\”मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे — धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता\”
हिंदी कविता में तिब्बत के बहाने बंदना झा ने निर्वासन की पीड़ा और संत्रास को पहचानने का कार्य अपने इस आलेख में किया है. उदय प्रकाश, अनामिका, विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी और तेनजिन त्सुंदे की कविताओं की मदद से वह निर्वासित में पठार की तरह पसरी उदासी और अजनबीपन तक पहुँचीं हैं.
साथ में कुछ कविताएँ भी दी गयीं हैं.
हिंदी कविता और तिब्बत : बंदना झा
1980 के दशक में ‘तिब्बत’ नामक कविता को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान किया गया. लेखक थे उदय प्रकाश. विस्थापन की पीड़ा का दंश पहली बार तिब्बती सन्दर्भ में दिखाई पड़ा. पूरी कविता अस्फूट है मन ही मन रोती हुई. एक ध्वनि है जो हवा में तारी है बेघर होने और बेवतनी होने का दर्द. सरल सी दिखने वाली कविता में कई सवाल है. बच्चा अपने पिता से सवाल करता है. प्रश्न-दर-प्रश्न पूछता जाता है –
गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं ‘पापा’?
दूसरा प्रश्न बच्चा करता है
“तिब्बत में बरसात जब होती है तब हम किस मौसम मे होते हैं ?”
तिब्बत की बरसात और यहाँ के मौसम के मध्य तारतम्यता की खोज वस्तुतः तिब्बत की खोज है. उस देश को समझना जिसे उसने देखा नहीं है लेकिन वह उसका है. बच्चा जहां है वहाँ अनुभूत कर लेना चाहता है तिब्बत के मौसम को, अपने नथुने मे भर लेना चाहता है बारिश की गंध को जो उसके देश में होती होगी. प्रश्नाकुलता लगातार बढ़ती जाती है साथ ही गहन भी होती जाती है. वह पूछता है तिब्बत में जब तीन बजते है. तब हम किस समय में होते है ? वह उस समय को जीना चाहता है जिसमें तिब्बत होता है. मौसम और समय के मध्य अपने देश तिब्बत की खोज वस्तुतः हर उस तिब्बती की खोज है जो निर्वासन का दंश झेलते हुए यहाँ-वहाँ भटक रहे हैं. शरणार्थी जीवन की पीड़ा एकबारगी घनीभूत हो उठती है जब बच्चा गेंदे के फूल देखकर पूछ बैठता है –
तिब्बत में गेंदे के फूल होते है क्या पापा ?
‘गेंदे का फूल’ एक प्रतीक है जिसका पीलापन उर्जा और रुग्णता दोनों का परिचायक बन जाता है. बच्चा पुनः प्रश्न कर बैठता है –
“लामा शंख बजाते हैं पापा” ?
शंख भारतीय प्रतीक है. शंख वह होगा जहा समुन्द्र है. तिब्बत में पठार है. शंख भारतीय प्रतीक है. हिन्दू उत्सव में, उद्घोष में, पूजा में शंख घोष करते है. भारत के हिन्दू परंपरा से बच्चा परिचित है बौद्ध जीवन में लामा के प्रति यह प्रश्न सांस्कृतिक सेतु का बन जाता है जहाँ बच्चा बस सहजता से जानना चाहता है क्या लामा शंख बजाते हैं पापा ? गेंदे के फूल से शुरू हुआ प्रश्न बरसात, मौसम, समय से होते हुए शंख पर आ जाता है. फिर, प्रश्न उठता है की लामाओं को कम्बल ओढ़कर अँधेरे में तेज़ – तेज़ चलते हुए देखा है कभी ? यहाँ प्रश्न और गहरा हो जाता है, कम्बल ओढ़कर अँधेरे में तेज़-तेज़ चलने की आवश्यकता क्यों है ?
