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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : उत्पल बैनर्जी

सहजि सहजि गुन रमैं : उत्पल बैनर्जी

(आभार सहित फोटो द्वारा youth ki awaaz) उत्पल बैनर्जी ने बांग्ला भाषा से हिन्दी में स्तरीय अनुवाद किये हैं, वे हिंदी के समर्थ कवि भी हैं. उनका पहला संग्रह ‘लोहा बहुत उदास है’ सन 2000 में प्रकाशित हुआ था.   उत्पल की इन सात कविताओं में कविता तो है ही कारपोरेट वैश्वीकरण से दम तोड़ती इक्कीसवीं […]

by arun dev
January 27, 2017
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(आभार सहित फोटो द्वारा youth ki awaaz)

उत्पल बैनर्जी ने बांग्ला भाषा से हिन्दी में स्तरीय अनुवाद किये हैं, वे हिंदी के समर्थ कवि भी हैं. उनका पहला संग्रह ‘लोहा बहुत उदास है’ सन 2000 में प्रकाशित हुआ था.  

उत्पल की इन सात कविताओं में कविता तो है ही कारपोरेट वैश्वीकरण से दम तोड़ती इक्कीसवीं शताब्दी की पहले दशक की भारत जैसे देशों की सामाजिक मार्मिकता  है.  बांधों में डूबती सभ्यताएं हैं, आपदा की तरह फसलों को घेरे किसनों की आत्महत्याएं हैं. निर्वासित होती कौमें हैं.  विकल्पहीनता की हिंसा है.

गरज कि कवि अपनी चेतना और चिंता का दायरा वैश्विक रखता है पर वह उन्हें रचता अपनी जमीन पर है.  उनमें सौन्दर्य की एक मासूम सी पहचान  है जो अंतत: हमें बचायेगी.




