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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : हरिओम

सहजि सहजि गुन रमैं : हरिओम

Nitin Mukul-REALM OF THE SENSES नासिख के शिष्य ‘आग़ा- कल्लब हुसैन खां’ का एक शेर है लोग कहते हैं कि फन्ने शायरी मनहूस है शेर कहते कहते मैं डिप्टी कलक्टर हो गया. डॉ. हरिओम के साथ मसला दूसरा है, वह कलक्टर होने के बाद भी शायरी करते हैं – और खूब करते हैं. कहते हैं […]

by arun dev
November 13, 2014
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Nitin Mukul-REALM OF THE SENSES
नासिख के शिष्य ‘आग़ा- कल्लब हुसैन खां’ का एक शेर है
लोग कहते हैं कि फन्ने शायरी मनहूस है
शेर कहते कहते मैं डिप्टी कलक्टर हो गया.
डॉ. हरिओम के साथ मसला दूसरा है, वह कलक्टर होने के बाद भी शायरी करते हैं – और खूब करते हैं. कहते हैं उर्दू शायरी का पालन पोषण फारसी की देख रेख में हुआ. कह सकते हैं हिंदी गज़लें उर्दू के साथ साथ पली –बढ़ी. इसमें कुछ आश्चर्य नहीं – चिराग से चिराग जलते हैं. आज हिंदी में ग़ज़लों की मजबूत परम्परा है,  उसकी अपनी कुछ विशेषताएं भी हैं.  जब हरिओम कहते हैं –मैं सोच में तेरे नफ़रत की तरह ज़िंदा हूँ /मैं जल्द ही किसी तहज़ीब-सा मर जाऊंगा. तो बात दूर तक जाती है. यह समय बहुत कुछ के मरते जाने का है. बचाने की कोशिश शायरी करती है अदब करता है. हरिओम की ये गज़लें संवेदना और सोच के अनेक मुलायम धागों से बुनी गयी हैं. इसलिए अलहदा और  असरदार हैं.   
हरिओम की ग़ज़लें                                                           


१.

उदास ख़्वाब-सा दरकूंगा बिखर जाऊँगा
फिर उसके बाद हक़ीक़त-सा निखर जाऊँगा
तेरे क़रार पे गर एतबार हो जाए
मैं सर्द रात की दस्तक पे सिहर जाऊँगा
तुम अपने हाथ में पतवार सम्हालो यारों
मैं थोड़ी देर में लहरों पे उतर जाऊंगा
तेरे निज़ाम की चुप्पी का वास्ता है मुझे 
मैं तंग गलियों से चुपचाप गुज़र जाऊंगा
तू नर्म दूब-सा सहरा में अगर बिछ जाये
मैं सर्द ओस की बूंदों-सा छहर जाऊंगा
तमाम घर के झरोखों को बंद कर लेना
उड़ेगी धूल मैं बस्ती में जिधर जाऊंगा
तू एक रात है लम्बी घनी अँधेरी-सी
मैं एक धूप का परचम हूँ फहर जाऊंगा
ये और बात है वादे न निभ सके मुझसे
ये कब कहा था कि वादे से मुकर जाऊंगा
मैं बेजुबां हूँ मगर सख्त हूकुमत मेरी
मैं एक खौफ़ हूँ आखों में ठहर जाऊंगा
मैं सोच में तेरे नफ़रत की तरह ज़िंदा हूँ
मैं जल्द ही किसी तहज़ीब-सा मर जाऊंगा

२.

ज़ख्म खाकर मुस्कराती ज़िन्दगी की बात कर
ज़ुल्म की आबो-हवा है ज़ब्तगी की बात कर
मैं तो काफ़िर हूँ मुझे दैरो-हरम से क्या गरज़
तू किसी इंसान की पाकीज़गी की बात कर
उम्र के हर मोड़ पर सहरा ही अपने साथ था
धूप अब जलने लगी है तीरगी की बात कर
बाद मुद्दत तू मेरी दहलीज़ का मेहमान है
देख लूं जी भर तुझे फिर दिल्लगी की बात कर
ये भी मुमकिन है तेरा महबूब हो जाये खुदा
इश्क़ की गर बात कर दीवानगी की बात कर
आंसुओं से और ज्यादा बढ़ गया दर्द-ए-फ़िराक
ढल चुकी है रात अब तो ताज़गी की बात कर
बादलों की गोद बंजर हो गई है आजकल
आँख से दरिया उठा फिर तिश्नगी की बात कर
वक़्त पे हँसता रहा तो वक़्त तुझको रोयेगा
तू कभी तो मुख्तलिफ़ संजीदगी की बात कर
और भी आ जाएगी अलफ़ाज़ में रंगत तेरे
तू कभी बच्चों सरीखी सादगी की बात कर

३.


