सारंग का यह आलेख महानगरों के जीवन की आपाधापी में लगभग अदृश्य हो गए चेहेरों की पहचान का एक उपक्रम है, ये चेहरे अपनी उभरी हुई श्रम रेखाओं से अपनी कथा कहते हैं. रिक्शाचालक रामभरोस यहाँ एकवचन नहीं है वह इस दौर में पीछे रह गए, पीछे धकेल दिए गए तमाम आमजन का रूपक है.
इस युवा लेखक ने क्या खूब लिखा है ?
इस युवा लेखक ने क्या खूब लिखा है ?
तुम्हें किसका भरोसा है राम..!
सारंग उपाध्याय
दिन रात लोग मारे जाते हैं
दिन रात बचता हूँ
बचते-बचते थक गया हूँ
न मार सकता हूँ
न किसी लिए भी मर सकता हूँ
विकल्प नहीं हूँ
दौर का कचरा हूँ
हत्या का विचार
होती हुई हत्या देखने की लालसा में छिपा है
मरने का डर सुरक्षित है
चाल-ढाल में उतर गया है
यह मेरी अहिंसा है बापू!
आप कहेंगे
इससे अच्छा है कि मार दो
या मारे जाओ.
किसे मार दूँ
मारा किस से जाऊँ
आह! जीवन बचे रहने की कला है .(नवीन सागर)
नवीन सागर के कविता संग्रह \’नींद से लंबी रात \’ की यह कविता \’बचते-बचते थक गया\’ सालों पहले पढ़ी थी. यह कविता अक्सर याद आती है, और उस \’अक्सर\’ में हमेशा इसकी अंतिम लाइन \’आह! जीवन बचे रहने की कला है\’, जरूर दोहराता हूं. दरअसल, इन शब्दों को दोहराना किसी मुसीबत के गुजर जाने के बाद भगवान का नाम लेने की तरह ही लगता है क्योंकि मुसीबत और जिंदगी अक्सर साथ-साथ ही चलती रही हैं.
वैसे जिंदगी में जो कुछ भी \’अक्सर\’ होता है, वह एक तरह से कई चीजों और कई घटनाओं के साथ घटने वाला हिस्सा ही होता है. कई लोगों के \’अक्सर\’ अच्छे होते हैं, और कुछ लोगों के साथ अच्छे \’अक्सर\’ कभी-कभार होते हैं. अब ऐसे में यदि आप अपने \’अक्सर\’ में जीवन को बचे रहने की कला मानते हैं, तो इस बात पर यकीं करना होता है कि आप जीवन बचे रहने के लिए जी रहे हैं या अपने अस्तित्व को बचाने के लिए.
खैर, मेरे \’अक्सर\’ में विस्थापन है, निर्वासन है, भटकाव है, बेरोजगारी है, मुसीबत है और इन सबके बीच आवारगी है, लिहाजा ऐसे \’अक्सर\’ में घटित समाज, समय, घर, परिवार, रिश्ते, पूरा परिवेश और उसके लोग, जीवन को बचाने वाले कलाकार के तौर पर ही नजर आते हैं और कई बार मैं मन ही मन यह भी बुदबुदा लेता हूं कि दिन रात बचता हूं/ बचते-बचते थक गया हूं.
देखा जाए तो जीवन को बचाने की कला में थकना जायज ही है. खासकर इस समय में और इस समाज में. लेकिन मेरे अपने \’अक्सर\’ में और जीवन में, बचने और जीवन को बचाने दोनों की कला कभी आसान नजर नहीं आई. मेरे पास ही क्यों, बहुतों के पास भी. अब जीवन को बचाने की कला में माहिर होना आसान तो होता नहीं. कुछ ही हैं जो इस कला को जानते हैं. हर कोई नहीं जानता. बेफिक्री में कई दफे देखा कि जीवन को बचाने में कई दिन-रात खुट रहे हैं, तो आवारगी में देखा की कइयों को जीवन खुद ही खुटा रहा है. मुफलिसी में समझ आया कि कई यहां ऐसे हैं, जो जिंदगी को बचाने में बेहद सक्षम हैं और वे बेहरीन और महान कलाकार हैं. वे जीवन जीने और उसे बचाने दोनों की कला जानते हैं. उनके हथियार कभी जंग नहीं खाते.
