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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज चतुर्वेदी की नयी कविताएँ

सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज चतुर्वेदी की नयी कविताएँ

(पेंटिग : Salman Toor : Imaginary Multicultural Audience :2016 पंकज चतुर्वेदी की कविताएँ राजनीतिक हैं, सभ्यता अब तक जहाँ पहुंची है उसके पक्ष में खड़ी हैं और उसे और विकसित होते देखने का सपना देखती हैं. मनुष्यता की अब तक की अर्जित समझ में जिनका यकीं नहीं है और जो सभ्यता को बर्बरता में बदल देना चाहते […]

by arun dev
November 2, 2016
in Uncategorized
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(पेंटिग : Salman Toor : Imaginary Multicultural Audience :2016


पंकज चतुर्वेदी की कविताएँ राजनीतिक हैं, सभ्यता अब तक जहाँ पहुंची है उसके पक्ष में खड़ी हैं और उसे और विकसित होते देखने का सपना देखती हैं.
मनुष्यता की अब तक की अर्जित समझ में जिनका यकीं नहीं है और जो सभ्यता को बर्बरता में बदल देना चाहते हैं उनके खिलाफ  हैं और  हमारे समय की विडम्बना पर गहरी मार करती हैं.
उनकी कुछ नयी कविताएँ आपके लिए.

पंकज चतुर्वेदी की नयी कविताएँ                          


विपत्ति

सौन्दर्य के अभाव के लिए
कोशिश नहीं करनी पड़ती
वह एक विपत्ति है

देखना

सत्ता अगर तुम्हारी
सराहना करे
तो देखना
कि जनता से तुम
कितनी दूर आ गये हो
देश जनता ही है
वह किसी भू-भाग का
नाम नहीं

अफ़सोस

सत्ता कल्पना करती है
देश की
जिसमें उससे असहमत लोग
न रहते हों
देश को अफ़सोस रहता है
कि उसने किन हाथों में
अपने को सौंप दिया है

अजीब

वे समझते हैं
कि वे तुम्हें मिटा चुके
इसलिए उनका हमला
तुम्हारे वजूद पर नहीं
नज़रिये पर है
क्योंकि वह क़ायम रहा
तो एक दिन लालिमा
सब ओर छा सकती है
जैसे किसी वसंत में
पलाश के फूल
वे तुम्हें अपशब्द कहते हैं
क्योंकि डरते हैं
तर्क की तेजस्विता ही नहीं
सौन्दर्य की सम्भावना से भी
क्षुद्रता तुम्हें अपनी तरह
बना लेना चाहती है
ताकि तुम उससे उबरना न चाहो
और गिरना ही उठना मालूम हो
यह कितना अजीब है
कि हिंसा वही करता है
जो दयनीय है
जिसे लगता है कि ईश्वर भी
उसके राज्याभिषेक के लिए
निर्दोष लोगों की
हत्या कर सकता है
जो अपनी आत्मा को
नहीं बचा पाया
करुणा के अभाव से
वह उत्पीड़न के अस्त्र से
देश को बचाना चाहता है

इंतिज़ाम

सत्ता अपयश से नहीं डरती
कोई निर्दोष मारा गया
तो वह कहती है :
यह हत्या नहीं
मृत्यु है
क़ुदरत जो करती है
उसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं
ईश्वर का जो विधान है
उसे कौन टाल सकता है
लोग जीना नहीं चाहते
तो राज्य क्या करे
और ऐसा तो है नहीं
कि जब हम नहीं थे
तब मृत्यु नहीं थी
मगर पहले जो कहते नहीं थे
अब उसे हत्या कह रहे हैं
हम इस साज़िश को
बेनक़ाब करेंगे
सत्ता अपयश से नहीं डरती
वह यश का इंतिज़ाम करने में
यक़ीन करती है

क्या ज़्यादा दुखद है

तुम जब किसी को पूँजीपति बनाते हो
तो एक दिन उसे सांसद भी
बनाना पड़ता है
और फिर वह देश के
सैकड़ों करोड़ रुपये लेकर
विदेश भाग जाता है
तब क्या ज़्यादा दुखद है
एक पूँजीपति का भाग जाना
या एक सांसद का ?
राजनीतिक तरक़्क़ी के लिए
तुम जब किसी अपराधी की
मदद लेते हो
तो एक दिन उसे संसद में भी
बिठाना पड़ता है
तब क्या ज़्यादा दुखद है
कि तुम उसके बग़लगीर हो
या वह भी बैठा है संसद में
या फिर यह कि इस देश की
ग़रीब और निरपराध जनता को
तुम संसद में पहुँचने
देना नहीं चाहते ?

व्यंग्य

मंत्री जी ने कहा :
मैं यह नहीं कहता
कि सिर्फ़ हम
देश को बचायेंगे
उसे तो
हम सब बचायेंगे
इस बेचारगी में
यह व्यंग्य निहित था
कि जो काम
सबको मिलकर
करना चाहिए
वह सत्ता को
अकेले करना
पड़ रहा है

जब कोई हत्यारा कहता है

जब कोई हत्यारा कहता है
कि वह संविधान की
इज़्ज़त करता है
उससे डरता है
तब यही मानो कि समाज के
एक हिस्से ने उसे
इतनी इज़्ज़त बख़्शी है
कि वह ऐसा कह पा रहा है
दूसरा हिस्सा उसके
दावे पर ख़ामोश रहता है
क्योंकि वह अभी हत्या की
ज़द में नहीं आया
बाक़ी लोग इस दहशत में
चुप रहते हैं
कि जो पहले हो चुका
उसका फिर सामना न करना पड़े
उनको या दूसरों को
जो उनके ही बिरादर हैं

बिम्ब-प्रतिबिम्ब

अगर बग़ैर काम-काज के
संसद चल रही है
तो राज्य की
अन्य संस्थाएँ भी
इतनी ही नाकामी से
चल रही होंगी
कम-से-कम इस मानी में
संसद सिर्फ़ अपना नहीं
लोकतंत्र के दूसरे
खंभों का भी
हाल कहती है

विवशता

जब कभी सुनता हूँ
किसी का उन्मादी स्वर :
\’\’संविधान न होता
तो हम लाखों का
सिर उतार लेते\’\’
तब यही समझता हूँ
कि सभ्यता
उसका स्वभाव नहीं
विवशता है

हाय

बड़े-बड़े मुद्दों से शुरू किया था तुमने
चुनाव अध्याय
अन्त में बची रह गयी गाय
हाय हाय !

आशय

जब भी कोई अभियुक्त कहता है :
उसे देश के क़ानून में
पूरी आस्था है
तो वह दरअसल
कहना चाहता है
कि उसे पक्का यक़ीन है
कि अभियोग से छूटने में
क़ानून उसकी मदद करेगा

भारतमाता

माँ कहती है :
कोई तुम्हारे साथ बुरा करे
तो भी तुम अच्छा ही करना
वही मेरी
भारतमाता है

प्रत्याशा

मैं शत-प्रतिशत सहमति की
प्रत्याशा में ही नहीं लिखता
इसलिए भी लिखता हूँ
कि वह छीलता चला जाय
अगर मैंने तुम्हारी आलोचना की
और तुम्हें उससे तकलीफ़ हुई
तो मुझे उम्मीद होती है :

अभी बच सकता है समाज 
_____________________

पंकज चतुर्वेदी  
हिन्दी विभाग                                                                 
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय                                                         
सागर (म.प्र.)—470003
मोबाइल-09425614005                                                       
ई-मेल- cidrpankaj@gmail.com


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