उत्पल बैनर्जी की कविताएँ                        




ll निर्वासन ll
अपनी ही आग में झुलसती है कविता
अपने ही आँसुओं में डूबते हैं शब्द.
जिन दोस्तों ने
साथ जीने-मरने की क़समें खाई थीं
एक दिन वे ही हो जाते हैं लापता
और फिर कभी नहीं लौटते,
धीरे-धीरे धूसर और अपाठ्य हो जाती हैं
उनकी अनगढ़ कविताएँ और दुःख,
उनके चेहरे भी ठीक-ठीक याद नहीं रहते.
अँधेरा बढ़ता ही जाता है
स्याह पड़ते जाते हैं उजाले के मानक,
जगर-मगर पृथ्वी के ठीक पीछे
भूख की काली परछाई अपने थके पंख फड़फड़ाती है,
ताउम्र हौसलों की बात करने वाले
एक दिन आकंठ डूबे मिलते हैं समझौतों के दलदल में,
पुराने पलस्तर की मानिन्द भरभराकर ढह जाता है भरोसा
चालाक कवि अकेले में मुट्ठियाँ लहराते हैं.
प्रतीक्षा के अवसाद में डूबा कोई प्राचीन राग
एक दिन चुपके से बिला जाता है विस्मृति की गहराई में,
उपेक्षित लहूलुहान शब्द शब्दकोशों की बंद कोठरियों में
ले लेते हैं समाधि,
शताब्दियों पुरानी सभ्यता को अपने आग़ोश में लेकर
मर जाता है बाँध,
जीवन और आग के उजले बिम्ब रह-रह कर दम तोड़ देते हैं.
धीरे-धीरे मिटती जाती हैं मंगल-ध्वनियाँ
पवित्रता की ओट से उठती है झुलसी हुई देहों की गन्ध,
नापाक इरादे शीर्ष पर जा बैठते हैं,
मीठे ज़हर की तरह फैलाता जाता है बाज़ार
और हुनर को सफ़े से बाहर कर देता है,
दलाल पथ में बदलती जाती हैं गलियाँ
सपनों में कलदार खनकते हैं,
अपने ही घर में अपना निर्वासन देखती हैं किसान-आँखें
उनकी आत्महत्याएँ कहीं भी दर्ज़ नहीं होतीं.
अकेलापन समय की पहचान बनता जाता है
दुत्कार दी गई किंवदंतियाँराजपथ पर लगाती हैं गुहार
वंचना से धकिया देने में खुलते जाते हैं उन्नति के रास्ते
रात में खिन्न मन से बड़बड़ाती हैं कविताएँ
निःसंग रात करवट बदल कर सो जाती है.
ll हममें बहुत कुछ ll
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था …..
वन्यपथ पर ठिठक कर
अचानक तुम कह सकती थीं
यह गन्ध वनचम्पा की है
और वह दूधमोगरा की,
ऐसा कहते तुम्हारी आवाज़ में उतर आती थी
वासन्ती आग में लिपटी
मौलसिरी की मीठी मादकता,
सागर की कोख में पलते शैवाल
और गहरे उल्लास में कसमसाते
संतरों का सौम्य उत्ताप
तुम्हें बाढ़ में डूबे गाँवों के अंधकार में खिले
लालटेन-फूलों की याद दिलाता था
जिनमें कभी हार नहीं मानने वाले हौसलों की इबारत
चमक रही होती थी.
मुझे फूल और चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते थे
और न ही उनकी पहचान
लेकिन मैं पहचानता था रंगों की चालाकियाँ
खंजड़ी की ओट में तलवार पर दी जा रही धार की
महीन और निर्मम आवाज़ मुझे सुनाई दे जाती थी
रहस्यमय मुस्कानों के पीछे उठतीं
आग की ऊँची लपटों में झुलस उठता था
मेरा चौकन्नापन
और हलकान होती सम्वेदनाका सम्भावित शव
अगोचर में सजता दिखता था मूक चिता पर.
तुम्हें पसन्द थी चैती और भटियाली
मुझे नज़रुल के अग्नि-गीत
तुम्हें खींचती थी मधुबनी की छवि-कविता
मुझे डाली*  का विक्षोभ
रात की देह पर बिखरे हिमशीतल नक्षत्रों की नीलिमा
चमक उठती थी तुम्हारी आँखों के निर्जन में
जहाँ धरती नई साड़ी पहन रही होती थी
और मैं कन्दराओं में छिपे दुश्मनों की आहटों का
अनुमान किया करता था.
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था …..
एक थी हमारी धड़कनें
सपनों के इंद्रधनुष का सबसे उजला रंग   ….. एक था.