जब-जब किराये का कमरा खाली किया तब-तब महसूस हुआ कि कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके पास जीवन केवल बचा भर है, और वे केवल मौजूद भर हैं, बाकी उनके जीवन के होने का अहसास उन्हें नहीं, दूसरों को होता है. शहर बदले, तो लगा कि ऐसे लोग इस संसार में केवल दृश्य भर हैं और कभी दर्शक भी नहीं बन पाए. भीड़ से भी दूर, हाशिये के उस पार. इस तरह उनका कोई अस्तित्व नहीं है, उनके कोई सरोकार नहीं हैं और उनके होने से फर्क उन्हें ही नहीं है, तो परिवार, आस पड़ोस और प्रियजनों, व परिजनों को क्या होगा?
इधर, जब नये शहर में, नई जगह पर रोजगार ढूंढा, तो लगा कि जीवन से प्यारा और बड़ा ‘अस्तित्व’ होता है. सामाजिक जीवन की ऊपज अस्तित्व. ऊपज तो प्यारी होती ही है. जीवन को खुटा कर, गला कर और इस बाजार में खर्च कर ही तो जीवन की ब्रैंडिंग होती है और बनता है अस्तित्व. बनती है पहचान. लोग इस कला में भी माहिर हैं.
जब नये शहर में, नई नौकरी लगी तो पता लगा कि वाकई में अस्तित्व है भी बड़ी प्यारी चीज, जिसे सब बचाना चाहते हैं, क्योंकि वह तो जीवन से भी प्यारा और कीमती है. नई नौकरी के छह माह में पता लगा कि इन दिनों हमारे आसपास कितने सारे अस्तित्व हैं, सामाजिक अस्तित्व, राजनीतिक अस्तित्व, कलाकारों का अस्तित्व, मजदूरों का अस्तित्व, इसका अस्तित्व, उसका अस्तित्व, फलाना अस्तित्व और ढिमका अस्तित्व. गजब की चीज है अस्तित्व, उसे बचाने के लिए हमारा भौतिक अस्तित्व \’जीवन\’ भी सुली पर चढ़ जाता है. धर्म के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, संस्कृति, परंपरा, रिवाजों के नाम पर, आरक्षण के नाम पर कई लोग और कई समाज अपने अस्तित्व के लिए दिन-रात एक किए जा रहे हैं. कई जीवन दांव पर लगा रहे हैं.
अब जब कई शहर छूट गए और कई नौकरियां भी, तो सोचता हूं ‘जीवन’ बड़ा है कि ‘अस्तित्व’. जीवन के कारण अस्तित्व है कि अस्तित्व है इसलिए जीवन? देखा तो अब तक यही है कि शान के खिलाफ, वजूद के विरोध में और अपने कुछ खास होने के गुमान में खून की नदियां बह गई हैं और उसमे कई जिंदगियां बह गई हैं? कोई ऐसा नहीं मिला, जिन्होंने कहा कि मैं जीवित हूं, और जीवन से भरपूर हूं और बस यही मेरे पास है. मैं ना कलाकार हूं, न अधिकारी हूं, न राजनेता हूं न मंत्री हूं और न ही उद्योगपति, व्यापारी और न कोई लेखक, ना कलाकार, ना बुद्धिजीवी न पत्रकार न ब्ला… ब्ला.. और न एक्स वाई जेड मेरा अस्तित्व है.
ऊफ.! जीवन सभ्यता के लिए है या सभ्यता के लिए जीवन?
