आज हिंदी समाज में साहित्यकार की उपस्थिति का पता नही चलता है. समाज से सहित्य के विलोपन का यह असमय है. मध्यवर्ग से भी अनुपस्थित यह मध्यवर्गीय लेखन आज कुछ घर-घरानों की परिक्रमा में अपनी सार्थकता खोज रहा है और प्रशंसित, पुरस्कृत होकर विलुप्त होता जा रहा है. आखिर इस के पीछे क्या करण मौजूद हैं. कवि – आलोचक गणेश पाण्डेय का यह आलेख ऐसे ही प्रश्नों से टकराता है.
मुक्ति की लौ कैसे तेज करेंगे
गणेश पाण्डेय
क्यों आज साहित्य का पथ ऐसे लेखकों से अटा पड़ा है, जिन्हें अमुक जी और ढ़मुक जी का नित्य आशीर्वाद चाहिए या जिन्हें अमुक जी के संगठन में जल्दी से घुस जाना है या घुस चुके हैं तो नित्य कृपा और चर्चा और क्रमशः या एक ही बार में सीधे अमरत्व चाहिए ? कई लेखक संगठन हैं और सब डरपोक लेखकों के जमावड़े के रूप में क्यों दिखते हैं ? आज किस लेखक में साहित्य के पथ पर अकेले एक भी डग भरने का साहस है ? कौन है जो गिरोह या संगठन से या इनके भय से मुक्त है ? इन संगठनों के लेखक आरएसएस के स्वयंसेवकों की तरह हाफपैंट तो नहीं पहनते हैं और उस तरह की कोई लाठी भी लेकर नहीं चलते हैं पर अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों और क्रूरता के मामले में उनके बड़े भाई लगते हैं. उस लेखक के वध के लिए जोर-शोर से और बिना शोर के भी काम करने वाले कई हथियार इनके पास हैं, जो इनकी तरह किसी गिरोह में शामिल नहीं है और साहित्य के अरण्य का पथ अकेले तय करने की हिमाकत करता है.
यह हमारे समय का मुहावरा है, बेईमान को बेईमान कहिएगा तो पलटकर वह भी बेईमान कहेगा. राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, धर्म, खेल, शिक्षा, पत्रकारिता की दुनिया में ही नहीं, साहित्य में भी यह प्रवृत्ति मौजूद है. कभी लेखक का दर्जा नायक का हुआ करता था. कलम का मजदूर और कलम का सिपाही में भी उसी नायकत्व की गूँज है. यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि नायकत्व का वह भाव सिरे से ही आज के लेखकों में नहीं है. नायक का काम सिर्फ आगे रहना ही नहीं है, आगे रहने और उससे भी आगे बढ़ने का जोखिम भी उठाना होता है. नायक का काम पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बच्चों की तरह कतार में लगकर सिर्फ लड्डू खाना नहीं है. हालाकि आज तमाम लेखक यही कर रहे हैं. यह अलग बात है कि आज समाज में जिन्हें हम बच्चा कह रहे हैं, वे अपने को लेखकों से भी ज्यादा जिम्मेदार और बहादुर साबित कर रहे हैं. उन बच्चों ने तो बड़े-बड़े नेताओं को हाशिये पर करके खुद अपने दम पर बड़े आंदोलन करना सीख लिया है. उनकी सीमाएँ भी हैं. इसलिए वे अभी आंदोलन को निर्णायक लड़ाई में तब्दील करने की कला नहीं सीख पाये हैं. पर वे हैं उसी रास्ते पर.