किनारे बैठ के तूफ़ान उठाने वाले
नहीं ये डूबती कश्ती को बचने वाले
हवा में जल रही तहज़ीब की आतिशबाज़ी
बुझे-बुझे से हैं तारीख़ बनाने वाले
वही है तू भी वही हाथ में खंजर तेरे
वही हूँ मैं भी वही ज़ख्म पुराने वाले
हुए हैं दौड़ में शामिल ये दिखावे के लिए
ये शहसवार नहीं जीत के आने वाले
मिले तो राह में हमदर्द हजारों लेकिन
नहीं थे दूर तलक साथ निभाने वाले
नमीं के फूल निगाहों में उगाते चलना
मिलेंगे और भी बस्ती में सताने वाले
गुलों की छाँव में बैठे हैं शरीफों की तरह
थके परिन्द दरख्तों से उड़ाने वाले
कहाँ से इनको बुला लाये रंग-ए-महफ़िल में
ये लोग-बाग़ हैं ताबूत सजाने वाले

४.

उजले दिन मेरी रातों से कहते हैं
ख़्वाब तुम्हारे अब आँखों में रहते हैं
किसका ग़म है मंज़र सूना-सूना है
किसकी चाहत में ये आंसू बहते हैं
बिछड़ गए सब जाने क्यूँ बारी-बारी
हम तन्हाई के आलम में रहते हैं
तुझसे मिलना एक पुरानी बात हुई
मुद्दत से फुरक़त के सदमे सहते हैं
तेरे प्यार ने मुझको मालामाल किया
ये मोती हैं जो आँखों से बहते हैं
दिल में दर्द का दरिया उमड़ा आता है
दुःख के परबत जैसे रह-रह ढहते हैं

५.

सुख़नवरी के तक़ाज़ों को निभाने निकले
हम अपने वक़्त का आईन सजाने निकले
घनी हुई जो ज़रा छाँव तो घर के बच्चे
गली में धूप की बस्ती को बचाने निकले
शब-ए-विसाल की सोचें के हिज्र की सोचें
हमें तो सोचना है तेरे दिवाने निकले
तेरा फ़िराक़ भी तस्कीन-ए-दिल हुआ आखिर
गुबार कितने तेरे ग़म के बहाने निकले
पलट के देखा जो इक उम्र-ए-आशिक़ी हमने
ख़ुतूत कितने किताबों में पुराने निकले
लिया जो दौर-ए-तरक्क़ी का जायज़ा यारों
दसेक साल के बच्चे भी सयाने निकले
उदास हैं बड़ी गांवों की सरहदें मेरे
के जितने मर्द थे परदेस कमाने निकले
अब एक शेर उन बंदों के लिए भी कह दूं
जो अपना मुल्क़ तलक बेच के खाने निकले
हंसी में मेरी उन्होंने न जाने क्या देखा
वो फिर से लामबंद होके सताने निकले
वो एक बार निगाहों से होके क्या निकले
हम अहले उम्र उनके नाज़ उठाने निकले
ये दर्द-ए-आखिर-ए-शब फिर तेरा पयाम लिए
रक़ीब जितने थे सब मेरे सिरहाने निकले
हुआ जो ख़त्म तमाशा तो लोग-बाग उठे
औ बात-बात पे फिर बात बनाने निकले
———————————————
हरिओम
उच्च शिक्षा जे.एन.यू. से. कविता, कहानी और ग़ज़लों में बराबर रचनात्मक दिलचस्पी. धूप का परचम (ग़ज़ल), अमरीका मेरी जान(कहानी) और ‘कपास के अगले मौसम में’(कविता) प्रकाशित. इसके अलावा रूमानी गायिकी में भी डूबे हुए. फैज़ को उनके सौवें जन्मवर्ष (२०११) पर अक़ीदत के बतौर फैज़ की लिखी हुई ग़ज़लों और नज्मों को अपनी आवाज़ में गाकर ‘इन्तिसाब’ नामक एक अलबम जारी किया.
फिलहाल लखनऊ में सरकारी मुलाज़िम.
संपर्क- sanvihari@yahoo.com मो. 09838568852.
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