नवजागरण और ‘स्त्री दर्पण’ की नवचेतना अल्पना मिश्र |
नवजागरण की सुधार चेतना सम्पूर्ण भारत में फैली तो यह अकारण नहीं था और न ही इसके केन्द्र में स्त्री मुद्दों का आना ही अकारण हुआ. यह जमीनी तथ्य बहुत देर तक अस्वीकृत न रह सका कि अन्याय, अत्याचार, दमन और शोषण की भूमि पर आधुनिकता अपने पैर नहीं जमा सकती थी. आधुनिक किस्म की शिक्षा और नए ज्ञान विज्ञान के प्रसार ने भारतीय युवाओं के आगे नए तरह की चुनौती खड़ी कर दी थी. उनके भीतर परम्परा से चली आ रही रूढ़ियों और आधुनिकता को लेकर द्वंद्व पैदा होना स्वाभाविक था. दूसरी तरफ स्वाधीनता आंदोलन से बन रही चेतना भी उन्हें नई दिशा की तरफ ले जा रही थी. गाँधी का स्वाधीनता संघर्ष स्वाधीन जन चेतना की बात भी कर रहा था. एक और महत्वपूर्ण पक्ष था- संस्कृति, जिस पर पुनर्विचार की आवश्यकता टाली नहीं जा सकती थी.
योरोप लगातार अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता और भारतीय संस्कृति को हीनतर साबित करने के प्रयास तेज कर रहा था. संस्कृति पर यह हमला भारतीय नागरिकों के आत्मगौरव को क्षीण करता जा रहा था. कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘गोरा’ उपन्यास में मिशनरी द्वारा बाकायदा पर्चा बाँट कर भारतीय संस्कृति की कमियां बताए जाने और उस पर चोट करने के प्रसंग आते हैं. इस हमले के केन्द्र में मुख्य रूप से स्त्रियां थीं, जो अनपढ़ थीं, जो बालविवाह की शिकार थीं, विधवा जीवन का कलंक और सतीप्रथा जैसे भयावह स्थितियां उनके जीवन को मूल्यहीन, लाचार और शोषण का आसान शिकार बनाती थीं. यथार्थ का यह क्रूर सत्य इतना उजागर था कि शिक्षित समुदाय लज्जा से अपना सिर नहीं उठा सकता था. इसलिए एक चुनौती यह भी थी कि अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिए अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करनी होगी और यह श्रेष्ठता स्त्री जीवन से जुड़ी भयानक कुरीतियों, बुराइयों, अशिक्षा आदि को दूर किए बिना संभव न थी. उजले पक्षों को इतिहास और पुराख्यानों से चुन चुन कर लाने के सारे प्रयत्नों के बीच यह सबसे बड़ी समस्या बनी हुई थी, इसलिए सामाजिक आन्दोलनकारियों को स्त्री जीवन को केन्द्र में लाकर उसमें सुधार के प्रयत्न को सबसे बड़ा मुद्दा बनाना ही पड़ा. स्त्री जीवन की कुरीतियों को स्वीकार कर उसे खत्म करने के लिए कानून का सहारा लेना और नई चेतना का प्रसार करना सुधार आन्दोलन का एक बड़ा कदम था. फूलमणि हत्याकांड के बाद तेज हुए बाल विवाह विरोध और विवाह की उम्र बढ़ाए जाने की मांग ने, ‘ऐज आफ कसेंट’ कानून और सती प्रथा निरोध कानून ने इस चेतना को ठोस रूप देने में मदद की.
हालाँकि सुधार आन्दोलनों के भीतर भी स्त्री शिक्षा को लेकर चिंताएं और दुश्चिंताएं विद्यमान थीं. स्त्री शिक्षा पर स्त्रियों और पुरूषों का नज़रिया एक जैसा नहीं था बल्कि कई जगह दूसरे के विपरीत था. स्त्री शिक्षा पर हंटर कमीशन को दिए भारतेंदु हरिश्चंद्र के बयान और पंडिता रमाबाई के बयान के अंतर को इस संदर्भ में पढ़ा जा सकता है. जहां भारतेंदु ‘स्त्रीधर्म’ शिक्षा पर बल देते दिख रहे हैं, आधुनिक शिक्षा से स्त्रियों को बचाने की बात कह रहे हैं और सहशिक्षा का विरोध कर रहे हैं, वहीं रमा बाई लड़कियों के लिए मेडिकल की पढ़ाई को जरूरी मान रही हैं. सह शिक्षा पर पूछे गए एक सवाल का जवाब देते हुए भारतेंदु कहते हैं कि
‘‘मैं इस देश में लड़के लड़कियों के मिले जुले स्कूलों की योजना बनाने का समर्थन नहीं कर सकता. एक ही स्कूल में लड़कों के साथ लड़कियों को पढ़ाने के लिए हिंदुस्तानियों को कभी राजी नहीं किया जा सकता.’’
