(रामेश्वरी देवी नेहरू) |
नवजागरण और स्त्री-पत्रकारिता
गरिमा श्रीवास्तव
हमारा इतिहास अभिलेखागारों, शोधपत्रों और इधर-उधर बिखरे आख्यानों के टुकड़े जोड़-जोड़ कर ही हमारे सामने आता है. औपनिवेशिक भारत में स्त्री चेतना और जागरण के लिए निरंतर प्रयासरत पत्रिकाओं की वैचारिक निष्ठाओं का मूल्यांकन स्त्री-लेखन के विश्रृंखलित इतिहास को मुकम्मल रूप भी प्रदान कर सकता है. यह कार्य चुनौती पूर्ण है क्योंकि पुस्तकालयों और अभिलेखागारों में संकलित सामग्री बिखरी हुई है. पुराने पत्र और पत्रिकाएं उद्धारक की राह तकते-तकते दम तोड़ रहे हैं. पुराने फटे धूमिल पन्ने, धूल की तहों में खोते चले जा रहे हैं.
पुराने साहित्य को संकलित और विश्लेषित-पुनर्व्याख्यायित करना एक प्रकार से साहित्येतिहास को समृद्ध करने का काम है,जो लैंगिक शोध अध्ययन-केन्द्रों के लिए अनिवार्य होना चाहिए. इस दृष्टि से हिंदी में स्त्री पत्रकारिता के क्षेत्र में स्त्री-दर्पण पत्रिका की भूमिका ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है,जो भारत में स्त्री पत्रकारिता के इतिहास के तीन चरणों में मुकम्मल फर्क को दिखाने और स्त्री साहित्येतिहास की भूली कड़ियों को जोड़ने के लिए पढ़ी जानी चाहिए.
प्रथम विश्व युद्ध के आसपास भारत में स्त्री संगठनों के उदय के साथ–साथ स्त्रियाँ सामाजिक-राजनीतिक और व्यक्तिगत सरोकारों से लैस होकर संपादन के क्षेत्र में आयीं. औपनिवेशिक भारत में स्त्री पत्रकारिता के तीन चरण दिखाई पड़ते हैं-
१. उन्नीसवीं सदी का समाज सुधार चरण-जिसमें गोपालदेवी के संपादन में ‘गृहलक्ष्मी’ जैसी पत्रिकाएं छपती थीं,जो आचरण या ‘कंडक्ट’ पत्रिकाएं भी कही जा सकती हैं ,जिनकी मूल चिंता थी स्त्रियों का आचरण -सुधार,और उन्हें आदर्श गृहिणी बनाना.
२. बीसवीं सदी का पूर्वार्ध- जब अधिकांश पत्र -पत्रिकाएं राजनीतिक एजेंडे और भारतीय समाज के पुनर्निर्माण और आदर्श से परिचालित थीं-जिसमें रामेश्वरी देवी नेहरू के संपादन में छपने वाली ‘स्त्री दर्पण’ जैसी पत्रिकायें थीं जिनका उद्देश्य था स्त्रियों के राजनीतिक -सामाजिक हितों की चिंता, उनके बौद्धिक क्षितिज का विस्तार,लैंगिक समानता और विश्व के अन्य देशों में चल रहे स्त्री आंदोलनों की परख.
३. तीसरे चरण में ‘चाँद’ जैसी पत्रिकाएं देखी जा सकती हैं जो सामाजिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही थीं.
स्वतन्त्रतापूर्व प्रकाशित होने वाली ये पत्रिकाएं स्त्रियों के आधुनिकीकरण का प्रयास कर रही थीं,वे पढ़ी-लिखी स्त्रियों को उन्मुक्त वैचारिक और रचनात्मक अभिव्यक्ति का व्यापक फलक प्रदान कर रही थीं लेकिन इनमें उच्च और मध्य वर्ग की स्त्रियों की भागीदारी ही थी. कहीं भी ये पत्रिकाएं हाशिये की स्त्रियों के अधिकारों और उनकी अन्तश्चेतना के विस्तार की चर्चा करती नहीं दीखतीं.