अकसर एक-सी परछाइयाँ थीं मौत की
घुटनों और कंधों में धँसी गोलियों के निशान एक-से थे
एक-से आँसू, एक-सीनिरन्तरता थी
भूख और प्यास की,
जिन मुद्दों पर हमने चुना था यह जीवन
उनमें आज भी कोई दो-राय नहीं थी.
(* डाली – विश्वप्रसिद्ध चित्रकार सल्वाडोर डाली)
ll घर ll
मैं अपनी कविता में लिखता हूँ ‘घर’
और मुझे अपना घर याद ही नहीं आता
याद नहीं आती उसकी मेहराबें
आले और झरोखे
क्या यह बे-दरो-दीवार का घर है
बहुत याद करता हूँ तो
टिहरी हरसूद याद आते हैं
याद आती हैं उनकी विवश आँखें
मौत के आतंक से पथराई
हिचकोले खाते छोटे-छोटेघर ….. बच्चों-जैसे,
समूचे आसमान को घेरता
बाज़ नज़र आता है … रह-रह कर नाखू़न तेज़ करता हुआ
सपनों को रौंदते टैंक धूल उड़ाते निकल जाते हैं
कहाँ से उठ रही है यह रुलाई
ये जले हुए घरों के ठूँठ …. यह कौन-सी जगह है
किनके रक्त से भीगी ध्वजा
अपनी बर्बरता में लहरा रही है …. बेख़ौफ़
ये बेनाम घर क्या अफ़ग़ानिस्तान हैं
यरुशलम, सोमालिया, क्यूबा
इराक हैं ये घर, चिली कम्बोडिया…
साबरमती में ये किनके कटे हाथ
उभर आए हैं …. बुला रहे हैं इशारे से
क्या इन्हें भी अपने घरों की तलाश है
मैं कविता में लिखता हूँ ‘घर’
तो बेघरों का समुद्र उमड़ आता है
बढ़ती चली आती हैं असंख्य मशालें
क़दमों की धूल में खो गए
मॉन्यूमेण्ट, आकाशचूमते दंभ के प्रतीक
बदरंग और बेमक़सद दिखाई देते हैं.
जब सूख जाता है आँसुओं का सैलाब
तो पलकों के नीचे कई-कई सैलाब घुमड़ आते हैं
जलती आँखों का ताप बेचैन कर रहा है
विस्फोट की तरह सुनाई दे रहे हैं
खुरदुरी आवाज़ों के गीत
मेरा घर क्या इन्हीं के आसपास है!
ll जिएँगे इस तरह ll
हमने ऐसा ही चाहा था
कि हम जिएँगे अपनी तरह से
और कभी नहीं कहेंगे — मजबूरी थी,
हम रहेंगे गौरैयों की तरह अलमस्त
अपने छोटे-से घर को
कभी ईंट-पत्थरों का नहीं मानेंगे
उसमें हमारे स्पन्दनों का कोलाहल होगा,
दुःख-सुख इस तरह आया-जाया करेंगे
जैसे पतझर आता है, बारिश आती है
कड़ी धूप में दहकेंगे हम पलाश की तरह
तो कभी प्रेम में पगे बह चलेंगे सुदूर नक्षत्रों के उजास में.
हम रहेंगे बीज की तरह
अपने भीतर रचने का उत्सव लिए
निदाघ में तपेंगे….  ठिठुरेंगे पूस में
अंधड़ हमें उड़ा ले जाएँगे सुदूर अनजानी जगहों पर
जहाँ भी गिरेंगे वहीं उसी मिट्टी की मधुरिमा में खोलेंगे आँखें.
हारें या जीतें — हम मुक़ाबला करेंगे समय के थपेड़ों का
उम्र की तपिश में झुलस जाएगा रंग-रूप
लेकिन नहीं बदलेगा हमारे आँसुओं का स्वाद
नेह का रंग …. वैसी ही उमंग हथेलियों की गर्माहट में
आँखों में चंचल धूप की मुसकराहट ….
कि मानो कहीं कोई अवसाद नहीं
हाहाकार नहीं, रुदननहीं अधूरी कामनाओं का.
तुम्हें याद होगा
हेमन्त की एक रात प्रतिपदा की चंद्रिमा में
हमने निश्चय किया था —
अपनी अंतिम साँस तक इस तरह जिएँगे हम
कि मानो हमारे जीवन में मृत्यु है ही नहीं.
ll लौटना ll
अभी आता हूँ — कहकर
हम निकल पड़ते हैं घर से
हालाँकि अपने लौटने के बारे में
किसी को ठीक-ठीक पता नहीं होता
लेकिन लौट सकेंगे की उम्मीद लिए
हम निकल ही पड़ते हैं,
अकसर लौटते हुए
अपने और अपनों के लौट आने का
होने लगता है विश्वास,
जैसे — अभी आती हूँ कहकर
गई हुई नदी
जंगलों तलहटियों से होती हुई
फिर लौट आती है सावन में,
लेकिन इस तरह हमेशा कहाँ लौट पाते हैं सब!
आने का कहकर गए लोग
हर बार नहीं लौट पाते अपने घर