निर्वासित जीवन जीते हुए मृत्यु को सार्वजनिक करना शायद ठीक नहीं. बचे हुए में से किसी का चला जाना अस्तित्व का खतरा भी है. सांस्कृतिक पहचान बचाए रखने की जद्दोजहद के मध्य किसी अपने का जाना तिब्बत के टुकड़े का जाना है. इसलिए वे मन्त्र नहीं पड़ते. कविता में कवि कहता है, वे फुसफुसाते है तिब्बत–तिब्बत. तिब्बत की आवृति तेरह बार कवि ने की है. रुदन में शब्द आवृति कई–कई बार होती है. दुःख एक ही शब्द में हज़ार बार लौट कर आ जाता है. रोते रहते है रात–रात भर यह रोना कई–कई रातों का है– अपने देश के लिए, उस समय के लिए जिसमे उन्हें जीना था– मणिपद्म के लिए रोना. अंत में, वह बच्चा जब प्रश्न करता है,
“क्या लामा हमारी तरह ही रोते है पापा ?\” तो इस पंक्ति में बच्चा और लामा का संतरण एक दूसरे में हो जाता है. बच्चे की रुलाई लामा की रुलाई में मिलकर हमें आद्र कर जाती है. लामा रोते नहीँ. उन्हें कमजोर क्यों देखा जाय लेकिन तिब्बत–तिब्बत की फुसफुसाहट में उस नमी से इनकार नहीं किया जा सकता.
कविता के प्रदेश में भी तिब्बत नहीं है. कवि, कथाकार ताकतवर व बड़ी चीजों, सिद्दांतो के वर्णन मे मशगूल हैं. एशिया का यह पठार सामरिक दृष्टि से आँका जाता है वरना इसकी चिंता भी भुला दी जाती. भारत में बिखरे शालीनता की चादर ओढ़े ये आक्रोशित भी नहीं हो पाते. कविता के उर्वर प्रदेश में यदा-कदा दूब की तरह उगे तिब्बत बड़े – बड़े वृक्षों के तले दब जाता है.
लगभग 27 सालो बाद कविवर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ‘तिब्बत’ शीर्षक के साथ दिखाई देते हैं. वहाँ तिब्बत जड़ हो चुका प्रतीक है जहाँ सूरज की किरणे भी अब नहीं घुसती और न बहार कोई ध्वनि सुनाई पड़ती. दमन और उपेक्षा इस तरह हावी है कि मीडिया में भी उसका कोई बिम्ब नहीं उभरता, कवि कहता है जो कभी छत था आज वह तहखाना बन चुका है, पशु बोलता नहीं सबसे अधिक झेलता है. याक जो बस लकड़ियाँ लादता, पहाड़ी ढ़लान पर प्यास से हलकान हुए चढ़ता-उतरता है, उसके साथ यदि कोई है तो वह गाँव की बंजारन है जो अज्ञात सैनिको के गर्भ पाल रही है. युद्ध और घृणा के ज्वार का खामियाजा सर्वाधिक स्त्रियाँ ही ढ़ोती है. ऐसे देश में जिसपर दूसरे राष्ट्र का कब्ज़ा हो और जिसे आमूल चूल नष्ट करने हेतु किसी सभ्यता के गर्भ पर हमला किया गया होगा तो वह तिब्बत और वहाँ की महिलाएँ हैं. नस्ल को ही समाप्त करने की कोशिश सैनिक बूटो का कमाल है– इसलिए स्मृति गंवा चुकी बंजारन है. अतीत का राग, देशराग न बन जाए इसलिए स्मृति पर कील ठोंकना शत्रु राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य बन जाता है. परंतु युवा ‘आत्मदाह’ कर रहे हैं. निर्वासन झेलते वृद्ध पताकाओं पर प्रार्थना लिखते है. इसलिए कवि कहता है, ‘ल्हासा जेल के पार कैलाश मानसर नहीं पहुचती हवाएँ. जेल में कैदियों की भीड़ कैलाश मानसर की हवा रोके हुए है. वहाँ बुद्ध भी बंधन में हैं और अहिंसा निर्वासित जीवन जी रही अर्थात हिंसा का तांडव चल रहा है.