(रस्साकशी, वीरभारत तलवार, पृष्ठ-34 )
प्रताप नरायण मिश्र इससे भी अधिक चिंतित दिखते हैं. वे दो कदम आगे बढ़ कर सलाह देते हैं कि
‘‘स्त्रियों को पतिव्रता बनाने के लिए साम दाम दंड भेद सभी से काम लेना होगा. क्योंकि स्त्रियां अभी विशेषतः मूर्ख हैं.’’
(प्रताप नारायण मिश्र ग्रन्थावली, संपादक विजय शंकर मल्ल, पृष्ठ- १३३ )
आश्चर्य की बात यह है कि इन हिंदी लेखकों को किसी स्त्री ने या किसी संगठन ने स्त्रियों का प्रवक्ता नहीं बनाया, पर ये स्वयं को स्त्री जाति का प्रवक्ता मान बैठे थे और बढ़ चढ़ कर स्त्रियों को नियंत्रित करने की सलाह दिए जा रहे थे. उस समय के अधिकांश हिंदी लेखकों का जीवन और लेखन अंतरविरोधों से भरा है. उनके लिए स्त्री जीवन की समस्याओं से अधिक स्त्री ही एक समस्या थी. ऐसे लेखक अपने जीवन में, समाज सुधार से दूर दूर तक जुड़े नहीं दिखाई देते.
राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलनों के समानान्तर बौद्धिक क्षेत्र भी हलचल से भरा था. अनेक पत्र पत्रिकाएं वैचारिक स्तर पर अपनी भूमिका निभाती जागरूकता लाने के प्रयास में प्राणपण से जुटी थीं. स्त्रियों के हिस्से जैसे ही आधुनिक शिक्षा आई, उन्होंने समय और परिस्थिति के अनुसार अपनी भागीदारी राजनैतिक क्षेत्र के साथ साथ सामाजिक और वैचारिक क्षेत्र में भी सुनिश्चित की. स्वाधीनता आन्दोलन में गाँधी की पुकार पर शामिल होने वाली अधिकांश महिलाएं औपचारिक शिक्षा से दूर होते हुए भी चेतना के स्तर पर अत्यंत जागरूक और आधुनिकता के स्तर पर ऊँची सोच रखने वाली दिखाई पड़ती है. किंतु जिन्हें आधुनिक शिक्षा मिली थी, उन्होंने अपनी क्षमता पहचानी और आन्दोलनों के साथ-साथ पत्र पत्रिकाओं में अपने लेखन से वैचारिक क्षेत्र को धारदार गति प्रदान की. पुरूषों द्वारा पत्र पत्रिकाओं के संचालन, संपादन के बरक्स स्त्रियों ने भी प्रखर वैचारिक हस्तक्षेप किया. इससे उस समय कई बार, स्त्री जीवन के एक ही मुद्दे पर, दो भिन्न प्रकार के विचार दिखाई पड़ते हैं, एक जो अध्ययन की सैद्धांतिकी से जन्मे थे और प्रायः पुरूष विचारकों द्वारा लिखे जा रहे थे. और दूसरे, जो जमीन से जुड़े अनुभव सत्य की आँच में तप कर अभिव्यक्त हो रहे थे और जिन्हें प्रायः स्त्रियां उठा रही थीं.