कितना आसान होता है उनके लिए
अभी आता हूँ — कहकर
हमेशा के लिए चले जाना!
असल में
जाते समय — अभी आता हूँ … कहना
उन्हें दिलासा देना होता है
जो हर पल इस कश्मकश में रहते हैं
कि शायद इस बार भी हम लौट आएँगे
कि शायद इस बार हम नहीं लौट पाएँगे.
ll विकल्पहीनता ll
जनता के लिए
धीरे-धीरे एक दिन ख़त्म हो जाएँगे सारे विकल्प
सिर्फ़ पूँजी तय करेगी विकल्पों का रोज़गार
अच्छे इलाज के विकल्प नहीं रहेंगे
सरकारी अस्पताल,
न ही सरकारी बसें — सुगम यात्राओं के
सबसे ज़्यादा हिकारत की नज़रों से देखी जाएगी
शिक्षा-व्यवस्था
विश्व बैंक की निर्ममता
नहीं बचने देगी बिजली और पानी के विकल्प
विकल्पहीनता के सतत् अवसाद में डूबे रहते
एक दिन हम इसे ही कहने लगेंगे जीवन
और फिर जब खदेड़ दिए जाएँगे
अपनी ही ज़मीन गाँव और जंगलों से
तो फिर शहरों में आने
और दर-दर की ठोकरें खाकर मर जाने के अलावा
कौन-सा विकल्प बचेगा!!
हर ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेंगी सरकारें
वह कभी नहीं दे पाएगी
सोनागाछियों को जीने का कोई सही विकल्प!
अभिनेत्रियाँ कहने लगी हैं —
पर्दे और उसके पीछे बेआबरू होने के अलावा
अब कोई विकल्प नहीं बचा,
गाँव में घुसपैठ करते कोला-बर्गर का
हम कौन-सा कारगर विकल्प ला पाए हैं!
उजड़ गई हैं हमारी लोक-कलाएँ
हाट, मेले, तीज, त्योहार
राग, रंग, नेह, व्यवहार सब
बिला गए हैं इस ग्लोबल-अंधड़में,
हर शहर बनना चाहता है न्यूयॉर्क
अर्थ के इस भयावह तंत्र में
महँगी दवाइयों और सस्ती शराब का कोई विकल्प
हमारे पास मौजूद नहीं है.
पैरों तले संसद को कुचलते
ग़ुण्डे और अपराधी सरमायेदारों का
कौन-सा विकल्प ढूँढ़ सकी है जनता!!
आज
आज़ादी की आधी सदी बाद
उस मोटी किताब की ओर देखता हूँ
और सोचता हूँ  —
इस तथाकथित प्रजातंत्र का
क्या कोई विकल्प हो सकता था
हो सकता है.
ll आखेट ll
अलमारी में बंद किताबें
प्रतीक्षा करती हैं पढ़े जाने की
सुरों में ढलने की प्रतीक्षा करते हैं गीत
प्रतीक्षा करते हैं — सुने जाने की
अपने असंख्य क़िस्सों का रोमांच लिए
जागते रहते हैं उनके पात्र
जिस तरह दुकानों में
बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं खिलौने
किताबें, पढ़ने वालोंकी प्रतीक्षा करती हैं
लेकिन जब उन्हें नहीं पढ़ा जाता
जब वे उन हाथों तक नहीं पहुँच पातीं
जो उनकी असली जगह है
तो बेहद उदास हो जाती हैं किताबें
घुटन भरे अँधेरे में हाँफने लगते हैं उनके शब्द
सूखी नदी की तरह आह भरती उनकी साँसें
साफ़ सुनाई देती हैं
उन पर समय की धूल-सा झरता रहता है दुःख
धीरे-धीरे मिटने लगते हैं उनके जीवन के रंग
विवर्ण होते जाते हैं उनके सजीले चेहरे
देह सूखकर धूसर हो जाती है
वे बदरंग साड़ियाँ पहनी स्त्रियाँ हैं
जो जवानी में ही विधवा हो गई हैं,
वे अकसर कोसती हैं अपनी क़िस्मत को
कि आखि़र उन्हें क्यों लिखा गया
और इस तरह घुट-घुट कर
मरने के लिए धकेल दिया गया क़ब्र में,
रात के सन्नाटे में उनका विलाप
नींद की देहरी पर सिर पटकता फ़रियाद करता है,
धीरे-धीरे वे बीमार और जर्जर हो जाती हैं
ज़र्द होती जाती हैं आँखें
फेफड़ों को तार-तार कर देती है सीलन
उपेक्षा की दीमक उन्हें कुतर कर खा जाती हैं
दरअसल वे लावारिस लाशें हैं जिन्हें लेने कोई नहीं आता
किताबें
गाँव जंगलों से खदेड़ दिए गए लोग हैं
जिनका बाज़ार ने आखेट कर लिया है.