कवि तिब्बत के सौंदर्य को ‘तोग्देन’ के हवाले कर देता है, क्योंकि टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटा गया तिब्बत अब अपना अंतिम संस्कार करने के लिए बचा है. लेकिन कवि को गोल –गोल चमकती आँखों मे अथाह जिज्ञासा लिए पीठ पर मासूम दिख जाता है. कवि की आशा चमकती आँखों में समा जाती है. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ‘तिब्बत’ कविता में भुला दिए गए तिब्बत को देखते है. निर्वासन, बेगानापन, पीड़ा, दुख का समन्वित रूप ‘तिब्बत’ है जो अरसे बाद कवि की चिंता का सबब बना है. भारत का पड़ोसी देश होते हुए भी सृजनात्मक/रचनात्मक स्तर पर तिब्बत चिंतन के केंद्र बिंदु में विशेष रूप से कविता के केन्द्र में कम ही रहा बल्कि न के बराबर ही रहा. कथा–साहित्य विशेषकर उपन्यास में नीरजा माघव ने ‘गेशे जम्पा’ और ‘देनपा’ लिखकर सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को लाने का प्रयास तो किया लेकिन कविता में न के बराबर रहा.
तिब्बत की यह पीड़ा अनामिका की कविता ‘दलाईलामा’ में भी उभर कर सामने आती है. कविता तिब्बती भाषा की बात करते हुए तिब्बती बच्चे, उनकी माँओं की बात करती है. अंग्रेजी की सर्वग्रासी शक्ति के सामने तिब्बती भाषा को बचाने उसे कमजोर न पड़ने देने की कोशिश दुभाषिये की है जो दलाईलामा के भाषण का अनुवाद कर रहा है. तिब्बती भाषा की तितली मनोहर और रंग–बिरंगी तो है लेकिन कोमल है. भाषा की तितली का बच्चों के कानों पर बैठना एक रूपक है जो भाषा के संकट की ओर संकेत करता है साथ ही माँ के चमकीले परिधानों पर भी वह तितली बैठती है. माँ शादी के जोड़े की तरह तिब्बती भाषा को बचाए रखना चाहती है. मातृभाषा यदि बच सकती है या उसे बचाने वाला कोई है तो वह बस माँ है. कवयित्री तिब्बती भाषा की चमक की बात करते सीधे एक बिम्ब खड़ा कर देती है तिब्बत का – बूढ़ी आँखों में उम्मीद की एक टिमक जितनी ! तिब्बत की आज़ादी की टिमटिमाहट.
“दुभाषिया बहुत गम्भीर था.
उसको हँसने की फुर्सत ही नहीं थी !
अंग्रेजी के जाल में सावधानी से
पकड़ रहा था तिब्बती भाषा की तितलियाँ
जो लामा के फूल जैसे होठों से उड़ती–उड़ती
कभी तिब्बती बच्चों के कान पर बैठ जाती थीं
कभी उनकी माँओ के चमकीले परिधानों पर –
जो उनकी शादी के जोड़े थे शायद !
अनामिका रचित ‘दलाईलामा’ का विन्यास तितली की तरह है. वह इस फूल से उस फूल मकरंद लेना जानती है. कविता तुरंत दलाईलामा द्वारा समझाए जा रहे चार आर्य सत्य की बात करते हुए बचपन में बायीं बाँह पर पड़े चेचक के टीके की बात करने लगती है. एक ओर ज्ञान है दूसरी तरफ यथार्थ का टीका है उन्हें इसी युग का होने की ओर संकेत करता है.
अनामिका दलाईलामा में, उनके प्रवचन में बचपन को ढूंढ़ रही है, बचपन की उन हरकतों को जिन्हें दलाईलामा ने किया होगा. पुनः वह बिफर उठती हैं तिब्बत को सोचते हुए कि हम तिब्बत की सच्चाई को दरकिनार करते हुए किस तिब्बत को देख रहें हैं जो फटेहाल है. जिसे हम दलाईलामा, राहुल संकृत्यायन, रेनपोचे, मोनेस्ट्री, चाऊमीन, सस्ते स्वेटर–चप्पल, चीन, बर्फ़, वफादार कुत्ते तक में समेत कर देखते हैं. तिब्बत के बहने प्रेम और नफ़रत को कवयित्री देखती है और तिब्बत के सत्य को ढूंढ़ना चाहती हैं. दुनिया के मानचित्र पर तिब्बत के खोते वजूद और उसे दुनिया के किसी कोने में जीवित रख सकने की जद्दोजहद इस कविता में देख सकते हैं.
समकालीन कविता में तिब्बती कविताएं हस्तक्षेप करती हैं. तेनज़िन त्सुन्दू ऐसे ही तिब्बती युवक हैं जो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं और तिब्बती भाषा में कविता लिखते हैं. उनकी कविता का अनुवाद अशोक पांडे ने किया है. निर्वासन की पीड़ा झेल रहे तेनज़िन त्सुन्दू की कविता हिन्दी में अनुवाद के माध्यम से जब आई तो एक अलग तरह की बेचैनी हिंदी जगत में आई. उनके माता-पिता भारत में तिब्बत के निर्वासित जन हैं. तेनज़िन त्सुन्दू का जन्म भले ही भारत में हुआ हो लेकिन उनकी चेतना में तिब्बत की स्वतंत्रता है. तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता के रूप में उनकी कविता को देखा जा सकता है. अस्मिता की तलाश, पहचान का संकट, भाषा, संस्कृति के बचाने के बरक्स दुःख मिश्रित चिंता का भाव भी उनकी कविता में देखा जा सकता है. उनकी कविता में निर्वासन से उपजा अवसाद दिखाई देता है. उनकी कविता के बिंब आश्चर्यचकित कर देने वाले हैं.
‘‘जब धर्मशाला में बारिश होती है,’’ कविता में बारिश की बूदों के बरसने को वे मुक्केबाजी के दस्ताने पहने बूँदे हैं तब उनकी मार को महसूस किया जा सकता है. वे कहते हैं, ‘‘टिन की छत के नीचे भीतर मेरा कमरा रोया करता है, बिस्तर और कागजों को गीला करते हुये. भारत में निर्वासन के दंश झेल रहे तिब्बती के दुःख को इस पंक्ति के माध्यम से समझा जा सकता है-
मैं बैठा होता हूँ अपने द्विपदेश बिस्तर पर-
और देखा करता हूँ अपने मूल्क को बाढ़ में
आज़ादी पर लिखे नोट्स
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के ख़त,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी, नूडल
भरपूर ताकत से उभर आते हैं इस सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए.
कविता यहीं समाप्त नहीं होती. वह टीन के घर में रहते हुए कश्मीरी मकान मालिकन को याद करता है जो अपने देश नहीं लौट सकती- ‘‘हमारे दरम्यान अक्सर खूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है- कश्मीर या तिब्बत.”
लेकिन उम्मीद की किरण बाकी है, वह कहते हैं-
बहुत रो चुका मैं
कैदखानों में
और अवसाद के पलों में.
यहाँ से निकलने का रास्ता ज़रूर होना चाहिए. दूसरी कविता ‘आतंकवाद ’ में यही जिजीविषा दिखाई देती है- मैं जीवन हूँ, जिसे तुम छोड़ आए थे पीछे ‘दंगा’ कविता में तेनजिन आक्राशित हो उठते हैं अपने अनुयायी बौद्ध होने पर क्योंकि उनके पिता की मृत्यु अपने देश को बचाने की ख़ातिर लड़ते हुए हुई है. लेकिन शांतिप्रिय होने का बोध उन्हें परेशान करता है- ‘लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है मैंने दगा दिया अपने पिता को’. तेनजिन, तिब्बत के वह युवा हैं जो निर्वासित जीवन नहीं जीना चाहता. वह या तो तिब्बती होना चाहता है या फिर भारतीय लेकिन, दोनों में से उसे कुछ भी नसीब नहीं.
