत्र मुख्य चरित्र नहीं है, बल्कि भोजपुरी भाषा के लोक-कलाकार भिखारी ठाकुर नायक हैं. भिखारी ठाकुर के बहाने ही उपर्युक्त तत्त्वों का समावेश किया गया है. सवाल उठता है कि संजीव बगैर भोजपुरी इलाके की संस्कृति, बोली, टोन के इस उपन्यास को लिखने में कितना सफल होते? इस सवाल पर मतभेद हो सकता है.
दरअसल, संजीव भिखारी ठाकुर को ‘भिखरिया, भिखारी, भिखारी ठाकुर, मल्लिक जी एवं राय बहादुर भिखारी ठाकुर’ तक चित्रित करना चाहते थे. अत: यह आवश्यक था कि भिखारी ठाकुर के चरित्र के विकास को विश्वसनीय बनाने के लिए, वे ऐसा प्रयोग करते. यूँ उपन्यास की रचना के लिए यह जोखिम भरा काम है. संजीव के लिए तो और भी. संजीव की अपनी बोली (मातृभाषा) अवधी है. भोजपुरी के एक कथा नायक को, ठेठ उसी की भाषा में, चित्रित करने के लिए जिन तत्त्वों की जरूरत है, उसको हासिल कर रचनात्मक उपयोग करने में लेखक का श्रम काफी बढ़ गया होगा. छपरा की स्थानीय बोली-बानी, रीति-रिवाज़, गाली, मुहावरे, परिवेश एवं खास टोन के समन्वय से रचित ‘सूत्रधार’ ज्यादा विश्वसनीय लगता है.
३.
भिखारी ठाकुर ने अपने रचनात्मक जीवन की शुरुआत भोजपुरी से की थी. अन्तिम दौर तक भोजपुरी का ही उपयोग किया. अलबत्ता भिखारी ठाकुर बाद में, हिन्दी का थोड़ा प्रयोग करने लगे थे. लेखक ने उपन्यास में इसे चित्रित भी किया है. लेकिन भिखारी ठाकुर खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग नहीं करते, या कर पाते हैं. उनकी हिन्दी वही है, जो एक आम भोजपुरी भाषी बोलता है. जो अपनी बोली को व्याकरण की कसौटी पर नहीं कसता. भोजपुरी युक्त हिन्दी. यह भाषा की जीवन्तता एवं लचीलेपन का सुन्दर नतीजा है. भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में ‘स्थानीयता’ की अस्मिता खतरे में है. भूमंडलीकरण के नाम पर सिर्फ ‘पूँजी का भूमंडलीकरण’ हो रहा है. इसी क्रम में अँग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है. भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, अवधी जैसी भाषा की कौन कहे, अब तो हिन्दी जैसी भाषा पर संकट के बादल छाये हैं. हिन्दी अब हिंगरेज़ी बनती जा रही है. सूचना-तन्त्र के विभिन्न माध्यमों के जरिये ऐसा हो रहा है. भोजपुरी तो भारतीय भाषाओं के बीच भी उपेक्षित रही है. ऐसे समय में ‘सूत्रधार’ की भाषा, सकारात्मक सन्देश देती है. आज जैसा व्यवहार अँगरेजी हिन्दी के साथ कर रही है, वैसा ही शोषणमूलक व्यवहार खड़ी बोली हिन्दी ने अपनी अन्य बोलियों (भाषा) के साथ किया है. ‘सूत्रधार’ ने प्रकारान्तर से भोजपुरी की अस्मिता को रेखांकित एवं स्थापित किया है.
‘सूत्रधार’ का प्रारम्भ भिखारी ठाकुर के जन्म से होता है. ‘सूत्रधार’ भोजपुरी इलाके की जनता के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय कलाकार भिखारी ठाकुर के जीवन को केन्द्र में रखकर लिखा गया उपन्यास है. इस प्रकार, यह एक ‘जीवनीपरक उपन्यास’ है.
भिखारी ठाकुर जैसे व्यक्तित्व को केन्द्र बनाकर उपन्यास लिखने में और भी कठिनाई है. वजह, उनकी प्रामाणिक जीवनी का अभाव. वे जीते जी ‘लीजेंड’ बन गये थे. जाहिर है, जनता ने अपने प्रिय कलाकार के बारे में खुद मिथ गढ़ लिया है. भिखारी ठाकुर के बारे में लोग भाँति-भाँति की बातें बताते हैं. जितने लोग, उतनी तरह की बातें. इन पंक्तियों के लेखक का घर भोजपुरी भाषी इलाके में है. अत: अपने गाँव के बड़े-बुजुर्गों से, भिखारी ठाकुर के बारे में, तरह-तरह की बातें सुनने को मिलती हैं. लोगों से उनके बारे में, उनकी लोकप्रियता के बारे में सुनकर अचरज होता है. ऐसे में लेखक ने, मिथ बन गये भिखारी ठाकुर के जीवन को, ‘सूत्रधार’ में जो गति एवं आकार प्रदान किया है, वह बेहतर किस्सागोई एवं वैचारिक दृष्टि का नमूना है.
जीवनीपरक उपन्यास लिखने के लिए जरूरी होता है, उपन्यास के नायक के देश-काल को पकडऩा. देश-काल की अच्छी समझ के बगैर जीवनीपरक या ऐतिहासिक उपन्यास लिखा नहीं जा सकता. यह भी सच है कि प्रत्येक रचनाकार तत्कालीन परिवेश को परखते हुए, अपनी समझ व दृष्टि के मुताबिक, तत्कालीन देश-काल यानी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की रचना करता है. वर्तमान के बोध और भविष्य के स्वप्न से भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को गढऩे में मदद मिलती है. लेकिन कभी-कभी वर्तमान, तत्कालीन देश-काल पर, हावी हो जाता है, तो कभी भावी स्वप्न से आक्रान्त होने के कारण भी विगत ठीक-ठीक समझ में नहीं आता; ऐसे में सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की रचना नहीं हो पाती है. सही देश-काल को गढऩे के लिए ज्ञान के दूसरे अनुशासनों में हुए शोध व अध्ययन की जानकारी भी निहायत जरूरी होती है.
इतिहास के जिस दौर को, रचनाकार अपनी रचना में चित्रित करता है, उस देश-काल का सही चित्रण करने के लिए तत्कालीन समाज, संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज़, राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज में मौजूद तरह-तरह के अन्तर्विरोध, तनाव और जटिलताओं की व्यापक समझ के बगैर सम्भव नहीं है. इसीलिए ज्ञान के दूसरे अनुशासनों से सहायता लेनी पड़ती है. काबिलेगौर बात है कि देश-काल की रचना कै मरामैन द्वारा ली गयी तस्वीर जैसी नहीं होती, क्योंकि तत्कालीन परिवेश सामने नहीं होता है. यह चित्रकार द्वारा बनाया चित्र होता है जिसे बनाने में चित्रकार तरह-तरह के रंगों को अपनी कल्पना एवं प्रतिभा द्वारा भरता है. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व के विकास-क्रम को दिखाने के लिए, जिस परिवेश व देश-काल का निर्माण किया है, ज्यादातर विश्वसनीय है. भिखारी ठाकुर के बहाने समाज की जटिलता को, इस उपन्यास के जरिये, समझा जा सकता है.