वह मिली जब और वह हंसी, तब तो पता लगा कि कितनी खूबसूरत चीज है जीवन. हल्की-फुल्की जिंदगी. रुई के फाहे से मन में उछलती-कूदती, गाती-गुनगुनाती. सागर किनारे अल्हड़ सी घूमती. उसके हाथों में हाथ डाले, दिन गुजारती और रातों में बतियाती. उसने बताया कि जीवन किसी बंधन में नहीं हो तो ही ठीक है. खुद उसका भी नहीं. फिर जीवन तो जीवन है, उसमें बंधन न उसका होगा, न मेरा. उठापटक के बीच ये समझ आया की जीवन किसी तरह के सामाजिक, राजनीतिक और ब्ला…ब्ला.. अस्तित्व में डूबा नहीं होना चाहिए. जीवन जीने की चीज है और अस्तित्व बचाने की. अस्तित्व बोझ है और जीवन नदी, इंद्रधनुष, बादल, आवारगी, किताब, खत, बांसुरी और पेटिंग और एक प्यारा सा चुंबन. ठंडी हवा के साथ माथे पर दिया हुआ.
वह चली गई और मैं लौट आया..!
उसके जाने के बाद पता लगा कि जीवन हो और बिना किसी अस्तित्व का हो, ऐसा होता कहां है? मेरे लौटने के बाद और उसके जाने के बाद. वह मेरे भीतर है और मैं उसके. हमारे पास जीवन भी है और अस्तित्व भी और एक दुनिया भी, जिसमें आग है, पानी है, हवा है, आसमान है, धरती है, भूख है, प्यास है, नींद है और बचे रहने के जंग खाए चंद हथियार.
वह चली गई. शहर छूट गया. नौकरी चली गई. घर आसमान निगल गया और मुझे जमीन. जीवन इस व्यवस्था में उग आए, या उगाए गए कांटों से लहुलुहान होने लगा. वो मेरे ‘अक्सर’ में शामिल हो गया. उस दिन जब कर्जा लिया, तो जीवन ने समझाया कि तुम्हें मुझे जीना नहीं है, बचाना है, इसलिए मेरे अक्सर में जीवन को बचाने वाले रहते हैं, वो अस्तित्व नहीं बचाते, क्योंकि अस्तित्व होता कहां है? मेरे और मेरे अक्सर में जीवन ही बचता है जबकि कहीं ओर दूसरे छोर पर दरअसल, जीवन नहीं, अस्तित्व बचाया जाता है. वहां अस्तित्व ही जीवन होता है. बाकी सभी जीवन को अस्तित्व मानते हैं.
मेरी और मेरे अक्सर की दुनिया छोटी है, जिसमें वे चंद दिन थे, जब दुनिया खिलाफ हो गई थी. वह चमचमाते लाइटों से सजे सड़कों पर भूखा छोड़ गई. उसमें बिना तारों का आसमान था और केवल धड़ देखने वाली भीड़ थी. वहां केवल बचना था और इस तरह बचे रहने के चक्कर में, या बचाए रखने की जद्दोजहद में मैं और मेरी अक्सर की दुनिया जीवन जीना ही भूल गए. उस दुनिया में जिंदगी गाती नहीं, डरती है, गमकती और उछलती नहीं, भय से सिकुड़े, दबे, सहमे और घबराए मन में बस बची रहती है और खैर मनाती रहती है कि वह बची हुई है. फिर उस दिन पता चला कि जीवन तो जीवन है, तुम्हारी थ्योरी बासी है. बदलो इसे. चार्जर नोकिया का रखते हो और दुनिया सैंमसंग की है. मेरे अक्सर में एक खिड़की खुली उस दिन और अंधेरे में एक रौशनी आई, जिसमें पता चला कि सब \’अस्तित्व\’ का चक्कर है. नोन तेल लकड़ी की चिंता में जिंदगी एक अस्तित्व है और उसके साथ चिपकी है उसे बचाने की चिंता. महानगर, शहर सुबह से अस्तित्व बचाने निकलते हैं और शाम को घर लौटते- लौटते खुश होते हैं कि आज का जीवन बचा गया.
मैं और मेरा अक्सर. मेरे अक्सर में मैं, मेरी दुनिया और उसके लोग, हम मरे नहीं जबकि हम सब मृत्यु से बचते हुए उसी की ओर जा रहे हैं, लेकिन…?
लेकिन गजब का आदमी है रामभरोस…!
मेरे ‘अक्सर’ में शामिल हुआ एक नया सदस्य. ‘जीवन’ और ‘अस्तित्व‘ सब बराबर हैं उसके लिए. जो मिली गुजार दी, जो बची है काट रहे हैं, हां इच्छा यह है कि चोला बदलना चाहते हैं. चलिए अस्तित्व और जीवन की बात चली है, तो रामभरोस की कहानी सुनते हैं.
कहानी रामभरोस की बनाम जीवन और अस्तित्व
वह सेक्टर 16 से फिल्म सिटी की ओर जाने वाली सड़क पर करीने से लगे रिक्शों की लाइन में सबसे पीछे कोने में चुपचाप अकेला खड़ा था. उसका चेहरा सपाट था और आंखे शून्य के पार कहीं थी. अस्तित्व से भी पार. शरीर और जिंदगी दोनों किसी बेहतरीन हमदर्द की तरह थे. किसी ने किसी को मात नहीं दी थी. न तो शरीर जिंदगी से शिकस्त खाया हुआ था और न ही जिंदगी में शरीर से ऊब दिखाई देती थी. वह अपने तीन पहिये वाले रिक्शे से टिककर खड़ा था, जो उसका अस्तित्व था. मैं उसके पास गया और पूछा फिल्म सिटी चलोगे. वह बिना कुछ बोले रिक्शे पर चढ़ गया और मैं रिक्शे पर बैठ गया.
मन की बात कहूं! मैं किसी भी तरह के वाहन से चलना पसंद नहीं करता. न कभी बाइक का शौक रहा और कार तो अब तक सपना है. खंडवा, इंदौर, मुंबई, नागपुर, औरंगाबाद, भोपाल और इस समय दिल्ली, कई शहरों की खाक छानते हुए वहां की सड़कों पर पैदल ही तपती दोपहरों में, और गहराती देर रातों को आवारगी काटी. इंदौर और मुंबई में तो सबसे ज्यादा. वाहन नसीब नहीं था और रिक्शे का इस्तेमाल मैंने ना चाहते हुए बेहद संकट के समय किया. यानी की जब तक कि कोई जल्दबाजी न हो, किसी से मिलना न हो या फिर कोई दूसरी मजबूरी न आन पड़े तब तक अपनी 11 नंबर की बस ही जिंदाबाद रहती. 8 से 10 किलोमीटर पैदल आसानी से चल लेता हूं. सच कहूं तो पैसे बचाता हूं और खाए हुए समोसे की चर्बी घटा देता हूं. किलोमीटर में लंबा चलना मुंबई ने सबसे ज्यादा सिखाया, सो दिल्ली क्या? अब तो किसी भी शहर में किसी तरह की दूरी कुछ लगती ही नहीं.
खैर, तो इतनी बात इसलिए कि अमूमन इस तरह के हाथ रिक्शा में बैठते हुए बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती है. सबसे पहली बार नागपुर में बैठा तो अंदर तक हिल गया था क्योंकि वह दुबला था और बेहद कमजोर हुआ जा रहा था. लेकिन स्टेशन के पास पीछे ही पड़ गया, सो चढ़ा भी, लेकिन उसके बाद जब तक नागपुर रहा किसी हाथ रिक्शे में बैठा नहीं. इधर, दिल्ली 2005 से ही आना–जाना होता रहा, लेकिन साल 2009 में जब इस तरह के रिक्शे में पहली बैठा तो फिर बड़ा अजीब सा फील हुआ. नागपुर याद आ गया. चार-पांच साल मुंबई में गुजार चुके आदमी को, जहां आदमी, उसका टाइम और उसके श्रम दोनों ही सिर आंखों पर रखे जाते हैं. ऐसे में वहां का आदमी देश की राजधानी दिल्ली आकर एक रिक्शे में महज 20 से 30 रुपये में बैठ जाए तो कैसा लगेगा?
