यहाँ कोई नहीं आता
बुराइयाँ हैं दुनिया में जब तक
अच्छाइयाँ भी रहेंगी
लड़े गये युद्ध मिथकों से निकल कर
सड़कों पर घनघोर होते जायेंगे
अभी जो भ्रूण भी नहीं बने हैं वे बच्चे भी
जवानी में मार दिये जायेंगे
खून के चटखारे लगाता
हवस का शहंशाह
हिंसा का चटपटा स्वाद ले रहा होगा
न्याय और सत्य के उसके अपने फलसफ़े होंगे
जिन्हें उसकी ताकत
जनता के यकीन में बदल रही होगी
तब भी लेकिन शहादतें लिखी जा रही होंगी
उसी उफ़ान पर
मर्सिये पढ़े जा रहे होंगे
इस युद्ध में लेकिन यही तय नहीं हो पायेगा कि
अच्छा कौन और बुरा क्या है
और यह कि
मिथकों से आया वह नायक
दरअसल किस तरफ खड़ा है
और कि
देवता सभी स्वर्ग के किस ध्वज तले शंखनाद करेंगे
हम वही युद्ध लड़ रहे हैं
जो पहले भी लड़े गये हैं
फ़र्क बस इतना है कि
अब सच के
हजार चेहरे हैं
और
पहचानना मुश्किल कि
इनमें से कौन मेरी तरफ है
और कौन उनकी तरफ.
चाँद पर
समय बदला पर
यह ताकतवरों के हमलावर होने का समय है
और निशाना इस बार सिर पर नहीं
सोच पर है
मैं हमलों से घिरी हुई ज़ुबान का
कवि हूँ जिसके
पन्नों से घाव रिसते हैं
मेरी सोच का वर्तमान
अपनी ज़मीन पर अजनबी हो कर
अनजानी सरहदों में खो गया है
उधार की भाषा नहीं समझ पाती है मेरी बात
सदी दर सदी
वे मारते ही जाते हैं
अलग अलग तरीकों से मुझे
अपनी मुट्ठी में जकड़ लेना चाहते हैं
मेरा आकाश.
जिन्हें मिट जाने का भय है
उनकी प्यासी देवी
मेरी बलि माँगती है हर बार.
न मैं थकता हूँ
न वे
और यह खेल खेलते हुए हम
पिछली सदियों से निकल आये हैं
इस सदी में
समय बदला पर
न जीने की जिद्दी ज़ुबाँ बदली
न ताकत के तरीके.
वह मसीहा बन गया है
हत्या के दाग
अब उस तरह काबिज़ नहीं हैं उसके चेहरे पर
उनके सायों को अपनी दमक में
वह धुँधला चुका है
उसकी चमक में
पगी हुई हैं भक्तित उन्वानों की
आकुल कतारें
उसकी दमक में चले आ रहे सम्मोहित लोगों की
भीड़ से उठते
वशीभूत नारे
आकण्ठ उन्मत्त
स्तुतियों की दीर्घ जीवी सन्तानों का मलय गान
उसकी धरती पर बरस रहा है
काली बरसात के मेढ़कों के मदनोत्सव पर
किसी नव यौवना की अंगभूत कसक
उसका वसन्त रचती हुई
मादक कल्प में अवतरित हुई थी
ताकत की बेलगाम हवस के माथे चढ़ कर
वह रचयिता है नये धर्मों का धर्म ग्रन्थों का
उसकी कमीज़ में फिट होते फ़लसफ़ों का
सृष्टि का नियामक वह सत्ता का
एक परोसा हुआ संकट
खुद को हल करता हुआ
नये चुस्त फॅार्मुलों से
ब्रैण्ड के पुष्पक विमान से
दुनिया लाँघता फूल बरसाता यहाँ आ चुका है…
अब वह मुझमें है
तुममें है
हमसे अलग कहीं नहीं
वह विजेता है नई सदी का
गरीबों का नाम जपता
उनकी लाशों पर पनपता
मसीहा है वह
मरणशील नक्षत्रों का
जहाँ हम जीवित हैं
जीते नहीं.
गिर गये हैं
और उसके चारों तरफ धुन्ध फैलती जा रही है
जबकि उसे खोजने मिथकों में जा रहे हैं लोग
वह एक द्वीप हो गया है
कोई भी भाषा चल कर उस तक नहीं आ सकती
अब वह अपने जैसा ही किसी को ढूँढ़ता है
सड़क बाज़ार और इन्टरनेट पर.
सिर्फ इतना कि वह काले को काला कहता है, ग्रे नहीं
और काले को काला कह देने लायक कोई भाषा नहीं बची
अब वह जो भी कहता है पहेली की तरह लिया जाता है
जिसमें काले का अर्थ कुछ भी हो सकता है, काला नहीं
अपने लोगों के बीच एक द्वीप हो जाना
जीते जी लुप्त हो जाना है और ऐसे ही कितने लोग
अकेले लुप्त हुए जा रहे हैं
जबकि आँकड़े बताते हैं कि आबादी बढ़ रही है
यह किसकी आबादी है ?
वह इन बेरहम फासलों से हाथ उठा उठा कर चिल्लाता है और
कुछ कहता है पर व्यस्त लोग
अपनी अपनी जुगत में उसकी बगल से निकल जाते हैं
वह एक काले कैनवास पर तिरछी लकीरें खींचता है और
बताता है यह मेरा समय है
जिसकी तिरछी लकीरें कैनवास के बाहर मिलकर
नई संरचना तैयार कर रही हैं
चित्र कैनवास के बाहर शून्य में आकार लेते हैं
उसका मन रोज एक खाई बनाता है
जिसे वह रोज पार करता है
जगत इसकी व्याख्या में उलझा रहता है.
कई दहक हैं
कई दहक हैं तंग रातों के
अँटे हुए कण्ठ में.
लबालब भरी देहों का कारवाँ
आहत खीज में दरवाजे पटकता झरोखे उखाड़ता है
कोई सिरा नहीं मिलता
इस यात्रा में भोली छाँहों के छल थे
प्यास भर पानी दिखाते कुँओं में
रिझाई हुई छलाँगें लगा कर
लापता हुए चेहरों की शिनाख़्त
गैर जरूरी थी
कोई वादा नहीं था भरोसे का
कोई बात बे-वादा नहीं थी.
विकल्प के नाम पर कई जुगनू थे आँखों में
जो सितारे थे
कहीं और ही महफूज़ थे.
इस यात्रा में
इस दूर तक पसरे बीहड़ में
मुझे रह-रह कर एक नदी मिल जाती है
तुमने नहीं देखा होगा
नमी से अघाई हवा का
बरसाती सम्वाद
बारिश नहीं लाता
उसके अघायेपन में
ऐंठी हुई मिठास होती है
अब तक जो चला हूँ
अपने भीतर ही चला हूँ
मीलों के छाले मेरे तलवों
मेरी जीभ पर भी हैं
मेरी चोटों का हिसाब
तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा
इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर
उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं
इन छालों पर
मेरी शोध के निशान हैं
धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें
सुख के दिनों में ढहने की
दास्तान है
जब पहुँचूँगा
खुद को लौटा हुआ पाऊँगा
सब कुछ गिरा कर
लौटना किसी पेड़ का
अपने बीज में
साधारण घटना नहीं
यह अजेय साहस है
पतन के विरुद्ध.
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