अपनी कविता में वह कहता है
‘‘मैं थक गया हूँ, थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ. चालीस सालों से बैठे–बैठे, धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता.’’
इसी पंक्ति में वे आगे कहते हैं-
“मैं थक गया हूँ मजनू के टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.”
तेनजिन की यह पंक्ति भारत में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों की उपस्थिति एवं स्थिति को बताता है जिसे हम शाल- स्वेटर बेचते हुए मोमो-नूडल्स बनाते तथा चाइनीज रेस्टुरेंट में काम करते हुए देखते हैं. आक्रोशित होते हुए, स्वयं की छवि को बचाकर प्रक्रिया करना कि उन्हें बुरा न समझा जाय- कुल मिलाकर एक सीमित दायरे में उनके जीवन को देखा जा सकता है. उनकी कविता तिब्बती के संघर्ष की गाथा है. एक व्यथा है, हम यहाँ शरणार्थी हैं. खो चुके एक देश के लोग/किसी भी दंश के नागरिक नहीं. हर वर्ष एक पीड़ा से गुजरना ‘भारत में जन्मा एक शरणार्थी’ को हर साल अपने रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट के लिये दौड़ना कितना बेचैन करने वाला है.
एक दुःख है जो हृदय को मथता है ‘‘नेपाली? थाई? जापानी?, चीन? नागा? मुनिपुरी?’’ कोई नहीं पूछता, तिब्बती-?’’ मातृभूमि जिसके किस्से, जहाँ रहने का सपना हर नागरिक का सपना है वह भी नसीब नहीं. 50 वर्षों से निर्वासन झेल रहे तिब्बत के युवा की इच्छा है-
मैं तिब्बती हूँ. अलबत्ता से नहीं आया. कभी गया भी नहीं वहाँ. तो भी सपना देखता हूँ वहाँ मरने का. महानगरों में बसे तिब्बती की जीवन शैली को तेनजिन ने बेहद यथार्थपरक तरीके से उकेरा है.
‘मुम्बई में एक तिब्बती’ कविता में वह कहता है वह चाइनीज ढाबे में रसोइये का काम करता है, परेल ब्रिज में स्वेटर बेचता है लेकिन उसे बीजिंग से आया भगौड़ा या नेपाली बहादुर समझा जाता है लेकिन तिब्बती होने के बारे में कोई नहीं पूछता, मुम्बईपन को तिब्बतियों ने अपना लिया है क्योंकि वह बम्बईया हिन्दी में भी गाली देने लगा है लेकिन शब्द का विस्तार तो अपनी ही भाषा में हो सकता है. ऐसे में उसकी भाषिक क्षमता चूक जाती है और ऐसे मौके पर पारसी हँसने लगते हैं. तिब्बती युवा का मुम्बईया हिन्दी से चूक जाना और पारसी का हँसना गहरी संपृक्ति रखते हैं पारसी समाज भी सांस्कृतिक पहचान बचाए रख सकने के लिए संकट से जूझ रहे हैं .
एक संकट दूसरे पर तारी होता है और हँसी फूट पड़ती है. वाकई में यह हँसी, हँसी नहीं अवसाद है. ‘मिड-डे’ अखबार पढ़ना एफ.एम. रेडियो सुनना उसका शगल है लेकिन कैसे करे यह उम्मीद. लोगों का उसपर कटाक्ष करना ‘चिंग-चैंग-पिंग-पौंग’ उसे नहीं सुहाता. तेनजिन कविता का अंत गहरे दुःख से करता है- ‘
मुम्बई में एक तिब्बती, अब थक चुका है. उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना.’
निर्वासन का घर’ कविता में तेनजिन अपनी गृह संपदा को याद करते हुए पूछता है कि
‘बाड़े अब दल चुकी हैं, जंगल में
अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
कि कहाँ से आये थे हम?’
एक व्यक्तिगत टोह’ कविता में कवि छिपते-छिपाते अपने देश के टीले पर पहुँचता है- वह अपने नासारंध्रों में उस मिट्टी की महक को बसा लेना चाहता है. वह कहता है,
‘‘मैंने मिट्टी की सूंघा
ज़मीन को कुरेदा
सूखी हवा को सुना
और सुना बूढ़े जंगली सरसों को”-
वह स्वयं को उस मिट्टी में खो देना चाहता है लेकिन उसे कुछ भी यहाँ और वहाँ फर्क महसूस नहीं होता.
तेनजिन आउटलूक पीकेडर अवार्ड 2001 से सम्मानित कवि हैं. उन्होंने तीन पुस्तके लिखी हैं जिनमें एक ‘कोरा’ उनका काव्य संग्रह है. आज भी भारत में उनका कोई स्थायी निवास नहीं है. अन्तहीन यात्रा, निर्वासन, अवसाद, तिब्बतीपन के खोने का भय उनकी कविता में दिखायी देता है. कविता की भाषा में सक्रिय कार्यकर्ता का रूप दिखाई देता है इसलिए कविता में शिल्प की खोज बेमानी है. यथार्थ की पकड़ और तीव्रता पाठक पर असर करती है. ‘पेट्रो की बाँसुरी’ कविता में बाँसुरी का रूपक तिब्बती शरणार्थी के वजूद को बताता है. निर्वासन में जी रहे लोगों की अवाज है उस बाँसुरी में. पेट्रो से जब सवाल पूछा जाता है क्या है तुम्हारी बाँसुरी में – तब उस बाँसुरी की निकली कराह सब ओर सुनाई देती है जब एक सोलह साल की युवा लड़की माँ बन जाती है, जिसकी जगह अब शौचालय के पीछे है. वह बच्चा है जो पुलिस स्टेशन में राह देखते सो गया है, बाँसुरी की आवाज जो चुभती है कानों में लेकिन सुनी नहीं जाती. कवि कहता है – पेद्रो, निर्वासन के दौरान उसकी आवाज़ को महसूस कर सकता है. निर्वासन के अहसास को उसके संघर्ष को तेनजिन त्सुंदे के कविता व्यंजित करती है.
हिंदी प्रदेश में अनुवाद के माध्यम से यह आवाज देर से ही सही लेकिन सुनाई देती है . कविता को स्नेह मिलेगा संघर्ष से मुक्ति के लिए, नई हवा में साँस लेने के लिए.
_____________________
बंदना झा
prof.bandanajha@gmail.com
________
तिब्बत से आये हुए
लामा घूमते रहते हैं
आजकल मंत्र बुदबुदाते
उनके खच्चरों के झुंड
बगीचों में उतरते हैं
गेंदे के पौधों को नहीं चरते
गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं
पापा?
तिब्बत में बरसात
जब होती है
तब हम किस मौसम में
होते हैं?
तिब्बत में जब
तीन बजते हैं
तब हम किस समय में
होते हैं?
तिब्बत में
गेंदे के फूल होते हैं
क्या पापा?
लामा शंख बजाते हैं पापा?
पापा लामाओं को
कंबल ओढ़ कर
अंधेरे में
तेज़-तेज़ चलते हुए देखा है
कभी?
जब लोग मर जाते हैं
तब उनकी कब्रों के चारों ओर
सिर झुका कर
खड़े हो जाते हैं लामा
वे मंत्र नहीं पढ़ते।
वे फुसफुसाते हैं ….तिब्बत
..तिब्बत …
तिब्बत – तिब्बत
….तिब्बत – तिब्बत – तिब्बत
तिब्बत-तिब्बत ..
..तिब्बत …..
….. तिब्बत -तिब्बत
तिब्बत …….
और रोते रहते हैं
रात-रात भर।
क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं
पापा?