४.
शिवकली देवी एवं दलसिंगार ठाकुर के पुत्र का नाम भिखारी ही क्यों पड़ा? इससे तत्कालीन सामाजिक संरचना के सत्तामूलक पहलू को समझा जा सकता है. नाम का भी समाजशास्त्र होता है. ‘‘नाम….? नाम पड़ा भिखारी. यूँ तो कितने अच्छे-अच्छे नाम हैं, लेकिन वे बड़ी जात वालों को शोभते हैं, फिर नाम पर कौन सिर खपाता.’’ (सूत्रधार, पृष्ठ-16 राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण) भिखारी ठाकुर का जन्म जिस परिवार में हुआ था, वह तथाकथित निम्न जाति (नाई जाति) में आता था. यह परिवार आर्थिक रू प से भी कमज़ोर था. आर्थिक एवं सामाजिक दंश झेल रहे इस परिवार को इतनी फुर्सत कहाँ कि नवजात बेटे के नामकरण के लिए सिर खपाये. इस तबके के लिए नाम तो महज बुलाने-पहचानने का जरिया है. यह तबका सामाजिक एवं आर्थिक रूप से इतना सबल नहीं है कि ‘नामकरण संस्कार’ कराये. आर्थिक दुर्बलता के कारण ‘नामकरण संस्कार’ के नाम पर पैसे खर्च नहीं कर सकता. सामाजिक रूढिय़ों के कारण सुन्दर नाम नहीं रख सकता. भिखारी जब स्कूल पढऩे जाते हैं तो (तथाकथित) बड़ी जाति के लडक़े चौंक जाते हैं.
‘‘ई के ह-अ रे?’’
‘‘नउवा!’’
‘‘नउवा…? इ हो पढ़ेगा? पढ़-लिख के तें का करेगा रे?’’
‘‘नौवा कौवा, बार बनौवा!’’ और तरह-तरह की अश्लील टिप्पणियाँ!
‘‘हजामत के बनायी?’’
‘‘नहरनी ले ले बाड़े रे, तनी नह काट दे.’’ (पृष्ठ-17)
ये पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि भिखारी की प्राथमिक पहचान एक व्यक्ति मात्र के रूप में नहीं, बल्कि एक ‘नउवा’ (जाति विशेष) के रूप में है. व्यक्ति की पहचान उसके कर्म से नहीं, अपितु जन्म से है. समाज द्वारा पूर्व निर्धारित जाति से है. तथाकथित बड़ी जाति के भिखारी के ही उम्र के भोले (!) बच्चों के मन में ये बातें इसी उम्र से भर गयी हैं. भिखारी के पढऩे से उन्हें आपत्ति क्यों है? पढक़र भिखारी शायद प्रदत्त पहचान को ठुकरा दे. अपनी नयी पहचान बनाये. समाज द्वारा पूर्व निर्धारित कर्मों को त्यागकर अपनी प्रतिभा एवं इच्छानुसार कार्य करे. तभी तो वे कहते हैं, ‘‘हजामत के बनायी?’’
भिखारी जिस समाज से आते हैं, उसका काम हजामत बनाना, न्योतना, टहलुअई करना है. स्कूल के विद्यार्थी ही नहीं गुरुजी भी इसी मानसिकता से ग्रस्त हैं. गुरुजी को लगता है, मुफ्त का ‘टहलुआ’ मिल गया. वे ‘टीपने’ के लिए बाँह या टाँग पसार देते हैं. यही वह समय है, जब भिखारी का सरोकार परिवार से आगे समाज के अन्य लोगों से होता है. इस सरोकार से क्या सीख मिलती है, भिखारी को? भिखारी स्कूल जाना नहीं चाहते हैं. स्कूल छोड़ देते हैं. भिखारी एक दोस्त घुलटेन से कहते हैं, ‘‘नान्ह जाति के अलग से पाठशाला होखे के चाहीं.’’ इस पर घुलटेन दुसाध का जवाब है, ‘‘ओकरा में पंडीजी ना, नान्हे जात के मास्टर.’’ भिखारी के बचपन की इन घटनाओं के बाद दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्म-कथा ‘जूठन’ एवं जयनन्दन का उपन्यास ‘ऐसी नगरिया में केहि बिधि रहना’ का एक प्रसंग अनायास ही याद आता है. ओमप्रकाश वाल्मीकि से स्कूल के मास्टरजी पूरे स्कूल की सफाई कराते हैं, शेष लडक़ों को पढ़ाते हैं. जयनन्दन के उपन्यास के मास्टरजी (?), डोम जाति के अपने एक शिष्य के साथ, अप्राकृतिक यौनाचार तक करते हैं.
स्कूल छोडऩे के बाद भिखारी ठाकुर दियारे में गाय चराने जाते हैं. गाय चराने में भिखारी को आनन्द आता है. आखिर यह आनन्द क्यों आता है? दियारे में स्वतन्त्रता है. किसी की ‘टहलुअई’ नहीं करनी पड़ती है. अपने मन का करना है. कोई दबाव नहीं है. दियारे में गुंटी, चीका, कबड्डी, गुल्ली-डंडा खेलते हैं, दोस्तों के साथ. नाच-तमाशे, दुनिया-जहान की बातें आपस में करते हैं. भिखारी का विवाह हो गया है लेकिन ‘मेहरारू’ क्या होती है; इसका बोध नहीं. दियारे में ही भिखारी के कलाकार का जन्म होता है. खपटा बजाकर गीत शुरू करता है–
‘‘हम तऽ नइहर के बानी रसीली
कि लोगवा पागल कहेला ना ….’’
‘‘खटर-खटर खपड़ा बोलता, ‘खुदर-खुदर’ चुरती हाँड़ी की खीर. रस में आकर कोई गमछे का घूँघट बनाकर ठुमके लगाने लगता. एक गीत खतम होता तो दूसरा गीत छिड़ जाता. एक नाच खतम होता तो दूसरा. एक-एक गीत को कई-कई तरह से गाया जाता. अक्सर किसी-किसी की एक ही कड़ी याद रहती – एक दिन अइह-अ कान्हा, नदिया किनारे मोरा गाँव, नदिया किनारे की घन बँसवारिया…’’ (पृष्ठ 19)
स्कूल में जाति को लेकर अपमानित होने के बाद भिखारी ठाकुर को एक ‘यज्ञ’ में दुबारा अपमानित होना पड़ता है. एक ब्राह्मण को भिखारी की जाति का पता नहीं था. गौर वर्ण, सुन्दर व्यक्तित्व देखकर पुरोहितजी (!) भिखारी को ब्राह्मण का लडक़ा समझ गये थे. उनका आदेश पाकर भिखारी अल्पना बनाने लगे. थोड़ी देर में
एक दूसरे पुरोहित आये. ‘‘आते ही उसने पूछा– ई के ह-अ?’’
आवाज में इतनी घृणा थी कि भिखारी के हाथ-पाँव ठंडे हो गये, कलेजा काँपने लगा.
‘‘काहे का बात है?’’ पहले पंडीजी ने पूछा.