खैर, पहली बार जब बैठा तो लगा मानों किसी पर अत्याचार कर रहा हूं. मेरे शहर हरदा में सालों पहले तांगे चला करते थे, सो तांगे में आगे बैठकर घोड़े की आंखों पर लगे काले पट्टों को देखता और की गर्दन हिलते हुए देखकर उसके पैरों की आवाजें सुनता था, घोड़े का श्रम ही मुझे द्रवित करता था. यहां तो आदमी, आदमी को खींचे जा रहा था. इसे देखकर तो आज भी अंदर तक संवेदना के तंतु खड़-खड़ करने लगते हैं. वैसे, इस समय तो आदत हो गई है कि रिक्शा करूं तो कम से कम जेब से दो पैसे इन लोगों के पास चले जाएं. सो जब मजबूरी होती है, तो कोशिश इनकी मदद की होती है.
हां तो मैं कह रहा था कि मैं उसके रिक्शे में था. धीमी और मंथर गति से सुबह चेहरे पर ठंडक का हाथ फेर रही थी. वह वैसे ही रिक्शा चला रहा था, जैसे शून्य के पार जा रहा हो. जितनी खामोशी उसके भीतर थी, उतनी ही शरीर में थी. हां, वह चढ़ाव के दौरान उतर गया था. थकान के चलते उससे रिक्शे के पैडल नहीं पड़ रहे थे. कुछ दूर चलने के बाद हांफ रहा था और मुझे लगा कि उसका शरीर जिंदगी से शिकस्त खा रहा है.
मेरे भीतर फिर \’अस्तित्व\’ और \’जीवन\’ का चिंतन घुलने लगा.
सच..! श्रम कितनी खूबसूरत चीज होती है. शारारिक श्रम से सुंदर कौन सी चीज होती होगी? हम कंप्यूटर पर बैठते हैं और क्लिक करते हैं. हम फाइल में सुंदर कलम से अपने अहम अधिकार के हस्ताक्षर करते हैं. हम बोलते हैं और शब्दों के फूल झड़ते हैं, हम लिखते हैं और रंगीन सपने रचते हैं. हम जो रचते हैं, रचाते हैं, रचवाते हैं, करवाते हैं, बोलते हैं और बुलवाते हैं, लिखते हैं और लिखवाते हैं और इस तरह पैसा कमाते हैं. हम पैसा कमाते हैं और \’अस्तित्व\’ बचाते हैं, यानी की एक तरह से \’जीवन\’ बचाते हैं. हम बड़े ही महान अस्तित्व के लोग हैं क्योंकि हमारा \’अस्तित्व\’ बुद्धि की महान अभिव्यक्ति है.
अंदर एक प्रश्न उठता है, क्या जैसा हम काम करते हैं वैसा ही हमारा \’अस्तित्व\’ बनता है? हां दुनिया में अभी तक तो यही समझ आया. डॉक्टर बड़ा आदमी है वह जीवन बचाता है, उसका \’अस्तित्व\’ बड़ा है, इंजीनियर बिल्डिंगें, पुल और सड़कें बनाता है, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर बनाता है, पायलट हवाई जहाज चलाता है, ड्राइवर, रेल, बस, गाड़ी चलाता है, लेखक लिखता है, चिंतक चिंतन करता है, बाबा उपदेश देते हैं, सामाजिक कार्यकर्ता समाज सेवा करते हैं, पत्रकार अखबार निकालते हैं, राजनेता देश और दुनिया चलाते हैं और भी कई सारे लोग कुछ न कुछ करते हैं इसलिए सबके \’अस्तित्व\’ महान हैं. \’अस्तित्व\’ महान है इसका मतलब है कि इन्होंने जीवन को ज्यादा तरीके से बचाया है और जीवन को बचाने के ये लोग बेहतरीन कलाकार हैं.
