हरिओम राजोरिया
८ अगस्त १९६४, अशोकनगर (म.प्र.)
यह एक सच है(१९९३ में २१ कविताओं की कविता पुस्तिका)
हंसीघर (१९९८)और खाली कोना(२००७) कविता संग्रह
अंग्रेजी सहित अनेक भारतीय भाषाओँ में कविताओं के अनुवाद प्रकाशित
मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन का वागीश्वरी पुरुस्कार,
अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान
२५ वर्षों से रंगकर्म के क्षेत्र में सक्रिय,अनेक नाटकों में अभिनय तथा बदरा पानी दे और असमंजस बाबू की आत्मकथा नाटको का निर्देशन.
शरतचंद्र की प्रसिद्द कहानी महेश का नाट्यरूपांतरण
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की मध्य प्रदेश इकाई के महासचिव एवं
प्रगतिशील लेखक संघ (मध्य प्रदेश) के सचिव मंडल के सदस्य
सम्प्रति – लोक निर्माण विभाग में नौकरी
ई पता : hariom.rajoria@gmail.com
मो. ९४२५१३४४६२
हरिओम राजोरिया की कविताएँ भारतीय जनतंत्र के निचले पायदान पर खड़े उस मनुष्य को सम्बोधित हैं जिसपर रोज़ कड़ी मार पड़ती है जिस पर खुद बोझ है जनतंत्र का. जो सिर्फ एक मत है जिसे झूठे सपने और बनावटी पहचान के आधार पर एकत्र कर गिन भर लिया जाता है. जो अवसर मिलने पर इस तन्त्र में शामिल हो धीरे धीरे इसी का एक हिस्सा हो जाता है, जिसे उपभोक्तावाद के सपनों की आदत डाल दी जाती है और जो इस सपने में छिपे जाल में फंसकर रह जाता है.
ये कविताएँ इस पस्तहाल समय -समाज की खोज़ खबर लेती हैं, नैतिक टिप्पणी करती हैं और अपना पक्ष रखती हैं. हरिओम राजोरिया सरल वाक्यों से कविता लिखते हैं और अधिकतर अभिधा में कहते हैं. कविताओं की भंगिमा सम्बोधनपरक है और यही इन कविताओं की संप्रेषणीयता का राज भी है.
एक नागरिक मत
कठोरता जिनके चेहरे से टपकती है
जो कठोर और कड़े निर्णय लेते हैं हर हमेशा
रहते हैं कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था के बीच
पहिनते हैं झक सफेद कपड़े
एक परिन्दा भी
बीट नहीं कर सकता जिनके कपड़ों पर
क्षमा करना
मैं उन्हें वोट नहीं करता
मैं चमचमाती सड़कें देखकर वोट नहीं करता
क्योंकि ये तो बनी ही हैं
हमारे पैसों और पसीने से
लकदक अटारियाँ, अट्टालिकाएँ देखकर वोट नहीं करता
हम जैसे लोग उनमें कहाँ रहते हैं
त्रिशूल और तलवारें देखकर भी मैं वोट नहीं करता
क्योंकि इनका अपना कोई धर्म नहीं
आज आप विकास कुमार नाम से बजने लगे
तो आप सचमुच मुझे क्षमा करना
मैं ऐसे विकास कुमारों को वोट नहीं करता
‘‘जो न हुआ अपनी जात का
क्या होगा वह अपने बाप का?’’
आप मुझे क्षमा करना
ऐसी कहावतें गढ़ने वालों को
मैं अपना वोट नहीं करता.
पता न था !
पता न था यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा
मन लगाने से पहले ही पास हो जाऊँगा
घर बनाने के लिए छोड़ दूँगा घर को ही
करते-करते चाकरी
पूरी तरह सरकारी हो जाऊँगा
बड़े-बड़ों की सोहबत में रहूँगा
कविताएँ छोड़कर
लिखने लगूंगा साईं बाबा के भजन
पता न था यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा
बिरादरी की धर्मशाला के लिए चंदा जुटाऊँगा
बैठूँगा जात के लोगों के बीच
टूटे कुंदों वाले कपों में दूँगा काम वालों को चाय
राम प्रसाद भैया को रम्मू कह बुलाऊँगा
एक कूपमंडूक पूर्व रजवाडे़ के आगे
झुक-झुक कर दोहरा हो जाऊँगा
पता न था यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा
खून से सने इतिहास की विरदावली गाऊँगा
मम्मद चाचा की चक्की से आटा नहीं पिसवाऊँगा
धार्मिक जुलूस में फटाके चलवाऊँगा
एक हुड़दंगी को बचाने के लिए दूँगा झूठी गवाही
फिर आत्मशांतिके लिए घर में जाप करवाऊँगा
पता न था यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा
आजादी आएगी और पास से गुजर जाएगी
एक बूढ़ी नदी बदल लेगी अपना रास्ता
एक नया वाद्ययंत्र पुराने बाजों को लील जाएगा
एकतरफा पैसा बढ़ेगा और जीना दूभर हो जाएगा
नई-नई बीमारियाँ पैर पसारेंगी
कम्पनी राज फिर लौट आएगा.
