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युवा प्रांजल धर की कविताएँ ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ की कविताएँ हैं, इतिहास में जाती हैं, नए मिथक सृजित करती हैं, होने-न-होने के बीच संशयात्मक खड़ी अपने को भी देखती हैं. कवि का यायावर मन प्रान्तर-देशांतर के अनुभव जगत को अपनी कविता में जगह जगह विन्यस्त करता है, भाषा में भी इसकी शिनाख्त की जा सकती है. ‘पूँजी से घिरा हुआ, दबा-सा कोमल मन’ की ‘बिखरी सी अनुभति’ की अनेक राहें यहाँ मिलती हैं.
रेने मार्ग्रित
अनारकली का लिप्यान्तरण
हवाओं ने सुनाया एक दिन
वह किस्सा
जो रोती अनारकली ने सुनाया था उन्हें.
नहीं समझ सकी थी
सत्ता की पत्थर दिल ताक़त
और न ही महसूस कर पाया ख़ुदा जिसे.
किस्से के तन्तुओं में छितरायी अनारकली
मन के हर मोर्चे पर
छोटे-मोटे विश्व-युद्ध लड़ती रही,
चुकती रही क्रमशः.
उसकी कई आदतों,
चाल-ढाल, बात-व्यवहार
और कई निजी चीज़ों के बारे में
बताते-बताते रुँध गया गला
किस्सा कहती हवा का.
फिर उर्मिला, यशोधरा, तारा…
अनेक औरतों के नाम
ले डाले उसने एक ही सिसकी में ;
कुछ दब भी गए उसकी लम्बी हिचकी में,
इसमें एक नाम शायद क्लियोपेट्रा का भी था.
कहने लगी
इज़रायली हमले में मारे गए अपने
निर्दोष प्रेमी की लाश लिए
शिनाख़्त को भटकती प्रेमिका
गज़ा पट्टी के ध्वस्त शवगृह
तक ही जा सकी
किसी तरह
शीतल चेहरा खून के छींटों से
त्रस्त-सा
आँख, दिमाग़ और कदमों में
बदहवासी
मन में निराशा, तन में उदासी
यह स्त्री अनारकली का
आधुनिक लिप्यान्तरण है ;
इससे ज़्यादा कैसे बदल सकती है
कोई लिपि,
सिर्फ चार-पाँच सदियों में !
साँझ
सर्द साँझ को
गीत उमड़ उठते हैं
सूरज की उतरती रोशनी में
काफिले के साथ रहने वाले
घण्टे की चीख सुनकर.
कापालिकों के तन्त्र, अनहदनाद
सूफ़ियों के हाल
बाला – मरदाना की कथाएँ
किनारे चली जाती हैं सब,
‘उतने अन्तराल के लिए
जो घण्टी के दो सुरों के बीच होता है.’*
शरद की थकी घास पर टिकी
ओस की बूँदों के आगे
अकिंचन हो जाता सब.
तमाम धर्मोपदेश, यीशु की शिक्षाएँ,
ग्रंथ, पुराण, आख्यान
कुरान की आयतें.
गोलाइयों से भरे सेक्स के मांसल फूल भी.
पुरातत्व में समाए
शुरुआती सिद्धान्तों के बुनियादी मूल भी.
सब अकिंचन हो जाते हैं.
जाग उठती हैं सहसा
भाव-श्रृंगों की कोमल बुनावट
मन के फौलादी बक्से में
ठूँसी स्मृतियों की कसावट.
तरावट, हृदय की.
और मुर्दा शब्दों की थकावट.
अन्दर का आदमी जागता है
इस दुनिया से बड़ी दूर भागता है
एथलीट हो गया है
उसका बदहवास बचा जीवन.
अपने ही आँसुओं में बहता जाता है
पीढ़ियों सँजोया उसका अपना ही उपवन.
ख़यालों का.
साँझ को उमड़े गीतों में
मेघों का कलेजा चीरकर निकली
बिजली की एक तीखी लकीर-सी
कोई ज़िन्दा भावना
बैठ जाती है, अड़ जाती है,
मन के नए पौधे की
आधी झुकी डाली पर.
खड़ा हो जाता पुलिन्दा सवालों का
चकाचौंध रोशनी छा जाती आँखों पर.
सवाल ; सवाल-दर-सवाल, सवालों के जाल
जेम्स लॉग** पर चले अँग्रेजी मुक़दमे की माफ़िक.
भीतरी मन दबे स्वरों में
कमज़ोर उत्तरों की व्यवस्था करता है
दूसरी जाति की लड़की से ब्याह करने के बाद
एक बहिष्कृत जीवन की कुचली लकीरों-सा…
उत्तर सन्तोषजनक हैं या नहीं ;
यह जाने बिना रोम-रोम ठिठक जाता है
तब तक काफिले का.
और गुज़र जाती है साँझ ज़िन्दगी की
किसी तरह.
* चर्चित जापानी कवि इजूमी शिकिबू की एक मोहक काव्य-पंक्ति.
** दीनबन्धु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण’ का अँग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करने के जुर्म में अँग्रेज सरकार ने रेवरेण्ड जेम्स लॉग पर एक रोमांचक मुक़दमा चलाया था.
