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समालोचन

Home » सबद भेद : हिंदी कविता की तीसरी धारा : मुकेश मानस

सबद भेद : हिंदी कविता की तीसरी धारा : मुकेश मानस

  हिन्दी कविता की तीसरी धारा      मुकेश मानस हिंदी कविता की वह धारा जो शोषण और उत्पीडन के प्रति न केवल तीव्र समझौताविहीन प्रतिक्रिया देती है, बल्कि  हाशिए के साथ जीती हुई एक सुविचारित प्रतिव्यवस्था की उम्मीद भी रखती है, को कवि आलोचक मुकेश मानस हिंदी कविता की तीसरी धारा कहते हैं. अपने शोधपूर्ण […]

by arun dev
November 16, 2011
in Uncategorized
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  हिन्दी कविता की तीसरी धारा     
मुकेश मानस
हिंदी कविता की वह धारा जो शोषण और उत्पीडन के प्रति न केवल तीव्र समझौताविहीन प्रतिक्रिया देती है, बल्कि  हाशिए के साथ जीती हुई एक सुविचारित प्रतिव्यवस्था की उम्मीद भी रखती है, को कवि आलोचक मुकेश मानस हिंदी कविता की तीसरी धारा कहते हैं. अपने शोधपूर्ण और तीक्ष्ण मेधा से उन्होंने इस धारा की विवेचना की है. कविता और उसकी जिम्मेदारी को समझने के लिए एक प्रासंगिक हस्तक्षेप.   
आजाद भारत के पूर्व ‘तेभागा और बाद में ‘तेलगाना’ के बाद नक्सलबाड़ी विद्रोह बड़ा और व्यापक किसान विद्रोह है.  इसने भारतीय समाज के राजनीतिक परिदृश्य पर क्रांतिकारी वाम चेतना को संभव बनाया.  इस आंदोलन की व्यापकता के फलस्वरूप हिन्दी कविता में क्रांतिकारी वाम चेतना से लैस कविता के तीसरे संसार की उत्पत्ति हुई जिसने पिछले शीतयुद्धीय और पूंजीवादी राजनीति  से प्रभावित, दिग्भ्रमित और दिशाहीन साहित्यांदोलनों के जाल को काटा और प्रगतिशीलता और जनवादी कार्य का न केवल विस्तार किया बल्कि जन कला और जन साहित्य के नये प्रतिमान रच कर उसे नये मायने भी दिये.

प्रगतिवादी कवि मुक्तिबोध की एक बहुत महत्वपूर्ण मगर एकदम अचर्चित कविता है-‘भूल-गलती’. यह कविता मुक्तिबोध ने 1963 में लिखी थी और अप्रैल 1964 में कल्पना में प्रकाशित हुई थी. इस कविता की आखिरी पंक्तियां इस प्रकार हैं:

हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा1
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विराट हो जायेगा[1]

संकल्प-धर्मा चेतना यानी दुनिया बदलने की दृष्टि और संघर्ष करने की चेतना. मुक्तिबोध की यह कविता महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह आजाद भारत में संकल्प-धर्मा चेतना के एक अध्याय के अवसान और दूसरे की शुरुआत और उसके प्रकट होकर विकट हो जाने की क्रांतिकारी आस्था को रेखांकित करती है. तेलंगाना किसान विद्रोह जब अपने चरम पर था तब भाकपा के मध्यमार्गियों ने उसे भूल-गलती  का ज़िरह बख़्तर पहने कर कठघरे में खड़ा कर दिया. इसी संकल्प धर्मा चेतना का कोई रक्तप्लावित स्वर प्रकट होकर विकट हो जायेगा, यह मुक्तिबोध की कोई भविष्यवाणी नहीं थी बल्कि समाज बदलाव को साकार करने की जनता की संघर्ष क्षमता के ऐतिहासिक क्रम से विकट होकर प्रकट होने की अभिव्यंजना है. यह गुप्त स्वर्णाक्षर नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ और उसने भारतीय राजनीति और सहित्य के परिदृश्य को पूरी तरह से बदल ड़ाला. 

भारत में समाजवादी विचारधारा के प्रसार, पहले से चली आ रही जनवादी साहित्य की परम्परा के विकास और वामपंथी आंदोलन के प्रभाव के कारण साहित्य में प्रगतिवादी आंदोलन की शुरूआत हुई. साहित्य के राजनीतिक सरोकार, वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा के प्रति प्रतिबद्धता, व्यवस्था परिवर्तन और क्रांति जैसे विषयों पर वैचारिक मंथन आरम्भ हुआ. परिणामस्वरूप प्रेमचंद जैसे महान लेखकों के समर्थन से प्रगतिशील लेखक संघ’ (प्रलेस) की स्थापना हुई और साहित्य के जनवादी सरोकारों पर स्पष्टता बनी.

छठे दशक की सर्द हवाओं में वामपंथ की मूलधारा अपनी ऊष्मा बरकरार नहीं रख सकी. जनसंघर्षों की अविराम क्रम से पराजय और समझौतों की दुष्चक्रीय निराशा के बाद प्रलेस के प्रभावकारी सांस्कृतिक आंदोलन का रास्ते से भटकना स्वाभाविक ही था.  इसके साथ ही इसकी कार्य-सूची से क्रांतिकारी परिवर्तन की सहगामिनी सांस्कृतिक चेतना के निर्माण और नई परिस्थितियों के अनुरूप सांस्कृतिक संगठन के इतिहास सम्मत कार्य का निकल जाना इसकी अनिवार्य परिणति थी.[2]