_____



उत्पल बैनर्जी, 
जन्म 25 सितंबर, 1967,(भोपाल, मध्यप्रदेश)  
मूलतः कवि. अनुवाद में गहरी रुचि.
‘लोहा बहुत उदास है’ शीर्षक से पहला कविता-संग्रह वर्ष 2000 में सार्थक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित.
वर्ष 2004 में संवाद प्रकाशन मुंबई-मेरठ से अनूदित पुस्तक ‘समकालीन बंगला प्रेम कहानियाँ’, वर्ष 2005 में यहीं से ‘दंतकथा के राजा रानी’ (सुनील गंगोपाध्याय की प्रतिनिधि कहानियाँ), ‘मैंने अभी-अभी सपनों के बीज बोए थे’ (स्व. सुकान्त भट्टाचार्य की श्रेष्ठ कविताएँ) तथा ‘सुकान्त कथा’ (महान कवि सुकान्त भट्टाचार्य की जीवनी) के अनुवाद पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. वर्ष 2007 में भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से ‘झूमरा बीबी का मेला’ (रमापद चौधुरी की प्रतिनिधि कहानियों का हिन्दी अनुवाद), वर्ष 2008 रे-माधव पब्लिकेशंस, ग़ाज़ियाबाद से बँगला के ख्यात लेखक श्री नृसिंहप्रसाद भादुड़ी की द्रोणाचार्य के जीवनचरित पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक ‘द्रोणाचार्य’ का प्रकाशन. यहीं से वर्ष 2009 में बँगला के प्रख्यात साहित्यकार स्व. सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘चित्रगुप्त की फ़ाइल’ के अनुवाद का पुस्तकाकार रूप में प्रकाशन. वर्ष 2010 में संवाद प्रकाशन से प्रख्यात बँगला कवयित्री नवनीता देवसेन की श्रेष्ठ कविताओं का अनुवाद ‘और एक आकाश’ शीर्षक से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. 2012 में नवनीता देवसेन की पुस्तक ‘नवनीता’ का हिन्दी में अनुवाद ‘नव-नीता’शीर्षक से साहित्य अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित. इस पुस्तक को 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. 
संगीत तथा रूपंकर कलाओं में गहरी दिलचस्पी. मन्नू भण्डारी की कहानी पर आधारित टेलीफ़िल्म ‘दो कलाकार’ में अभिनय. कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के निर्माण में भिन्न-भिन्न रूपों में सहयोगी. आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केंद्रों द्वारा निर्मित वृत्तचित्रों के लिए आलेख लेखन. इंदौर दूरदर्शन केन्द्र के लिए हिन्दी के प्रख्यात रचनाकार श्री विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, विष्णु नागर तथा अन्य साहित्यकारों से साक्षात्कार. प्रगतिशील लेखक संघ तथा ‘इप्टा’, इन्दौर के सदस्य.
नॉर्थ कैरोलाइना स्थित अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट के सलाहकार मण्डल के मानद सदस्य तथा रिसर्च फ़ैलो. बाल-साहित्य के प्रोत्साहन के उद्देश्य से सक्रिय ‘वात्सल्य फ़ाउण्डेशन’ नई दिल्ली की पुरस्कार समिति के निर्णायक मण्डल के भूतपूर्व सदस्य. राउण्ड स्क्वॉयर कांफ्रेंस के अंतर्गत टीचर्स-स्टूडेंट्स इंटरनेशनल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत मई 2009 में इंडियन हाई स्कूल, दुबई में एक माह हिन्दी अध्यापन.
सम्प्रति – 
डेली कॉलेज, इन्दौर, मध्यप्रदेश में हिन्दी अध्यापन.
पता – भारती हाउस (सीनियर), डेली कॉलेज कैंपस, इन्दौर – 452 001, मध्यप्रदेश.
मोबाइल फ़ोन – 94259 62072/ ईमेल :     banerjeeutpal1@gmail.com
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