(कमला देवी नेहरू) |
पहले दौर की पत्रिकाओं में स्त्रियों के आचरण,घर-गृहस्थी की साज –संभाल, यौन शुचिता और स्त्री-शिक्षा सम्बंधित लेख छपते थे;तो दूसरे दौर यानी ‘स्त्री-दर्पण’ सरीखी पत्रिकाओं के लेखों और सम्पादकीयों में स्त्रियों को स्त्रियोचित भूमिकाओं तक ही सीमित रखने का विरोध किया गया. तीसरे दौर में ‘स्त्रीधर्म’ और ‘चाँद’ सरीखी पत्रिकाओं में स्वाधीनता आन्दोलन में स्त्रियों को भागीदारी के लिए प्रेरित किया गया और ‘चाँद’ में तो स्त्री को बौद्धिक चेतना संपन्न व्यक्ति मानकर पुरुषों के समकक्ष रखकर देखने की वकालत भी की गयी.
इस वजह से इन पत्रिकाओं को व्यापक आलोचना का शिकार भी होना पड़ा. इनमें से ‘स्त्री दर्पण’ को नवजागरण के अध्येताओं ने सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका माना. प्रयाग महिला समिति’ के प्रारंभ के साथ ही १९०९ ई. में यह पत्रिका अस्तित्व में आई. रूपकुमारी नेहरू ने इसी की तर्ज़ पर ‘कुमारी दर्पण’ भी निकाली, लेकिन ‘स्त्री दर्पण’ ही हिंदी पट्टी में स्त्री आन्दोलन का सबसे सशक्त माध्यम बनी. इसके अलावा हिंदी में ऐसी कोई पत्रिका नहीं थी जो इतनी गंभीरता से स्त्री-मुद्दों पर विचार- विमर्श कर सकती.
‘स्त्री दर्पण’ का प्रकाशन जून १९०९ में प्रयाग से प्रारंभ हुआ, संपादक थीं रामेश्वरी देवी नेहरू और प्रबंधन था कमला देवी नेहरू का. ‘कश्मीर दर्पण’ के असमय बंद होने के कारण यह पत्रिका अस्तित्व में आई. चूंकि हिंदी साहित्य सम्मेलन,जिसकी स्थापना १९१० ई. में बनारस में हुई थी और जो अगले ही वर्ष इलाहाबाद स्थानांतरित हो गया था,जो जल्द ही सर्वाधिक प्रभावी साहित्यिक केंद्र के रूप में विख्यात हो गया, जहाँ लेखक ,संपादक और पाठक एक मंच पर संवाद करते. हिंदी साहित्य सम्मेलन ने बहुत से पत्रों को फलने -फूलने का अवसर दिया,यहाँ ‘स्त्री पत्रकारिता’ के कई महत्वपूर्ण साक्ष्य आज भी उपलब्ध हैं,जिनमें ऐसी कई पत्र -पत्रिकाएं थीं जो एकल या किसी सहयोगी संपादन में छपती थीं. आज कई पत्रिकाओं के अंक अधूरे और जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े हुए हैं. देखने की बात है कि जिस तरह ब्रिटिश भारत के सरकारी आंकड़े ,मसलन संसदीय कार्यवाहियां,न्यायालय के दस्तावेज सम्बन्धी कागजात जितने संभाल कर रखे गए हैं, उनकी तुलना में वर्नाकुलर कागजात, विशेषकर स्त्री लेखन से सम्बंधित पत्र-पत्रिकाओं के संरक्षण की कोई विशेष व्यवस्था या रुचि दिखाई नहीं पड़ती.