हमारे-तुम्हारे बीच की कड़ी
उन्होंने अपनी सोने की मूठ वाली छड़ी
एक तस्वीर की तरफ घुमाई
एक रंगीन चमचमाती हुई कार की थी यह तस्वीर
कार से कुहनी टिकाये खड़ी
एक अधनंगी युवती भी थी इस तस्वीर में
देखने वाले सब हतप्रभ थे
और उनकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे
उनके संक्षिप्त वक्तव्य में
कार की तमाम खूबियों का जिक्र था
ऐसा अनोखा अंग्रेजी नाम था उस कार का
जिसे जुबान पर चढ़ा पाना मुश्किल था
वे बार-बार उसका नाम लेते
और बार-बार सहम जाते सुनने वाले
कार की कीमत सुनकर तो
चुप्पी सी छा गई
खुले के खुले रह गये सबके मुँह
सबकी आँखों में
एक चमचमाती हुई सुंदर कार थी
इस सम्मोहन से वे खासे उत्साहित हुए
और विहँसते हुए कहने लगे-
‘‘कार भर नहीं है यह दोस्तो !
यह तो एक सपना है
ऐसा सपना
जो तुम खुली आँखों से देख पा रहे हो
फिर से इस कार की सुंदरता को निहारो
इसे देख कर एक हूक सी उठती है
यह तुम्हारे पास भी हो सकती है
पिंक सूट वाले जो भाईसाहब बैठे हैं
उनके पास भी
और उन महरून साड़ी वाली बहिन जी के पास भी
मैं तो कहता हूँ
हर उस आदमी के पास हो सकती है यह कार
जिनके भीतर ललक है सपने देखने की ’’
वे बोलते ही चले जा रहे थे-
‘‘यह ऐसा सपना है दोस्तो !
जो तुम्हें छलाँग लगाना सिखाएगा
ऐसी छलाँग जो कोई गंवार नहीं लगा सकता
गरीब-गुरबे और गंवार तो पैदल चलते हैं
और एक मामूली खड्डे को फांदने में ही
फोड़ लेते हैं अपने घुटने
हम उस छलाँग की बात कर रहे हैं दोस्तो !
जो तुम्हें उस कार तक पहुँचाएगी
ऐसी छलाँग
जो ऊब और घुटन भरी दिनचर्या से
तुम्हें हवा के ताजा झोंके की तरफ ले जाएगी ’’
फिर वे अपनी बात पर आ गये-
‘‘इस देशमें रहने वाले हर एक आदमी की जेब से
अगर एक-एक पैसा भी आप चुराओगे
तो एक दिन इस कार तक पहुँच जाओगे
क्षमा करना दोस्तो !
यह कोई चोरी नहीं है
यह नेटवर्किंग मार्केटिंग है
जो जाल बिछाकर ही की जाती है
जो सिर्फ हमारे और तुम्हारे बीच का ही मामला है
हमारे पास सुंदर चमचमाती हुई कार है
और तुम्हारी आँखों में
सपना है कार के होने का
और यही एक कड़ी है
जो हम दोनो को आपस में जोड़ती है ’’
परास्त
कितना धीरे-धीरे हुआ यह सब
जैसे धीरे-धीरे सुलगता है कंडा
और समूचा दहकने के बाद
धीरे-धीरे हो जाता है ताप रहित
एक राख बची रहती है कंडे के आकार की
नन्हा हवा का झोंका
बिखेर सकता है जिसे दिशाओं में
हम भी ऐसे ही चुपचाप थे इस डगर पर
और सुलग रहे थे बरसों से
तार बाबू नहीं आया हमारे दरवाजे
अखबार में छपा नहीं हमारा नाम
कहीं सुगबुगाहट तक नहीं हुई
हमारे इस तरह अचानक बुझ जाने की
दिपदिपाकर अंतिम प्रयास के बाद नहीं
हम तो यूँ ही बुझ गए चुपचाप
बड़ा-सा माटी का कोई ढेला
गिरता हुआ आया सिर के ऊपर
ओर हम बने रहे निर्लिप्त
अपनी चेतना में एक काल्पनिक प्रतीक्षा में डूबे हुए
जबकि हमारे पास अपने मजबूत कंधे थे
और जंघाओं में अच्छा-खासा मांस था
फिर वही हुआ अंततः जिसे होना था
हम परास्त हो गए .