‘‘आपको ब्राह्मण नहीं भेटाया जो नाई के लडक़े से जग्गशाला भरस्ट करवा रहे हैं?’’
‘‘ई नाऊ है?’’
‘‘तब का! ….’’
‘‘वो बच्चा दूसरा काम देखो. एक बात सुन लो, जात मत छिपाना, पाप लगेगा.’’ भिखारी के हाथ-पाँव सुन्न. जैसे कोई चूक हो गयी हो. (पृष्ठ-22)
इसके बाद पुरोहितजी ने गंगा जल का छिडक़ाव कर मन्त्र से शुद्ध किया. जिस ‘यज्ञ’ में श्रम के सभी काम तथाकथित निम्न जाति के लोग कर रहे हों, उनके छूने से यज्ञशाला भरस्ट हो जाता है, भिखारी का भोला मन इसे समझ नहीं पा रहा था. गंगाजल नाई या कहार ढोकर ले आये थे, लकड़ी लोहार फाड़ रहा था. दूध-दही अहीर के घर से आया होगा, कलशा-परई कुम्हार दे गया होगा, दोना-पत्तल नट और डोम दे गये होंगे. आम का पल्लव मल्लाह दे गया था. बावजूद इसके यज्ञशाला भरस्ट. आश्चर्य तो यह है कि जिस गंगाजल को नाई या कहार लाया था, उसी से यज्ञशाला शुद्ध किया जा रहा था. यह है हिन्दू-समाज का अन्तर्विरोध.
मराठी के एक दलित कवि शरण कुमार लिम्बाले की कविता हिन्दू समाज का यह पाखंड रेखांकित करती है–
‘‘मस्जिद से अजान की आवाज आयी
सब मुसलमान मस्जिद में चले गये.
गिरजे की घंटियाँ बजीं
सब ईसाई गिरजे में चले गये.
मन्दिर से घंटे की आवाज़ आयी.
आधे लोग मन्दिर में चले गये,
आधे बाहर ही रहे.’’
हिन्दू धर्म के इस शोषणमूलक चरित्र को समझने के लिए अँगरेज़ी शासन के सांस्कृतिक तर्क को परखा जा सकता है. अँगरेज़ी शासक अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जिस तर्क का सहारा लेते थे, वैसा तर्क प्रत्येक वर्चस्ववादी सत्ता गढ़ती है. अँगरेज़ अपने स्वार्थ को स्वीकार नहीं करते थे. उनके अनुसार, वे भारत को लूटने-खसोटने के लिए, अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए यहाँ शासन नहीं कर रहे थे; अपितु यहाँ के लोगों को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से बेहतर बनाने के लिए, कर रहे थे. चूँकि वे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिए यह ईश्वर का आदेश है कि सबको बेहतर बनाने का जिम्मा लें. विचारणीय है कि आधुनिक युग में जिन तर्कों के जरिये अँग्रेज़ी सत्ता ने पूरी दुनिया को गुलाम बनाया; सदियों पूर्व अपने समाज के कुछ लोगों को गुलाम बनाने के लिए हिन्दू समाज ने भी उन्हीं तर्कों का उपयोग किया था. तभी तो उस यज्ञ में प्रवचन करने काशी से आये रामायणी बाबा कह रहे थे– ‘‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी! सभी प्राणी उसी ईश्वर के अंश हैं; वही जो बड़ा या वृहद् करता है – ब्री, हनताद इति ब्रह्मं! तब भी भेद और प्रभेद है. तब भाई लोग, बूझिए कि फरक कहाँ पड़ा. ई छोट बड़ कैसे भईल भाई! तो सुनिए छोट-बड़ हम और आप नहीं बनाए. ऊपर से ही बन के आया है– करई करावई भंजई सोई – ओही परमात्मा के छोट-बड़ बनावल है, हम-आप के हैं? इसमें झूठ तनिको नहीं है. बेद ब्रह्माजी के मुँह से निकला है, गीता विष्णु भगवान के साक्षात् अवतार कृष्णजी के मुख से निकली है और गोसाईंजी का रामायण पर स्वयं शंकर भगवान का दस्तखत है. ब्रह्म के तीनों महा अंश ब्रह्मा, विष्णु, महेश के बाद और कोई साखी-गवाही चाहीं?’’ (पृष्ठ 22) काशी से आये रामायणी बाबा (! ) सबसे बड़े झूठ को कैसे विश्वास के साथ आम जनता में प्रचारित कर रहे हैं?
इतिहास के उसी दौर में हिन्दू धर्म के बाह्याडम्बर, कुरीतियों, पाखंड एवं झूठ को मिटाने के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ की रचना की थी. इस पुस्तक में, उन्होंने रामायणी बाबा जैसे लोगों के झूठ का पर्दा फाश किया था. यह ठीक है कि दयानन्द के तार्किक दृष्टिकोण की भी सीमाएँ हैं. बावजूद इसके वे कई भ्रमों को ठीक से समझते थे. प्रवचन के जरिये प्रचारित किया जा रहा है कि ‘छोट-बड़’ ईश्वर ने ही बनाया है. मैकियावेली ने ठीक कहा था कि शासक वर्ग को अपनी सत्ता कायम रखने के लिए सुनियोजित भ्रम का प्रचार करना चाहिए. जाति-प्रथा, ऊँच-नीच को ईश्वर प्रदत्त बताना, सुनियोजित भ्रम ही तो है.
भिखारी ठाकुर जाति-प्रथा के दंश को झेलते हैं. उसके शोषणमूलक चरित्र को समझते हैं. उन्हें शोषण का बोध है. एक बार जब उनकी मुलाकात एक सूरदास से होती है. वे सूरदास के गीत की तारीफ करते हैं. सूरदास के पूछने पर कि ‘‘के ह-अ भाई?’’
जवाब देते हैं – ‘‘महाराजजी हम हईं-भिखारी, कुतुबपुर दीयर, जिला, सारन के नाई.’’
भिखारी ठाकुर को ‘बेगारी’ का बोध है. ‘नान्ह जात’ पर हो रहे अत्याचार की समझ है. यहाँ जाति का दंश झेल रहे कलाकार भिखारी ठाकुर की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है. हमारा समाज कला से आनन्दित होता है लेकिन कलाकार को महत्त्व नहीं देता. सामन्ती समाज में ऐसा होता है. वही व्यक्ति जो ‘नाच’ में शाबासी देता है, बाद में ताना मारता है. कलाकार के महत्त्व, उसकी मनोदशा, पीड़ा को नहीं समझता है. भिखारी की पीड़ा है कि ‘‘तो क्या यँू ही टहलुअई करते बीत जाएगी पूरी उमर? मन में अजीब-सी खलल है. इस फन्दे से छुटकारा पाये बिना गति नहीं. असहनीय पीड़ा, जैसे अंडे से कोई चूजा निकल आने की जद्दोजहद में हो.’’ (पृष्ठ 47) यही ‘सूत्रधार’ का केन्द्रीय तत्त्व है. भिखारी के जीवन एवं रचनात्मक संघर्ष की वजह भी यही है.