पिछले दौर में स्त्री प्रश्नों को लेकर क्रांतिधर्मी तेवर के साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने काम किया, जिसमें सबसे पहली पत्रिका ‘भारत भगिनी’ थी. इसके बाद ‘स्त्री दर्पण’ और ‘चांद’ ने गंभीरता से स्त्री मुद्दों को उठाते हुए स्त्री चेतना को बहुआयामिता प्रदान की. समानांतर ‘गृहशोभा’. 1910 से 1929 संपादक- पं. सुदर्शनाचार्य और गोपाल देवी. भी इस भूमिका में शामिल दिखती है. ‘भारत भगिनी’ हरदेई के संपादन में सन् 1888 ई. में इलाहाबाद से और बाद में लाहौर से प्रकाशित हुई. पहली बार स्त्री के नेतृत्व में स्त्री दृष्टि के साथ स्त्री जीवन पर विचार सम्पन्नता और धारदार तरीके से बात उठाई गई. दरअसल पत्रकारिता के क्षेत्र में स्त्री पत्रकारिता का आना एक क्रांतिकारी और ऐतिहासिक कदम था. इस पत्रिका ने हिंदी क्षेत्र में, पुरुषों के आधिपत्य वाले बौद्धिक क्षेत्र में न केवल दखल दिया बल्कि स्त्री जीवन पर चल रही सैद्धांतिक बहसों को अनुभवपरक यथार्थ के साथ जोड़ दिया.
हरदेई के संपादन में निकलने वाली इस पत्रिका ने स्त्री मुक्ति संघर्ष की वह पृष्ठभूमि तैयार की, जिसने आगे चल कर वैचारिक क्षेत्र में स्त्रियों को न केवल मजबूती दी, अपितु वैचारिक चुनौती पेश करने का साहस भी दिया. हरदेई का पूरा व्यक्तित्व ही क्रांतिधर्मिता से रचा बना मिलता है. हरदेई इंजीनियर कन्हैयालाल की बेटी थीं और बालविधवा थीं. उन्होंने इंग्लैंड में पढ़ने आए बैरिस्टर रोशनलाल से प्रेमविवाह करके तत्कालीन समाज की जड़ता और सोच पर करारा प्रहार किया था. वे स्वयं ब्रहमसमाजी थीं परंतु उनके पति रोशनलाल आर्यसमाजी थे. दोनों ही पति पत्नी सुधारकों के मित्र और सहयोगी थे. कहते हैं कि उनका घर सुधारकों का अड्डा हुआ करता था.
(रस्साकशी, वीरभारत तलवार, पृष्ठ- 198)
अधिक व्यवस्थित ढंग से इस सचेतन पृष्ठभूमि का प्रस्फुटन ‘स्त्री दर्पण’ सन् 1909 के प्रकाशन से हुआ. ‘स्त्री दर्पण’ सिर्फ एक पत्रिका नहीं थी बल्कि यह स्त्री मुक्ति संघर्ष का एक क्रांतिकारी आंदोलन बनती चली गई. उसका यह आगाज़ पिछली क्रांतिकारिता से कई कदम आगे था. इसकी संपादक रामेश्वरी नेहरू गाधी से प्रभावित थीं और कई सुधार आन्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेती थीं. इस पत्रिका का संपादकीयों में वैचारिक गति थी और उसकी सामग्री अपना अलग तेवर रखती थी. मारक व्यंग्य और साहसिक अभिव्यक्तियां इन्हें अलग पहचान देते थे. हिंदी लेखकों द्वारा लगातार ‘स्त्री धर्म शिक्षा पर बल देने के कारण सन् 1920 में उमा नेहरू ने स्त्री शिक्षा को ‘स्त्रीधर्म’ शिक्षा तक सीमित रखने की कवायतों को कड़ी फटकार लगाई. उन्होंने लिखा कि
‘‘भारतीय पुरूष तो पश्चिम का पूरा अनुकरण करते हैं और उसी के आधार पर विकास का अपना माडल बनाते हैं, लेकिन चाहते हैं कि उनकी स्त्रियां पूर्वीय ही दिखें.’’
