आलोचना का संकट : कितना वास्तविक
गंगा सहाय मीणा
युवा आलोचक और टिप्पणीकार गंगा सहाय मीणा ने आलोचना के संकट पर बहस को आगे बढाते हुए प्रारम्भिक आलोचना के सरोकारों की पड़ताल की है, और एक वाजिब सवाल रखा है कि हाशिए की अस्मिताओं की पहचान के गम्भीर प्रयास अब तक क्यों नहीं हुए. हिंदी पर एकमतपसन्द (francesca orsini) के वर्चस्व के साथ-साथ हिंदी भाषा आंदोलन को भी प्रश्नवाचक बनाया गया है.
कुल मिलाकर यह लेख आलोचना के इतिहासबोध और सौंदर्यशास्त्र के विस्तार और उसके बहुवर्णी होने की आवश्यकता पर ज़ोर देता है. बहसतलब आलेख.
हिन्दी में इन दिनों आलोचना के संकट की काफी चर्चा हो रही है. सवाल यह है कि क्या वास्तव में कोई संकट है या यह केवल साहित्य और आलोचना के जनतंत्रीकरण से उपजा भय है? अगर आप ध्यान दें तो आलोचना के संकट की बातें तभी से अधिक हो रही हैं जब से हिंदी में स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों आदि के रूप में उत्पीडित अस्मिताओं का लेखन और विमर्श आया है. मानो इससे पहले हिंदी साहित्य और आलोचना में सब अच्छा चल रहा था.
रचना और आलोचना का संबंध आलोचक के दृष्टिबिंदु से तय होता है, यानी कौन आलोचक किस रचना को कहां से देख रहा है, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है. समालोचन पर चल रही इस बहस के बहाने हम हिन्दी साहित्य के इतिहासलेखन के चरित्र और उसके स्वरूप पर बात कर सकते हैं. यह बातचीत इसलिए जरूरी है कि यहां आए लेखों सहित हिंदी साहित्य और आलोचना में कुछ ऐसी बातों पर मूक सहमति है जो स्वस्थ साहित्य और आलोचना के लिए बेहद खतरनाक हैं. कम से कम उन पर सवाल उठाने और उनकी पुनःपरीक्षा करने की तो जरूरत है ही. कहने को तो काफी लोग हिंदी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन की बात करते हैं लेकिन वास्तव में यह बातचीत वैसी ही है जैसी हिंदी आलोचना की पहली और दूसरी परंपरा या फिर हिन्दी साहित्य के पहलेइतिहास के बरक्स, बच्चन सिंह का हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास. दोनों ही मामलों में दूसरा पद का प्रयोग जितना अलगाने के लिए किया गया है, वैसा कुछ अलग है नहीं वहां. आत्म के बजाय अगर अन्य के नजरिए से लिखा जाता तो कुछ दूसरा बनने की संभावना बनती. इस संदर्भ में सुमन राजे ने हिंदी साहित्य का आधा इतिहास लिखकर जरूर हिन्दी साहित्येतिहास परंपरा के आत्म का अतिक्रमण कर अभी तक अन्य तथा इत्यादिरही आधी आबादी को आवाज देने का सार्थक प्रयास किया है
आधुनिक काल से पूर्व के हिन्दी साहित्य (आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल) का बडा हिस्सा धार्मिक, श्रंगारपरक और वीरगाथात्मक साहित्य से भरा है, जिसमें से अधिकांश का कोई सामाजिक सरोकार नहीं है. आज वह हमारे सामान्य-बोध का हिस्सा बन चुका है और हम उसके बिना हिन्दी साहित्य की कल्पना भी नहीं करते. दरअसल हमने कभी हिन्दी के सेकुलर और प्रगतिशील साहित्य की अनिवार्यता ही महसूस नहीं की है. दक्षिणपंथियों को छोड भी दें तो स्वयं वामपंथी आलोचक और विद्वान तुलसीदास की तारीफ करते नहीं थकते और अपने लेखों-व्याख्यानों की शुरूआत तुलसी की चौपाईयों, दोहों से करते हैं. प्रतिक्रियावादियों की समझ है कि जब समाज सामंतवादी होगा तो साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति का स्वरूप भी सामंतवादी ही होगा, समाजवादी नही.[i] यह समझ रखने वाले और अपने दायरे को हिंदी तक सीमित रखने वाले तथा भारतीय भाषाओं की उपेक्षा कर हिंदी से सीधे अंग्रेजी में छलांग लगाने वाले भूल जाते हैं कि हिंदी के आदिकाल से एक हजार से भी अधिक वर्ष पहले इसी भारत में संगम साहित्य[ii] लिखा जा रहा था जो न केवल सेकुलर है बल्कि काफी समृद्ध भी है. स्वयं प्रेमचंद औपनिवेशिक भारत में होते हुए उसके विरोध में उसके बहुत आगे की कथा कह रहे थे. कार्ल मार्क्स की पूंजी और मैक्सिम गोर्की की मां भी इस तर्क का अतिक्रमण करती हैं.
हिन्दी साहित्य के पढने-पढाने वालों के इस तरह के संस्कार निर्मित होने का एक पूरा इतिहास और समाजशास्त्र है. फ्रेंचेस्का ओरसिनी से शब्द उधार लेकर कहूं तो हिंदी साहित्य में शुरू से दो धाराएं चलती रही हैं- एकमतपसंद और बहुमतपसंद. ओरसिनी का निष्कर्ष सही प्रतीत होता है कि हिंदी साहित्य का इस तरह का चरित्र निर्मित होने का कारण इसमें एकमतपसंद धारा का वर्चस्व होना है. एकमतपसंद के बारे में बताते हुए ओरसिनी ने लिखा है- चाहे किसी विषय पर अपना ही नजरिया सही क्यों न लगे, और नजरिये भी होते हैं, संभव होते हैं. नजरिये, विश्वास, नियम कुछ हद तक नम्र, लचीले और सशंक मालूम होने लगते हैं. पर कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनको यह बात मंजूर नहीं होती हैः इनको मैंने एकमतपसंद कहा है.[iii] जाहिर है इसकी विरोधी स्थिति बहुमतपसंद है, यानी जिनको उपयुक्त बातें मंजूर होती हैं. हिंदी में एकमतपसंद धारा का वर्चस्व कुछ इस प्रकार रहा. हिन्दी का पहला पाठ्यक्रम[iv]बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय[v] के हिन्दी आचार्यों द्वारा बनाया गया. वे सभी काशी नागरी प्रचारिणी सभा से आए थे और काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 1893 में हिन्दी-उर्दू विवाद के दौरान हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध बताने और बनाने के लिए हुई.
1837 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने यह फरमान जारी किया कि कचहरियों और सरकारी काम-काज की भाषा इलाकाई जबान होगी तो सवाल उठा कि पश्चिमोत्तर प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) की इलाकाई जबान या प्रांतीय भाषा कौनसी है? सवाल सिर्फ उर्दू या हिन्दी के राजभाषा बनने तक सीमित नहीं था, बल्कि मूल बात थी सामुदायिक हितों की रक्षा की. यह सच है कि तब तक हिन्दी और उर्दू दोनों उतनी अलग भाषाएं नहीं थीं जैसी आज है, लेकिन फिर भी फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू मुसलमानों के लिए सहज थी, इसलिए हिंदी को राजभाषा बनाए जाने से उनके सामुदायिक हित प्रभावित होने का खतरा था. यही स्थिति हिंदुओं के साथ थी. हिंदुओं को लगता था कि उर्दू और फारसी के ज्ञान से मुसलमान बिना किसी मेहनत के सरकारी महकमों के रास्ते आगे बढेंगे और हिन्दू पिछड जायेंगे. सर सैयद अहमद खान ने उर्दू का दामन थामा और राजा शिवप्रसाद \’सितारे-हिंद\’, भारतेन्दु और उनके समकालीन लेखकों ने हिन्दी का. 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध का समय इस रस्साकशी का गवाह रहा है.
उर्दू-हिन्दी विवाद के दौर में मामला नागरी लिपि से होता हुआ गोरक्षा से भी जुड गया और भाषा के मुद्दे का संप्रदायीकरण हो गया. उर्दू और हिन्दी के पक्ष में जिन संस्थाओं ने जन्म लिया, उनमें से अधिकांश सांप्रदायिक स्वरूप लिए हुए थी. नागरी प्रचारिणी सभाभी इसी दौर की उपज है. सभा के उद्देश्य थे- हिन्दी के ग्रंथों को संकलित और प्रकाशित करना, हिन्दी में शब्दकोश बनाना, हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखना और नागरी लिपि का प्रचार-प्रसार करना. इन उद्देश्यों के पीछे यह भावना काम कर रही थी कि कैसे हिन्दी को उर्दू से पुरानी और समृद्ध साबित किया जाए ताकि वह पश्चिमोत्तर प्रांत की राजभाषा बन सके. इस प्रक्रिया में सभा के लोगों ने हिन्दी साहित्य में हिन्दी की सहयोगी भाषाओं-बोलियों (अवधी, ब्रज, राजस्थानी आदि) की रचनाओं तथा धार्मिक रचनाओं को भी शामिल कर लिया. यह दिलचस्प है कि आधुनिक काल से पूर्व हिन्दी साहित्य में इन सहयोगी भाषाओं-बोलियों की रचनाएं शामिल की गई हैं और आधुनिक काल में सिर्फ खडी बोली हिन्दी की रचनाएं शामिल हैं, जबकि आज भी अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी आदि में रचनाएं हो रही हैं लेकिन अब उन्हें हिन्दी साहित्य में शुमार नहीं किया जाता. अगर नागरी प्रचारिणी सभा के लोग हिन्दी साहित्य के इतिहास में सिर्फ खडी बोली हिंदी की रचनाओं को शामिल करते तो उन्हें इस इतिहास को पीछे ले जाने के लिए काफी मशक्कत करनी पडती. यह हिंदी साहित्य के इतिहास पर एक बडा सवाल है.
दूसरा सवाल धार्मिक साहित्य को लेकर है. तुलसीदास सहित तमाम भक्तकवि राम-कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानते हुए रचनाएं करते हैं, देशभर में ये रचनाएं प्रधानतः विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों के मौके पर इस्तेमाल की जाती हैं[vi]. पूरे उत्तर भारत में रामचरितमानस निर्विवाद रूप से एक धार्मिक रचना है. यह हिन्दी के साहित्येतिहासलेखकों और आलोचकों का हिंदू संस्कार ही कहा जाएगा कि यही शुद्ध रूप से धार्मिक पुस्तक उनके अनुसार हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ रचना है और तुलसीदास सर्वश्रेष्ठ कवि. इन्हीं तुलसीदास को स्थापित करने वाले रामचंद्र शुक्ल को हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है और इनके \’हिन्दी साहित्य का इतिहास\’ को सर्वश्रेष्ठ साहित्येतिहास. ये तमाम बातें दक्षिण से लेकर वाम तक के विद्वानों, आलोचकों के लिए कुरान की आयतों की तरह हैं. हिन्दी के अतिक्रांतिकारी विचारधारा वाले आलोचक भी ये कहते मिल जायेंगे कि तुलसीदास और रामचरितमानस, रामचंद्र शुक्ल् और उनके हिन्दी साहित्य के इतिहास के बिना हिन्दी साहित्य पढा ही नहीं जा सकता. यह रचना और आलोचना का कैसा संबंध है? अब इस पर सवाल उठने लगे हैं तो \’आलोचना का संकट\’ कहकर उन सवालों को खारिज करने की कोशिश की जाती है.
हिंदी की इस एकमतपसंद धारा की विचारधारा को समझने के लिए एक उदाहरण देना जरूरी है. नागरी प्रचारिणी सभा और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के रामचंद्र शुक्ल के सहयोगी श्यामसुंदरदासने कबीर का परिचय देते हुए लिखा है- मुसलमान घर में पालित होने पर भी कबीर का हिंदू विचारों में सराबोर होना उनके शरीर में प्रवाहित होने वाले ब्राह्मण अथवा कम से कम हिंदू रक्त की ही ओर संकेत करता है[vii] यह कौनसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण था जिसके आधार पर श्यामसुंदरदास कबीर के कविकर्म का मूल्यांकन करते हैं? कमोबेश यही दृष्टिकोण पूरी एकमतपसंद धारा[viii] का रहा है. कल्पना की जा सकती है कि इससे हिंदी साहित्य व आलोचना को कैसी दिशा मिली होगी.
हिंदी के इसी चरित्र पर टिप्पणी करते हुए कथाकार उदय प्रकाश ने लिखा है, \’\’हिन्दी विभाग में शालिगराम, शैलेन्द्र जॉर्ज और राहुल की स्थिति एक जैसी थी. तीनों लाइब्रेरी जाते और हिन्दी साहित्य के सैक्शन में जाकर किताबों के लेखकों के नाम गिनते. किस जाति के कितने लेखक. पत्रिकाओं और जर्नल के हॉल में जाकर उन पत्रिकाओं में छपने वाले लेखकों और संपादकों की जाति देखते. जिन लेखकों–कवियों को पुरस्कार दिया जाता, उनकी और निर्णायकों की जाति को वे अंडरलाइन करते. हिन्दी से जुडी जितनी संस्थाएं, अकादमियां आदि थी, उनके पदाधिकारियों–कर्मचारियों की सूची बनाते. अखबारों और टीवी न्यूज चैनलों के संवाददाताओं, संपादकों, ब्यूरो चीफ और निर्माताओं के नामों पर गौर करते… सारे संसार में ऐसा कहीं नहीं होगा कि किसी एक जाति समूह ने एक समूची भाषा का ऐसा अधिग्रहण किया हो.\’\’
पुनः फ्रेंचेस्का से शब्दों का सहारा लेकर कहना पडेगा कि हिन्दी की दुनिया में एकमतपसंद शक्तियां अंततः प्रबल रहीं– चाहे पत्र–पत्रिकाएं, साहित्यिक संस्थाएं, यहां तक कि कांग्रेस को ही क्यों न लें. वहां सबने एक ऐसी हिन्दी को अपना लिया जो शुद्ध तो थी मगर न तो देसी थी और न हिन्दी दुनिया की विविधता को प्रकट करने वाली. आज यह विविधता प्रकट हो रही है– स्त्री, दलित, आदिवासी और अन्य पिछडे तबकों की रचनात्मक अभिव्यक्ति द्वारा. शुद्धतावादी एकमतपसंद आग्रह इन अभिव्यक्तियों को तरह–तरह के मानक स्थापित कर खारिज करने की कोशिश कर रहा है लेकिन नदी के बहाव की तरह जनअभिव्यक्ति का सैलाब सारी बाधाएं पार करता हुआ अपना रास्ता खुद बना रहा है.
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गंगा सहाय मीणा
सहायक प्रोफेसर
भारतीय भाषा केन्द्र
जेएनयू नई दिल्ली -67
ई पता : gsmeena.jnu@gmail.com
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[i] समन्वय के बजाय, जनसत्ता, 18 दिसंबर 2011 http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&task=view&id=6836&Itemid=
[iv] व्यवस्थित पाठ्यक्रम. इससे पहले हिंदी पढाई जाने लगी थी लेकिन उसका रूप अनिश्चित था और प्रभावक्षेत्र सीमित.
[v] विश्वविद्यालय के संस्थापक मदनमोहन मालवीय को फ्रेंचेस्का ओरसिनी ने एकमतपसंद धारा का प्रतिनिधि कहा है.
[vi] यहां कबीर और अन्य संत कवियों की रचना को उनसे अलगाना होगा क्योंकि उनका लक्ष्य पंथ स्थापित करना नहीं था, न ही वे अपनी रचनाओं को \’गुरू ग्रंथ साहब\’ में शामिल करवाना चाहते थे. कबीर की रचनाओं का धार्मिक इस्तेमाल त्रासद ही कहा जाएगा.
[viii] \’एकमतपसंद धारा\’ और \’बहुमतपसंद धारा\’ के बारे में फ्रेंचेस्का ने एक सीमित समयावधि के संदर्भ में विचार किया है, इन पर विस्तृत अध्ययन अपेक्षित है.