भिखारी ‘टहलुअई’ करते जीवन बिताना नहीं चाहते हैं. उन्हें यह बोध है कि इस फन्दे से छुटकारा पाये बिना गति नहीं. असहनीय पीड़ा भी होती है. कलाकार भिखारी बनने के लिए यह पीड़ा प्रेरित करती है. आखिर कैसे छूटे टहलुअई? अब ‘कलाकार’ भिखारी के जीवन की शुरुआत होती है. भिखारी के दोस्त रामानन्द सिंह, जो भाई-जैसा स्नेह देते हैं, ‘रामलीला’ की भूमिका के बँटवारे को लेकर चिन्तित हैं. रामलीला में राम की भूमिका ‘नान्ह’ जाति के लडक़े नहीं कर सक ते. ‘‘बबनवा, रामनवला, धनी और शिवहरखा-चार नाम आये. इनमें एक कोइरी, एक कुर्मी, एक दुसाध और एक राजपूत. नान्ह जातियों के लडक़ों को रामानन्द सिंह ने एक स्वर में खारिज कर दिया.’’ (पृष्ठ 50) यह है उस समाज की सच्चाई, जहाँ कलाकार भिखारी का उदय होता है. जबकि रामानन्द सिंह बाकी ‘बबुआन’ से उदार हैं. तब भी उनकी मानसिक स्थिति ऐसी है. आखिर जिस समाज में रामानन्द सिंह जैसे लोगों की मानसिक बुनावट ऐसी बनती है; उस समाज की, शेष बबुआन की, सामाजिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है.
रामलीला के बाद भिखारी ठाकुर नाच शुरू करते हैं. वे तत्कालीन नाच मंडलियों से इत्तफाक नहीं रखते हैं. वे अलग किसिम की नाच मंडली शुरू करना चाहते हैं. यहाँ भिखारी की नाच मंडली के उद्देश्य का पता चलता है.
‘‘हम दूसरे ढंग की नाच चाहते हैं जिसमें रस-रंग तो हो लेकिन मरजाद न टूटे.’’
‘‘ऐसा कैसे होगा कि नाचो भी और घुँघटा भी बना रहे?’’ (पृष्ठ-62)
भिखारी अपने नाच को ‘तमाशा’ कहते हैं. अपने नये तमाशे के लिए खुद रचनाएँ करते हैं. नाच शुरू करने पर गाँव के लोग ताना मारते हैं. पिता भी नाराज होते हैं. दलसिंगार ठाकुर अपनी ‘मरजाद’ के भय से नाच का विरोध करते हैं. समाज में इन कलाकारों को क ई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है. स्वयं भिखारी तीन स्तरों पर आजीवन संघर्ष करते रहे. जीने के लिए आर्थिक परेशानी के स्तर पर, कला के स्तर पर; तथा तीसरा, सामाजिक समानता के स्तर पर. भिखारी की कला दलसिंगार ठाकुर को पसन्द नहीं है. वजह स्पष्ट है, समाज में इन कलाकारों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है. दलसिंगार ठाकुर भिखारी को ‘बिगड़ा’ मानते हैं और अपनी पत्नी को कोसते हैं– ‘‘अभी तो हम बोल रहे हैं, कल पूरा समाज बोलेगा, लडक़ा-लडक़ी का बियाह-शादी रुक जाएगा, तब पता चलेगा.’’
‘‘जब कोई पूछेगा कि लडक़ी का बाप का करता है तो हम का क हेंगे कि नचनिया है?’’ (पृष्ठ-63)
भिखारी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करते हैं. संघर्ष का जरिया है कला. लेकिन यहाँ तो कला की ही प्रतिष्ठा नहीं थी. कला की प्रतिष्ठा स्थापित करने की कोशिश में भिखारी नयी नाच मंडली बनाते हैं. नाच में होने वाली कहानियों के बरअक्स सामाजिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर नयी-नयी कथा रचते हैं.
गाँव में जाति-व्यवस्था के पायदान पर चाहे कोई कहीं हो, अगर वह नाच में चला गया तो उसका एक अलग पायदान, सबसे नीचे, माना जाता था. ‘‘नचनियों, बजनियों और अछूतों की अलग पाँत बैठती थी. पहले बाभनों की पाँत बैठी दुआर पर, फिर साफ-सफाई छिडक़ाव के बाद राजपूतों की, उसके बाद दूसरी जातियों की. इसी के साथ मूल पाँत से काफी दूर हट-हटाकर पशुओं की सार के बदबू देते कीचड़ के बगल नचनियों, बजनियों, अछूतों की पाँत बैठाई होगी.’’ (पृष्ठ 121) समाज में जो स्थान तथाकथित अछूतों का था, वही स्थान इन कलाकारों का भी था.
संजीव के भिखारी ठाकुर अपनी ‘जाति-अस्मिता’ को लेकर चिन्तित हैं. भिखारी के ‘तमाशा’ की लोकप्रियता काफी बढ़ गयी. लोग ‘बेटी-वियोग’ को ‘बेटी-बेचवा’ और ‘बहरा-बहार’ को ‘बिदेसिया’ नाम से जानने लगे. ‘तमाशे’ से आगे बढक़र यह किस्सा बन गया, फिर ‘गाथा’. ‘बिदेसिया’ एक शैली बन गयी. भिखारी का ‘बेटी-वियोग’ देखकर अनेक लड़कियों ने बूढ़े दूल्हे से शादी करने से इनकार करना शुरू किया. उस समाज में भिखारी के गीत ‘‘अगुआ के पूत मरे, बभना के पोथी जरे’’ लोकप्रिय हुए. पैसा लेकर पिता की उम्र के दूल्हे से बेटी की शादी करने वाले बड़े (!) लोगों को इससे विरोध था. कई जगह काफी परेशानी हुई, नाच-मंडली को. यहीं भिखारी प्रदत्त परम्परा से टकराते हैं.
यह देखना वाजिब होगा कि नवजागरण के उस दौर में भिखारी ठाकुर जैसे व्यक्ति जो अँगरेज़ी शिक्षा के प्रभाव से पूरी तरह वंचित हैं, उनका महत्त्व क्या है? साथ ही, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से वंचित, इस लोक कलाकार की सीमाएँ क्या थीं? भिखारी ठाकुर का उद्देश्य नवजागरण लाना सीधे तौर पर भले ही न रहा हो, लेकिन उनकी रचनाओं एवं नाच में, जिन सवालों का जिक्र है, वे नवजागरण से जुड़ते हैं. छुआछूत का सवाल, स्त्रियों की पराधीनता का सवाल— नवजागरण के केन्द्र में रहे हैं.
महेन्द्र मिसिर, फेकू सिंह से मिलने पर जो चर्चा होती है, वह भिखारी को अपनी अस्मिता के प्रति सचेत करती है. भिखारी को ‘‘अचरज हुआ, यहाँ किसी ने भी ‘बेटी-वियोग’ या ‘बहरा-बहार’ की चर्चा न की. बात राजों, रजवाड़ों, काँग्रेस और ऊँची जाति के नामी वीर पुरुषों तक महदूद रही. इस गौरवशाली परम्परा में खुद को कहीं से भी जोड़ नहीं पा रहे थे भिखारी. उनके मन में बार-बार एक सवाल उठ रहा था, ‘‘इनमें नाई कहाँ है, नाई की बात तो दूर- दूसरी नान्ह जाति के लोग ही कहाँ हैं?’’ (पृष्ठ 127) यह है संजीव रचित भिखारी की चिन्ता. यह महज भिखारी की चिन्ता नहीं, बल्कि हाशिये के लोगों के पूरे समूह की चिन्ता है.