(रस्साकशी, वीरभारत तलवार, पृष्ठ-38)
इसके स्त्री संपादकों ने स्त्री प्रश्नों को बहस के केन्द्र में रखने के साथ साथ राष्ट्रीय आन्दोलन को भी पत्रिका में पर्याप्त स्थान देकर उसके स्वरूप को बहुआयामी बनाया. ‘स्त्री दर्पण’ में लिखने वाली ज्यादातर बौद्धिक स्त्रियां सामाजिक जीवन में भी सक्रिय थीं या आन्दोलनों से जुड़ी हुई थीं. गुलाब देवी, हुकुम देवी, उमा नेहरू आदि के विचारोत्तेजक लेख जन मन को झकझोर रहे थे. इस पत्रिका के संपादकीय बताते हैं कि उनकी दृष्टि उस समय अनेकानेक स्तरों पर चल रही भारतीय हलचलों के साथ साथ वैश्विक हलचलों पर भी बनी हुई थी. एक जगह संपादक लिखती हैं कि
“‘ब्रिटिश रेड क्रास सोसाइटी’ नाम की एक और महती सभा थी, जिसकी सभानेत्री महारानी एलेक्जेंड्रा हैं. इसका काम लड़ाई में बीमारों और घायलों की सहायता करना है….. फ्रांस में भी यह लोग बड़ी फुर्ती से काम कर रही थीं और जहां जहां आवश्यकता पड़ने पर तार या टेलीफोन के द्वारा मांग होती थी वहाँ इस शीघ्रता से पहुँच जाती थीं कि जान पड़ता था धरती फाड़ कर प्रकट हो गई हैं.’’
(संपादकीय, स्त्री-दर्पण, जुलाई 1915)
इस तरह की देश विदेश की सूचनाओं से पाठकों को न सिर्फ परिचित कराना था वरन् उनके भीतर देश प्रेम व सामाजिक भूमिकाओं के लिए प्रेरणा जागृत करना भी इनका उद्देश्य था. इसी अंक के आवरण पृष्ठ के भीतर कस्तूरबा गांधी का चित्र मोहनदास क. गांधी के साथ छपा है, जिसमें साफ ही कस्तूरबा पर बल दिया जाना दिखता है, जो अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही थीं और सामाजिक जीवन में दृढ़ता के साथ सक्रिय थीं. पत्रिका के कुछ अंकों में कस्तूरबा गांधी पर काव्यमय अभिव्यक्ति भी मिलती है और उनके जीवन तथा कार्यों की सराहना करते लेख भी. कस्तूरबा भारतीय स्त्री के लिए प्रतीक की तरह यहाँ उपस्थित हैं. एक ऐसा प्रतीक जो स्त्री के जीवन को सामाजिक क्रियाशीलता से जोड़ता है और उसके जीवन को व्यापक और सार्थकता की अनुभूति की तरफ ले जाता है.
‘स्त्री दर्पण’ का उद्देश्य उसके संपादकीय में कई बार साफ शब्दों में कहा गया है. एक जगह संपादक कहती हैं कि
‘‘भारतीय स्त्रियों को समाज में मनुष्योचित पद दिलाना ही शुरू दिन से इस पत्र का लक्ष्य रहा है. इस लक्ष्य की प्राप्ति दो प्रकार से हो सकती है. एक तो स्त्रियों के प्रति पुरूषों के विचारों के परिवर्तित होने से और दूसरे स्वयं स्त्री जाति की जागृति से. दर्पण अपनी लघु चेष्टाओं द्वारा बराबर इन दोनों बातों का प्रयत्न कर रहा है…… स्त्री पुरूषों को मिला कर ही संसार की सृष्टि बनती है. अतएव सांसारिक कल्याण के लिए यह अभीष्ट है कि संसार के प्रत्येक काम को स्त्री पुरूष मिल कर करें…. समय की गति प्रतिकूल होते हुए भी दर्पण अपने सच्चे और न्याययुक्त पथ से न डिग कर कालान्तर में अपने अभीष्ट की सिद्धि का गौरव प्राप्त करेगा.’’