कुर्सी
एक आदमी कुर्सी के लिए दौड़ता है
एक तनिक ठिठककर
तपाक से बैठ जाता है कुर्सी पर
कभी-कभी जिला सदर की कुर्सी
और एक घूसखोर की कुर्सी
एक ही तरह की लकड़ी से बनी होती है
एक कुर्सी ऐसी होती है
जिस पर बैठते ही शर्म मर जाती है
एक कुर्सी बैठते ही काट खाती है
कुछ कुर्सियाँ कभी न्याय नहीं कर पातीं
कुछ कुर्सियों के साथ न्याय नहीं हो पाता
एक कुर्सी ऐसी जिस पर बैठते ही
आदमी का चैन छिन जाता है
एक कुर्सी ऐसी जिसे देख एक आदमी
अपनी ही हथेलियों को दाँतों से चबाता है
इंतजार के लिए बनायी गयीं कुर्सियाँ
और फेंककर मारे जाने वाली कुर्सियाँ
सामान्यतः कुछ हल्की होती हैं
हमेशा पैसा फेंककर चीजें खरीदने वाले
नहीं मान सकते उन हाथों का लोहा
जो कुर्सियों को आरामदेह बनाते हैं
और इस दरम्यान कभी आराम नहीं कर पाते
जो सूखे पेड़ों को काटते हैं
जो पेट से धकेलकर लकड़ी को
मशीन पर घूमती आरी तक ले जाते हैं
जो ऊँघने वालों के लिए
एक पसरी हुई कुर्सी बनाते हैं
कहाँ जाएँ
अभी-अभी बस अभी जो तुमने कहा
कहा कि अब चलो! चले जाओ!
अब तुम ही कहो
कहाँ को चले जाएँ मुँह उठाए
कैसे चल पड़ें निर्विचार होकर
पांवों में थकन है
और दूर तक फैला है अन्धकार
सपने तो ऐसे हो गए
जैसे कच्ची मटमैली दीवारों पर
क्षण-प्रतिक्षण बनती-बिगड़ती आकृतियाँ
अपने घास-पूस के घरों
इन टूटे-फूटे बासन-भाड़ों
अपने भविष्यहीन मरगिल्ले बच्चों
और खाँसते-कराहते माता-पिताओं के साथ
ऊहापोह से भरा कैसा तो ये जीवन है
कि एक-एक सांस पर पहरा है तुम्हारा
कहो! फिर से कहो
अभी-अभी जो तुमने कहा
कि यही है रहवास हमारी
कि यह जो खुला आसमान हे
यह जो चाँद सितारों की है विरासत
यह जो हवा, पानी, झरना, पहाड़, जंगल
यह जो सिर पर तपता हुआ लाल सूरज
और बियाबान सर्पीले रास्तों पर
हर समय पीछा करता एक भय?
काम की तलाश में चले आये
अब इस धरती को छोड़ कहाँ को जाएँ ?
खेत-खलियान पहले ही पीछे छोड़ आए
पीछे छोड़ आए
छान पर गिरते पीले नीम के फूल
यह जो चार-पाँच पोटलियाँ हैं
इन्हीं में बाँधकर लाये थे अपना घर .
पिता
वे घर से भाग रहे हैं
या कि कर रहे हैं भागने का अभिनय
खूँटी पर टँगा है उनका झोला
और वे जूते पहिन रहे हैं
उनके चले जाने का भय डरा रहा है
मैं उनका कुर्ता खींच रहा हूँ
और वे छुड़ा रहे हैं मेरा हाथ
वे कर्ज से नहीं भागे कभी
आपदाओं और बीमारियों से
भागकर नहीं गये कहीं
वे कहीं जा ही नहीं सकते थे
पर जा रहे हैं मुझसे रूठकर
मैं अब मन लगाकर पढ़ूँगा
मै उनका दिल नहीं दुखाऊँगा मैं
मैं बहिनों और माँ को नहीं रुलाऊँगा
मैं सही वक्त पर घर आऊँगा
मैं अब कुएँ में तैरने नहीं जाऊँगा
मैं पैसे चुराकर नहीं भागूँगा सिनेमा
मैं उनके भागने से डरता था
और वे तरह-तरह से डराते थे मुझे
वे आज भी स्वप्न में दीखते हैं
अपनी मैली धोती और उदास चेहरा लिये
खूँटी पर टँगा है उनका झोला
और वे भाग रहे हैं
मैं अब बड़ा हो गया हूँ
मैं अब उनका कुरता नहीं खींच सकता.
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पेंटिग : ganesh pyne
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