• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सहजि सहजि गुन रमैं : प्रमोद कुमार तिवारी

सहजि सहजि गुन रमैं : प्रमोद कुमार तिवारी

प्रमोद कुमार तिवारी देशज संवेदना के रस –सिक्त कवि हैं.  जब समकालीन कवियों ने जनमानस की पर्व – परम्परा पर लगभग लिखना छोड़ ही दिया है- प्रमोद जैसे कवियों के पास इसकी  पहचान मिलती है. क्या कोई ऐसा भी भारतीय कवि हो सकता है जिसकी कविता में – होली, दीपावली, दशहरा, ईद न हो. जब […]

by arun dev
March 10, 2014
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

प्रमोद कुमार तिवारी देशज संवेदना के रस –सिक्त कवि हैं.  जब समकालीन कवियों ने जनमानस की पर्व – परम्परा पर लगभग लिखना छोड़ ही दिया है- प्रमोद जैसे कवियों के पास इसकी  पहचान मिलती है. क्या कोई ऐसा भी भारतीय कवि हो सकता है जिसकी कविता में – होली, दीपावली, दशहरा, ईद न हो. जब नजीर होली पर लिख सकते हैं और प्रेमचंद ने ईदगाह जैसी कहानी लिखी हो  तो फिर – आज इतनी बेज़ारी क्यों है ?, क्या जीवन और विचारों में सच में इतना अंतर आ गया है कि हम आज इन पर्वों को मनाते हुए भी अपने लेखन में मौन बने रहते हैं. पर्व-परम्परा अपनी मिथकीय व्यंजना दे दूर हटकर एक सांस्कृतिक संरचना के रूप में अब हमारे सामने हैं. होली मनाते हुए हम होलिका – दहन को याद नहीं करते बल्कि (उसे याद करने की जरूरत भी नहीं है)   होली में जो बेफिक्री और लोगो से जुडाव है उसे अपने साथ रखते हैं.  

प्रमोद की कविताओं में जीवन और लेखन में यह अंतर नहीं है और राजनीतिक रूप से सही होने के सयानेपन का कोई बोझ भी उन पर नहीं दीखता. 


फागुन आ गया क्या ?             

(एक)

\’उषा\’ दबे पाँव आई
छिड़का बंद पलकों पर
उजाले का पानी.
चौखट पर ठुनक रही थी
\’सुबह\’
दरवाजा खोलते ही
मिठाई पाई बच्ची-सी कूदती
घर में दौड़ गई.
अलसा के पसर गई \’दोपहर\’ आँगन में
अल्हड़ घरघुमनी धूल
पूरे गाँव का चक्कर लगाती रही
आँखों कानों में घुस कर
खेलती रही \’धुलंडी\’ बुजुर्गों तक से
जमीन पर नहीं थे उसके पाँव.
शोख पुरवा धोती खींच-खींच
कर रही ठिठोली,
लजाधुर धरती के बदन पर
उबटन लगा रही सरसों.
\’शाम\’ आम के बगीचों में उतरी
गाँव में घुसते समय
लड़खड़ा रहे थे पाँव उसके,
मुँह से आ रही थी कच्चे बौर की बू.
कोयल के \’कबीरे\’ पर
\’कहरवा\’ का ठेका लगा रहा \’कठफोड़वा\’,
तालों के जलतरंग पर
\’काफी\’ बजा रही चाँदनी,
बूढ़े बरगद को सुना रहा महुआ
नशीले स्वरों में कोई आदिम प्रेम कहानी
हवा के थापों पर झूम रही माती \’रात\’
उसे बिल्कुल सुध नहीं अपने आँचल की
पतों की आड़ ले
टिटकारी मार रहा मुआ \’टिटिहा\’
मेरा भी बदन टूट रहा
फागुन आ गया क्या?
फागुन आ गया क्या?

(दो)

मुईवह पहली छुअन
जाने क्यों पागल किये जा रही
पंडीज्जी के कहे पर
कांपती उंगलियों में लिया था तुमने मेरा हाथ
जब पूरी देह सिमट गयी थी
हाथों में
मंत्र की जगह गूंज रही थीं धड़कनें
परबस मन बार-बार चाहे है
मोजराए आम की गझीन गंध में
भीगती रहूं सारी रात
रोम-रोम में बसा लूँ
सरसों का पीलापन
नहीं-नहीं,रोम-रोम के कपाट बंद कर लूं
करीब भी न आने पाए कोयल की कराल कूक
तुम्हारे बारे में तो भूल के भी न सोचूं
किपूरे सात माह हो जाएंगे तुम्हें देखे
इस एकादशी को
उबटन की गंध ऐसे तो नहीं चढ़ती थी माथे पर
जाने क्या हो गया है हवाओं को
लगता है
उड़ा के ले जाएंगी कहीं
धूप की भी तबियत ठीक नहीं
कभी सताती है कभी मनाती है.
घूम फिरकर सब क्यों बातें करते हैं तुम्हारी
किसके सवांग नहीं जाते बाहर
पड़ा रहने दो खेत को रेहन
नहीं चाहिए मुझे चांपाकल
ढो लूंगी सिवान के कुंए से पानी.
चिरई चुरगुन से भी गए बीते हैं हम
भाग का लेखा थोड़े न बदल देगा परदेशी सेठ
ये क्या हो रहा मुझ करमजली को
फागुन
आ गया क्या?