भिखारी लोकप्रिय होते हैं. बाद में सम्मान भी पाते हैं लेकिन उनके गाँव के लोग उन्हें बार-बार ‘टहलुआ’ होने का अहसास कराते हैं. नान्ह जात का बोध कराते हैं. यही वजह है कि वे कथित बड़े लोगों को केन्द्र बनाकर कुछ नहीं लिखते. अन्तत: भिखारी की यश-प्रतिष्ठा उन्हें ‘टहलुअई’ से मुक्ति दिलाती है. भिखारी अपनी प्रतिभा के बल पर, प्रदत्त परम्परा को अस्वीकार कर, अपनी कला को स्थापित करते हैं. आज भिखारी ठाकुर पर भोजपुरी भाषी जनता को विशेष रूप से गर्व है. उसी भिखारी को कितनी पीड़ा पहुँचायी गाँव-समाज के लोगों ने, ‘सूत्रधार’ इसका साक्ष्य है. उन्नीसवीं सदी के भारतीय गाँवों में व्याप्त व्यभिचार, भेद-भाव, आन्तरिक-उपनिवेश एवं शोषणमूलक व्यवस्था का दस्तावेज़ है – ‘सूत्रधार’. ‘सूत्रधार’ में न सिर्फ भिखरिया से रायबहादुर भिखारी ठाकुर के जीवन-संघर्ष को समझा जा सकता है, अपितु तत्कालीन भारतीय गाँवों की जटिलताओं को भी देखा-परखा जा सकता है.
यह है संजीव के भिखारी ठाकुर का पक्ष वाया ‘सूत्रधार’. ‘सूत्रधार’ संजीव का सृजन है, लिहाजा ‘सूत्रधार’ में चित्रित भिखारी ठाकुर संजीव की अन्तर्दृष्टि और कलात्मकता के परिणाम हैं.
६.
सूत्रधार की समस्याएँ
संजीव ने भिखारी ठाकुर के इस ‘जीवनीपरक उपन्यास’ के बहाने, जीवनीपरक उपन्यास के बारे में जो धारणा जाहिर की है, वह एक कसौटी है ‘सूत्रधार’ के मूल्यांकन की. संजीव ने बताया है एक जीवनी लिखना जीवनीपरक उपन्यास लिखने की तुलना में सरल होता है क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख कर छुट्टी पाया जा सकता है. जबकि जीवनीपरक उपन्यास में औपन्यासिक प्रवाह बनाते हुए मुहाने तक पहुँचाना ही पड़ता है, यहाँ द्वन्द्व और दुविधा की कोई गुँजाइश नहीं है. दो, उपन्यास लेखन भी जीवनीपरक उपन्यास लेखन की अपेक्षा सरल होता है, क्योंकि यहाँ भी तथ्यों से बँधकर नहीं रहना पड़ता.
‘सूत्रधार’ के खास सन्दर्भ में संजीव ने जो बताया है, उस पर आने से पहले संजीव की उपरोक्त दोनों धारणाओं
की बाबत कहना जरूरी है कि; अव्वल तो यह है कि ‘जीवनी में परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख कर छुट्टी नहीं पाया जाता. जो जीवनीकार ऐसा करता है, उसकी कृति दोयम दर्जे का जीवनी-साहित्य साबित होती है. ऐसी कृतियाँ श्रेष्ठ जीवनियों के तौर पर शुमार नहीं होंती. कहना न होगा कि जीवनीकार को भी अपने जीवनी-नायक की जीवनी रचने के वास्ते एक परिप्रेक्ष्य निर्मित करना होता है और उसी परिप्रेक्ष्य में अपने नायक के चरित्र का विकास दिखाना होता है. यह भी दिखाना होता है कि उस खास परिप्रेक्ष्य में जीवनी नायक का चरित्रगत विकास सकारात्मक है या ह्रासात्मक. उल्लेखनीय यह भी है कि जिस जीवनी में ‘परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख कर छुट्टी’ पा लिया गया होता है, वह कृति जीवनी का तथ्य व स्रोत-संग्रह मात्र होती है, जीवनी-साहित्य नहीं. अमृत राय लिखित प्रेमचन्द की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ उत्कृष्ट जीवनी-साहित्य का प्रमाण है; जबकि प्रेमचन्द के जीवन से सम्बन्धित परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख करने वाले मदन गोपाल की कृति ‘कलम का मजदूर’ वह दर्जा नहीं पाती, जो ‘कलम का सिपाही’ को हासिल है.
संजीव का यह नजरिया भी सच्चाई से कोसों दूर है कि जीवनीपरक उपन्यास में ‘औपन्यासिक प्रवाह’ बनाते हुए किसी मुहाने तक पहुँचना ही पड़ता है, यहाँ द्वन्द्व और दुविधा की कोई गुँजाइश नहीं होती; जबकि जीवनी में ऐसा नहीं है. असलियत तो यह है कि जीवनी में भी रचनाकार को किसी मुहाने तक पहुँचना ही पड़ता है. बगैर किसी मुहाने तक पहुँचे, कोई भी कृति न तो तार्किक परिणति पा सकती है और न ही कलात्मक परिणति. हाँ, भले ही जीवन में ‘औपन्यासिक’ प्रवाह न हो पर ‘प्रवाह’ तो वहाँ भी रचना होता है. रही बात द्वन्द्व और दुविधा की –संजीव के मुताबिक जीवनीपरक उपन्यास में जिसकी कोई गुंजाइश नहीं होती–तो कहना होगा कि द्वन्द्व और दुविधा कमजोरी नहीं अपितु चुनौती होती है. द्वन्द्व और दुविधा कृ ति की श्रेष्ठता का एक पक्ष भी होती है. देखना होता है कि कृतिकार ने द्वन्द्व और दुविधा कितनी रचनात्मकता के साथ, कृ ति में रचाया-बसाया है.
७.
बकौल संजीव, उपन्यास-लेखन भी जीवनीपरक उपन्यास लेखन की अपेक्षा सरल होता है, क्योंकि यहाँ भी तथ्यों से बँधकर नहीं रहना पड़ता. अव्वल तो यह है कि उपन्यास में, जीवनीपरक उपन्यास के नायक के जीवन से सम्बद्ध ऐतिहासिक तथ्य भले नहीं होता, परन्तु यहाँ भी उस उपन्यास का अपना तथ्य तो होता ही है. भले ही इस तथ्य की रचना उपन्यासकार अपने विवेक, दृष्टिकोण और कला-कौशल के जरिये करता हो. उपन्यासकार इस ‘तथ्य’ को कलात्मकता की मार्फत विश्वसनीय और तार्किक दिखने लायक संरचना गढ़ता है. उपन्यास की संरचना और अन्तर्वस्तु दोनों मिलकर एक तथ्य ही निर्मित करते हैं, भले ही भिन्न प्रकार के; और गरचे वे ‘ऐतिहासिक तथ्य’ न होते हों.