लेकिन बड़ा सवाल यह कि आज का लेखक किस रास्ते पर है. क्या आज का लेखक बड़े-बड़े मठाधीश लेखकों की पूँछ पकड़कर चलने के लिए अभिशप्त नहीं है ? कहीं इसीलिए तो नहीं कि समाज में उनकी नायक वाली छवि नदारद है या खुद उसके भीतर ही यह भाव नहीं. प्रश्न है और बड़ा है कि जब लेखक खुद इतना भयभीत होगा तो समाज को कैसे भयमुक्त करेगा ? लेखक के भीतर आखिर भय है तो किस बात का ? क्या उसे जेल में बंद कर दिये जाने का डर है ? क्या उसे अपनी सोने की कुटिया में आग लगा दिये जाने का डर है ? क्या छीन लेगा कोई उसका कुछ? क्या है उसका जो खो जायेगा ? क्या कुछ पाने की आकांक्षा है, जो नहीं मिलेगा ? आखिर मित्रो इस डर की वजह क्या है ? बस यही न कि अमुक-ढमुक पत्रिका में उसका नाम या रचना नहीं छपेगी ? कहीं तो छपेगी ! नहीं छपेगी तो दो पेज की पत्रिका खुद निकाल कर अपनी बात कह लेगा. यहाँ बता दूँ कि कई सौ पेज वाली पत्रिकाएँ अक्सर भूसा छापती हैं और दस पेज की पत्रिका में भी जीवन और समय का नमक और दर्द मिल जाता है. वे मोटी-तगड़ी पहलवान छाप या चैड़ी-चकली चमक-दमक वाली राजधानी की कुछ पत्रिकाएँ बड़ा लेखक बनाने की फैक्ट्री होतीं, तो उनके संपादक पहले खुद बड़ा लेखक या संपादक बन चुके होते. हो सकता है कि मुख्यधारा में महाजनों के पथ पर न चलने से कोई महाजन पीछे न आने वाले लेखक को कोई भाव न दे अर्थात उसकी चर्चा ही न करे और वह इस जीवन में चर्चित या पुरस्कृत होने से वंचित हो जाय. क्या यह देखने की जरूरत नहीं है कि जब वे महाजन नहीं रहेंगे तो लोग उन महाजनों को उसी तरह याद करेंगे, जैसे आज करते हैं?
महाजनों के पीछे-पीछे अपना जीवन नष्ट करने वालों में इस डर की असल वजह क्या साहित्य के संसार में मर जाने का डर है ? या अमर न हो पाने का डर ? क्यों यह कि अमुक जी अमर कर दें ? हाय अमुक जी ने अमर नहीं किया तो होगा क्या? आखिर अमर होना क्यों इतना अच्छा है और मरना इतना बुरा ? क्या सभी लेखक ऐसे ही दिनरात डरते हैं ? कुछ दूसरे तरह के लेखक हमारे आसपास नहीं हैं ? क्या पहले ऐसे निडर लेखक नहीं थे ? आज भी, छोटे-मोटे ही सही ऐसे लेखक होंगे या नहीं, जिन्हें साहित्य में मरने का कोई डर नहीं होगा ? आखिर साहित्य का एक छोटा-मोटा कार्यकर्ता यह कैसे कहता है-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो थे पर आजाद थे.
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे
जो मेरे साथ तो थे पर किसी के गुलाम न थे.
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्राचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच.
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सगके लिए और बिकना था सबसे.
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे- पीना और शैतान के संग
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था.
(मुश्किल काम/दूसरे संग्रह ‘जल में’ से)
क्यों आज साहित्य का पथ ऐसे लेखकों से अटा पड़ा है, जिन्हें अमुक जी और ढ़मुक जी का नित्य आशीर्वाद चाहिए या जिन्हें अमुक जी के संगठन में जल्दी से घुस जाना है या घुस चुके हैं तो नित्य कृपा और चर्चा और क्रमशः या एक ही बार में सीधे अमरत्व चाहिए ? कई लेखक संगठन हैं और सब डरपोक लेखकों के जमावड़े के रूप में क्यों दिखते हैं ? आज किस लेखक में साहित्य के पथ पर अकेले एक भी डग भरने का साहस है ? कौन है जो गिरोह या संगठन से या इनके भय से मुक्त है ? इन संगठनों के लेखक आरएसएस के स्वयंसेवकों की तरह हाफपैंट तो नहीं पहनते हैं और उस तरह की कोई लाठी भी लेकर नहीं चलते हैं पर अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों और क्रूरता के मामले में उनके बड़े भाई लगते हैं. उस लेखक के वध के लिए जोर-शोर से और बिना शोर के भी काम करने वाले कई हथियार इनके पास हैं, जो इनकी तरह किसी गिरोह में शामिल नहीं है और साहित्य के अरण्य का पथ अकेले तय करने की हिमाकत करता है.