’स्त्री दर्पण’ पत्रिका पर शोध करने वाली प्रज्ञा पाठक को जुलाई १९१० से जनवरी १९२९ के अंक ही मिल पाए. १९२९ का अंक अंतिम नहीं था, इस सन्दर्भ में प्रज्ञा पाठक का कहना है कि –
“जनवरी १९२९ तक पत्रिका के स्वरूप और उसकी दशा को देखते हुए मेरे लिए यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि यह पत्रिका अधिक समय तक प्रकाशित नहीं हुई होगी”
प्रज्ञा पाठक ने “स्त्री दर्पण” के सम्पादकीय स्वरूप और पत्रिका की अंतर–वस्तु पर टिप्पणी करते हुए लिखा है:
“अप्रैल १९२५ का स्त्री दर्पण का अंक उपलब्ध है और इसे देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्त्री दर्पण की धार अचानक भोथरी हो गयी हो. सजावट और विज्ञापनों पर ध्यान अधिक है. सम्पादकीय विचार अचानक सिकुड़ कर छोटे हो गए हैं…कानपुर जाने के बाद से धीरे -धीरे इस पत्रिका का विचारोत्तेजक,आक्रामक और आन्दोलनकारी स्वरूप शिथिल पड़ता जाता है. साल -छह महीने में बदलते हुए संपादकों के व्यक्तित्व और उनकी विचारधारा के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती हुई यह पत्रिका अंततः अपनी धार खोने लगती है.”
‘स्त्री दर्पण’ का प्रारंभ स्त्रियों के हित में एक बृहत्तर उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया था. संपादिका रामेश्वरी देवी नेहरू (१८८६ -१९६६) के परिचय में लिखा गया है:
“इनका विवाह पंडित बृजलाल नेहरू से हुआ था जो पंडित मोतीलाल नेहरू के भतीजे हैं. रामेश्वरी देवी ने १९३०ई. में लन्दन जाकर भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया,१९३१ ई. में लीग आफ नेशंस के बुलावे पर जिनेवा गयीं,१९३४ ई. में महात्मा गांधी का प्रिय हरिजन उत्थान कार्य इन्हें सौंपा गया.१९३९ ई. में ठक्कर बापा के साथ मध्य भारत की प्रमुख १४ रियासतों में हरिजन सेवा के निमित्त प्रयास किया. सामाजिक कार्यों में इनकी बड़ी रुचि थी,नारी–निकेतन,बाल -आश्रम, विधवा आश्रम इन्होंने खोले. १९५० ई. में दिल्ली में स्त्रियों के उद्धार के लिए ‘नारी निकेतन’ नाम की संस्था खोली. सामाजिक कार्यों के अतिरिक्त उन्होंने ‘स्त्री दर्पण’ जैसी हिंदी की सर्वप्रथम पत्रिका की जन्मदात्री हैं. उनकी ‘स्त्री दर्पण’ नामक पत्रिका देश की बहिनों में संगठन ,राष्ट्रीयता ,आर्थिक और सामाजिक समस्याओं पर काफी प्रकाश डाला गया. यही पत्रिका उत्तर भारत में इलाहाबाद में अखिल भारतीय महिला परिषद की नींव डालने में सहायक हुई जो आज समस्त भारत में व्याप्त है.”
इस परिचय से यह स्पष्ट है कि संपादिका राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से चेतना संपन्न थीं और स्त्री सम्बन्धी मुद्दों को गंभीरता से मुख्यधारा में लाने के लिए उन्होंने ‘स्त्री दर्पण’ की शुरुआत की. वे अपने लक्ष्य के बारे में लिखती हैं –
“भारतीय स्त्री को मनुष्योचित पद दिलाना ही शुरू दिन से इस पत्रिका का लक्ष्य रहा है…इस लक्ष्य की प्राप्ति दो प्रकार से हो सकती है ,एक तो स्त्रियों के प्रति पुरुषों के विचारों में परिवर्तन से और दूसरे स्वयं स्त्री जाति की जागृति से. ‘दर्पण’ अपनी लघु चेष्टाओं द्वारा बराबर इन दोनों बातों का प्रयत्न कर रहा है. इस पत्र में जहाँ स्त्रियों के प्रति पुरुषों के कर्तव्य दिखाए जाते हैं वहां स्त्रियों का ध्यान उनके असीम उत्तरदायित्व पर भी दिलाया जाता है.”