इसलिए जोर देकर कहा जा रहा है कि संजीव की, जीवनी की बाबत धारणा, न तो तार्किक है और न वाजिब ही. बहरहाल, ‘सूत्रधार’ का मूल्यांकन करें तो कहना होगा कि भोजपुरी इलाके के सांस्कृतिक नायक भिखारी ठाकुर के जीवन के बारे में मौजूद तथ्य, किस्से और किंवदन्तियों के बारे में शोध कर, उपन्यासकार ने जो औपन्यासिक तथ्य सृजित किया है, वह खालिस संजीव का है. इस ‘तथ्य’ की रचना में संजीव का दृष्टिकोण हावी है, न कि भिखारी ठाकुर का जीवन. इस आलेख के पहले हिस्से में, अर्ज किया जा चुका है कि अतीत के किसी भी देश-काल की रचना फोटोग्राफर द्वारा ली गयी तस्वीर सरीखी नहीं होती, बल्कि यह चित्रकार द्वारा निर्मित चित्र जैसा होता है. इसलिए महत्त्वपूर्ण यह देखना होता है कि कलाकार ने चित्र बनाने के लिए किन-किन रंगों का सहारा लिया है. ‘सूत्रधार’ में भिखारी ठाकुर का जीवन रचने के लिए संजीव ने जो रंग भरा है, उस पर समकालीन अस्मितावादी विमर्श का गहरा असर दिखता है. लिहाजा यह कहना होगा कि ‘सूत्रधार’ के भिखारी ठाकुर का देश-काल बहुत हद तक विश्वसनीय होने के बावजूद इसके नायक, भिखारी ठाकुर, के चरित्र का विकास जिस दिशा में दिखाया गया है, वह संजीव की वैचारिक दृष्टि का परिणाम है. इसमें निहित संजीव का वैचारिक नजरिया पिछले दशकों में, विकसित दलित-पिछड़ी जातियों के आन्दोलन के आलोक में निर्मित हुआ है.
भोजपुरी भाषी इलाके के सांस्कृतिक, नवजागरण के अग्रदूत भिखारी ठाकुर की शख्सियत को संजीव ने दलित-पिछड़ी जातियों का प्रतीक-पुरुष बनाने की कोशिश की है. संजीव के इस कलात्मक प्रयास से ‘दलित-पिछड़ी राजनीति को एक मजबूत प्रतीक तो मिल गया परन्तु भिखारी ठाकुर का व्यापक दाय और उनकी बहुमुखी शख्सियत का दायरा सिमट गया.
इस लिहाज से, संजीव का सूत्रधार सफल भी है और असफल भी. सफल इस अर्थ में, कि जिस राजनीतिक इरादे और अस्मितापरक विमर्शों का ‘सूत्रधार’ संजीव ने रचा है, उससे दलित-पिछड़ी जाति-अस्मिता के लिए एक ‘सांस्कृतिक’ प्रतीक की सर्जनात्मक-औपन्यासिक निर्मिति सामने आयी है. प्रतीक-निर्माण के इस दौर में, अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय रहे पुरखों को कतर-ब्योंत कर, काट-छाँट कर, अपने-अपने वैचारिक नजरिये के उपयुक्त सृजित करने की परम्परा पल्लवित पुष्पित हो रही है. इस प्रक्रिया में पुरखों के देश-काल और चरित्र को, अपने वैचारिक-विमर्श के औचित्य के अनुकूल गढ़ा जा रहा है. जाहिर है इतिहास के उस दौर और पूर्वज के व्यक्तित्व का जो पहलू, ऐसे रचनाकारों के वैचारिक दृष्टिकोण के लिहाज से ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ और वर्तमान के अनुकूल नहीं होते, उसे या तो नजरअन्दाज किया जाता है अथवा ऐसे कील-काँटों को खराद कर, रुचिकर बनाने की हिकमत की जाती है. अलबत्ता संजीव एक मँजे हुए रचनाकार हैं, लिहाजा उनकी कलात्मकता ‘सूत्रधार’ को विश्वसनीय मनवाने की सफल कोशिश करती है. इस मायने में ‘सूत्रधार’ सफल कृति है.
यह उपन्यास असफल इस अर्थ में है कि एक ऐसा व्यक्ति, जिसने व्यक्तिगत संघर्ष के जरिये, अपनी कला को स्थापित किया, लोगों के बीच स्वीकृति पायी और परिणामस्वरूप उस जमाने में, भोजपुरी भाषियों का सांस्कृतिक अगुआ बना– उसकी शख्सियत को संजीव ने महदूद करने की रचनात्मक कोशिश की है. दरअसल, संजीव की अवधारणात्मक समझ – कि उपन्यास में द्वन्द्व और दुविधा की गुंजाइश नहीं होती – का नतीजा है कि इन्होंने भिखारी ठाकुर के बहुस्तरीय और बहुआयामी संघर्ष को एकस्तरीय और एकायामी बनाकर बेहद सँकरा कर दिया है. यह संजीव की तंगनजरी का प्रमाण है और परिणाम भी.
भिखारी ठाकुर के सर्जनात्मक संघर्ष का नतीजा है कि नाच शुरू करने से पहले जिन द्विज लोगों के नजर से वे महज ‘नाई’ हैं; नाच प्रतिष्ठित होने के बाद वे महज ‘नाई’ नहीं रहते. नाच यानी कला की स्वीकृति और प्रतिष्ठा के पश्चात भिखारी ठाकुर भी स्वीकृत होते हैं और प्रतिष्ठित भी. सोचने लायक बात है कि अपने सबल्टर्न स्वर की अभिव्यक्ति के साथ भिखारी ठाकुर ने अपनी कलात्मकता को विस्तारित किया था, उसका दर्शक क्या सिर्फ कथित पिछड़ी और दलित जमात के लोग थे. भिखारी ठाकुर के गाँव-जवार की अगर सभी द्विज आबादी, भिखारी और नाच दोनों के विरुद्ध ही होती तो; न तो द्विज जाति से आने वाले कलाकार उनकी मंडली में शामिल होते और न ही द्विज दर्शक मिलते. सवाल यह भी उठता है कि भिखारी ठाकुर के नाच की लोकप्रियता दूर-दराज के इलाके तक फै ली, तो क्या इसमें सिर्फ गैर द्विज स्वीकृति ही थी? अलबत्ता ध्यान देने लायक तथ्य यह भी है कि भिखारी ठाकुर के ‘नाच’ में जो गीत गाये जाते थे वे उनके दर्शकों के जरिये– क्योंकि कैसेट उद्योग का आविर्भाव नहीं हुआ था– मुँहा-मुँही प्रचारित-प्रसारित हो गये थे. भिखारी के ये गीत पर्याप्त लोकप्रिय भी हो गये थे. संजीव के ‘सूत्रधार’ में भी इसकी कुछ बानगी मिलती है. स्त्रियाँ शादी-विवाह के मौके पर ‘गाली गाते’ में, इन गीतों को भी गाती थीं. ‘बभना के पोथी जरे’ गीत सिर्फ गैर द्विज जाति तक सीमित नहीं थे. अलबत्ता ये द्विज जाति – (ब्राह्मण जाति में भी) – में भी गाये जाते थे. भिखारी के ऐसे गीत ब्राह्मण जाति की शादी में भी महिलाएँ गाती थीं, इससे जटिल प्रत्यय निर्मित होता है. संजीव के यहाँ ऐसी असुविधाजनक जटिलताएँ सिरे से गायब है. भिखारी की कला में जिन मूल्यों का विरोध था, उन मूल्यों में रचे-बसे लोग भी उनके दर्शक और श्रोता बन गये; रूपान्तरण की ऐसी तमाम जटिल प्रक्रिया संजीव के ‘सूत्रधार’ में अन सुलझी-अनखुली रह जाती है.
