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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : सुधीर सक्सेना

सहजि सहजि गुन रमैं : सुधीर सक्सेना

सुधीर सक्सेनाजन्म – लखनऊ में ३० सितम्बर, १९५५कविता संग्रह — \’कभी न छीने काल\’ , \’बहुत दिनों बाद\’ \’समरकंद में बाबर\’, \’रात जब चंद्रमा बजाता है बाँसुरी\’सम्मान — \’सोमदत्त पुरस्कार\’, \’पुश्किन सम्मान\’रूस, ब्राजील, बैंकाक आदि देशों की यात्राएं. संप्रति -\’दुनिया इन दिनों \’ पत्रिका के प्रधान संपादकई पता :sudhirsaxena54@gmail.com  वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का अनुभव-अध्ययन विस्तृत है. […]

by arun dev
December 26, 2011
in Uncategorized
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सुधीर सक्सेना
जन्म – लखनऊ में 
३० सितम्बर, १९५५
कविता संग्रह — \’कभी न छीने काल\’ , \’बहुत दिनों बाद\’ \’समरकंद में बाबर\’, \’रात जब चंद्रमा बजाता है बाँसुरी\’
सम्मान — \’सोमदत्त पुरस्कार\’, \’पुश्किन सम्मान\’
रूस, ब्राजील, बैंकाक आदि देशों की यात्राएं. 
संप्रति -\’दुनिया इन दिनों \’ पत्रिका के प्रधान संपादक
ई पता :sudhirsaxena54@gmail.com 

वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का अनुभव-अध्ययन विस्तृत है. ये कविताएँ संदर्भ और सार में इसका पता देती हैं. अपने समय को सुधीर उसके मूल में पकड़ते हैं और इसीलिए उनकी कविताएँ आधारभूत भावनाओं से शुरू होकर दूर तक पसर जाती हैं. दुनिया की सारी कविताओं के मूलपाठ को वह यकसां मानते है. इन कविताओं में आंतरिक लय है, इससे पाठ सुगम बना है.    


painting : mohammad kibria





















अलबत्ता इसे प्रेम ::
एक दिन हम पाते हैं
कि अचानक माथे पर उभर आया है लाल गूमड़
और बहुधा वह ताउम्र बना रहता है
कभी फ़िक्र तो कभी शगल का बायस
या कि एक दिन हम पाते हैं
कि अचानक मुंडेर पर उग आया है अब्ज़ा
और कमबख्त सूखने का नाम ही नहीं लेता
बेतरह तीखे धान  के बावज़ूद
याकि एक दिन हम पाते हैं
कि बिना रोशनदान के कमरे में
तिपाई पर रखी रकाबी में
कहीं से आ टपका है पारा चमकीला आबदार
मुंह बिराता हुआ ज़माने को
अलग-अलग आकृतियों में हठात
कि औचक खनकने लगे हैं बरसों से उदास गुल्लक में सिक्के
और उसकी खनक में है एक अलग ही सिम्फ़नी
याकि एक दिन हम पाते हैं
कि अचानक टिक-टिक करने लगी है
किन्हीं चपल उँगलियों की करामत से
बरसों से बंद पड़ी हमारी कलाई घड़ी,
होने को कुछ भी हो सकता है और
गिनाने को और भी बहुत कुछ गिनाया जा सकता है
मगर, बताएं तो इन्हें आप क्या कहेंगे
कोई कुछ भी कहे
मगर आप चाहे तो कह सकते हैं बिला शक
अलबत्ता इसे प्रेम.

प्रेम यानी कलाई में घड़ी नहीं ::
जिस तरह गोदना गुदाने का
कोई वक्त नहीं होता ,
जिस तरह कोई वक्त नहीं होता
बादलों के झरने का ,
जिस तरह कभी भी आ सकती है झपकी
और कोई वक्त नहीं होता आसमान में पुच्छल तारे के दीखने का
या उल्का पात का ,
अचानक ज़ेहन में कौंधता है कोई ख़याल
बिना किसी भूमिका या पूर्वाभास के
जिस तरह बिना उत्प्रेरक के होती हैं औचक क्रियाएँ
और यह भी कि किस घड़ी कौन बन जाएगा
उत्प्रेरक किसी भौतिक या रासायनिक क्रिया या घटनाक्रम में
कोई नहीं जानता
जिस तरह गति
के सिद्धांत के ज्ञाता भी नहीं जानते
कि कब उतर जायेगी घिर्री से चेन
जिस तरह बद्दू भी नहीं जानते
कि कब कहाँ फूट पड़ेगा सोता ?
नहीं जानते विज्ञानवेत्ता
कि तड़ित चालक को ठेंगा दिखाते
कब कहाँ गिरेंगी बिजलियाँ
जिस तरह बूढ़े घड़ीसाज़ भी नहीं बता सकते घड़ी की उम्र
और न ही बूझ सकते हैं अपनी घड़ी के कांटें,
उसी तरह,
ऐन उसी तरह कोई नहीं बता सकता प्रेम की वेला
कीमियागरों के माथे पर शिकन
कि कब कैसे फूट पड़ता है प्रेम का रसायन
और तो और
प्रेम भी नहीं जानता कदापि
अपने आगमन की घड़ी
कि उसकी कलाई में घड़ी नहीं
और न ही उसका रेतघड़ी से कोई वास्ता .