मैं रामभरोस को रिक्शा चलाते हुए देखता हूं. उसे पसीना आ रहा है और मुझे कबीर याद आ रहे हैं.
कबीर जुलाहे थे, उन्होंने अपना \’अस्तित्व\’ बचाने के लिए रेमंड का कपड़ा बनाने की कोशिश की थी क्या? और हां रैदास तो जूता सिलते थे, लेकिन उन्होंने अपना \’अस्तित्व\’ बचाने के लिए रिबॉक का शूज बनाने के बारे में सोचा था क्या? नहीं ऐसा तो कहीं है नहीं.
ओह..! तो वे जीवन जी रहे थे, उसे बचा नहीं रहे थे यानी की उनका अस्तित्व था ही नहीं?
मैंने रामभरोस को फिर देखा, वह रिक्शे पर बैठ गया था और अपने चारों ओर बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें देखीं. मैंने सोचा कबीर और रैदास दोनों का \’अस्तित्व\’ था ही नहीं, वे लोग एक तरह से मजदूर थे और मजदूरों का भला कहीं अस्तित्व होता है? उनके पास \’जीवन\’ बचाने के लिए नहीं, बल्कि \’जीने\’ के लिए होता है.
मुझे समझ आया कि यह दुनिया तो मजदूरों ने बनाई है. उनका कहां अस्तित्व? वे जीवन जीते हैं उसे बचाते नहीं. मैंने रामभरोस से पूछा—
आपकी उम्र कितनी है?
66 साल.
मैं चौंक गया.
दो बार क्रॉस चेक किया, फिर वही जवाब मिला.
कब से हैं दिल्ली में?
40 साल हो गए. 40 साल से रिक्शा चला रहा हूं.
मैं थोड़ा आगे की ओर झुका.
कितने बच्चे हैं आपके?
चार लड़कियां, और एक लड़का.
आप इतनी उम्र में भी रिक्शा चला रहे हैं, बेटा कमाता नहीं क्या?
कमाता है, लेकिन उतना नहीं.
बीमार हो जाएंगे काका, अब बंद कर दीजिए ये काम.
वह कुछ बोला नहीं. फिर बोला क्या करेंगे अब. बंद और चालू करके.
क्यों? मैं आश्चर्य में पड़ गया.
हां अब चोला बदलना है. जीने की इच्छा नहीं रही.
मेरे भीतर एक उदासी छा गई, जो चेहरे पर शिकन के रूप में बाहर आई.
उनसे हुई बाकी बातें मेरे अंदर एक अजीब सा खालीपन भरती गई.
मैंने आसमान की ओर देखा, और गहरी सांस छोड़ी. आसमान में सुबह की लालिमा थी. सूरज की रौशनी नीले आसमान में फैल रही थी.
लेकिन मेरे अंदर अंधेरा हो फैल रहा था.
मैं इसलिए रिक्शे में नहीं बैठता..!
ऊफ..! दिल्ली की चमचमाती सड़कों पर पिछले 40 साल से रिक्शा चलाने वाले 66 साल के रामभरोस पासवान चोला बदलना चाहते हैं. न जीवन के प्रति कोई आस है और न अस्तित्व के प्रति कोई मोह रह गया है. खुदके होने की उन्हें कोई खुशी नहीं और न इस समाज और व्यवस्था के. पूछने पर कहते हैं- नाती पोते सब देख लिए. चार लड़कियां और एक लड़का है. पोते को बीए कराने तक रिक्शा खींच रहे हैं. अब जीना नहीं चाहते. बैठते हैं तो दम फूलता है और रिक्शा चलाते हैं, तो सांसें लय में चलती है. विश्राम के भीतर से \’राम\’ गायब है और रिक्शे की थकान में सांसों को \’विश्राम\’ मिलता है.