\’स्त्री-दर्पण’ पत्रिका का महत्व इस बात में है कि इसके माध्यम से हिंदी पट्टी की स्त्रियों ने बृहत्तर विश्व से जुड़ने और अपनी दशा और दिशा के बारे में बताने का प्रयास किया. इसमें राजनैतिक चेतना संपन्न लेख छपते थे, साथ ही महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त स्त्रियों के परिचय भी बड़े ही प्रेरणास्पद ढंग से इसमें लगातार स्थान पाते थे. लघु कथाएं,नाटक,पुस्तक चर्चा, कविताएँ, आलोचनात्मक लेख, राजनीतिक घटनाओं की रिपोर्टिंग और टिप्पणियों के साथ-साथ विश्व की प्रमुख घटनाओं पर विचारपूर्ण लेख भी छपते थे. किसी भी महत्वपूर्ण घटना मसलन यूरोप में विश्वयुद्ध के दौरान पत्रिका के जनवरी १९१९ ई. के अंक में जो लेख छपे उनके विषय देखने योग्य हैं: ‘युद्ध–समाचार’,‘इन्फ्लुएंजा’,‘हवाई–यात्रा’ , ‘जबरन विधवा-जीवन’ , ‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक -गंगा का पानी’, ‘स्त्री मताधिकार’, ‘किसान और कांग्रेस’,इसी अंक में दो कहानियां-‘जल देव का पुनर्जागरण’ (सोमेश्वरी देवी नेहरू ),कन्नौज सुंदरी (गिरिजाकुमार घोष), नाटक– ‘दया का खून’; कविता– ‘भारत गीत’(श्रीधर पाठक ) ‘स्वदेशाभिमान’(विश्वेश्वरी देवी) तथा पुस्तक-आलोचना के कालम में ‘स्त्री धर्म का वैदिक आदर्श’ तथा दो स्त्री-पत्रिकाओं –‘कायस्थ महिला-हितैषी’ तथा ‘महिला सर्वोच्च’ की समीक्षा छपी.
इस पत्रिका में अधिकांश रचनाकार स्त्रियाँ होती थीं, लेकिन पुरुष रचनाकारों का भी पर्याप्त योगदान देखने को मिलता है. ‘स्त्री दर्पण’ में समकालीन ज्वलंत मुद्दों पर लेख और चर्चाएँ आमंत्रित की जाती थीं,जो पत्रिका के लोकतान्त्रिक स्वरुप का पता देती हैं. मसलन अगस्त १९१८ के अंक में ‘स्त्रियाँ और पर्दा’ शीर्षक लेख में सत्यवती ने लिखा कि पर्दा कोई आदिम प्रथा नहीं है -इस मुद्दे पर संपादक की ओर से विचारोत्तेजक बहस का आमंत्रण भी दिया गया.
पत्रिका में अक्सर लेखों का विषय वे समस्याएं होती थीं जो बौद्धिक स्त्रियों की चिंता का विषय थीं ,जैसे मृतस्त्रीक पुरुष यानी विधुर –विवाह की समस्या. हुकमा देवी ने अगस्त १९१७ के अंक में ‘स्त्री उन्नति कैसे हो’, शीर्षक लेख में लिखा था कि पुरुष अपने घर के जीव जंतुओं से भी ज्यादा उपेक्षा पत्नी की करता है. एक पत्नी के बीमार होते या मरते ही दूसरी स्त्री से विवाह करने के लिए उत्सुक हो जाता है. पुरुष की पत्नी कितनी भी सुंदर और पतिव्रता क्यों न हो ,बीमार पड़ते ही वह उपेक्षणीय हो जाती है. मृतस्त्रीक पुरुष के मुद्दे पर सबसे ज्यादा संख्या में लेख ‘स्त्री दर्पण’ में ही लिखे गए.
‘स्त्री दर्पण’ में स्वराज की अवधारणा, स्वदेशी का महत्व, असहयोग व बहिष्कार की नीति, मतदान के अधिकार जैसे मुद्दों पर भी खूब लेख लिखे गए, लेकिन फरवरी १९२२ के सम्पादकीय में यह अनुरोध छपा:
“हम अपने लेखक -लेखिकाओं से प्रार्थना करती हैं कि वे कृपा करके आयंदा सामाजिक विषयों पर ही लेख लिखा करें, राजनैतिक विषयों पर नहीं क्योंकि हमारी पत्रिका का यही उद्देश्य है कि हमारे समाज का सुधार हो.”
इसका तात्पर्य यह है कि पत्रिका पर राजनीतिक विषयों के लेखों को न छापने का दबाव था और समाज सुधार के एजेंडे को महत्व देने का दबाव था,जबकि इससे पहले स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीतिक लेख टिप्पणियां खूब छपा करती थीं,मसलन जनवरी १९१६ के अंक में कांग्रेस की राष्ट्रीय महासभा के ३० वें वार्षिक अधिवेशन की रिपोर्ट इसमें प्रमुखता से छपी. इसी तरह जनवरी १९१७ के अंक में मिस आर .पी पाल के भाषण, ‘स्त्रियों को होमरूल पहले दीजिये’ का सारांश सत्यवती देवी और लक्ष्मीदेवी वाजपेयी ने यूँ प्रस्तुत किया
“यदि आप लोग देश की सच्ची उन्नति करना चाहते हैं तो स्त्रियों को होमरूल पहले दीजिये …तात्पर्य यह है कि मनुष्य जाति का जन्मसिद्ध अधिकार जो स्वतंत्रता है वह स्वतंत्रता परिमिति के अन्दर स्वतंत्रता,उनको भी देना चाहिए. अपने समाज का कल्याण करने का धैर्य उनमें आना चाहिए. जिस प्रकार पुरुष स्वतंत्रतापूर्वक देश -हित में भाग ले सकता है उसी प्रकार स्त्री भी तो ले सके,इतनी स्वतंत्रता उसे देनी चाहिए. कम से कम स्त्री- जाति में स्वदेश प्रेम और स्वदेशाभिमान जागृत करने वाली देवियाँ हम में तैयार होनी चाहिये. परन्तु वर्तमान स्त्रियों की पराधीनता बड़ी भयंकर है,जिसके कारण यह कहना पड़ता है कि भारतीय मनुष्य समाज का आधा अंग निकम्मा हो रहा है.”
यह सच है कि हिंदी क्षेत्र की स्त्री पत्रकारिता का इतिहास ‘स्त्री दर्पण’ के बिना अधूरा है. भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने १८७४ ई. में ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका निकाली,इसके बाद ‘स्त्री दर्पण’ और गृहलक्ष्मी,आर्य महिला जैसी पत्रिकाएं निकलीं, जिन्होंने पश्चिम और पूर्व के बौद्धिक आदान -प्रदान की प्रक्रिया को गति प्रदान की. इन सबमें ‘स्त्री दर्पण’ ही ऐसी पत्रिका थी जिसमें स्त्री आन्दोलन के वैचारिक विमर्श से जुड़े सभी मुद्दे चर्चा का विषय बने. स्त्री पराधीनता के कारणों और भविष्य की भारतीय स्त्री की छवि “स्त्री दर्पण” में सर्वाधिक स्पष्ट दीख पड़ती है. यह भी महत्वपूर्ण है कि इस पत्रिका से प्रेरणा लेकर अन्य भारतीय भाषाओं में स्त्री सम्बन्धी पत्रिकाओं के प्रकाशन और संपादन में तेज़ी आई. हालांकि बंगाल में स्वर्ण कुमारी देवी द्वारा ‘बामाबोधिनी’(१८६३) और ‘भारती’ के प्रकाशन से स्त्री पत्रकारिता का प्रारंभ माना जाता है और ‘वृतान्तिनी’ तेलुगु में छपने वाली पहली स्त्री सुधार सम्बन्धी पत्रिका थी जो मद्रास(१८३२)से निकली.