तुम्हारे होने से पाया ::
जिस तरह
धन के लिए धन प्लस धन
अथवा ऋण प्लस ऋण का ऋणी है धन
जिस तरह ओषजन और उद्जन का
ऋणी है पानी का कतरा,
जिस तरह अपने अस्तित्व के लिए
पंक का ऋणी है पंकज,
पतंग उड़ने के लिए ऋणी है डोर की
और डोर उस कारीगर की,
जिसने कांच का लेप लगा
नंगी उँगलियों से सूता मांझा
ऋणी है जिस तरह
प्रक्षेपण का परिक्रमा-पथ में प्रक्षेपित उपग्रह,
जिस तरह हथेलियों की ऋणी हैं तालियाँ ,
ऋणी हैं जिस तरह लय के गीत ,
जिस तरह मंचन के कथानक ,
जिस तरह कैनवास के ऋणी हैं रंग
ऋणी हूँ मैं तुम्हारा
कि तुम्हारे होने से
मेरे होने ने पाया
होने का अनहोना अर्थ .
अदृश्य नाल से जुड़ी थीं कथाएँ ::
श्वेत और श्याम की
पसंद में विभाजित
जनों के लिए
मुश्किल था धूसर से लगाव
कि धूसर
न श्वेत था ,न श्याम
या कि था श्वेत भी, श्याम भी
और यह भी कि वहाँ
कोई विभाजक रेखा न थी
श्वेत और श्याम के दरम्याँ
वन में परागण आसान न था
बिना विकिरण
और बिना उत्कीर्णन
मुमकिन न था गढ़ना शिल्प
हालांकि बुत पहले ही निहाँ था
संग के आगोश में
कि देवदासियों ने बचा रखी थी कलाएं ,
शोहदों ने ऐब
और रोमाओं ने बहुत सारे रिवाज़
और तो और बहुत सारे शब्द
बचा लिए थे इतिहास की
कन्दरा में छिपे भगोड़ों ने
दफ़्न होने से
अँधेरे ने अपनी कुक्षि में
सहेजे हुए थे उजाले के बीज
और सिर्फ नाउम्मीदों से
बची थी उम्मीद को उम्मीद
::

आँसुओं को कोई भी अथाह
समुन्दर न था कश्तियों से वीरां,
हर लहर की स्मृति में थी दर्ज़
न सही जलपोत या नौका
एक अदद नन्हीं -सी डोंगी
किसी भी अध्याय का अंत
नहीं था समापन कथा का
हर अध्याय पूर्व-पीठिका था
कभी साभास, तो कभी अनाभास
अगले अध्याय का
एक अदृश्य नाल से जुड़ी थीं
दुनिया भर की सारी कथाएँ
और यकसां था
दुनिया की सारी कविताओं का
मूलपाठ
वास्तविकता नहीं
सुविधा थी
तारीख जनम और मरण की
कि चीज़ों का
न कोई आदि था, न अंत
बाज़ वक्त  कई जनमों का एक जनम
और कई दफा एक ज़िन्दगी में थीं
एक नहीं, कई -कई ज़िंदगियाँ
बाज़ वक्त
या कि हमेशा -हमेशा .
::

शम्म का
हर रंग में
जलना तय था सहर होने तक
अलबत्ता कोई नहीं
जानता था कि कब आएगी सुबह ,
अलबत्ता जानता था हरेक
नज़ूमी कोई न था
न वहाँ, जिन्हें था बेतरह यकीं ,
न वहाँ, जिन्हे था
सुबह होने में शुबहा
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