महभारत यथार्थ का महा वृतांत है. एक ऐसा आईना जिस में आज भी हम अपना चेहरा देखते हैं. दर्पण का कोण बदलते ही यथार्थ के अनेक आयाम उद्घाटित होते हैं. इसमें हम स्त्री-चेतना की आहटें सुन सकते हैं. हाशिए का केंद्र के विरुद्ध सशक्त प्रतिरोध पढ़ सकते हैं, सत्य-युद्ध–प्रेम–मित्रता की न जाने कितनी महाकथाएं अभी भी अपना समकालीन अर्थ पाने के लिए यहाँ प्रतीक्षारत हैं.
सुमन केशरी मिथकों के सृजनात्मक प्रयोग और उसमें समकालीन अर्थवत्ता भरने के लिए विख्यात हैं. इन कविताओं में नियति, निष्ठुरता, नैतिकता, निर्ममता और (अ) न्याय की अनके भंगिमाएं हैं. सुगठित शिल्प-भाषा में इन कविताओं का अर्थ दूर तक जाता है. यहाँ रचना प्रक्रिया पर भी आप सुमन जी को पढ़ें.
एक
यह कौन-सा देश है?
कौन-सा राज्य?
कालखंड कौन-सा है?
कलयुग का कौन-सा चरण है यह?
किस काल में द्युत नहीं खेला गया?
किस काल में लाक्षागृह नहीं बने
किस कालखंड में मानव नहीं बँटा
अपने और अन्यों में
किस कालखंड में नहीं लड़ा वह
श्वानों की तरह माँस-खंड के लिए
किस काल में सत्य नहीं बिंधा
चिड़िया की आँख-सा
दो
मैं रथ का वो पहिया हूँ
जो धंस गया था
शाप के भार से
अपनो ही के रक्त से बने दलदल में
छींटे दूर तक पड़े थे
सन गए ते हाथ
पर मैं धंसा रहा
अर्जुन की ललकार
और
कर्ण के धर्म-पालन की गुहार को सुनते हुए
कहते हैं धर्म उस दिन भी मरा स्वयं परात्पर के इशारे पर
और
मैं धँसता चला गया
रक्त के दलदल में…
विदुर
हे तात!
कहाँ थे तुम
जब होता था द्रौपदी का चीर-हरण
जब दुःसाहस से दुःशासन
खींचता था बाल उस दुखिया के
जब जंघा पर बैठने को
न्योत रहा था दुर्योधन
जब कुटिल मुस्कान फेंकता था शकुनि
पाँसे सँभालता
जब रोती द्रौपदी न्याय माँगती थी
सब वृद्धों से
तब तुम कहाँ थे तात
कहाँ थे?
सुनो धर्म-सुते!
मैं वहीं था
जहाँ काल रुक गया था पृथ्वी पर
तुमने देखा था मुझे माथे पर दोहत्थी मारते
भाई धृतराष्ट्र को आगाह करते
दुःशासन का हाथ पकड़ते
दुर्योधन को फटकारते
पर जानती तो हो
अहंकार और प्रमाद के तुमुल में
सुनाई नहीं पड़ता
कोई शांत स्वर
धकियाया जाता है विवेक…
मैं बस काल के चरणों की आहट सुन रहा था…
एकाकी..
गांधारी
सौ पुत्रों की माता
मैं गांधारी
उन पलों में पृथ्वी-सी पड़ी रही
आगत की ध्वनियाँ सुनती
भयाक्रांत करवटें बदलती
जानती थी पहले ही पल से
कि मैं वह धरती हूँ
जिस पर जीता जाएगा
युद्ध पुंसत्व का
पाण्डु के विरूद्ध…
गांधारी – २
सुनो द्रौपदी
अगर मैं चाहती तो भी क्या रोक सकती थी
पति
भाई
और पुत्र को
छल रचने से?
छली तुम ही नहीं गई हो पुत्री
क्या मैं नहीं छली गई?
क्या कुंती नहीं छली गई?