प्रलेस की वैचारिक प्रतिबद्धता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के साथ थी और इसलिए प्रलेस के इस भटकाव और पतन को भाकपा के इतिहास और कामकाज के परिदृश्य में समझना ज्यादा आसान होगा. बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भाकपा ने देश भर में उमड़ रहे किसान विद्रोहों को समाजवादी विचारधारा व सांगठनिक चेतना से लैस करने और उन्हें व्यापक जनसमूह से जोड़ने की पहलकदमी की. यह उचित भी था क्योंकि भारत के इतिहास में किसान विद्रोहों की एक लम्बी और अविस्मरणीय कड़ी रही है. बारासात के तितु मीर, सिद्धू कानू और बिरसा मुंडा के नेतृत्व वाले किसान विद्रोहों से भी बहुत पहले से किसान संघर्षों की एक लम्बी श्रृंखला नक्सलवाड़ी किसान विद्रोहों तक चलती चली आई है. यह श्रृंखला आज भी भले ही सतह पर न दिखाई देती हो किन्तु पृष्ठभूमि में यह अनवरत चल रही है. किसान हमेशा से सामंतों और सरकार दोनों के खिलाफ लड़ते आये हैं. लड़ाई भले ही स्थानीय शोषकों के खिलाफ शुरू हुई हो किन्तु अपनी चरम परिणति में ये संघर्ष सत्ता विरोधी ही रहे हैं. सन् 1947 का किसान विद्रोह इसका सशक्त उदाहरण है. इन किसान विद्रोहों में हमला करने की चेतना ही नहीं बल्कि अपनी समानान्तर सत्ता बनाने की समझ भी बुनियादी तौर पर मौजूद थी. यह भी देखने में आता है कि ये सभी संघर्ष स्वत:स्फूर्त ढंग से ही चलते रहे और खत्म भी होते रहे, किन्तु इनके बार-बार उठने की श्रृंखला कभी नहीं टूटी.

‘तेभागा’ और ‘तेलंगाना’ आंदोलन भाकपा की पहलकदमी की सफलता के प्रतिमान हैं. स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक पहले से लेकर पहले आम चुनावों के बीच चलाये गए ‘तेभागा’ और ‘तेलंगाना’ विद्रोह किसान संघर्षों के अविस्मरणीय अध्याय हैं. खेतिहर क्रांति को ध्यान में रखकर चीनी क्रांति के अनुभव को आत्मसात करता हुआ तेभागा आंदोलन एक पहला प्रयोग था. फसल के बंटवारे, लगान चुकाने की प्रक्रिया, फालतू वसूली तथा किसानों और जमींदारों के बीच विषमतापूर्ण सम्बन्धों के खिलाफ बंगाल में चलाया गया ‘तेभागा’ संघर्ष एक नई तरह की आजादी की दिशा में पहला कदम था.[3]

1946 से 1951 के बीच चलाया गय ‘तेलंगाना’ किसान आंदोलन तेभागा से बड़ा और व्यापक जनाधार वाला किसान विद्रोह था. आन्ध्रप्रदेश में ‘बैठी प्रथा’ के जरिए दलितों के बर्बर शोषण और जमीन के विषमतापूर्ण सम्बन्धों के खिलाफ इस आन्दोलन ने जोर पकड़ा. इस आंदोलन का जनाधार दलित और आदिवासियों की बहुसंख्या थी. किसानों के गुरिल्ला दस्तों ने निजामशाही के दमन और जमींदारों की लूट के खिलाफ संघर्ष चलाते हुए तीन हजार गांवों को अपने कब्जे में लेकर वहां का प्रशासन ग्राम राज्य कमेटियों को सौंप दिया था. सशस्त्र सघर्ष के रूप में चलाया जाने वाला यह पहला दीर्घकालिक भारतीय किसान विद्रोह था. निजाम की रियासत को भारतीय संघ में मिलाने के लिए हुए समझौते के तहत भारतीय फौजों ने तेलंगाना के वीर दलित और आदिवासी किसानों, ग्राम राज कमेटियों और कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं पर अमानवीय अत्याचार किए, तानाशाही नृशंसता की वापसी की और जमींदारी शासन की कुव्यवस्था को पुन:स्थापित किया. दमन और उत्पीड़न से घबरा कर मध्यमार्गियों के दवाब में आंदोलन उस समय वापस ले लिया गया जब किसानों ने स्थानीय मुद्दों से ऊपर उठ कर राजसत्ता का सवाल उठाना शुरू कर दिया था.

तेलंगाना आंदोलन को लगे धक्के का बहाना बना कर कम्युनिष्ट पार्टी के मध्यमार्गियों ने चीनी क्रांति के महत्व को ठुकरा दिया और ‘शांतिपूर्ण ढंग से समाजवाद में संक्रमण’ की नीति अपना कर नये नेतृत्व ने नेहरूवादी सरकार के खिलाफ लोकशाही सरकार बनाने का नारा देकर पार्टी को संसदीय जनवाद के रास्ते पर ढकेल दिया.[4] आज उसका संसदीय जनवाद केवल संसदवाद बन कर रह गया है. धीरे-धीरे पार्टी के एजेंडे से जनसंघर्षों को संगठित करने का विचार भी गायब हो गया. पहले से चले आ रहे अन्तर्निहित अन्तर्विरोधों के कारण पार्टी विभाजित हो गई.

सशस्त्र संघर्ष का नारा देने के बावजूद नई पार्टी भाकपा(मार्क्सवादी) भी भारतीय किसानों और मजदूरों की आकांक्षा के अनुरूप नेतृत्व दे पाने में असमर्थ रही. उसने भी चुनावों में हिस्सा लेकर संसदीय जनवाद के रास्ते को चुना. बंगाल में सरकार बनाने और व्यापक जनाधार के बावजूद यह पार्टी भी किसानों के हित में उपयुक्त भूमि सुधार लागू करवा पाने में असमर्थ रही.