तेनज़िन त्सुन्दू : मैं थक गया हूँ
मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ दस मार्च के उस अनुष्ठान से
धर्मशाला की पहाड़ियों से चीख़ता हुआ.
मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटर बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे
— धूल और थूक के बीच इन्तज़ार करता.
मैं थक गया हूँ
दाल-भात खाने से
—
और कर्नाटक के जंगलों में गाएँ चराने से.
मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ मजनू के टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.
मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ लड़ता हुआ उस देश के लिए
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं.
तेनज़िन त्सुन्दू : मुम्बई में एक तिब्बती
मुम्बई में एक तिब्बती
को विदेशी नहीं समझा जाता.
यह एक चाइनीज़ ढाबे
में रसोइया होता है
लोग समझते वह चीनी है
बीजिंग से आया कोई भगौड़ा
वह परेल ब्रिज की छाँह में
स्वेटर बेचता है गर्मियों में
लोग समझते हैं वह
कोई रिटायर हो चुका नेपाली बहादुर है.
मुम्बई में एक तिब्बती
बम्बइया हिन्दी में गाली देता है
तनिक तिब्बती मिले लहज़े के साथ
और जब उसकी शब्द-क्षमता खतरे में पड़ती है
ज़ाहिर है वह तिब्बती बोलने लगता है,
ऐसे मौकों पर पारसी हँसने लगते हैं.
मुम्बई में एक तिब्बती को
पसन्द आता है मिड-डे उलटना
उसे पसन्द है एफ० एम० अलबत्ता वह नहीं करता
तिब्बती गाना सुन पाने की उम्मीद
वह एक लालबत्ती पर बस पकड़ता है
दौड़ती ट्रेन में घुसता है छलाँग मारता
गुज़रता है एक लम्बी अँधेरी गली से
और जा लेटता है अपनी खोली में.
उसे गुस्सा आता है
जब लोग उस पर हँसते हैं
चिंग-चौंग-पिंग-पौंग\”
मुम्बई में एक तिब्बती
अब थक चूका है
उसे थोड़ी नींद चाहिए और एक सपना,
11 बजे रात की विरार फ़ास्ट में
वह चला जाता है हिमालय
सुबह 8:05 की फ़ास्ट लोकल
उसे वापस ले आती है चर्चगेट
महानगर में — एक नए साम्राज्य में.
तेनज़िन त्सुन्दू : पेट्रो की बाँसुरी’
पेद्रो, पेद्रो
क्या है तुम्हारी बाँसुरी में ?
क्या एक नन्हा बच्चा जिसकी माँ खो गई है
और जो घूमता-फिरता है
शहर के गीले पत्थरों पर अपने नंगे पाँव पटकता हुआ ?
पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बाँसुरी में ?
क्या वह एक मुलायम कराह है
एक युवा लड़की की
सोलह की उम्र में गर्भवती, जिसे बाहर फेंक दिया गया घर से
जो अब रहती है एक पब्लिक पार्क में
शौचालयों के पीछे ?
हैरत कर रहा हूँ
तुम फूँक मारते हो प्लास्टिक-पाइप के ठूँठ में
और वह जीवित हो उठता है किसी बाँसुरी में
बिना आँख, कान या मुँह वाली
बजती हुई बाँसुरी,
अभी रोती हुई, अभी गाती
सीटियाँ जो बदल जाती हैं नन्हीं सुई जैसे बाणों में
बाण जो चुभते हैं
उल्लुओं तक के कानों में चुभते हैं
उल्लू जिनके कानों तक में बाल होते हैं.
पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बाँसुरी में?
क्या खिड़की के कब्जों में वह सीटी
एक युवा लड़की का रुदन है ?
या उस नन्हे लड़के की साँसें
जो अब थक चुका है और सोया हुआ है
पुलिस स्टेशन में ?
पेद्रो, पेद्रो
बताओ न क्या है तुम्हारी बाँसुरी में ?
बहुत बाद में निर्वासन के दौरान, मैं उसे अब भी देख सकता हूँ.
________