सुनो द्रौपदी
कुलों के नीवों की मजबूती
स्त्रियों की इच्छाओं
आकांक्षाओं
और आँसुओं से चिनी जाती है
गौर से सुनना कभी
कान दीवाल से सटा कर…
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लिखना सत्त्व को खोजने जैसा है…
सुमन केशरी
मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ घूमती हैं मन में, जब कभी मैं सोचती हूँ कि आखिर मैं लिखती ही क्यों हूँ-
परम अभिव्यक्ति
अविरत घूमती है जग में
पता नहीं जाने कहाँ जाने कहाँ
वह है.
इसीलिएमैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनीतिक स्थिति और परिवेश
प्रत्येक मानवीयस्वानुभूत आदर्श
विवेक प्रक्रिया, क्रियागत परिणति! !
खोजता हूँ पठार…पहाड़…समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति
अनिवार
आत्म-सम्भवा .
वह कौन सी बेचैनी है जो खुद को अभिव्यक्त करना चाहती है. बार बार. पर अगर लिखना खुद को उलीच भर कर देना होता तो उसे कुछ भी कहा जाता पर साहित्य हरगिज नहीं. साहित्य उलीचना नहीं, रचना है… सर्जना है ! वह तो अपने अंदर-बाहर की अतल गहराई और व्यापकता से एक साथ जुड़ जाने का वह दुर्निवार आकर्षण और अकथ साहस है, जो झरने-सा बूंद-बूंद झरता है –बर्फीले चट्टान से- धूप से आँख-मिचौली खेलता और फिर धारा-सा बह निकलता है- एक गहरी प्यास लिए जाने किसमें जा मिलने के लिए.. खो जाने के लिए या शायद यही उसका लक्ष्य भी है कि वह एक के मानस से निकल सबका इतना अपना हो जाए कि अपना वजूद खो दे…पर नहीं! यहीं एक डर उपजता है सृष्टा के मन में कि मैं सबमें परिलक्षित होते हुए भी विशिष्ट बनी रहूँ. मेरी पहचान बनी रहे…. रचनाकार अपना आपा खोकर भी अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहता है…यही द्वन्द्व है…. वह परकाया प्रवेश करता है पर अलग खड़े होकर देखता है उस “पर” के मन को, आखिर उसे फिर उन अनुभवों को रचना और कहना भी तो है. रचने में एक तटस्थता जरूरी है. वही तटस्थता, रचना को हरेक के लिए बोधगम्य बनाती है, हरेक के मन की बात बताती है. साहित्य इसी अर्थ में तो सृजन कर्म है.
मेरा “मैं” हर लेखक के साथ रहता है- वही उसका वैशिष्ट्य भी है और पहचान भी . इसीलिए जैसे ब्रह्म की रचना में सब इकाइयाँ अलग अलग पहचान लिए होती हैं, वैसे ही शब्द ब्रह्म की साधना में भी उन्हीं शब्दइकाइयों का प्रयोग करते हुए भी सब रचनाकार अपना रचते हैं, अपने तरीके से रचते हैं.
मुक्तिबोध की वेदना अभिव्यक्ति को पा लेने की वेदना है, वह आत्मसंभवा अभिव्यक्ति, जो आधुनिक मनुष्य से विलग हो गई है. कहते हैं पहले मनुष्य और प्रकृति में ऐसी फाँक नहीं थी. आज मनुष्य ऋत से इतनी दूर जा पड़ा है कि वह अपने बाहर को तो दूर खुद को नहीं समझ पा रहा है. समग्रता का, पूर्णता का सर्वत्र लोप दिखाई देता है. ऐसे में रचनात्मकता के सामने और भी चुनौतियाँ आ गई हैं.कोई भी रचनात्मकता अंततः अपने दायरे से निकलने और उसका विस्तार करने का प्रयास है. विस्तार की यही कामना समग्रता को पुनर्सृजितकर देने, रच देने में व्यक्त होती है.कोई वेदना जब तक सबकी – संपूर्ण मनुष्य जाति की वेदना बन कर प्रकट नहीं होती तब तक रचना का काम अधूरा है.और इसलिए मैं बार बार पूछती हूँ स्वयं से कि कविता क्यों?