क्या तो अर्थ

जानते हो! तुम्हारी तेजवाली धड़कन
कई बार सुनी है मैंने
अपने सीने में
उस बियाबान में जहाँ परिंदे तक नहीं दिखते
धप्प से आकर
मूँद लेते हो मेरी आँखें
जाने कितनी बार देखा है
लार्ड्स पर छक्का जड़ने के बाद
तुम्हें उछलकर तालियाँ बजाते
और कनखियों से गुस्सा जताते.
बंद कमरे में, पीठ पर महसूसी है
तुम्हारी नजरों की आँच
जब खीझ रहा होता हूँ
आइंस्टीन के सूत्रों से.
उस शाम कित्ता मजा आया
जब उस नकचढ़े टोनी की हीरो होंडा को
पछाड़ दिया तुम्हारी बुलेट ने.
और मनाली की पिकनिकवाले दिन
वो तो तुमने मना कर दिया
वरना मैंने धुन डाला था
सलमान खान को
कमबख्त कैसे घूर रहा था तुम्हें
क्या कहा अर्थ!
कि साइकिल चलाना भी नहीं जानते
कि कभी स्टेडियम नहीं गए
छोड़ो ना,
अर्थ ही में कौन सा बड़ा अर्थ होता है.

स्मृति

आत्मा में धँसी है
तुम्हारी खामोश निगाह
जो करक उठती है
स्मृतियों की हल्की हवा से.

होना

कुछ लोगों का होना
\’होना\’ लगता ही नहीं
जैसे नहीं लगता
कि नाक का होना
या पलक का झपकना भी
\’होना\’ है
पर इनके नहीं होने पर
संदेह होता है खुद के \’होने\’ पर
ये कैसा होना है
कि जब तक होता है
बिलकुल नहीं होता
पर जब नहीं होता
तो कमबख्त इतना अधिक होता है
कि जीना मुहाल हो जाता है.
   

गाली

\’कमेसरा की दादी\’ काँपती आवाज में
दे रहीं गाली
ब्रह्मा, विष्णु, महेश को
उनकी झुर्रियों में अटके हैं
शर्मीलेपन के ढेर सारे कण.
कि नटवर नारायण तो हमेशा के चालू ठहरे
वे कहाँ पकड़ में आनेवाले
और ब्रह्मा की बुढ़ौती का खयाल तो करना ही पड़ेगा
बहुत होगा तो उनकी सन जैसे दाढ़ी में
पोत दिया जाएगा अलकतरा.
परंतु हर बार पकड़ा जाते बेचारे बमभोला
अड़भंगी, नसेड़ी, शंभु की खूब होती मलामत
कि साँप-बिच्छू वाले बौड़म के हाथ में
पड़ गई बेचारी भोली \’गउरा\’.
खेतों-खलिहानों तक फैलते जा रहे थे
गालियों के सुर
जाने क्या जादू था गाली में
कि सासू की मार भूल गई फुलमतिया
नए पाहुन को गरियाने का आमंत्रण पा कर.
और रसिक राजा दशरथ से मोछमुंडा देवर तक
सरपट दौड़ने लगे गालियों के सुर
गनेस की औरत तो इतना डूब के जोड़ रही थी
रिश्तेदारों के नए संबंध
कि बेमानी हो गई थी
आँचल पकड़ कर रोते बच्चे की आवाज
इंडिया गेट जैसे पेट वाले भसुरजी ने
गवनिहारिनों को दिए दो कड़कड़ सौटकिया नोट
चउठारी आए बुढ़ऊ को गाली के बिना
फीका लग रहा था खाना
शाप दे रहे थे गाँववालों के संस्कार को.
बी.एच.यू. के बिरला छात्रावास के पुराने छात्र ने
थाली पीट-पीट नाचते हुए, फागुन की एक रात में
लैंगिक संबंधों पर किया शोधकार्य
सुबह गले पर चूना थोप कर निकला
डी.लिट. की डिग्री की तरह.
मंत्रीजी चेला को बता रहे थे
कुछ भाव गिर गया है इस साल
अस्सी की होली में कमबख्तों ने
नहीं लिया मेरा नाम.
बहुत दिनों से मुँह फुलाए आलमगीर भाई को
कबीरा के बहाने इतना गरियाया गिरिधर पंडित ने
कि \’ससुरा सठिया गया है\’ कहते हुए
उनको गले लगाना ही पड़ा.
जी भर पाहुनों को गरिया लेने के बाद भी
बहुत कुछ बचा रह गया था
जिसे आँचल की खूँट में बाँध कर
घर ले गई रधिया
और जिसे कई दिनों तक चभुलाते रहे
पोपले मुँहवाले अजिया ससुर
पर मुई! जाने कैसी गाली थी उस बच्चे की
कि धू-धू जलने लगा पूरा शहर
जिसे बुझा रहे हैं लोग
एक दूसरे के खून से.
  