औपनिवेशिक आंध्र से हितवादी (१८६२) इनाव्रतमनी, श्रीअक्षिणी(१८६३), तत्वबोधिनी (१८६४), सुजानरंजनी (१८६४), पुरुषार्थ प्रदायिनी जैसी पत्रिकाएं निकलती थीं जिनमें स्त्री सम्बन्धी मुद्दे भी उठाये जाते थे. अधिकतर पत्रिकाओं में स्त्री शिक्षा का मुद्दा महत्वपूर्ण था. ‘तेलुगु जनाना’ स्त्री मुक्ति के मुद्दे को गंभीरता से उठाने वाली पहली पत्रिका थी,लेकिन किसी स्त्री द्वारा सम्पादित पहली पत्रिका ‘हिन्दू सुंदरी’ आई जिसका संपादन मोसल्कान्ति रमाबाई ने किया. इसके अलावा ‘विवेकवती’ (१९०८) और इन्टिमेशन टू वुमन (१९१२) ये दो पत्रिकाएं थीं, जो ईसाई मिशनरियों के सहयोग से निकलीं जिनकी संपादक स्त्रियाँ थीं.१८८३ से १९१९ तक यानी ‘सतीहितबोधिनी’ से ‘सौंदर्यवल्लरी’ तक तेलुगु में स्त्री पत्रकारिता ने स्वर्णिम दौर देखा. इसके बाद भी कई पत्रिकाएं आयीं जिनके संपादकों के तौर पर स्त्री और पुरुष दोनों ही होते थे. लेकिन स्त्री–संपादक और पुरुष संपादक के एजेंडे में जो फर्क दिखता है वह यह कि पुरुष संपादकों ने जो लेख लिखे उनमें स्त्री शुचिता,पवित्रता, घरेलू ज्ञान, कामकाज और आदर्श स्त्री का गुणगान प्रमुख था जबकि स्त्री संपादकों के एजेंडे में बाल-विवाह, विधवाओं की स्थिति, स्त्री शिक्षक की आवश्यकता, बच्चों के लालन -पालन से जुड़े मुद्दे प्रमुख थे.
इनका मानना था कि स्त्री कमज़ोर और शोषित है इसलिए उसे स्वाधीनता की ज़रूरत है और इसलिए उसे अपने अधिकार लड़ कर लेने होंगे ,जबकि पुरुष संपादकों का कहना था कि स्त्रियाँ अज्ञानी और अन्धविश्वासी हैं इसलिए उनमें शिक्षा द्वारा सुधार की आवश्यकता है. इस तरह ये पत्रिकाएं जहाँ स्त्रियों को अभिव्यक्ति का मंच प्रदान कर रही थीं वहीं स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति और उसके सुधार के मुद्दे पर लैंगिक विभेद संपन्न विचारोत्तेजक बहस को भी आगे बढ़ा रही थी. जहाँ शुरुआती दौर की पत्रिकाओं में अशिक्षा को स्त्री की दुर्दशा का मूल कारण बताया गया वहीं पुरुष संपादकों के नेतृत्व वाली स्त्री-पत्रिकाओं में स्त्रियों को परिवार के दायरे में रहकर समझौते करने एवं अपना आचरण बेहतर करने,पति-परिवार को प्रसन्न रखने में उसकी उन्नति का मूल देखा गया.
स्त्री संपादकों ने स्त्रियों को एक विशिष्ट वर्ग के अंतर्गत रखा और शोषण का प्रतिरोध करने का आह्वान करते हुए कहा कि वे शिक्षा को अपनी मुक्ति के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करें, साथ ही ये अपने सम्पादकीयों में स्त्रियों की घरेलू भूमिका को भी न्यायोचित ठहराती थीं. दोनों के संपादकत्व में कढाई -बुनाई, खाना-पकाने, बच्चों की देखभाल सम्बन्धी लेख होते थे और पत्रिकाओं का बल इस पर रहता था कि कैसे स्त्रियाँ अपना अधिकाधिक समय रचनात्मक कार्यों में लगायें.
अधिकांश पत्रिकाएं स्वाधीनता आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी को प्रोत्साहन देती थीं. वहीं पुरुष संपादकों और आलोचकों द्वारा स्त्रियों की पत्रिकाओं को आन्दोलनधर्मी होने से बचाने के प्रयास किये जाते रहे क्योंकि सामाजिक संरचना में बेहद जागरूक स्त्रियां पितृसत्ता के लिए चुनौती थीं. यहाँ तक कि ‘स्त्री-दर्पण’ जैसी पत्रिका के उत्तरार्ध के अंक भी पैने और मारक नहीं रहने दिए गए,उसमें तरह -तरह के घरेलू किस्म के लेख छपने लगे और अंततः वह काल-कवलित हो गयी.