माकपा की स्थापना के बाद से ही सशस्त्र संघर्ष के पैरोकार चारू मजूमदार, कानू सान्याल, सौरेन बोस, सरोज दत्त आदि नेताओं ने उसके सूत्रीकरणों की आलोचना शुरू कर दी थी. इसी बीच चारू मजूमदार ने आठ ऐतिहासिक दस्तावेज लिखे. पहले पांच दस्तावेजों में उन्होंने माकपा को क्रांतिकारी संगठन में तब्दील करने की कोशिशों को ही रेखांकित किया है. बाद के तीन दस्तावेजों में उनके माकपा से मोहभंग और नई पार्टी की धारणा की तरफ आने के संकेत मिलने लगते हैं. माकपा के रवैये के खिलाफ किसानों और मजूदरों में असंतोष बढ़ रहा था. 1967 के मार्च महीने में नक्सलबाड़ी इलाके के किसानों ने जमीनों पर कब्जे करने शुरू कर दिए. यह किसान संघर्षों के नए अध्याय का आरंभ था जिसे ‘बसंत का वज्रनाद’ की संज्ञा दी गई. कुछ राजनीतिक विचारकों ने इसे ‘उग्र वामपंथी आंदोलन और चेतना’ की शुरूआत भी माना. धीरे-धीरे यह आंदोलन दावानल की तरह पूरे देश में फैल गया. कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने एक नई विचारधारा को अपना कर सशस्त्र संघर्ष के रास्ते का समर्थन किया. बकौल मुक्तिबोध, संकल्पधर्मा चेतना का गुप्त रक्तप्लावित स्वर इस आंदोलन के रूप में ही दावानल की भांति प्रकट होकर पूरे देश में फ़ैल गया.

नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरूआत ने भारतीय समाज और राजनीति में व्यापक बदलाव की आकांक्षा को रेखांकित किया. परिवर्तन का यह मोड़ राजनीति और साहित्य दोनों में साथ-साथ देखने को मिलता है. नक्सलवाड़ी परिघटना ने कम्युनिष्ट आंदोलन में व्यापक बदलाव के लिए संसदीय मार्ग और सशस्त्र संघर्ष के बीच अरसे से चल रही बहस को क्रांति के पक्ष में निर्णय तक पहुंचाया. इस आंदोलन ने पहली बार किसानों की असीमित, अग्रगामी क्रांतिकारी चेतना और संगठन क्षमता का उद्घाटन किया. इस आंदोलन ने पहली बार दलितों और स्त्रियों की मुक्ति और राज्यों की स्वायत्तता के प्रश्न को परिदृश्य पर पूरे सामाजिक और मानवीय सरोकारों के साथ प्रकट किया और उनके संघर्ष को व्यापक समाज बदलाव का हिस्सा माना.  भारतीय समाज और शासक वर्ग की नई व्याख्याएं प्रस्तुत की गई और क्रांतिकारी जनवाद की धारणा सामने आई. ऊपर से देखने में यह आंदोलन आज बिखरा हुआ और अनेक गुटों में विभाजित दिखता है किन्तु पृष्ठभूमि में यह आज भी भारत का सबसे बड़ा किसान आंदोलन है जो अपने अनेक रूपों के साथ भारतीय राजनीति के परदे पर मौजूद है.

प्रलेस  की विचारधारात्मक प्रतिबद्धता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ी हुई थी. भाकपा के संसदीय मार्ग अख्तियार कर लेने पर उस की प्रतिबद्धता भी ढीली पड़ गयी. वह नयी चुनौतियों के सामने लड़खड़ाने लगा. कई विसंगतियों और संकीर्णताओं में उलझा प्रलेस 1953 के बाद जड़ता का शिकार हो गया.[5] प्रलेस के विघटन के बाद साहित्यकार आधुनिकतावादी साहित्य के दवाब में आ गए. गहराते राजनीतिक संकट, बढ़ते जन असंतोष और आमूल क्रांतिकारी दिशा के अभाव के कारण साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी अराजकता पनपने लगी जिसका विचारात्मक नेतृत्व विश्व पूंजीवादी संस्कृति के निहायत ही पतनशील संस्करण कर रहे थे. कविता की मुख्यधारा अकविता के रूप में उद्धत और बेहूदा बयानबाजी के साथ आम तौर पर समाज, संस्कृति और राजनीति के समूचे निषेध और हवाई विद्रोह का माध्यम बन गई. शोषक वर्ग की राजनीति ने अकविता और असहित्य के तमाम मसीहाओं को देह की दलदल में कैद कर दिया.[6]

नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह से जन्मी अपार क्रांतिकारी ऊष्मा ने हिन्दी और भारतीय कविता के पूरे परिदृश्य को बदल डाला. बंगला, तेलगू, मलयालम, पंजाबी, मराठी, कश्मीरी, उड़िया, कन्नड़, असमिया आदि भाषाओं की कविताओं में एक नया सुर सुनाई पड़ने लगा. नेपाली और बंग्लादेशी कविता पर भी इसका प्रभाव पड़ा. यह कोई संयोग की बात नहीं है कि देश की जनता १९६५-६७ के जिस काल में कांग्रेस की सत्ता को ठोस चुनौती दे रही थी, उसी के आस-पास हिंदी में लघु-पत्रिकाओं का आंदोलन जोर पकड़ रहा था.[7] नये-नये जनवादी रचनाकार उसके माध्यम से सामने आने लगे थे. आधुनिकतावादी साहित्यांदोलनों की तिकड़मों से बाहर आकर शीतयुद्धीय राजनीति के प्रचारक रचनाकारों के मुखौटों को नंगा कर सैकड़ों नये रचनाकार नये संदर्भ में नये तेवर की जमीन तोड़ते दिखाई पड़ने लगे. अनेक पुराने प्रगतिशील कवियों की प्रगतिशीलता फिर से जाग उठी और क्रांतिकारी चेतना से लैस नये कवियों की पीढ़ी अस्तित्व में आई. क्रांति और व्यापक समाज बदलाव की दिशा में कविता और कवि की प्रतिबद्धता की व्याख्या फिर से की जाने लगी.