संजीव ने उस दौर के तनावों को बेहद सतह से समझा है. संजीव के ‘शोध’ की यह सीमा है और समस्या भी. दरअसल ‘शोध’ का मतलब महज तथ्यों को जमा करना नहीं होता. भिखारी ठाकुर ने जिस तरकीब से उस दौर के तनावों में अपना ‘नाच’ स्थापित किया था, उसमें एक अहम बात थी – भिखारी ठाकुर के नाच में अभिव्यक्त आवाज और उनके व्यक्तित्व की फाँक. उनके नाच में जिन समस्याओं को अभिव्यक्ति मिलती थी और इस अभिव्यक्ति में जो पक्ष लिये जाते थे, इसमें वे जिस तरीके से प्रतिपक्ष रचते थे; इसके रचयिता भिखारी का व्यवहार अपने विपक्ष के प्रति वैसा ही नहीं रहता था, जैसा ‘नाच’ के दरम्यान होता था. भिखारी की कला और उनके व्यक्तित्व की फ ाँक उनकी खूबसूरती है. इसे समझाने के लिए दूसरे शब्दों में कहें, भिखारी ठाकुर के नाच में अभिव्यक्त स्वर, ज्यादातर, पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान कर उसका अहसास कराने, प्रतिपक्ष रचने का सुन्दर रचनात्मक प्रयास था. व्यथा की कलात्मक अभिव्यक्ति एक बड़ी वजह थी कि दर्शक उसमें रस-विभोर होकर, इस तरह शामिल हो जाते थे कि खुद उस पीड़ा का पक्ष बन; उसके ‘अन्य’ का मजाक उड़ाने लगते थे. यह भिखारी की कला का अनोखापन था कि दर्शक सिर्फ आनन्द लेने वाले, मनोरंजन ग्रहण करने वाले नहीं रह जाते थे. यहीं दर्शक का व्यक्तित्वान्तरण होता था, भले ही अल्पकालीन. भिखारी का नाच दर्शक के चित्त, मानस और काल में अपनी जगह कायम करता था. यह खालिस भिखारी का अनूठापन था. संजीव अपनी सृजनात्मकता की परिधि में, इस अनूठापन को समेटने में असफल रहे हैं.
८.
प्रश्न उठता है, संजीव की असफलता की वजहें क्या हैं? संजीव-सरीखा दृष्टि सम्पन्न रचनाकार कैसे चूक गया है? संजीव ने भोजपुरी इलाके में घूम-घूमकर भिखारी ठाकुर के जीवन के बारे में ‘सारा लोहा’ जुटा लिया, परन्तु अपनी ‘धार’ देने, भिखारी ठाकुर के जीवन से इस उपन्यास में ‘सान’ चढ़ाने में, सफल क्यों नहीं हो पाये? भिखारी ठाकुर के जीवन पर संजीव ने कहानी नहीं लिखी है, उपन्यास रचा है; इसलिए यह तर्क भी नहीं दिया जा सकता कि कहानी के कलेवर में सारे आयाम गुम्फित नहीं हो पाये हैं. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में जो औपन्यासिक वितान खड़ा किया है, उसमें भिखारी ठाकुर के अनोखेपन के तमाम आयाम सहेजे जा सकते थे, जो ‘सूत्रधार’ में नहीं हो सका. इसके कारण क्या हैं? ‘सूत्रधार’ में अनुस्यूत प्रसंगों का जिक्र कर, इस कारण के बारे में नतीजा निकाला जाएगा. ये दोनों प्रसंग ‘सूत्रधार’, भिखारी ठाकुर के जीवनारम्भ से लिए जा रहे हैं; क्योंकि शुरुआती कोण विकास की दिशा का संकेत बखूबी दे देते हैं.
पहला प्रसंग है, बालक भिखारी का नामकरण. बकौल संजीव, ‘‘यूँ तो कितने अच्छे-अच्छे नाम हैं, लेकिन वे बड़ी जात वालों को शोभते हैं, फिर नाम पर कौन सिर खपाता.’’ संजीव ने यहाँ दो मुद्दा रचा है. एक, अच्छे-अच्छे नाम तो हैं, परन्तु वे बड़ी जाति वालों को शोभा देते हैं. दो, नामकरण पर सिर कौन खपाता? यहाँ कथाकार ने जिन दो पहलुओं को उभारा है, उसमें से पहला पहलू उपन्यास के विकास का दिशा-सूचक है. नाम की सामाजिकता के अनेक आयाम, इसमें गुम हो गये हैं. इस बाबत संजीव के पहले ‘तथ्य’ पर विश्वास क रें तो भिखारी ठाकुर के माता-पिता के नाम के साथ इस तथ्य और तर्क की संगति कै से बैठायी जाएगी? भिखारी के माता-पिता तो भिखारी से एक-पीढ़ी पहले के हैं; लिहाजा और पीछे के वक्त में, शिवकली देवी और दलसिंगार ठाकुर के नाम साबित करते हैं कि अच्छे नाम सिर्फ बड़ी जाति वालों को ही नहीं शोभते? दलसिंगार ठाकुर और शिवकली देवी, दोनों भिन्न-भिन्न परिवार में पैदा हुए थे और उस दौर के लिहाज से, दोनों के नाम, तथाकथित निम्न जाति में पैदा होने के बावजूद शोभा देते हैं. तो आगामी बीस-तीस साल में समाज आगे जाने के बजाय क्या पीछे चला गया? क्या जाति की कट्टरता लचीली होने के बजाय दृढ़ हो गयी, कि दलसिंगार ठाकुर-शिवकली देवी दम्पति को बच्चा का नाम भिखारी रखना पड़ा. दरअसल उस दौर के नामकरण की इतनी सरल और सपाट निर्मित संजीव ने ‘सूत्रधार’ में ‘धार’ देने के लिए की है, जो उस देश-काल की अधूरी समझ का परिणाम है अथवा समकालीन अस्मितापरक विमर्श के लिहाज से उस दौर में अनुकूल जमीन बनाने की कवायद.
इसमें कई दफे यह भी दिखता है कि ‘सिर खपाकर’ ही, शिशु के परिवार वाले, भिखारी-सरीखा नाम रखते हैं; इस नामकरण में कथित ऊँची और निम्न जाति की बंदिश और दीवार कम नहीं करती. ऐसे मामलों में, मान्यताएँ और लोक-विश्वास, द्विज-गैर द्विज, सवर्ण-अवर्ण सबको अपनी जद में रखते हैं.
इसीलिए इतिहास के उस दौर के जब भिखारी ठाकुर पैदा हुए थे, समाज की समझ रखने वाला कोई व्यक्ति संजीव की इस समझ से इत्तेफाक नहीं रख सकता.
दूसरा प्रसंग है, यज्ञ का. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में दिखाया है कि गाँव में एक यज्ञ हो रहा था. किशोर भिखारी के ‘गौर-वर्ण’, ‘सुन्दर व्यक्तित्व’ को देखकर पुरोहित ने इन्हें ब्राह्मण-पुत्र समझ लिया और यज्ञ के लिए अल्पना बनाने का आदेश दिया. अल्पना बनाने लगे भिखारी, तभी एक दूसरे पुरोहित का आगमन हुआ. इस पुरोहित ने भिखारी को अल्पना बनाते देख, इनके बारे में पूछा. बकौल संजीव, इस पुरोहित की ‘‘आवाज में इतनी घृणा थी कि भिखारी के हाथ-पाँव ठंडे हो गये, कलेजा काँपने लगा?’’ यह पुरोहित भिखारी को पहचानता था. जिस पंडित ने भिखारी को अल्पना बनाने के लिए कहा था, उससे कहा कि ‘आपको ब्राह्मण नहीं भेटाया, जो नाई के लडक़े से जग्गशाला भरस्ट करवा रहे है.’’ इसके बाद पुरोहित ने गंगा-जल से यज्ञशाला ‘शुद्ध’ करवाया.
यह प्रसंग, कथाकार संजीव के शोध और इस शोध से अर्जित ज्ञान दोनों पर, सवाल खड़ा करने के लिए प्रेरित करता है. अव्वल तो यह है कि नाई जाति ‘अछूत’ कभी नहीं रही. पूजा-पाठ, यज्ञ या कोई भी धार्मिक प्रयोजन हो, नाई हमेशा पुरोहित का सहयोगी रहा है. बगैर नाई के, कई विधान तो सम्पूर्ण नहीं माने जाते. नाई की मौजूदगी अनेक मौके पर, ब्राह्मण की तरह शुभ मानी जाती रही है. यज्ञ के दरम्यान पुरोहित मन्त्रोच्चारण करता है और उसके अनुरूप नाई यजमान से तमाम विधियों का पालन करवाता है.
काबिले गौर यह भी है कि यज्ञ-प्रयोजन या पूजा-विधान में निर्मित संरचना में ब्राह्मण के साथ नाई को, प्रदत्त पहचान के आधार पर ही, वैधता हासिल है. इस वैधता के कारण, यज्ञ में ब्राह्मण के साथ-साथ नाई की समान भागीदारी होती है और यज्ञ से प्राप्त दान-दक्षिण में हिस्सेदारी भी. अलबत्ता इस हिस्सेदारी में पुरोहित का अनुपात ज्यादा होता है और नाई का कम; पर शेयरिंग दोनों की होती है. यजमान के लिए तो पुरोहित और नाई, दोनों दक्षिणा ऐंठने वाले होते हैं. कथाकार संजीव ने नाई की भागीदारी और हिस्सेदारी दोनों को भुलाने के साथ-साथ, नाई को ‘अछूत’ तक बना दिया है.
असल में, संजीव की यह भूल नहीं है; सायास सृजन है. ऐसे ही औपन्यासिक तथ्यों की रचना संजीव ने ‘सूत्रधार’ में की है. इसका पता चलता है एक दूसरे प्रसंग से. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में एक स्कूल का चित्रण किया है, जहाँ शिक्षक और अन्य विद्यार्थी भिखारी को ‘टहलुआ’ समझते हैं. बालक भिखारी अपने दोस्त घुलटेन दुसाध से कहते हैं– ‘‘नान्ह जाति के अलग से पाठशाला होखे के चाहीं.’’ इस पर इनके दोस्त का जवाब है, ‘‘ओकरा में पंडीजी ना, नान्हे जाति के मास्टर.’’
‘सूत्रधार’ में संजीव ने यज्ञ वाले प्रसंग में जो सायास ‘ऐतिहासिक भूल’ की है, उसकी वजह यही है.
इस उपन्यास की मार्फत संजीव ने पिछड़ी और दलित जातियों को मिलाकर एक पहचान बनाने की कोशिश की है. यह पहचान है– नान्ह जाति. संजीव ने ‘नान्ह जाति’ की कैटेगरी को विस्तृत और मजबूत बनाने के लिए इसमें तथ्यात्मक कलाकारी की है. मजेदार यह है कि हिन्दू समाज में जिन जातियों के साथ छुआछूत बरतने का घिनौना चलन कायम था, उनके साथ संजीव ने नाई जाति को भी मिला दिया है. यह है, सूत्रधार की दिशा. इस नये गठबंधन के लिए संजीव ने एक भाषा के नायक– शख्सियत का चरित्र इस रूप में गढ़ा है कि वे महज ‘नान्ह’ जाति के प्रतीक पुरुष की मूर्ति में सिमट जाएँ.
‘सूत्रधार’ शीर्षक कई अर्थों को व्यंजित करता है. अनेक मायने समाहित हैं इस शब्द में. भिखारी ठाकुर के चरित्र को अगर सही दिशा में संजीव रचते तो वे तमाम अर्थ व्यंजित भी होते ‘सूत्रधार’ में. परन्तु यह विडम्बना है कि एक महत्वपूर्ण कथाकार ने सांस्कृतिक नवजागरण के एक देसी ‘सूत्रधार’ को सीमित बना दिया है. इसलिए कहना होगा कि अपने राजनीतिक एजेंडे में संजीव सफल हुए हैं, पर ‘सूत्रधार’ असफल हो गया है.
सूत्रधार के पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ में कथाकार संजीव ने भारतीय समाज की जटिलता को चित्रित करने की दिशा में कुछ कदम बढ़ाया था. यह कहने का आधार यह है कि इस उपन्यास से पहले संजीव ‘वर्ग-संघर्ष’ की अपनी समझ से परिचालित होते रहे हैं, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में उन्होंने वर्ग के साथ-साथ भारतीय समाज की सच्चाई, जाति के रिश्ते की जटिलता को चित्रित कर दो कदम आगे बढ़ाया था. कहना होगा कि ‘सूत्रधार’ में संजीव चार कदम पीछे चले गये. बावजूद इसके ‘सूत्रधार’ में संजीव की किस्सागोई उनके पूर्ववर्ती उपन्यास से आगे गयी है. यही उनका हासिल है. इस परिपक्व किस्सागोई के साथ संजीव ने भिखारी ठाकुर के चरित्र को इकहरा नहीं बनाया होता, उस दौर की जटिलताओं, तनावों, द्वन्द्व और दुविधा को भी इस उपन्यास में बुना होता तो ‘सूत्रधार’ हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों की श्रेणी में शुमार हो जाता.
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जे.एन,यू और दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर राजीव रंजन गिरि फिलहाल अंतिम जन पत्रिका का संपादन कर रहे हैं.कई संपादित पुस्तकें, पत्रिकाओं के संपादन का अनुभव है.
संविधान- सभा और भाषा- विमर्श, सामन्ती जमाने में भक्ति आन्दोलन, १८५७ : विरासत से ज़िरह, अथ – साहित्य : पाठ और प्रसंग आदि कृतियाँ प्रकाशित
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