ऊष्मा (शमशेर की याद में)

उस रात कँपकँपाती ठंड
जो कुहरे के डर से
तेरे आँचल में दुबक गई थी
आज इस शीतलहरी में
मुझे गर्मी दे रही है.


कौए की काँव

काँव… काँव… काँव…
कौए की काँव
आँगन में रखी
दूध-भात की कटोरी
नीम की डाल पर बैठा
गिरिधर पंडित की झिड़की
और शोभा काकी की आशीष
सुनता, चोंच खुजलाता, सिर हिलाता
घुप्प काला कौआ
अपनी मुंडेर पर
बिठाने की जिद में
कौए को
सब जगह से उड़ाते बच्चे
काँव… काँव… काँव…
अपने हिस्से का प्रसाद खिलाया
शोख रमवतिया ने
चुपके से
रंगे हाथ पकड़ी गईं
रामदई काकी
सोना से चोंच मढ़वाने की रिश्वत देते
काँव… काँव… काँव…
काँव छा गई चमक बन कर
पाँच साल से नइहर की राह देखती
अन्नू की भाभी के चेहरे पर
काँव समा गई
मजबूती बन कर
कुबड़ी दादी की लाठी में
काँव के दम पर झिड़क दिया
बुधिया चाची ने
द्वार आए साहूकार को
परंतु गहरा गया
मेजर चाचा के बाबूजी की
आँखों का सूनापन
काँव… काँव… काँव…
कौए की काँव
काँव नहीं डोर
जिससे बँधे थे
पंद्रह साल से बेटे की राह देखती
मलती दादी के प्रान
काँव नहीं धुन
जो नचाती थी दिलों को
और रोप देती थी
आँखों में सपना
सपना
जिसमें \’देह की महक\’ से
\’नए बैल की घंटी की गूँज\’ तक
समाई होती थी
जिसमें
\’छोनू की लेलगाली\’
मोनी की गुड़िया
और माला की लाल गोटेदार साड़ी
चमकती थी.
काँव… काँव… काँव…
काँव नहीं \’खिड़की\’
जिसमें से दिखता था
चुन्नू को शहर का स्कूल
रामरती को पछांही गाय
और गोपी काका को
बिटिया का पीला हाथ.
काँव में धड़कती थी
एक पूरी की पूरी दुनिया
जो सरकती जा रही थी
मेरे बौद्धिक हाथों से.
कविता संग्रह सितुही भर समय  प्रकाशनाधीन.
हिंदी और भोजपुरी में संपादन का अनुभव 
नवोदित लेखक सम्मान .
निबंध लेखन के लिए  संस्कृति मंत्रालय द्वारा प्रथम पुरस्कार
काव्‍य लेखन के लिए  दिल्ली सरकार द्वारा पुरस्‍कृत.
संप्रति- गुजरात केंद्रीय विश्‍वविद्यालय में असिस्‍टेन्‍ट प्रोफेसर
मो. 09868097199, 09228213554 
ई.मेल. pramodktiwari@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

सबद – भेद : समकालीन फ्रेंच कविता : मदन पाल सिंह

Next Post

रीझि कर एक कहा प्रसंग : नील कमल : ककून

Related Posts

एक प्रकाश-पुरुष की उपस्थिति : गगन गिल
आलेख

एक प्रकाश-पुरुष की उपस्थिति : गगन गिल

यात्रा में लैंपपोस्ट : क्रान्ति बोध
समीक्षा

यात्रा में लैंपपोस्ट : क्रान्ति बोध

साहित्य का नैतिक दिशा सूचक: त्रिभुवन
आलेख

साहित्य का नैतिक दिशा सूचक: त्रिभुवन

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक