समालोचन के डेढ़ दशक
(12/11/2010 – 12/11/2025)

इक्कीसवीं सदी की पहली चौथाई में जब भारत सहित लगभग पूरी दुनिया रूढ़-आग्रहों, एल्गोरिदम प्रतिध्वनियों, नियमन और नियंत्रण के दौर से गुजर रही है. ‘पोस्ट-ट्रुथ’ हमारे विवेक और तर्क को धूमिल कर रहा है. तब ऐसे समय में ‘समालोचन’ अपने प्रकाशन के डेढ़ दशक पूरे कर रहा है; एक नए माध्यम में किसी साहित्यिक पत्रिका की अधिकतम संभावनाएँ तलाशते हुए, स्वरूप तराशते हुए और मानक गढ़ते हुए.
साहित्यिक जगत में, जहाँ मुद्रित पृष्ठों को वैधता का आधार माना जाता रहा है, वहाँ एक ऑनलाइन पत्रिका का डेढ़ दशक तक सतत और प्रभावशाली बने रहना रेखांकित करने योग्य बात है. इसके स्थायित्व का आधार इसकी विचारशीलता, कलात्मकता, गुणवत्ता और बौद्धिक ईमानदारी में निहित है.
इसकी निःशुल्क पहुँच और वित्तीय स्वायत्तता ने इसकी दुर्लभ वैचारिक स्वतंत्रता बनाए रखने में इसे सक्षम बनाया है.
‘समालोचन’ ने ‘सरस्वती’ जैसी ऐतिहासिक पत्रिकाओं की भावना को डिजिटल युग में पुनर्जीवित किया है, उस ‘सरस्वती’ की, जिसने एक सदी पहले हिंदी के चित्त का परिष्कार किया था. जहाँ ‘सरस्वती’ ने छापे के युग में साहित्य और विवेक का नया अध्याय आरंभ किया था, वहीं ‘समालोचन’ ने डिजिटल युग में साहित्यिक-सामाजिक विमर्श को गंभीरता, गहराई और लोकतांत्रिक खुलापन प्रदान किया है. स्वाधीनता आन्दोलन में जो आलोचनात्मक दृष्टि अंकुरित हुई थी, वही दृष्टि आज ‘समालोचन’ में नए संदर्भों, विमर्शों और कला माध्यमों के साथ विकसित होती दिखती है.
द्विवेदीजी ने ‘सरस्वती’ का संपादन केवल पंद्रह वर्षों तक किया था. एक सदी के अंतराल के बावजूद, दोनों पत्रिकाओं के उत्स और उद्देश्य में साम्यता दिखती है. हिंदी समाज के बौद्धिक और कलात्मक विकास को अग्रगामी व्यापक परिप्रेक्ष्य में ले जाना.
पिछले पंद्रह वर्षों में ‘समालोचन’ ने जो कार्य किया है, वह इस परंपरा की पुनर्स्थापना का विनम्र प्रयास और उसका नवोन्मेष भी है. एक ऐसा मंच, जहाँ समाज अपने को रचता है. आत्ममंथन और संवाद करता है. अपने समय को समझने का साहस दिखाता है. यह एक ऐसा बैठका है जहाँ देशी विदेशी मेहमानों की आवाजाही लगी रहती है, वे अपना सर्वोत्तम साझा करते हैं.
इस अवधि में प्रकाशित 2,600 अंकों ने इसे हिंदी का एक व्यापक डिजिटल साहित्यिक अभिलेख बना दिया है, अर्थात पन्द्रह वर्षों में प्रत्येक दूसरे दिन एक सुसज्जित अंक, जहाँ लगभग 1,000 लेखकों की आवाज़ें सुनाई देती हैं. 25,000 से अधिक पाठकीय प्रतिक्रियाओं ने इसे एक जीवंत ‘आभासी’ समुदाय में रूपांतरित किया है. इन स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रियाओं का बहुत महत्व है.
‘समालोचन’ आज हिंदी साहित्य का एक जीवंत अभिलेख है, बीते डेढ़ दशक की कविता, आलोचना, अनुवाद, विचार की निरंतर ‘डिजिटल स्मृति’. आगे भी यह पत्रिका त्वरित ही नहीं, उत्तरदायी बनी रहे. यही इसका संकल्प है.
इस विशेष अवसर पर ‘समालोचन’ अपने सभी लेखकों, पाठकों और शुभचिंतकों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता है.
इसकी यात्रा भारतीय बौद्धिक समुदाय की सामूहिक इच्छाशक्ति का प्रमाण है.
आभार
स्वस्थ समालोचन के डेढ़ दशक!
ओमा शर्मा
लोकतंत्र की खूबी यही है कि यह तमाम तरह की आवाजों और संभावनाओं की छूट देता है. एक अंतराल के बाद ही हम जान सकते हैं कि जो छूटें ली गईं उनका क्या अंजाम रहा… वे अपने मंतव्य में कामयाब रहीं या आगे जाकर फिसल गईं.
अभी पता चला कि वेब पत्रिका समालोचन ने आज अपने अस्तित्व 15 वर्ष पूरे कर लिए हैं. पंद्रह वर्ष पूर्व एक आभासी माध्यम को एक पत्रिका के रूप में सोच पाना निश्चय ही अनिश्चितताओं से भरा एक दूरगामी कदम रहा होगा. जो लेखक परंपरागत अर्थात कागज पर प्रकाशित पत्रिकाओं के अभ्यस्त रहे हैं, उनके लिए किसी आभासी माध्यम में खुद को प्रकाशित करना शुरुआत में किंचित असहज लगा होगा.
इन 15 वर्षों में साहित्य और समाज के माहौल में भी काफी बदलाव आया है. लेखक और पाठकों की रूचियों और मानस पर समय, अर्थात टेक्नोलॉजी और राजनीति, दोनों का लक्ष्य करने लायक प्रभाव आया है. मैं स्वीकारता हूं कि बड़े दिनों तक मैं समालोचन की उपस्थिति से अनभिज्ञ रहा क्योंकि कम लिखने वाले के जेहन में प्रमुख पत्रिकाएं ही रहती थीं जिनसे काम चल जाता था. लेकिन कोई साल डेढ़ साल पहले जब समालोचन पर रचनाओं को देखने का संयोग बना, तब मुझे एहसास हुआ कि इस पत्रिका ने इस बीच क्या और कितना हासिल कर लिया है. और मैंने क्या मिस किया है.
एक अच्छी पत्रिका वस्तुतः अपने संपादक के गुण- दोषों का ही प्रतिनिधित्व करती है. उसी से पता चलता है कि संपादक में कितनी उदारता है, उसका अध्ययन कितना विस्तृत है या उसकी सीमाएं क्या है, विभिन्न विषयों के प्रति उसके रुझान कैसे हैं और वह किस खुलेपन से नए और असहमत स्वरों को मंच देता है. कहने की जरूरत नहीं कि एक लुभावनी प्रस्तुति अच्छी रचना की पठनीयता में गौरतलब भूमिका निभाती है.
पिछले अक्टूबर यानी सन 2024 में कथाकार प्रियंवद पर लिखे एक आलेख हो जब मैंने समालोचन को भेजा, तब तक मेरा अरुण देव से कोई परिचय नहीं था. आलेख को पढ़कर उन्होंने जिस तत्परता से उसे प्रकाशित किया वह मुझे उनके बारे में बहुत कुछ कहता लगा. यही कारण रहा कि कुछ समय बाद जब मेरी नई कहानी- पुत्री का प्रेमी – हुई, तो उसे भी मैंने समालोचन को ही दिया. किसी पत्रिका में प्रकाशित होने के साथ हर लेखक का उससे एक अलग रिश्ता बन जाता होगा. आप उसकी सभी रचनाएं चाहे ना पढ़ें लेकिन यह जरूर देखते हैं कि वहां क्या-क्या प्रकाशित हो रहा है और यदि कुछ चीजों की बहुत चर्चा हो रही है, कुछ सम्मानित लेखक उसकी प्रशंसा कर रहे हैं या जो आपके दायरे में ज्यादा गहराई से अवस्थित हैं, तो उन्हें अवश्य ही पढ़ते हैं. समालोचन पर रोज-रोज प्रकाशित होती रचनाओं की गुणवत्ता और विविधता की सुंदर प्रस्तुति को देखकर तो मैं भौचक ही रहता हूं और अपने से एक सवाल करता हूं कि भाई, रोज ब रोज कोई रचनाओं का इतना समय कैसे दे सकता?… क्योंकि अपनी गुणवत्ता में वे आकर्षित करती हैं. आखिर हर लेखक अपने किसी लिखे या दूसरे पढ़े जा रहे से भी गुत्थम गुत्था तो कर ही रहा होता है! लेकिन यह इस माध्यम की छूट भी है कि आप चीजों को बाद में अपने पढ़ने के लिए मार्क कर सकते हैं और समय मिलने पर देख सकते हैं.
