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समालोचन

Home » मनोज छाबड़ा की कविताएँ

मनोज छाबड़ा की कविताएँ

मनोज छाबड़ (१०-२-१९७३,हिसार,हरियाणा) एक कविता संग्रह, ‘\’अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ वाणी से प्रकाशित है. हरियाणा  साहित्य अकादमी से सर्वश्रेष्ठ काव्य-पुस्तक  का सम्मान पा चुके हैं. चित्रकार, रंगकर्मी, करीब ३००० कार्टून प्रकाशित. मनोज की कविताएँ युवा होने के सुख-दुःख में सहजता से शरीक हैं. यहाँ युवा होना उम्र होना नहीं है. संदेह और अस्वीकार की तपती दोपहरी में इनकी आंच महसूस […]

by arun dev
November 27, 2010
in कविता
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मनोज छाबड़ (१०-२-१९७३,हिसार,हरियाणा)

एक कविता संग्रह, ‘\’अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ वाणी से प्रकाशित है. हरियाणा  साहित्य अकादमी से सर्वश्रेष्ठ काव्य-पुस्तक  का सम्मान पा चुके हैं.
चित्रकार, रंगकर्मी, करीब ३००० कार्टून प्रकाशित.



मनोज की कविताएँ युवा होने के सुख-दुःख में सहजता से शरीक हैं. यहाँ युवा होना उम्र होना नहीं है. संदेह और अस्वीकार की तपती दोपहरी में इनकी आंच महसूस की जा सकती है.  


 मैं लिखता हूँ कविताएँ


मैं लिखता हूँ कविताएँ
अपने पुत्र के लिए
उसके मित्रों के लिए
अपनी बेटी के लिए लिखते समय
मैं उसके लिए भी लिख देना चाहता हूँ
जिससे एक दिन वह प्रेम करेगी

प्रेम करने वालों के लिए लिखूंगा मैं कविताएँ
माँ के लिए
पिता के लिए
भाई के लिए ज़रूर लिखूंगा मैं
उसे एक दिन
हो जाना है पिता मेरे लिए

उनके लिए नहीं लिखूंगा मैं
जिनके पास
प्रेम की पराजय के ढेरों किस्से हैं
 

मुझे विश्वास है


मुझे विश्वास है
जिन लड़कियों ने मुझसे प्यार नहीं किया
उन्हें
अब थोड़ी-सी नाराज़गी ज़रूर होगी स्वयं से

घटता जाता होगा प्रेम अपने पतियों से उनका
अक्सर सोचती होंगी अकेले में
मेरे और मेरे मित्रों के बारे में

जब भी बढ़ती महंगाई की चिंता से बचना चाहती होंगी
मेरे साथ-साथ
मेरे उन दोस्तों को भी याद करने लगती होंगी
जिन्हें
उन्होंने प्यार नहीं किया पिता-भाई से डरकर

लगता होगा कभी उन्हें
जो एक बार तेवर दिखा दिए होते
तो शायद
आज वे वहां न होतीं

हालाँकि
जानता हूँ मैं यह भी
कि
तब वे मुझसे प्यार न करती
वे उन्हीं पुरुषों के बारे सोचती
बहुत प्रेम से
जिन्हें अब पति के रूप में
नफ़रत करती हैं.


कभी तो ऐसा ज़रूर हुआ होगा


कभी तो ऐसा ज़रूर हुआ होगा
कि
पतंग उड़कर आकाश हो गयी होगी
कि
मछली तैरते-तैरते समुद्र हो गयी होगी

कभी तो ऐसा हुआ होगा
कि
पत्थर का बुत बनाया गया हो
और बात करने लगा हो
कि बादलों ने अपने हाथों से
मरुस्थल में कोई नदी बनायी हो
 

कभी तो ऐसा ज़रूर होगा
कि
भूख
लहलहाते खेत बन जायेगी.


उसके चेहरे  पर


उसके चेहरे पर
मुस्कराहट का महासागर था
उसकी
नमकीन हंसी में
शंखों से लदी नावें थीं
वहाँ मछुआरे नहीं थे
इसलिए
वह स्वतंत्र मीन-सी
फिसल-फिसल जाती थी
मेरे जीवन से.


मैं एक बार फिर आऊँगा


मैं एक बार फिर आऊँगा
और
पतझड़ों  को समेटने का प्रयास करूँगा
सूखे फूलों को चट्खाऊंगा 
एक बार फिर
गर्म दुपहरी में 
विश्व पर तानूंगा छाता
थोड़ा धान उगाऊँगा
थोड़ी गेहूं

बच्चों 
के लिए खरीदूंगा
पुस्तकें और सफ़ेद कागज़ 
दूंगा उन्हें 
जल-रंग ब्रुश 

मैं नहीं तो 
कम-से-कम वे ही
रंगों से भर दें 
मटमैली और उदास दुनिया को  . 







ई-पता: manojchhabra73@gmail.com
मनोज छाबड़ा की कुछ नई कविताएँ यहाँ भी हैं
Tags: कविताएँ
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