जहाँ तक मैं जानता हूँ और अगर इसे मेरी धृष्टता न समझें तो बड़ी विनम्रता से कहना चाहूँगा कि मेरे शहर में तो अकेले चलने की हिम्मत किसी में भी नहीं है. कोई संगठन में नहीं है तो किसी गिरोह में है या कई संगठनों का मजा एक साथ लूट रहा है. यह सब मेरी बातें गलत साबित हो सकती हैं. चलिए रास्ता भी मैं ही बताता हूँ, अपने को गलत साबित कराने के लिए. संगठनों के लेखकों के काम को उठाइए और देखिए कि क्या वाकई उन्होने कुछ या क्या-क्या ऐसा लिखा है जिसे कभी याद किया जायेगा ? ऐसे एक-एक लेखक के काम को उठाइए और उसे जोर से पूरी तबीयत के साथ उछालिए और मेरे सिर पर दे मारिए. मित्रो, यह सब कहने का प्रयोजन यह नहीं कि मैंने कोई ढ़ग का काम किया है. मुझे अच्छी तरह पता है कि मैंने तो अभी कुछ ऐसा किया ही नहीं है. यह जानते हुए भी साहित्य में मुझे मर जाने से कोई डर क्यों नहीं लगता है? क्यों नहीं यहाँ के और बाहर के बाकी लेखकों या लेखकनुमा लेखकों की तरह मैं डरता हूँ ? क्यों नहीं अमर होने की कोई आकांक्षा मेरे भीतर है ? क्या इसलिए नहीं कि जानता हूँ कि मरना जीवन की गति है. जीवन को पूरा करना जरूरी है. जो काम है, उसे करना जरूरी है. मेरी जानकारी में किसी भी महापुरुष ने यह नहीं कहा है कि अमर होना जरूरी है. अमरत्व और मुक्ति दोनों अलग हैं. इसीलिए मैंने ‘‘साहित्यिक मुक्ति’’ की बात की है. ( देखें: साहित्यक मुक्ति की प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो!)
मित्रो! विडम्बना यह कि आज और अभी और सबसे पहले जिसे अमर होना है, वह लेखक चाहता है कि सिर्फ वही अमर हो बाकी सब मर जायें. बहुत हुआ तो अपने हेलीमेलियों को थोड़ा-सा ( शायद दस प्रतिशत) अमर हो जाने देना चाहेगा. जाहिर है कि इसके लिए वह इस बाऊसाहब, उस बाऊसाहब या इस पंडिज्जी, उस पंडिज्जी की परिक्रमा करता है. उनकी धोती या पतलून या पाजामा वगैरह साफ करता है. चालीस चोरों का गिरोह चुनता है और उसमें घुस जाता है. जहाँ-जहाँ यश का चाहे साहित्य के कुबेर का खजाना है, लूटने के काम में लग जाता है. मजे की बात यह कि जिसके पास एक भी ढ़ंग की किताब या कुछ भी सचमुच का मूल्यवान नहीं है, वह भी साहित्य की दिल्ली को लूट लेना चाहता है. गिरोह और लेखक संगठन की माया है. अंधे भी तेज दौड़ रहे हैं और सारी हरियाली देख और भोग रहे हैं. इन्हें लगता है कि संगठन है, चाहे विचारधारा का जहाज है तो बिना लिखे अमर हो जाने की गारंटी है. कौन बेवकूफ होगा भाई जो कहेगा कि ‘‘विचारधारा मात्र’’ अच्छे लेखन की गारंटी है ? विचारधारा रचना का सातवाँ आसमान नहीं, हवाईपट्टी है बुद्धू जहाँ से तुम अपनी रचना का जहाज ऊपर ले जाओगे. विचारधारा को केवल पकड़कर बैठे रह जाओगे तो आगे कैसे जाओगे. विचारधारा पकड़कर बैठे रह जाने के लिए नहीं है, आगे बढ़ने के लिए है. साहित्य में हो तो अच्छी रचना करने के लिए है और राजनीति में हो तो परिवर्तन की लौ तेज करने के लिए है. कहने का आशय यह कि आज संगठनों में शामिल अधिकांश लेखक इसी दिक्कत का सामना कर रहे हैं. इधर लेखक संगठनों ने नाच-गाना और फिल्म इत्यादि से भी खुद को जोड़ा है और जनता को जगाने के नाम पर जनता से दूर चाहे जनता के पास उत्सव का मजा लूटने का नया तरीका ढ़ूँढ़ लिया है. साहित्य में जहाँ कुछ कर सकते हैं, वहाँ कुछ कर नहीं सकते, इसलिए चलो कुछ और ही कर लेते हैं …. मित्रो, बाहर मैंने बहुत कम देखा है.