(संपादकीय, स्त्री-दर्पण, जुलाई 1915)
चूंकि ‘स्त्री दर्पण’ प्रेमचंद से पूर्व ही अपनी पत्रिका में नए बन रहे कानूनों, देश दुनिया की नई बातों के साथ नई बहसों के साथ साथ इस बात की भी जानकारी देती थी कि कब कौन सा हमारा नेता देश के किस भाग में किस तरह की सभाएं कर रहा है, जेलों में कौन बंद है, कब किस क्षेत्र मे ंकौन गवर्नर जनरल या अधिकारी आ रहा है या तैनात किया गया है, उसके तबादलों आदि की सूचनाएं भी यहाॅ उपलब्ध मिलती हैं. प्रेमचंद ने ‘हंस’ के संपादकीय में बहुत सारी ऐसी जानकारियों से अपने पाठकों को जागरूक बनाया था और संपादकीय टिप्पणियों के तौर पर बड़े पैनेपन के साथ व्यवस्था और अंधविश्वासों की आलोचना की थी. प्रेमचंद से पूर्व, कुछ उसी तरह का प्रयास ‘स्त्री दर्पण’ करती दिखाई पड़ती है, जो स्त्रियों के लिए समझ का एक नया विस्तार रचने वाला था. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी दिखती ळै कि ‘दर्पण’ का यह मंच स्त्रियों की रचनाशीलता के साथ साथ पुरूषों की रचनात्मक और वैचारिक लेखों को भी प्र्याप्त स्थान देता था. इन लेखकों में अनेक क्रांतिकारी हुआ करते थे, जो प्रायः छद्म नाम से भी लिखते थे और राष्ट्रीय आंदोलन की बहसों में शामिल होते थे. गणेश शंकर विद्यार्थी, श्रीधर पाठक, विश्वम्भरनाथ जिज्जा, रामरिख सहगल आदि प्रमुखता से ‘स्त्री दर्पण’ में लिख रहे थे. इनका समर्थन और सहयोग जमीनी स्तर का था. सहगल ने आगे जा कर ‘चाँद’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका निकाली, जिसके अनेक प्रसिद्ध विशेषांकों में से ‘फाँसी अंक’ लम्बे समय तक चर्चा के केन्द्र में रहा. इसी ‘चाँद’ का संपादन बाद में महादेवी वर्मा ने संभाला और संपादकीय क्षेत्र में स्त्रियों के योगदान में चार चाँद लगाया.
‘स्त्री दर्पण’ इस अर्थ में भी पुरूषों द्वारा निकाली जा रही स्त्री केन्द्रित पत्रिकाओं से भिन्न थी कि उसका उद्देश्य बड़ा था, दृष्टि साफ थी, अंतरविरोध के जाले काटने की कोशिशें तेज थीं और स्त्री को मनुष्य समझे जाने की मांग प्रबल. स्त्री जीवन को अंधेरों से घेरने वाले अंधविश्वासों पर तीखे प्रहार थे और रीति रिवाज के नाम पर चिपकी कुरीतियों के नाश का आह्वान था. अनुभवपरक यथार्थ की अभिव्यक्तियां उसे तत्कालीन समय में, स्त्री मुद्दों पर लिखे जा रहे पुरूष लेखन के भीतर छिपे सामंती मूल्यों से अलग और व्यावहारिक बनाती थीं. विधवाओं के पुनर्विवाह को ले कर चल रही बहसों में पुरूष वर्ग के अधिकांश लेखक यौन शुचिता के मूल्य को बचाने की वकालत कर रहे थे. वे बाल विधवा के पुनर्विवाह के तो समर्थक थे परंतु किसी भी उम्र की विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं देना चाहते थे. ऐसे पुरूष सुधारकों और चिंतकों की अच्छी खबर हुकुम देवी ने ‘स्त्री दर्पण’ मई 1915 के अंक में ली. गुलाब देवी ने ‘मृतस्त्रीक विवाह’ की बात उठा कर उन पुरूषों की शुचिता और विवाह का सवाल उठाया, जो पत्नी की मृत्यु के बाद बिना किसी रूकावट के विवाह करने के लिए स्वतंत्र थे. ‘स्त्री दर्पण’ के स्त्री रचनाकारों का मानना था कि विधवा की यौन शुचिता को पुनर्विवाह का आधार न बनाया जाए, बल्कि विधवा जीवन की मुश्किलों पर बात की जाए और मनुष्य होने के अधिकार के आधार पर किसी भी उम्र की विधवा को पुनर्विवाह की स्वतंत्रता मिले. साथ ही यह भी तर्कसम्मत मांग रखी जा रही थी कि विधवा स्त्री के बाल जज के सामने अनुमति लेने के बाद ही काटे जाएं.