सांस्कृतिक इतिहास की दरारों को भरने के लिए,उसकी असंगतियों को दूर करने के लिए हाल के वर्षों में स्त्री-लेखन पर पुनर्विचार और शोध करने की ज़रूरत महसूस की गयी है. इसे हम स्त्रीवादी इतिहास लेखन कह सकते हैं जो इतिहास का मूल्यांकन जेंडर के नज़रिए से करने का पक्षधर है. दरअसल स्त्रीवादी इतिहास लेखन समूचे इतिहास को समग्रता में देखने और विश्लेषित करने का प्रयास करता है,जिसमें मुख्यधारा के इतिहास से छूटे हुए,अनजाने में, या जानबूझकर उपेक्षित कर दिए गए वंचितों का इतिहास और उनका लेखन शामिल किया जाता है. यह स्त्री को किसी विशेष सन्दर्भ या किसी सीमा में न बांधकर, एक रचनाकार और उसके दाय के रूप में देखने का प्रयास है. यह स्त्रियों की रचनाशीलता के सन्दर्भ में लैंगिक (जेंडर)- विभेद को देखने और साथ ही सामाजिक संरचना गत अपेक्षित बदलाव जो घटने चाहिये, उनका दिशा निर्देश करने का भी उद्यम है.
स्त्री साहित्येतिहास को उपेक्षित करके कभी भी इतिहास-लेखन को समग्रता में नहीं जाना जा सकता. कुछेक इतिहासकारों को छोड़ दें तो अधिकांश इतिहासकारों ने स्त्रियों के सांस्कृतिक-साहित्यिक दाय को या तो उपेक्षित किया या फुटकर खाते में डाल दिया. आज ज़रूरत इस बात की है कि सामाजिक अवधारणाओं, विचारधाराओं और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था,समाज-सुधार कार्यक्रमों के पारस्परिक सम्बन्ध को विश्लेषित -व्याख्यायित करने के लिए स्त्री-रचनाशीलता की अब तक उपेक्षित, अवसन्न अवस्था को प्राप्त कड़ियों को ढूँढा और जोड़ा जाये, जिससे साहित्येतिहास अपनी समग्रता में सामने आ सके.
स्त्रियाँ लिखकर अपने आपको बतौर अभिकर्ता (एजेंसी)कैसे स्थापित करती हैं ,पूरी सामाजिक संरचना को कैसे चुनौती देती हैं और इस तरह साहित्य और विशिष्ट ज्ञानधारा में दखलंदाजी करती हैं,यह जानने के लिए विभिन्न जीवंत संरचनाओं के प्रतीकों से स्त्रियों को जोड़कर देखने की ज़रूरत पड़ती है. हिंदी साहित्य के सन्दर्भ में विचार करें तो स्त्री की रचनाशीलता के अधिकतर ज्ञात प्रसंग मुख्यतः मध्यवर्गीय हिन्दू स्त्रियों के ही मिलते हैं,जो इतिहास की जानकारी को एकपक्षीय और एकरेखीय बनाते हैं. यहीं पर इतिहास के पुनर्पाठ और आलोचनात्मक प्रतिमानों के पुनर्नवीकरण की ज़रूरत महसूस होती है.
डा. नामवर सिंह ने साहित्येतिहास की पुनर्व्याख्या के सन्दर्भ में सही ही कहा है, “नवीन व्याख्याओं का उपयोग भर इतिहास नहीं है, इतिहास स्वयं में एक नई व्याख्या है.”
इतिहास की समस्या से सम्बद्ध है रचना की आलोचना,उसके मूल्यांकन की समस्या,क्योंकि रचना के अभाव में इतिहास का लेखन असम्भव है. लेकिन ऐसी पूरी परंपरा जिसकी उपेक्षा कर दी गयी हो उसके बारे में नामवर सिंह या रामविलास शर्मा जैसे आलोचक मौन हैं. समूची साहित्य -परंपरा में स्त्री रचनाशीलता के दखल को कम करके आंकना,या उसे भावुक,अबौद्धिक साहित्य कहकर दरकिनार करने की रणनीतियों को स्त्री साहित्येतिहास लेखन ने समझा और अपने ढंग से इसे चुनौती भी दी है.
हाल के वर्षों में स्त्री कविता के इतिहास और स्त्रियों की रचनाओं को एक बड़ा पाठक और प्रकाशक वर्ग मिला है,लेकिन अब भी हिंदी नवजागरण के दौर के स्त्री साहित्य के प्रकाशन और मूल्यांकन का अभाव ही है.