यूँ तो इन दिनों लिखा जाने वाला अधिकांश साहित्य किसी न किसी मकसद से, वैचारिक या सामाजिक क्रांति करने के मकसद से रचा जा रहा है. सब सामाजिक –राजनैतिक क्रांतियाँ अपने मकसद को सर्वश्रेष्ठ बताती हुई, दूसरे के मकसद पर सवालिया निशान लगाती दिखाई पड़ रही हैं. इस तरह साहित्य वस्तुतः खेमेबाजी में बदलता जा रहा है. पर क्या साहित्य का यही काम है? क्या यह साहित्य की महती भूमिका को सीमित नहीं कर देना हुआ? क्या साहित्य का उद्देश्य इतना भर है कि वह किसी पार्टी लाइन को सीधे- सरल तरीके से पाठकों के सम्मुख रखे और उन्हें पार्टी का कार्यकर्त्ता बनने के लिए तैयार करे?
यह सवाल, शायद आज पहले से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण इसलिए भी हो गया है कि आज हम हर चीज की उपयोगिता परखने में लगे हुए हैं. आज विश्वविद्यालयों में से ही नहीं, घरों से भी साहित्य गायब हो रहा है. सोचा जा रहा है कि जितनी देर मेंकविता-कहानी पढ़ी सुनी जाएगी या उस पर मन लगाया जाएगा उतनी देर में कुछ सूचनाएँ प्राप्त कर या कोई हुनर सीख व्यक्ति प्रतियोगिता जीतने के और काबिल बन जाएगा. इस बात को हवा, साहित्य के खेमेबाजी से भी मिलती है जब साहित्य के नाम फतवेबाजी या पर गाली-गलौज को परोस दिया जाता है. एक अजब बिगूचन की हालत पैदा हो गई है और साहित्य का अपना स्थान नित्यप्रतिसंकुचित होता जा रहा है. और काबिलियत की पहचान पैसों से, भौतिक सुख-सुविधाओं के अर्जन से और ज्यादा हो रही है इन दिनों ! तो यह समयभाषा ही नहीं हर प्रकार के नियामतों के व्यावहारिक प्रयोग का समय है!
पर यही तो साहित्य के लिए अप्रतिम चुनौती का भी समय है. जब मनुष्य की संवेदना में फाँक दिखाई पड़ने लगती है, तब वह और लालायित होता है, इस फाँक को समझने और पाटने के लिए. मनुष्य की संवेदना उसे केवल और केवल इस पल में, वर्तमान में ही सीमित नहीं रहने देती. उसकी स्मृतियाँ उसे अतीत में ले जाकर खड़ा कर देती हैं तो उसकी कल्पना उसे भविष्य के सुनहले सपने भी दिखाती है और वर्तमान में निरंतर विच्छिन्न होते जाते मनुष्य की वेदना से भी रूबरु करा देती है. यही वह सत्त है- मानव सत्त- जिसे कविता की तलाश रहती है. जो इस भागमभाग की जिंदगी में शमशेर बहादुर सिंह के अमर शब्दों में “एक पल के ओट में है कुल जहान” को देख लेना चाहता है. कविता में ही वह शक्ति है कि वह कुछ शब्दों में एक सहृदय चित्त को अध्यात्म की ऊँचाइयों तक और “महातल के मौन” तक ले जाती है.