हर अच्छे संपादक को कदाचित दो बातों की तरफ खास ध्यान रखना होता होगा: एक, कुछ ऐसे भरोसेमंद मित्रों की खुली उपलब्धता जो उसके चयन को कभी कभार प्रश्नांकित भी करते रहें और दो, वह अपने खास मित्रों को अतिरिक्त या बढ़ा-चढ़ाकर तवज्जो देता ना दिखे/लगे.
मुझे लगता है अरुण देव इन दोनों पक्षों के प्रति पर्याप्त सचेत हैं : उन्होंने कभी कोई ऐसा गुट नहीं बनाया लगता है, हालांकि कुछ लेखकों की रचनाएं ज्यादा नियमितता से वहां आती हैं लेकिन इसका कारण बेशक उन लेखकों की रचनाएं ही है.
मेरे जाने अरुण देव के पास कोई टीम नहीं है.जो हैं अरुण ही हैं. इस लिहाज से समालोचन पूरी तरह से ‘वन मैन शो’ है. इसलिए यह और भी सुकूनदेह हैरत की बात है( दिल्ली से दूर रहने का लाभ!) कि वह कितनी रचनाएं से गुजरते हैं और फिर गुणवत्ता के चाक पर न सिर्फ उनका चयन करते हैं बल्कि उससे आगे जाकर उसकी प्रस्तुति में चार चांद लगाते हैं.
पिछले दिनों जब मैं उन्हें स्टीफन स्वाइग के उपन्यास ‘ बीवेवर ऑफ पिटी’ के किरदार को लिखे पत्र- आलेख को उन्हें भेजा तो मैं अपेक्षा कर रहा था कि उसे पढ़ने के बाद- और यदि प्रकाशन योग्य समझा तो- अरुण देव शायद मुझसे कुछ चीजें जानना – पूछना चाहेंगे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्होंने इंटरनेट पर जाकर खुद ही तमाम तरह की चीजें खंगाल डालीं जिनमें कई ऐसी भी जो मेरे पास भी नहीं थी. किसी रचना को प्रकाशित करते हुए ऐसी आत्मीय संलग्नता और मेहनत से संजोयी प्रस्तुति निश्चय ही कुछ अतिरिक्त लेखकीय सुख देती लगती है.
खैर, आज यह समालोचन की समीक्षा या मूल्यांकन करने का दिन नहीं है.
उसे सेलिब्रेट करने का अवश्य है.
समालोचन पत्रिका और अरुण देव इस तरह से एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं कि लगता है 16 फरवरी के बजाय अरुण देव का जन्मदिन 12 नवंबर है!
एक शानदार पड़ाव पार करने के लिए
समालोचन और साथी अरुण देव को बधाई
उपस्थिति के लिए धन्यवाद
और भविष्य के लिए शुभकामनाएं.
समालोचन कैसे बचा होगा?
नरेश गोस्वामी
‘समालोचन’ के पंद्रहवें जन्मदिन पर मुझे दो बातों का ख़याल आ रहा है जिनमें पहली इसकी सार्वजनिक उपस्थिति से वाबस्ता है और दूसरी मेरे निजी अनुभव से.