आप ही बताएँ कि बाहर क्या इससे बेहतर है ? मेरे शहर के जो लोग बाहर हैं, उनके बारे में भ्रम था कि वे लोग यहाँ के लोगों की तरह साहित्य में भ्रष्टाचार के पक्ष में नहीं होंगे. जहाँ-जहाँ होंगे प्रतिरोध में खड़े होंगे. लेकिन जब उनकी पूँछ उठाकर देखने की बारी आयी तो दृश्य दूसरा ही था. वे भी तनिक भी अलग नहीं. निर्लज्जता और क्रूरता उसी तरह. वे भी साहित्य के लंठ और लठैत की तरह गरज कर कह सकते हैं- पांडे जी, आप भी वही सब कर रहे हैं. आप भी बेईमान हैं. भाई मैंने तो परिक्रमा की ही नहीं. मेरे गृहजनपद सिद्धार्थ नगर के ही एक महाजन हैं, उनकी पूजा नहीं की है. अपने एक मित्र की तरह उनको कभी साष्टांग प्रणाम नहीं किया है. कभी किसी महाजन की पूजा नहीं की है. कभी किसी मित्र से यह नहीं पूछता हूँ कि भाई तुम अमुक महाजन को क्यों अपने गाँव या कार्यक्रम ले जाते हो ? क्यों अमुक आलोचक या संपादक को खुश करने के हजार बहाने ढूढते हो ? अमुक बाबू को क्यों अपना बास समझते हो ? ऐसा कुछ नहीं पूछता. उन्हें दुखी नहीं करना चाहता.
किसी को भी दुखी नहीं करना चाहता. पर साहित्य का परिदृश्य दुखी करता है तो कुछ कहने लगता हूँ. अपने को सच कहने से रोक नहीं पाता हूँ. कतई किसी को कभी दुखी करना प्रयोजन नहीं होता है. चाहे वे दायें बाजू के लोग हों चाहे बायें बाजू के मित्र. एक मित्र के प्रगतिशील दृष्टि को ‘‘मात्र शंकराचार्य के अनधिकृत लालबत्ती प्रेम के विरोध तक ’’सीमित कर देने पर विनम्रतापूर्वक कहा कि जबतक वीआईपीवाद जिन्दा रहेगा, सभी वाद मुर्दा रहेगे. यह वीआईपीवाद साहित्य में भी जोरो पर है. मैं शंकराचार्यों और साहित्य के आचार्यों या वीआईपी के लाल-नीली बत्ती प्रेम के पक्ष में नहीं हूँ. विनम्रतापूर्वक यह भी कहना चाहता हूँ कि आँख मूँद कर प्रगतिशलीता को ‘‘केवल धर्म के ठेकेदारों के विरोध’’ से जोड़कर देखने के पक्ष में भी नहीं हूँ. जहाँ-जहाँ ठेकेदारी है, सबके विरोध में हूँ. साहित्य में तो लगातार विरोध करता ही हूँ. धर्माचार्य का नियम विरुद्ध लाल बत्ती का समर्थन उसी तरह नहीं करता हूँ, जैसे राजनीति के तमाम छोटे नेताओं और छोटे सरकारी पदाधिकारियों की गाड़ियों पर लगी बत्तियों का समर्थन नहीं करता हूँ. धर्माचार्य लाल बत्ती से भी कहीं ज्यादा खतरनाक काम करते हैं. दूसरे तमाम लोग साहित्य में उनसे भी कहीं ज्यादा खतरनाक काम करते हैं. लालबत्ती तो साहित्य में भी तमाम लोग लगाकर घूम रहे हैं. क्या सबके सब अधिकृत हैं ? सब को उनकी अच्छी कृतियों पर ही लालबत्ती मिली है ? क्रांतिकारी विचारों और जुझारू तेवर वाले प्रगतिशील मित्र हाथ पर हाथ बैठे रहे और साहित्य के सत्ता केंद्रों पर गैर प्रगतिशील और अपात्र लेखकों ने कब्जा कर लिया. सच तो यह कि भटके हुए मुद्दों से न देश का भला होना है, न साहित्य का.