तो कविता, मेरे हिसाब से केवल आज तक- अभी तक सीमित नहीं रहती. कोई भी शब्द अपने में स्वायत्त होता हुआ भी परंपरा के नैरंतैर्य से जुड़ा होता है. उसमें अपनी भाषिक परंपरा की स्मृतियाँ गुंथी होती है. उदाहरण के लिए “युद्ध” कहते ही महाभारत के युद्ध से शुरू करके प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध तक और संभवतः वियतनाम से लेकर ईराक तक और जाने क्या क्या तो याद हो आएगा पाठक को. तो शब्द अर्थ का खजाना लिए होते हैं, बस प्रयोग का कौशल चाहिए, जो निरंतर ज्ञान और अध्ययन से लेकर देखने-परखने, बूझने-समझने की मांग करता है. मेरी अनेक कविताओं को लोग मिथकीय कविताएँ कहना पसंद करते हैं, क्योंकि उनमें सीता, सावित्री, द्रौपदी, अश्वत्थामा, बर्बरीक जैसे चरित्रों पर बात की गई है. पर क्या ये बातें उसी अर्थ में की गईं हैं, जैसे उस काल में की गईं थी, जब इनका सृजन हुआ था या बाद में जैसे-जैसे ये विकसित हुईं. दरअसल कोई भी घटना या चरित्र अपने समय के सत्य से अनुप्राणित होती है. अगर देखें तो मेरी इस प्रकार की कविताओं में इन चरित्रों की आवाज में आज की वेदना, आज के सत्य बोलते हैं और ऐसा हो भी क्यों न? मेरे हिसाब से ये चरित्र और घटनाएँ आज भी हमारी स्मृति का, हमारी भाषा परंपरा का जीवंत हिस्सा हैं. कृष्ण कहते ही क्या हमें बांसुरी होठों पर धरे त्रिभंगी मुद्रा में एक सुदर्शन मूरत याद नहीं आती याजुआ कहते ही क्या शकुनि के पासे हमारे मन में नहीं कौंधते? दरअसल शब्द अपने अर्थसंदर्भ में काल और स्थान की सीमा पार करते हैं और इसीलिए उन्हें ब्रह्म कहा जाता है और इसीलिए उनके प्रयोग में रचनाकार इतनी सावधानी बरतता है, अथवा उसे इतनी सावधान बरतनी चाहिए. इन चरित्रों और संदर्भों पर लिखते हुए मैं मूलपाठ की संवेदना को आँख से ओझल नहीं होने देती. इस प्रकार मेरे हिसाब से जमीन को न भूलना और उसपर सुदृढ़ प्रासाद खड़ा करना रचनाकार के लिए एक वरेण्य चुनौती है.
शब्द के प्रयोग के प्रति उचित संवेदनशीलता, मेरे हिसाब से किसी भी रचनाकार के लिए अत्यंत जरूरी गुण है. दरअसल कवि-रचनाकार जो अनुभव करता है, इसकी संश्लिष्टता को कह पाना, उसमें निहित नानाविध भावों, कभी कभी तो एक दूसरे को काटते भावों को समुचित रूप में अभिव्यक्त करना इतनी विकट चुनौती होती है कि उसे महाकवि तुलसीदास भी इन शब्दों में व्यक्त करने को बाध्य हो जाते हैं- गिरा अनयन नयन बिनु बानी…. यह एक जरूरी कशमकश है, जिसे किसी भी लेखक को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. उससे जूझना जरूरी है . इसके लिए सतत अध्ययन और आसपास को देखना, उसमें आ रहे परिवर्तनों पर नजर रखना और उनमें से शुभ को चुन-चुन कर कहना बहुत जरूरी है.
कविता मन के सर्वाधिक नजदीक इसीलिए भी होती है कि मनुष्य अक्सरहा कविता की जुबान में सोचता है, व्यक्त करता है. यानी कि कविता मूल मानवीय गुण है. और इसीलिए मैं यह भी मानती हूँ कि जो रचना हमें ज्यादा उदार, ज्यादा मानवीय और ग्राही न बनाए, संवेदनशील न बनाए, मनुष्यमात्र के हृदय का विस्तार न करे तो हमें इस पर विचार करना होगा कि वह साहित्य है भी या नहीं.
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ई-पता. sumankeshari@gmail.com
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ई-पता. sumankeshari@gmail.com