हममें ज़्यादातर लोग समालोचन के इस क़दर अभ्यस्त हो चले हैं कि हमारा इसकी आनुवंशिकी पर ध्यान नहीं जाता, हम भूले रहते हैं कि इसकी जीन्स में वे बीस डिजिटल वर्ष शामिल हैं जिनमें बहुत-सी प्रक्रियाएं एक साथ चल रहीं थीं, एक तरफ़, साहित्य, कला और विचार की सिकुड़ती जगह पर चिंता की जा रही थी; दूसरी तरफ़ हिंदी की बड़ी पत्रिकाओं की प्रसार-संख्या सिमट रही थी और तीसरी तरफ़ युवाओं की ख़ालिस डिजिटल पीढ़ी के साथ मेरे जैसे लोगों की वह हाइब्रिड पीढ़ी भी तकनीक के नए इंटरफ़ेस से सामंजस्य बैठाने में जुटी थी जिसका बौद्धिक संस्कार मूलतः प्रिंट माध्यम में हुआ था, सब कुछ तेज़ी से बदल रहा था, स्थिति यह थी कि जो स्थिर या स्थायी दिखाई देता था, वह असल में पिछली गति के आवेग से चल रहा था.
भ्रम, संशय और संभावनाओं की इस पारिस्थितिकी में अरुण देव ने एक नए माध्यम का चुनाव किया, वे चाहते तो कोई लघु-पत्रिका शुरु कर सकते थे, लेकिन उन्होंने एक ऐसा माध्यम चुना जिसका उस समय तक पूरा स्थापत्य भी साफ़ नहीं हुआ था, जिसके न मानक तय हुए थे, न व्याकरण.
इसे शुरु करना आसान काम था, 2010 से पहले ब्लॉग्स की बाढ़-सी आ गई थी, कंप्यूटर जानने वाला हर साहित्यिक-वैचारिक व्यक्ति कुछ ऐसा ही कर दे रहा था, लेकिन, आज पीछे मुड़कर देखें तो उनमें से ज़्यादातर चीज़ें इंटरनेट के अनंत अभिलेखागार में ग़र्क़ हो गई हैं.
मैं कई बार सोचता हूं कि ‘समालोचन’ कैसे बचा होगा?
इस मामले में, सबसे पहले मेरा ध्यान इस बात पर जाता है कि अरुण देव के लिए यह अभिव्यक्ति की निजी आकांक्षा का माध्यम नहीं था. उनके सामने लेखकों और पाठकों को साथ लेकर चल सकने वाला एक वृहत्तर और व्यापक विचार रहा होगा, इसके बग़ैर समालोचन भी पर्स या बटुए जैसी कोई निजी चीज़ बनकर रह जाता.
दूसरी चीज़, जहां तक मेरी जानकारी है, अरुण देव रचनाओं के चयन और संपादन का पूरा काम अकेले करते हैं, हालांकि मैं आज तक उनसे मिला नहीं हूं, लेकिन कई दफ़ा तो इस काम में निहित नियमित श्रम की निरंतरता को सोचकर उनके सामने सिर झुका लेने का मन करता है, मैं ऐसा इसलिए भी सोचता हूं कि अगर यह केवल यश-कामना का मामला होता तो बहुत-से अन्य लोगों की तरह अरुण कोई ठोस काम न करके भी प्रसिद्ध हो सकते थे, लेकिन उन्होंने कठिन रास्ता चुना.
अब तीसरी और बेहद ज़रूरी बात, अरुण देव इसका प्रदर्शन नहीं करते, लेकिन इन वर्षों में उन्होंने ‘समालोचन’ का कलात्मक उन्नयन भी ज़बरदस्त किया है, उन्होंने रचनाओं की अंतर्वस्तु के साथ कला-रूपों के इस्तेमाल की एक महीन और परिष्कृत दृष्टि विकसित की है, इस तरह, ‘समालोचन’ की प्रतिष्ठा विचार और साहित्य की सार्वजनिक संस्कृति के ऊंचे प्रतिमानों को बरक़रार रखने की यात्रा भी है.
अब एक आख़िरी बात समालोचन से अपने निजी संबंध के बारे में—
अगर ‘समालोचन’ न होता तो मैं शायद दुबारा लिखने की शुरुआत न कर पाता, चूंकि मैं कहीं आता-जाता नहीं था तो मेरे लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात रही कि अरुण देव समालोचन को लेकर मौजूद थे, जीवन में बहुत-सी चीज़ें शायद इसी तरह क्लिक करती हैं, कोई होता है जो उस समय अपने लिए उपलब्ध निजी अवसरों को त्याग कर बाक़ी लोगों के लिए लीक बनाता है, फिर उससे एक तहरीक बन जाती है.