असल में संकट सिर्फ देखने का है. हम वही देखना चाहते हैं, जो सुविधाजनक हो. हम अपने विचारों को भी जीवन के उसी हिस्से तक रखना चाहते हैं, जिसमें जोखिम कम हो. इसके विपरीत जो दिखता है, उसे देख तो लेते हैं पर आँख भी तत्क्षण मूँद लेते हैं. यह समाज, राजनीति, साहित्य में कहाँ नहीं है? इसलिए विचार को जीवनीशक्ति देने का काम रह जाता है. लेकिन जब रोज विचार देना जरूरी होगा तो हमसे चूक भी होगी. हम सीमित दायरे में कभी रह जायेंगे तो कभी छींकने और बात-बेबात खांसने की क्रिया तक ठहर जायेंगे. बदलाव हमेशा एक बड़े परिदृश्य, एक बड़े उद्देश्य को सामने रखकर लाने की बात करनी चाहिए. धर्माचार्यें का विरोध इस तरह करें कि वे समाज में अज्ञान और अंधविश्वास कितना फैला रहे हैं. साम्प्रदायिकता को किस तरह बढ़ा रहे हैं. सामाजिक और आर्थिक अपराध और दूसरे अनैतिक कार्य कैसे कर रहे हैं. धर्म को राजनीति से जोड़कर धर्म की प्रकृति को विकृत कैसे कर रहे हैं. इत्यादि. हम तो यह चाहते हैं कि कोई लेखक किसी का भी बचाव न करें. वे चाहे धर्माचार्य हों या राजनेता या साहित्य के भ्रष्ट लोग. क्योंकि मेरा मानना है कि देश और साहित्य को ठीक करने की लड़ाई लेखकों को एक साथ करनी चाहिए. न कि देश पहले ठीक हो जाय, भ्रष्ट नेता और धर्माचार्य कूच कर जायें और बाकी जगह बुरे लोग बचे रहें. वैसे लेखक को पहले साहित्य की गंदगी दूर करने का काम करना चाहिए या राजनीति की, फिल्म की, क्रिकेट की ? या एक लेखक को देश और साहित्य में झाड़ू एक साथ लगाना चाहिए ? जहाँ कुछ लोग यह नहीं कर पायेंगे, संभव है कि वहाँ कुछ दूसरे लोग बीड़ा उठायें. झाड़ू तो हर जगह लगेगा. इसे कोई चाहकर भी रोक नहीं पायेगा.
हाँ कोई चाहे तो खुद साहित्य के अँधेरे में अपनी खुशी से अपना जीवन जी सकता है या किसी खूँटे से खुद को बाँध कर रह सकता है. यह कोई जरूरी नहीं कि साहित्य की दुनिया में सब एक जैसे हों. कहाँ नहीं दस तरह के लोग होते हैं? मित्रो, साहित्य में बेईमानी का आलम यह कि कुछ लोग सिर्फ यश और पुरस्कार का खेल ही नहीं खेल रहे हैं, बल्कि विचारधारा के साथ भी दगा कर रहे हैं. वे राजनीति में भी बदलाव की बात दिल से नहीं, बल्कि गले से कर रहे हैं. नाटक कर रहे हैं कि ये देखो इंकिलाब का परचम! सच यह कि डरपोक कौमें कभी इंकिलाब नहीं करतीं. ये खुद सबसे बड़े डरपोक. राजनीति की सत्ता अपने देश की हो चाहे अमेरिका की, सौ गाली (मुहावरे में कह रहा हूँ), पर साहित्य की सत्ता चाहे राजधानी की हो चाहे अपने शहर की पिद्दी से पिद्दी, उसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहते. ऐसे ही होते हैं लेखक ? ये लेखक कहलाने लायक हैं ? लेखक हैं कि मुंशी ? साहित्य में मेरा शहर मुंशियों और मुंशियों के सहायक मुंशियों के शहर के रूप में तो मशहूर है ही. अब तो इस शहर के साहित्य के मुंशी टोले का प्रभाव दूर तक है. दूसरे शहरों में भी इस शहर के मुंशियों के मुंशी आसानी से मिल जायेंगे. क्यों आज हिंदी लेखकों का समाज इतना भयभीत है ? ये भयभीत लेखक समाज और देश को आखिर कैसे भयमुक्त करेंगे ? सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति की लौ को कैसे तेज करेंगे ?
मित्रो ! सुखद यह कि दूसरी ओर विचारधारा से जुड़े ऐसे भी साथी हैं जो कहने के लिए लेखक नहीं हैं, कवि या कथाकार या आलोचक नहीं हैं, पर साहित्य के मोर्चे पर उनसे कहीं ज्यादा विवेक और मर्म को छूने की प्रज्ञा और खासतौर से ईमान रखते हैं. सच तो यह कि ऐसे लोगों के साथ साहित्य पर संवाद अच्छा लगता है, जबकि भ्रष्ट लेखकों के बीच उठना-बैठना तक बुरा लगता है. फेसबुक पर और बाहर ऐसे तमाम युवा और वरिष्ठ मित्र हैं जो अभी साहित्य के भ्रष्टाचार में डूबे नहीं हैं. उन्हें अमर होने की चिंता या हड़बड़ी नहीं. जहिर है कि ऐसे मित्रों से ही साहित्य-संवाद अच्छा लगता है. सच तो यह कि उनसे संवाद के लिए ही कुछ कहने की टूटी-फूटी कोशिश करता हूँ.
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प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दी.द.उ. गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
संपादक: यात्रा साहित्यिक पत्रिका
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ई पता: yatra.ganeshpandey@gmail.com