सोशल कांफ्रेंस की एक सभा* (*प्रताप नारायण मिश्र, ब्रह्माण, 15 जनवरी १८९०) में हिंदी लेखक प्रताप नारायण मिश्र इसलिए भड़क उठे कि वहाँ विधवा विवाह के साथ साथ विधवा के बाल काटने को लेकर जज के सम्मुख उसकी अनुमति की मांग उठाई जा रही थी. उन्होंने इसे गैरजरूरी मुद्दा और व्यर्थ की बात माना और कड़ी आपत्ति की. उन्हें विधवा जीवन की तकलीफों, बाल मूड़े जाने की भयानक प्रथा, बीमारी से भी अधिक आत्मसम्मान का तिरस्कार जैसी चीजों से कोई सरोकार नहीं था. कई क्षेत्रों में विधवा स्त्री के बाल प्रायः नोंच नोंच कर उखाड़े जाने का चलन था, यह यातना शरीर से अधिक मन को प्रताड़ित करती थी. मनुष्यता के विरूद्ध ऐसा अभद्र प्रदर्शन दिल दहला देने वाला था. इसका उल्लेख पंडिता रमाबाई की पुस्तक ‘द हाई कास्ट हिंदू वुमेन’ में मिलता है. इसलिए ‘स्त्री दर्पण’ के मंच पर रामरिख सहगल और जिज्जा ने वृंदावन आदि की विधवाओं का बयान संकलित कर छापा, यह बयान भारतीय भद्र वर्ग की सच्चाई का पर्दाफाश करते हैं, इसे छापना उस समय बहुत बड़े साहस का काम था. (स्त्री-दर्पण, मई 1915))
‘स्त्री दर्पण’ के अधिकांश अंकों में स्त्री शिक्षा पर लेखों की भरमार दिखती है. इसका कारण भी था, शिक्षा ही वह आधार भूमि तैयार कर रही थी, जिससे स्त्रियां आत्मविश्वास अर्जित कर सकें. इसी को आधार बना कर वे आर्थिक आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ सकती थीं. ऐनीबेसेंट का ऐसा ही एक लेख जुलाई 1915 के अंक में प्रकाशित है. स्त्री शिक्षा पर तथाकथित संकीर्ण दृष्टिकोण वाले लेखकों से अलग दृष्टि रखने वाले सुधारकों और चिंतको ने भी स्त्री शिक्षा पर अनेक लेख लिखे. इसी संपादकीय मे बांग्ला विद्वान गिरिजा कुमार घोष के लेख का जिक्र भी किया गया है अर्थात कि इस लेख को खास महत्व दिया गया है. इसी तरह दिसम्बर 1910 के अंक में स्नातक डिग्री प्राप्त करते समय औपचारिक गाउन पहने महिला की एक तस्वीर छपी है, जिसके नीचे परिचय में लिखा है – कुमारी कुमुदिनी बी. ए. ‘सरस्वती’ . बी. ए. डिग्री की पोशाक में. उस समय निश्चित ही महिलाओं के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी और यह चित्र छाप कर ‘स्त्री दर्पण’ की टीम स्त्रियों को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित करना चाहती थी.
स्त्री रचनात्मकता को जैसी पहचान ‘स्त्री दर्पण’ के मंच से मिली, वह आगे के लिए एक मिसाल बनी. गल्प लेखन में अनेक स्त्रियां आगे आईं. स्मृति चित्र और रेखा चित्र की शुरूआत भी हम यहाँ से देख सकते हैं. स्त्री आत्मकथा के पहले प्रयास को ‘स्त्री दर्पण’ ने ही मंच दिया. ‘एक विधवा की आत्म जीवनी’ को जुलाई 1915 से धारावाहिक छापने का श्रेय ‘स्त्री दर्पण’ को ही जाता है. मार्च 1915 के संपादकीय में स्वाधीनता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले की मृत्यु पर जैसा हृदय विदारक संदेश देशवासियों के नाम लिखा गया, उस क्रंदन में सारे देश का क्रंदन समाहित हो गया. इस संदेश में सिर्फ क्रंदन नहीं, एक ऐसी चिंगारी भी थी, जिसने सारे देश को शोक की बेला में भी उठ खड़े होने की प्रेरणा दी.