बियाना की याद
उमानन्दा
ब्रह्मपुत्र की विशाल
चौड़ाई में टिककर खड़े
मयूरद्वीप पर
कच्चे नारियल का एक अंजुलि
मादक पानी पिया,
और शाम को नदी चीरते
ख़ूबसूरत शिकारे पर
चार पल
जीवन को
एक बिल्कुल अलग
कोण से जिया !
लीचियाँ जीवन की माला में
मोती बनीं
और कानों में गूँज उठीं
शंकरदेव की पावन-पौराणिक
ध्वनियाँ घनी.
नदी-द्वीपों तक ले जाते मल्लाह,
उनकी नौकाएँ और उनके पतवार ;
चार क्षण को ही सही,
कभी-कभी कितना ममतामय
लगता है यह संसार !
समुद्र की लकीरों में
क्यों धुँधला गया
पूर्वोत्तर का
वह संगीतप्रेमी निश्छल परिवार ?
बेगानेपन का बड़ा
संत्रास पाया है
इसीलिए उस असमिया
परिवार ने सजल नेत्रों से
एक बियाना गाया है
जिसे कोई समझ नहीं सकता.
चीखते दर्द की सिलवटों में
लिपटी आँसुओं की चादर
फटकर चीथड़े हुई चली जाती है
और
डालगोबिन्द के उस बियाना की
बड़ी याद आती है.
बड़ी याद आती है.
(नोट – बियाना असम का एक विरह गीत है)
सबका सच
काश सबका सच एक होता !
शेर और शावक एक जैसा सोचते
एक ही शाश्वत सच को जीते,
या तो दोनों दौड़ते एक-दूसरे को खाने के लिए
या बचाने के लिए !
जैसे दुनिया से बचकर दो प्रेमी
किसी झाड़ी के अँधेरे में एक जैसा सोचते हैं
उसी तरह कुछ.
कहना मुश्किल है कि दोनों
क्या सोच रहे होते हैं
पर सोचते हैं एक-सा,
एक हँसता है तो दाँत दिखते हैं दूसरे के ;
मानो वे अपने अतीत को ख़ुशगवार
बनाने के लिए वर्तमान की घड़ियाँ बिताते हैं
यूँ ही….
अगर सबका सच समाकृतिक, समरूप होता
तो गाहे-बगाहे वह पराजित न होता,
सच की वस्तुनिष्ठता मुद्दा न बनती कभी ;
बयान, गवाह, सबूत और अदालतें न होतीं
और न ही पड़ती ज़रूरत
आँखों पर पट्टी बाँधने की
न्याय की देवी को !
सुकरात या गैलीलियो की ये दशा न होती.
ऐसा नहीं कि तब असहमति न होती
विरोध न होता, टकराव न दिखता,
होता विरोध
लेकिन विरोध का.
एक अलग क़िस्म की बहुवर्णी बहुलता
हृदय के रंगीले प्रांगण में
ख़ुशबू बिखेरती अपनी.
तब सच का वर्ग न होता,
यह न कहा जाता कि कुछ सच
अपनी उम्र से ज़्यादा जी चुके हैं
इसीलिए उन्हें बदल देना चाहिए !
वर्तमान
मैं कहता हूँ
कि क्या बदल जाएगा ?
आखिर क्या बदल जाएगा
तुम्हारे जानने से
कि मेरी वेदना यह है,
मेरी पीड़ा यह है,
या फिर मेरा भोगा हुआ यथार्थ यह है ?
क्या इससे कुछ फ़र्क पड़ेगा !
कोई दीपक मेरे हृदय के अँधेरे में जलेगा !
या एक बार फिर
अपनी प्रामाणिकता खोने का विचार
एक नए सिरे से चलेगा !
तुम्हारे ‘इंटिमेसी’ से ग्रस्त हो गया हूँ.
और अपने कल्पित संत्रास में खो गया हूँ.
गलत लगता है तुम्हें कि
मनोविश्लेषणवादी मैं हो गया हूँ.
मेरे हृदय के दोनों उजड़े पाट
किसी सूने जंगल की तरह हैं
जहाँ कोई चमचमाती कार नहीं दौड़ा करती,
जिस पर एक लाल या नीली बत्ती लगी हो
जो लक-लक-लक-लक करती हो,
और आम जनता की मासूमियत को,
सरलता से ‘कैश’ करती हो.
खैर !
ये बेइमानियाँ और बेईमान
बेइमानी की खिड़की से झाँकता
रेशमी ईमान…
बड़ी उबकाई महसूस होती है,
क्या था, क्या हो गया है जीवन,
पूँजी से घिरा हुआ, दबा-सा कोमल मन
व्हाट्ज़ लाइफ़ ?
‘ऑबियसली, अ मीनिंगलेस पैशन’
एक अर्थहीन उत्तेजना,
जिसमें एक धुँधला-सा
गड़बड़ अतीत है, और कहने-सुनने के लिए
अपने पास एक टुटपुँजिहा गीत है.
अस्तित्व ही बेमानी है
एक ‘इम्पॉसिबिलिटी’ है,
और वर्तमान की ‘खण्डित’
और बिखरी-सी अनुभूति है.
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