सुप्रसिद्ध कहानीकार और पहल  के सम्पादक ज्ञानरंजन ने लिखा है कि सातवें दशक के उत्तरार्ध में भयावह सामाजिक परिस्थितियों, राजसत्ता की असफलताओं और क्रूरताओं के प्रतिरोध में उभरी लड़ाईयों ने जब देश की चेतना को गुणात्मक स्तर पर बदलना शुरू किया तो एक और तरह की कविता की जरूरत पैदा हुई. इस बदली हुई चेतना ने हिन्दी में निरपेक्ष, तटस्थ, ठंडी, व्यक्तिवादी और स्वायत्त कविता को या तो कठिन या हास्यापद बना दिया. मुक्तिबोध जिसे ‘सच का पूरी तरह से बाहर आना’ कहते थे, वह इस परिवर्तन के बाद ही कायदे से शुरू हुआ. इसी परिवर्तन के बाद ही कायदे से शुरू हुआ.[8] ठंडी, तटस्थ और शोषक वर्ग की पक्षधर कविता की जगह एक नई तरह की कविता की जरूरत दरकार हुई और कविता की यह धारा जिसे हम हिन्दी कविता की तीसरी धारा के रूप में जानते हैं नक्सलबाड़ी आंदोलन के गर्भ से ही उत्पन्न हुई.

नई कविता : नए मायने


हिन्दी में भी इस आंदोलन ने नए गायकों को जन्म दिया और वे १९७० में कलकत्ते से महेश्वर के संपादन में \”शुरूआत\” काव्य संग्रह से सामने आये.  वे शुरूआत करते हैं विद्रोह के शब्दाडंबर से अलग जन विद्रोहों और जन सरोकारों  को कविता में तरजीह देने की, रचनाकारों के आत्मप्रद परिस्थितियों से उबरकर क्रांतिकारी चेतना और जन संघर्षों से एकमेक होने की,तमाम भाषाई प्रवाद को काटकर सुस्पष्ट, धारदार और जनपक्षधर भाषा की. इन कवियों की कविताएं उस समय हिन्दी में हो रहे बदलाव का माकूल सबूत हैं. इन कवियों के जरिए उग्र वाम चेतना को हिन्दी कविता में पहली बार भाषा मिली. इनकी क्रांतिकारी चेतना के कारण अकविता का धुंधलका छंटने लगा.

तुम्हें दो चार की खुशी के लिए
प्यारा है हजारों की मौत का कानून
और हमें लाखों-करोड़ों की खुशी के लिए
प्यारा है दो-चार का खून.[9]

नक्सलबाड़ी आंदोलन की उठान के पहले दौर से ‘शुरूआत’ के कवियों ने साहित्य में उपस्थित अन्तर्विरोधों और सुधारवादी नजरिये के वैचारिक धरातल से अपने को अलग किया और प्रगतिशीलता व प्रगतिशील साहित्य को नए मायने दिये. उनके दुविधाविहीन स्वर ने पतनगामी वाम आंदोलनों के वैचारिक आधार पर चोट की और उसे बुरी तरह से तोड़ डाला. इस विषय में शुरूआत के ही एक कवि उग्रसेन लिखते हैं :

नहीं, अब जरूरी हो गया है
ले लेना निर्णय
कि सांस लेने भर की राहत के लिए भी
हमें यह सारी सख्त चट्टानें तोड़नी होंगी.[10]

शुरूआत के कवियों की कविताओं का स्वर तीखा और वामपंथी राजनीतिक चेतना का क्रान्तिकारी जेहाद है. वे अपने संघर्षमय जीवन के कारण के पक्ष में खड़े हुए. उन्होंने नक्सलबाड़ी की तर्ज पर देश भर में हो रहे सर्वहारा के क्रांतिकारी अमल से डरने के बजाय उसमें आगामी पीढ़ियों और समूचे देश का भविष्य देखा. इसलिए उनकी कविताएं आत्मा के मनोजगत में बसने वाले किसी लखटकिये कवि का सत्य नहीं बल्कि क्रूर सत्य हैं और शोषण और दमन पर टिकी व्यवस्था को खुली चुनौती हैं. किन्तु ये कवि कई कारणों से अपनी रचनाशीलता को कविता में बनाये नहीं रख सके. कुछ की असमय मौत हो गई और कुछ साहित्य की अन्य विधाओं की ओर मुड़ गए. इनके बाद मंगलेश डबराल, विष्णुचंद्र शर्मा, आलोक धन्वा, वेणु गोपाल, कुमार विकल, महेश्वर, गोरख पांडेय, पंकज सिंह, शिवमंगल सिद्धांतकर, वीरेन डंगवाल, नीलाभ, कुमारेद्र पारसनाथ सिंह, ज्ञानेद्रपति, त्रिनेत्र जोशी आदि कवियों की एक नई और मजबूत पीढ़ी सामने आई जिसने कविता के क्षेत्र में कविता की तीसरी धारा की बुनियाद को न सिर्फ मजबूत किया बल्कि उस पर भव्य इमारत भी खड़ी की.

‘शुरूआत’ के कवि कोई तटस्थ कवि नहीं थे बल्कि क्रांतिकारी चेतना से लैस कवि थे. उनका मानना था कि क्रांतिकारी साहित्य जनांदोलनों और जनसंघर्षों की उपज होता है प्रगतिवादी आंदोलन के बाद दूसरी बार किसान-मजदूर व निम्न वर्ग उनकी कविता में अपनी आशा-निराशा, कुंठा-पराजय, आकांक्षा सपने और संघर्ष के बहुतेरे रंगों को लेकर प्रकट हुए. यहां कुछ अतियां भी हुई. जैसे, संघर्ष के चित्रण का मुख्य स्वर सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा के दायरे में ही सिमटने लगा और जन-जीवन की व्यापक अभिव्यक्ति पीछे छूटती गई.

इमरजेंसी के बाद आंदोलन के दूसरे दौर के कवियों ने अपनी पहले की अनेक कमजोरियों पर काबू पाने की कोशिश की. जनता की व्यापक चेतना से जुड़ने और उसके जनसंघर्षों में शामिल होने से कवियों में पहले की भावात्मक स्फीति कमतर हुई. वे समझने लगे कि कविता से बंदूक का काम नहीं लिया जा सकता. जनता की सौंदर्य चेतना की समझ के अभाव में कविता को बयानबाजी में बदल जाने की संभावना ज्यादा होती है. बाद के कवियों ने जन-जीवन की यथार्थवादी परिस्थितियों, उसके सौंदर्य बोध और संघर्ष चेतना को अपनाने की ओर बढ़ते हुए अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं के तोड़ते हुए जनता की बोली, धुनों और मुहावरों को अपनाया और उन्हें परिष्कृत रूप में ढालने की कोशिश की. रचनाओं को जनता के लिए संप्रेषणीय बनाने के लिए गंभीर और जरूरी प्रयास किये गए. रूप और वस्तु व विचार और अनुभव के द्वन्द्वात्मक सामंजस्य को जोर बढ़ने लगा[11]

तीसरी धारा के काव्य सरोकार


सातवें दशक के उत्तरार्ध से लेकर नवें दशक के प्रारंभ तक हिन्दी कविता में स्पष्ट रूप से तीन अलग-अलग संसार दिखाई पड़ते हैं.[12] पहला संसार उन लोगों का था जिन्होंने भूखे, नंगे, फटेहाल लोगों को कविता की दुनिया से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया था. इन लोगों ने अपने आस-पास के संसार, समय और समाज से परे कविता की एक स्वायत्त दुनिया बसा ली थी. प्रेम, रति और मृत्यु जैसे शाश्वत विषयों को लेकर ही वे कविताएं लिख रहे थे. इनका काव्य शिल्प अत्यंत ही जटिल और दुर्बोध था. जीवन तथा समाज से कटा यह संसार शासक वर्गों के मूल्यों और अभिरूचियों से प्रभावित और परिचालित था. कविता का दूसरा संसार ऐसे कवियों का था जिनका चरित्र पूरी तरह से मध्यवर्गीय था. परन्तु वे सब धरातल पर वामपंथी राजनीति, मार्क्सवाद और सामान्य जनों के प्रति सहानुभूति रखते थे. इन कवियों की पीड़ा यह थी कि वे अपनी सामाजिक और वर्गीय स्थिति को भी सुरक्षित रखना चाहते थे. व्यवस्था के दमन, अन्याय और अत्याचार से बचने के लिए तथा उससे किसी न किसी रूप में जुड़े रहने के लिए इन लोगों ने प्रतीकात्मकता की शैली अपनाई तथा सामाजिक संघर्षों और यथार्थ का अमूर्तिकरण किया. व्यापक जन समाज और संघर्ष के मूल प्रश्नों से कटे मध्यवर्गीय महानगरीय बोध का यह संसार अपने घर-परिवार, आस-पड़ोस तथा व्यक्तिगत सुख-दुख की सीमा में सिमटा सिकुड़ा रहा.कविता का तीसरा संसार ऐसे कवियों का था जो तत्कालीन जनसंघर्षों से पूरी तरह जुड़े रहे. उन्होंने सत्ता के क्रूर दमन का कविता और जीवन दोनों में खुल कर विरोध किया और मजदूरों, किसानों की जीवन परिस्थितियों और उनके संघर्षों को अपनी कविताओं का केन्द्रबिन्दु बनाया.

हिन्दी कविता की तीसरी धारा के कवियों की चिंता एक-सी है. इनका काव्य सरोकार भी एक-सा है परन्तु काव्य-वस्तु और काव्य-रूप की दृष्टि से इनमें काफी विविधता है. अपने समय और समाज से रिश्ता भी ये अलग-अलग ढंग से कायम करते हैं. इनकी कविताएं एक ही विचारधारा, एक ही लक्ष्य और एक ही स्वभाव की दृष्टि से भिन्न हैं. इन कवियों की ये वैविध्य विशेषताएं नयी कविता, अकविता और समकालीन कविता की एक दूसरे की कार्बन कॉपी लाने वाली एकरूपता को मुंह चिढ़ाती है.[13]

प्रगतिवादी आंदोलन के विघटन के बाद भी किसानों और मजदूरों के जीवन पर कविताएं लिखी जाती रहीं. ‘नई कविता’ और ‘अकविता’  स्वातंत्रयोत्तर भारत में उभरते और विकसित होते मध्य वर्ग की आशा-निराशा, कुंठा-संत्रास और अकेलेपन की कविताएं है. महानगरीय बोध की अधिकता के कारण किसान-मजदूर कविता के हाशिये पर भेज दिए गए. इसकी एक वजह किसानों और मजदूरों के आंदोलन में आया ठहराव भी था. इन कवियों ने ग्राम्य जीवन के चित्र भी उकेरे हैं किन्तु उनमें वस्तुस्थिति के रेखांकन के बजाए उसके प्रति रोमानीपन का भाव ही ज्यादा झलकता है. नक्सलबाड़ी आंदोलन ने जिस प्रकार किसानों और मजदूरों को राजनीति के केद्र में पुनर्स्थापित किया, उनको क्रांति की मूलधारा की शक्ति माना, उसी प्रकार हिन्दी कविता की तीसरी धारा के कवियों ने कविता में उनकी रचनात्मक वापसी की. किसानों के जीवन की कटु सच्चाईयां अपने तमाम सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों के साथ इन कवियों की कविताओं देखने को मिलती हैं. मसलन भूमि सुधारों के ज़रिये पूँजीवादी शासक वर्ग ने अपने  फ़ायदे के लिए सामंतवादी शक्तियों को एक हद तक कमजोर करके अपने साथ सत्ता में भागीदार बना लिया. किसानों को जमीन नहीं मिली और उनका शोषण बदस्तूर जारी रहा. यह स्वातंत्र्योत्तर भारत के किसानों की जो नेहरू के समाजवादी नमूने का समाज बनाने के नारे की असलियत को सामने लाती है और भारतीय किसान का वास्तविक कारूणिक चित्र भी.

खूंटे कहाँ तोड़े गए?
रस्सी कहाँ काटी गई?
खूँटे की जमीन भी खूँटेवाले की है
रस्सी भी उसी की बाँटी हुई है
रस्सी खोल देने के लिए सिर्फ़ कह दिया गया है
जमीन कहाँ दी गई है[14]

तीसरी धारा की कविता ने अकविता के तनावहीन, वायवीय, सर्वनिषेधवादी आक्रोश और दिशाहीन काव्य दृष्टि को चुनौती पेश की. अकविता के मध्यवर्गीय बोध के जाल को काटते हुए इस धारा के कवियों ने सीधे निम्नवर्गीय जनता और उसकी संघर्ष चेतना से सम्बन्ध स्थापित किया.

इस नई और जुझारू तेवर वाली कविता के ये कवि सत्ता की अमानवीयता और उसकी क्रूरता के मुखौटे को साहस और निर्भीकता के साथ उघाड़ते हैं. ये व्यवस्था के प्रति अपने आक्रोश और आक्रामकता को जनता के गुस्से और आक्रोश से जोड़ कर हिन्दी कविता को एक नई दिशा प्रदान करते हैं. वे लगातार जनता के दुखों और तकलीफों को अपनी कविता का मुख्य सरोकार बनाते हुए उनके कारणों की तलाश वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों में करते हैं, वे शुरूआत करते हैं शब्दों के विचार शून्य और विद्रोह के शब्दाडंबर से बाहर जन विद्रोह और जन सरोकारों को तरजीह देने की, आत्मसंघर्ष और आत्मप्रद स्थितियों से उबर कर, जनसंघर्ष और क्रांतिकारी चेतना से एक होने की. इसके पीछे नक्सलवादी आंदोलन से उपजी क्रांतिकारी राजनीतिक चेतना, व्यापक विश्व दृष्टि और एक निश्चित स्वप्न बोध क्रियाशील रहते हैं. गोरख पांडेय की एक छोटी सी कविता इसी चेतना और स्वप्न बोध को बड़े ही आशापूर्ण ढंग से खोलती है :

हमारी यादों में
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी जुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार
अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से भरे हैं
हमारे अनुभव
यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है.[15]

सत्ता और व्यवस्था की क्रूरता के चित्र हिन्दी कविता में काफी पहले से मिलने लगते हैं. भारतेन्दु और उनके सहयोगी लेखकों ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों और कार्यवाहियों का खुल कर विरोध किया था. प्रगतिवादी आंदोलन से सम्बद्ध कवियों ने भी सामंतवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरोध को कविता का मुख्य स्वर बनाया था. आठवें दशक की कविता में व्यवस्था द्वारा नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह को कुचलने के लिए किए गए भयानक जुल्मों और अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह कम ही देखने को मिलता है. सत्ता और व्यवस्था का यह भयावह और आतंकपूर्ण समय वहां एक असहनीय चुप्पी के साथ अनुपस्थित है. जो है वह भी इतना प्रतीकात्मक और बिम्बात्मक है कि अपनी प्रासंगिकता भी जाहिर नहीं कर पाता. किन्तु तीसरी धारा के कवियों को यह भयानक समय और सत्ता का आतंक एक दु:स्वप्न की तरह झकझोरता है. कुमार विकल और गोरख पांडेय की अनेक कविताएं इस संदर्भ में गौर करने लायक हैं :

नहीं देखूंगा किस तरह
झूठी मुठभेड़ों के नाम पर
नौजवानों की हत्याएं होती हैं
और घरों में इंतजार कर रही मांएं
आंसू सूख जाने के बावजूद रोती हैं[16]

कुमार विकल की कविताओं में ‘खूनी नदी’बार-बार आती है और नागार्जुन उन्हें बार-बार-कलकत्ता बुलाते हैं जहां नौजवानों की एक समूची पीढ़ी मार डाली गई है. गोरख कलकत्ता हत्याकांड पर ‘कलकत्ता 71’ लिखकर हज़ारों ‘हज़ार चुरासीर मां’ जैसी खामोश मॉओं की चीखें सुनते हैं. भूख दमन और आतंक का मिला जुला रूप उनकी कविताओं में अपने भयावह समय की वास्तविकता बन कर आता है. हर तरफ चल रही गिरफ्तारियों, कत्ले-आम और कर्फ़्यू के डरावने शोर के बीच लोकतंत्र की ताबूत से झांकते तानाशाह के चेहरे की सच्चाई इन कवियों के यहां निर्भीकता और साहस के साथ प्रकट होती है:

तानाशाह दद्दो आंधी की तरह
करोड़ों अशांत सिरों के सफाया देश पर
नंगी नाच रही है[17]

इस दौर में जन-जीवन से कटे, मध्यवर्गीय सीमाओं में कविता को कैद करने वाले कवियों की एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आई जिसमें जन जीवन से जुड़ने की न तो ललक थी, न आकांक्षा. उनके पास बनी-बनाई आस्था तो थी किन्तु उसके अनुरूप चलाये जाने वाले जनसंघर्षोंके खतरे से वे स्वयं को बचाये रखना चाहते थे. इस प्रकार कविता की मुख्यधारा आभिजात्य वर्ग की सौंदर्याभिरूचि का हिस्सा होकर एक खास तरह के ठंडेपन, अमूर्तता, प्रतीकात्मकता और मध्यवर्गीय महानगरीय बोध की सीमाओं में सिकुड़ने लगी. जनता के गहरे गुस्से, क्षोभ और तिलमिलाहट से भरी बेचैन कविता की जगह संतुलन और सामंजस्य से भरी, सहानुभूति से युक्त शाश्वत आशावाद की कविताएं रची जाने लगीं. जनता के उत्पीड़न,  संघर्ष और यथार्थ के जटिलबोध की जगह कविता के आकाश को चिड़िया, फूल, पत्तियों से भरा जाने लगा. घर-परिवार, व्यक्तिगत, सुख-दुख में सीमित दृष्टि अपने वक्त की समग्र और वास्तविक पहचान को धूमिल करने लगी, तीसरी धारा के कवियों ने इस मानसिकता से छुटकारा पाया. उन्होंने घर-परिवार, बच्चों व औरतों की त्रासद स्थितियों के लिए जिम्मेदार पितृसत्तात्मक, सामंतवादी, पूंजीवादी साम्राज्यवादी व उपभोक्तावादी संरचनाओं व सम्बन्धों पर आघात करते हुए उनके संघर्षपूर्ण रूप की अभिव्यक्ति की.

शंख के बाहर खड़ी है मां
कनपटी पर एक लम्बे बाघ की छाया लिये
दहाड़ से मां की त्वचा फट रही है
नारियल की रस्सियों की तरह लहू बह कर आ रहा है.[18]

इन कवियों ने कुंठा, पराजय, मुत्यु-संत्रास और निरर्थकता की जगह जीवन के प्रति आस्था और विश्वास का स्वर प्रबल किया. इनके यहां सामाजिक-राजनीतिक परिस्थतियों की स्पष्ट व्याख्या है, उसकी वस्तुगत समझ है. वे सच कहने से कतराते नहीं या प्रतीकात्मकता का आधार लेकर सच को झुठलाते नहीं, बल्कि उनका साहसीपन सच को निर्भीकता से कह देने में है. उनके पास महानगरीय विडम्बनाओं, मध्यवर्गीय विद्रूपताओं व निराशापूर्ण माहौल के खिलाफ सामाजिक बदलाव की निश्चित स्वप्नदृष्टि है. अनुभव के आधार पर वे जानते हैं कि सत्ता अपने तमाम भयानकतम हथियारों का इस्तेमाल करने के बावजूद जनता में सुलगती विद्रोह की भावना और नई दुनिया बसाने के सपने को दबा तो सकती है किन्तु उसे खत्म नहीं कर सकती. जनता का आंदोलन ठहराव और विभाजन का शिकार होने के बावजूद जनता में सुलगती विद्रोह की भावना और नई दुनिया बसाने के सपने को दबा तो सकती है किन्तु उसे खत्म नहीं कर सकती. जनता का आंदोलन ठहराव और विभाजन का शिकार होने के बावजूद पृष्ठभूमि में चलता रहता है. जनता अपनी रोजमर्रा जिन्दगी में सघर्ष करती ही रहती है और उसके हाथ लगातार सत्ता के मानचित्र को पलट देने के लिए उठते ही रहते हैं. वक्त आने पर यही हाथ हथियार भी थाम लेते हैं :

आखिरकार फैसला तो वे हाथ ही करेंगे,
वे हाथ
जिनमें
वक्त बंदूकें थमा दिया करता है ……….
वे हाथ
जो
लगातार उग रहे हैं
बरस रहे हैं
खेतों मे, खलिहानों में, सड़कों में गलियों में[19]

जनता की अनवरत संघर्ष चेतना से सम्बद्धता ही इन कवियों को क्रांतिकारी आस्थावाद की ओर ले जाती है और इसके प्रभाव में वे नितांत दमनकारी और निराशा भरे माहौल मे भी अपने शब्दों को अंधेरे में नहीं छोडने का निश्चय करते हैं. उनके शब्द अपने भीतर रोशनी की ऊष्मा लिए रहते हैं :

शब्द बोलते हैं सच
शब्दों में छुपता है झूठ और शब्दों में ही मारा जाता है[20]

हिन्दी कविता में साठ के दशक के बाद की पीढ़ी के कवियों, पुराने प्रगतिशीलों और जनवादी कवियों पर भी इस परिवर्तन का व्यापक असर देखने को मिलता है. धूमिल की ‘पटकथा’, रघुवीर सहाय की ‘पानी-पानी’, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ‘कुआनो नदी’, लीलाधर जगूड़ी की ‘नाटक जारी है, और केदारनाथ सिंह की उस दौर की कविताएं इसी असर और संदर्भ की कविताएं हैं. पुराने प्रगतिशीलों में नागार्जुन, त्रिलोचन और शमशेर पर भी उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है. नागार्जुन की ‘भोजपुर’, त्रिलोचन की ‘नगई महरा’, केदारनाथ अग्रवाल के गीत और शमशेर की अनेक कविताएं इसी तेवर की हैं. जनवादी कवियों में राजेश जोशी, विजेद्र, नरेद्र जैन, कुलदीप सलिल, मनमोहन, इब्बार रब्बी, शलभ श्रीराम और ऋतुराज की कविताएं भी समकालीन जनजीवन के असंतोष और संघर्ष के गहरे चित्र प्रस्तुत करती है. इसके अलावा ऐसे कवियों पर भी असर पड़ा, जिन्हें आज किसी भी धारा में गिना नहीं जाता है किन्तु जो अपने रचना कर्म की दृष्टि और विचार से व्यापक जनवादी धारा से जुड़े हुए हैं.

बतौर निष्कर्ष


कविता की तीसरी धारा के कवि निस्संदेह मध्यवर्ग से आये हैं किन्तु, मध्यवर्गीय सीमाओं को लांघते हुए इन्होंने न सिर्फ सर्वहारा दृष्टि विकसित की. उसके पक्ष में और उनके बीच रह कर कविताओं की रचना की, अपितु जन-जीवन के विविध रूपों से ओत-प्रोत और साधारण वर्ग में उपस्थित सौंदर्याभिरूचि निश्चित कर सांस्कृतिक राजनीतिकरण करने की ओर कदम बढ़ायें. गोरख पांडेय इसका बेमिसाल सबूत हैं. भोजपुरी में लिखे उनके गीत आज पूरे भारत में जनसंघर्ष का प्रतीक हैं. इन कवियों ने किसानों-मजदूरों, युवाओं, औरतों, दलितों, प्रति और जीवन को उनकी वस्तुगत सच्चाईयों और सत्ता के साथ उनके अन्तर्विरोधों के रूप में देखा व गहरी मानवीय संवेदना और व्यापक संघर्षशील दृष्टि से परिपूर्ण चित्र प्रस्तुत किये. गोरख पांडेय की ‘कैथरकलां की औरतें’ और आलोक धन्वा की ‘ब्रूनो की बेटियां’ और ‘भागी हुई लड़कि्यां इस संदर्भ की बेमिसाल कविताएं हैं.

तीसरी धारा के इन कवियों ने रहस्यमय, अस्पष्ट, दिग्भ्रमित और निष्कर्षहीन भाषा संसार की जगह स्पष्ट, सरल और सत्य को व्यापक संदर्भों में अभिव्यक्ति करने वाली भाषा के संसार का सृजन किया. उन्होंने तथाकथित जनवादी छद्म और जनभाषा की तटस्थ शब्दावली को छोड़ कर उसके समानान्तर काव्यभाषा का एक ऐसा रचनात्मक संसार खड़ा किया जिसमें कवि साकार समूह का आत्मचेतन विस्तार प्राप्त करते हैं. मध्यवर्गीय बोध की जालपूर्ण भाषा के खिलाफ उनकी कविताओं की भाषा इकहरी प्रतीत होती है, किन्तु उसमें जन ऊष्मा से परिपूर्ण गहरी मानवीय संवेदना छलक-छलक आती है. उन्होंने जटिल और दुर्बोध काव्यशिल्प की जगह जनता के बीच उपस्थित विभिन्न जन कला-रूपों व शैलियों को खोजा, उनका परिष्कार किया और लोकगीतों से परिपूर्ण गीतों, गजलों व कविताओं की रचना संभव हुई जिसमें रूप और वस्तु के बीच जबरदस्त सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश दिखाई पड़ती है.

कविता की तीसरी धारा के कवि सभी पिछले प्रगतिशीलों से प्रेरणा ग्रहरण कर रहे थे और जनवादी कवियों के समानान्तर प्रतीकात्मकता और बिम्बात्मकता के धुंधलके को छांटते हुए जन जीवन की विडम्बना और संघर्ष का गहरा चित्रण कर रहे थे. इस संदर्भ में तीसरी धारा के काव्य आंदोलन को प्रगतिवादी व जनवादी कविता से काट कर नहीं देखा जा सकता अपितु इस आंदोलन को उनके क्रांतिकारी विस्तार के रूप में ही समझ जा सकता है, ‘विरसम, अखिल भारतीय क्रांतिकारी लेखक संघ, राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा व जन संस्कृति मंच के उद्भव ने तीसरी धारा के कवियों की वैचारिक क्षमता व सांगठनिक कार्यवाही को कार्य रूप देकर ही इस आंदोलन को मजबूत किया.

अंत में यह कहा जा सकता है कि आजाद भारत के पूर्व तेभागा और बाद मे ‘तेलंगाना’ के बाद नक्सलबाड़ी विद्रोह बड़ा और व्यापक किसान विद्रोह है. इसने भारतीय समाज के राजनीतिक परिदृश्य पर क्रांतिकारी वाम चेतना को संभव बनाया और मुक्तिबोध के शब्दों में ‘सच के तरह से बाहर लाने’ के साहसपूर्ण कार्य को सरंजाम दिया. इसका प्रभाव अन्य चीजों के अलावा साहित्य पर बहुत गहरा पड़ा. इस आंदोलन की व्यापकता के फलस्वरूप हिन्दी कविता में क्रांतिकारी वाम चेतना से लैस कविता के तीसरे संसार की उत्पत्ति हुई जिसने पिछले शीतयुद्धीय और पूंजीवादी राजनीति से प्रभावित, दिग्भ्रमित और दिशाहीन साहित्यांदोलनों के जाल को काटा और प्रगतिशीलता और जनवादी कार्य का न केवल विस्तार किया बल्कि जन कला और जन साहित्य के नये प्रतिमान रच कर उसे नये मायने भी दिये.      
मुकेश मानस :१५ अगस्त १९७३,बुलंदशहर (उत्तर-प्रदेश)
दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में Ph.D
दो कविता संग्रह – पतंग और चरखड़ी (२००१), कागज एक पेड़ (२०१०)
उन्नीस सौ चौरासी (2005) शीर्षक से कहानी संग्रह
कंचा इलैया के Why I am not a hindu और ऍम एन राय के India in Transition का हिंदी में अनुवाद
मीडिया लेखन : सिद्धांत और प्रयोग और
हिंदी कविता की तीसरी धारा  प्रकाशित
सत्यवती कालेज में सहायक प्रोफेसर
·       

  ई-पता: mukeshmaanas@gmail.com

_________________________________________________________________

[1] मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, राजकमल, पृष्ठ-39
[2] सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा, शशिप्रकाश, राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा  प्रकाशन, 1984। पृष्ठ-11
[3] नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिन्दी कविता, सियाराम शर्मा, पल प्रतिपल- 42, पृष्ठ-138
[4] वही
[5] रचना के सरोकार, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, वाणी प्रकाशन, 1987, पृष्ठ-125
[6] लोहा गरम हो गया है,गोरख पांडेय, जन संस्कृति मंच, 1990, पृष्ठ-50
[7] साहित्य के बुनियादी सरोकार, कर्णसिंह चौहान, पीपुल्स लिटरेसी, 1982, पृष्ठ-156
[8] इस नवा्न्न में, ज्ञानरंजन, ज्ञानरंजन, संभावना, 1979, भूमिका
[9] शुरूआत, उग्रसेन द्विवेदी, जनवादी साहित्य कला मंच, 1970, पृष्ठ-10
[10] शुरूआत, उग्रसेन, जनवादी साहित्य कला मंच, 1970, पृष्ठ-37
[11] लोहा गरम हो गया है,गोरख पांडेय, जन संस्कृति मंच, 1990, पृष्ठ-55
[12] नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिन्दी कविता, सियाराम शर्मा, पल-प्रतिपल-42, पृष्ठ-155
[13] नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिन्दी कविता, सियाराम शर्मा, पल प्रतिपल- 42, पृष्ठ-156
[14] बसंत के बादल, शिवमंगल सिद्धान्तकर, किरावल, 1978, पृष्ठ-19  
[15] स्वर्ग से विदाई, गोरख पांडेय, जन संस्कृति मंच, 1990, पृष्ठ-41
[16] एक छोटी सी लड़ाई, कुमार विकल, संभावना, 1992, पृष्ठ-76
[17] धूल और धुआं, शिवमंगल सिद्धान्तकर, हिरावल, 1981, पृष्ठ-19  
[18] दुनिया रोज बनती है, आलोक धन्वा, राजकमल, 1999, पृष्ठ-39
[19] हवाएं चुप नहीं रहतीं, वेणुगोपाल, 1980, पृष्ठ-80
[20] आदमी को निर्णायक होना चाहिए, महेश्वर प्रकाशन, 1993, पृष्ठ-66  
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