‘स्त्री दर्पण’ का ध्यान स्त्री स्वास्थ्य की समस्याओं पर भी बना हुआ था. चिकित्सा सुविधाओं की कमी, अंधविश्वासों का बोलबाला और स्त्री स्वास्थ्य की उपेक्षा को सीधे सीधे संबोधित करने के साथ साथ पत्रिका ने कुछ औषधियों की जानकारी भी उपलब्ध करवाई. ज्यादातर ये औषधियां आयुर्वेदिक थीं. दिसम्बर 1910 के अंक के आखिरी पन्नों पर ‘वंध्या की औषधि’, वैद्य विद्या, राजवैद्य नारायण जी केशव जी के औषधालय का पता आदि दिया हुआ है. प्रायः इन औषधियों के साथ लिखा होता -‘मुफ्त’ और औषधि मंगवाने वाले से केवल डाकव्यय लिया जाता. वंध्या जीवन स्त्री के लिए एक बड़ी समस्या थी, जो उसके समूचे जीवन को ही व्यर्थ और दुःसह बना देती थी. प्रायः नारकीय स्थितियों में दुःसह जीवन जीना पड़ता. ज्यादातर परित्यक्ता का अभिशाप झेलतीं या पति के द्वारा लाई दूसरी पत्नी की सेविका बन अपमानित जीवन जीतीं. प्रजनन के समय स्त्री मृत्युदर भी बहुत अधिक होती. ऐसे में ‘स्त्री दर्पण’ की इस तरह की कोशिशें कम महत्वपूर्ण नहीं कही जा सकतीं. यह एक अलग तरह का सुचिंतित कार्य व्यवहार था, जो अन्य पत्रिकाओं से इसे भिन्न रूप देता है.
अल्पना मिश्र ‘भीतर का वक़्त’, ‘छावनी में बेघर’, ‘क़ब्र भी क़ैद औ’ ज़ंजीरें भी’ (कहानी); ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ (उपन्यास); ‘कहानियाँ रिश्तों की : सहोदर’ (सम्पादन) आदि प्रकाशित ‘शैलेश मटियानी स्मृति कथा सम्मान’, ‘परिवेश सम्मान’, ‘राष्ट्रीय रचनाकार सम्मान’, ‘शक्ति सम्मान’, ‘प्रेमचन्द स्मृति कथा सम्मान’ तथा ‘भारतीय भाषा परिषद’, कोलकाता द्वारा सम्मानित प्रोफेसर, हिंदी विभाग, |
स्त्री दर्पण जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका ने बेहद मुश्किल सवालों को चिन्हित किया इसमें कोई संदेह नहीं हैं। पर शायद आज ये बात होनी ज्यादा जरूरी है कि इन प्रश्नों और उनके संदर्भ के विस्तार को इक्कीसवीं सदी के कॉन्टेक्स्ट में कैसे समझा जाए।क्या वर्ग की चेतना गहरे से ऐसी पत्रिकाओं में काम कर रही थी ,या ये उससे बाहर आने की जद्दोजहद कर रहे थे ।
क्या धर्म और भाषा की चेतना स्त्रियों के लिए अपने उस सामाजिक बोध से संचालित हो रही थी जिसे पुरुष निर्धारित करते आ रहे थे या स्त्रियों ने इस पैराडॉक्स को अपने लेखन के द्वारा चिन्हित किया क्योंकि वे इसे समझ रही थी।
ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जिन्हें स्त्री दर्पण को आज के समय से जोड़कर देखने की जरूरत है।
लेख की बहुत बधाई।
पठनीय लेख। नवजागरण की परियोजना को स्पष्ट करता हुआ। अल्पना मिश्र जी को धन्यवाद।
स्त्री दर्पण पर अल्पना मिश्र जी का लेख सम कालीन स्त्री विमर्श को ऐति हासिक परिप्रेख्श्य तो देता ही है, स्त्री की मानवीय सत्ता और उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व का सत्यापन भी करता है
अल्पना मिश्र के इस शोध परक के लिए उन्हें बधाई और आपको धन्यवाद
विचारोत्तेजक लेख। इस तरह के आलेख को हिन्दी नवजागरण संबंधी बहस में एक सार्थक हस्तक्षेप के रूप में देखा जाना चाहिए। अल्पना जी को बधाई और अरुण देव जी को शुक्रिया।