सोचने लगा, बिहार के सीतामढ़ी जिले से दिल्ली आए रामभरोस को क्या किसी \’पासवान\’ का भरोसा नहीं मिला कि वे खुदको पापी मानते हैं. वे रिक्शा चलाने को मजबूर हैं. उनके साथ वाले 50-55 में ही व्यवस्था से \’जीवन\’ और \’अस्तित्व\’ दोनों हार गए. उनका जीवन शिकस्त खाता गया और निराशा के बादल गहराकर एक दिन बरसे और गल चुकी देह व्यवस्था के किसी कोने में बह गई.
ओह.! रामभरोस अच्छे कलाकार नहीं हैं. वे जीवन नहीं बचा पाए.
रिक्शे से उतरकर 30 की जगह 50 दिए और एक तस्वीर खींची. उस जिंदगी को कैद कर लिया, जो देह से आजाद होना चाहती है. चोला बदलना चाहती है. मन में सवाल उठा, क्या देश के किसान चोला तो नहीं ही बदल रहे…? ये मृत्य का वरण देह की आजादी की इच्छा है, या निराशा के गहरे अंधकार में मन से जीवन जीने की इच्छा के बुझ जाने का संकेत.
वे नये चोले की आस में पुराना चोला बदलना चाहते हैं इसलिए मृत्यु चाहते हैं. लेकिन आत्महत्याएं भूमिकाएं बनाती हैं और प्रस्तावनाएं गढ़ती हैं. हरे-भरे किसान फसल से ज्यादा सूख गए और खाली हो गए. खाली आदमी खुद से एक खुशी चुनता है, जिसमें न अस्तित्व होता है न जीवन. व्यवस्था निचोड़ती है, फिर जीवन को बचाने पर मजबूर करती है और एक दिन अस्तित्व को लेकर मोहभंग कर देती है. क्या आत्महत्या होती हैं, या करवाई जाती है, इसलिए हत्या होती है, क्या उसका कोई वरण नहीं होता?
ऊफ! आपाधापी और संघर्ष के बीच जिंदगी शिकस्त हो रही है. शिकस्त जीवन पर निराशा के बादल साथ लाती है. नोन तेल लकड़ी की चिंता, अंतिम चिंता से ज्यादा खतरनाक है. उसमें जलते आदमी का कोई समाज नहीं होता और होता है, तो उसे उसके उस समाज में होने का कोई अहसास नहीं होता.
\’जीवन\’ से ज्यादा \’अस्तित्व\’ को बचाने की कला ज्यादा बड़ी है क्योंकि उसमें आत्मा और मन का र्इंधन बहुत लगता है. सांसे जितनी ली नहीं जाती, उतनी खर्च होती रहती है और एक दिन भीतर सबकुछ खाली हो जाता है. यहां न तो ज्यादा कमाई है और न ही कोई उसकी कोई आस.
ऊफ..! मेरे चोला माटी के राम.
तो क्या मृत्यु नये जीवन की आस का वरण है? रामभरोस तुम्हारे जीवन के अंधेरे में आत्महत्या सवेरा कर रही है.
रामभरोस 50 का नोट लेकर कुछ नहीं बोलता. 20 रुपये लौटाता है, मैं मना कर देता हूं. वह आगे बढ़ जाता है. पैदल-पैदल अपनी उम्मीद खींचते हुए. देह से अलग, जीवन से पृथक.
मैं राम भरोस के \’चोले\’ को दूर तक जाता देखता हूं. और खुद से ही बुदबुदाता हूं.
रामभरोस तुम्हारे राम कौन हैं? तुम्हें किस राम का भरोसा है?
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सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक
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