भाष्य के अंतर्गत परम्परा के पुनर्पाठ की सोच है. उसके विश्लेषण और नये सन्दर्भ में उनके पुनर्वास की कोशिश है. इसकी शुरुआत युवा आलोचक गोपाल प्रधान के मुक्तिबोध की भूल-गलती कविता की व्याख्या और विश्लेषण से की जा रही है.
भूल-ग़लती
भूल-ग़लती
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबां बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।
सामने
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है…
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के
वह क़ैद कर लाया गया ईमान…
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त-
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमे वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!
इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!
लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
(सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
गजानन माधव मुक्तिबोध(१३,नवम्बर १९१७-११ सितम्बर १९६४ )
नामवर सिंह ने मुक्तिबोध के संदर्भ में अस्मिता की खोज़ को अभिव्यक्ति की खोज़ का पर्याय माना है. उनके शब्दों में कहूँ तो एक कवि के नाते उनके लिए परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है. मुक्तिबोध की भूल-गलती अपने सघन प्रभाव और ख़ास स्थापत्य के कारण विशिष्ठ है, चेतस अभिव्यक्ति और आत्म-ग्रस्त अस्मिता के मुठभेड़ का अनन्तर.
युवा आलोचक गोपाल प्रधान ने इस कविता का पुनर्पाठ किया है. कविता के इस अर्थात में विश्लेषण के जो औज़ार हैं वह जन से लिए गए है और लक्ष्य भी साहित्य के ख़ास को आम के लिए बोधगम्य बनाना है.
भूल-गलती
गोपाल प्रधान
गजानन माधव मुक्तिबोध की इस कविता का अर्थ समझने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है. इस कविता में फ़ारसी बहुल शब्दावली का मुक्तिबोध ने उपयोग किया है. इससे यह भ्रम उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है कि वे शायद मुगलिया दरबार की किसी घटना के बारे में कविता लिख रहे हैं. लेकिन इसके जरिए वे केवल मध्ययुगीनता का वातावरण तैयार करना चाहते हैं जिसमें शासक की क्रूरता बुद्धि, विवेक और ज्ञान सबके ऊपर शासन करती है. सुलतान के दरबार का समूचा वर्णन वस्तुतःअप्रस्तुत है, प्रतीकवत आया है और असली कथा गलती और ईमान के बीच विरोध के इर्द गिर्द चक्कर काटती है. पुनः प्रस्तुत की भाषा भी ऐसी है कि उससे कविता की मनोवैज्ञानिक व्याख्या की इच्छा पैदा हो सकती है. हमारे जीवन की जो भूलें हैं, वे ही स्वार्थ के हथियारों से सुसज्जित होकर समूचे व्यक्तित्व पर काबिज हो जाती हैं तथा सच्चाई और ईमान को खत्म करना इसके लिए जरूरी हो जाता है. मनोविज्ञान एक तरह से कालातीत विज्ञान होने का दावा करता है और इसके आधार पर की गयी व्याख्या से कविता की समय सम्बद्धता खत्म हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है. इस कविता को पूरी तरह से समझने के लिए मुक्तिबोध और उनके समय को थोड़ा और गहराई से जानना होगा.
मुक्तिबोध कम्युनिस्ट आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे. 1946 में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना इलाके में हैदराबाद के निजाम के विरुद्ध किसानों का सशस्त्र संघर्ष चला जिसमें दो सौ गाँवों को मुक्त करा लिया गया था और इन मुक्त गाँवों में किसानों की अपनी सरकार स्थापित हो गयी थी. किन्तु 1947 में भारत के स्वतन्त्र होने पर जो कांग्रेसी सरकार आई उसने किसानों के इस आन्दोलन को बर्बरतापूर्वक कुचलने का निश्चय किया. जनरल करियप्पा की फ़ौजें गाँव दर गाँव किसानों को रक्त में डुबोती रहीं और साथ ही साथ इसका प्रचार भी चलता रहा कि देश में जनतन्त्र का शासन स्थापित हो रहा है. तमाम मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी इसी भ्रम के शिकार रहे और अन्ततः 1952 में इस आन्दोलन को कुचल दिया गया. शासन की क्रूरता और बुद्धिजीवियों का स्वार्थमूलक व्यामोह ही इस कविता की तमाम भ्रामक शब्दावली के भीतर का सत्य है. चूँकि कविता उपरोक्त तीनों ही स्तरों पर एक साथ संचरित होती है, इसीलिये विशेषकर जटिल हो जाती है.
हमारे व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन की जो भूलें और गलतियाँ हैं, वही आज लोहे के कवच से अपने आपको सुरक्षित बनाकर दिल के तख्त पर बैठ गयी हैं और शासन चला रही हैं. आज का जो शासन है उसमें शासक न सिर्फ़ खुद लौह कवच धारण किये हुए है बल्कि लोगों पर आतंक जमाने के लिए उसने भाँति भाँति के हथियार भी एकत्र कर लिये हैं. उसके हथियारों की चमक दूर दूर तक दिखाई देती है और उसकी आँखों से भी ऐसी रोशनी निकल रही है जैसे किसी नोकदार तेज पत्थर की नोक पर चिलक रही हो. उसके आतंक के समक्ष सबने समर्पण कर दिया है. सामने लोग कतारबद्ध सलाम की मुद्रा में झुके हुए हैं और उनका गूँगापन उनकी बेबसी है. यह समूचा दृश्य एक ऐसे दरबार में घटित हो रहा है, जो अत्यन्त भव्य है, उसमें अनगिनत खम्भे हैं और उन खम्भों के बीच अनगिनत मेहराबें पड़ी हुई हैं. (दरबारे आम वह जगह थी जहाँ बादशाह जनता के समक्ष अपने निर्णय सुनाता था). शासक को जिस अपराधी के बारे में फ़ैसला सुनाना है, वह स्वयं ईमान है. तात्पर्य यह कि गलती के शासन के लिए ईमान को कैद करना जरूरी हो जाता है. कैद करके हथकड़ी पहनाकर ईमान को शसक के सामने खड़ा किया गया है. कैदी का चेहरा घावों की आड़ी तिरछी लकीरों से कटा पिटा है और ये घाव उसकी बेचैनी के हैं. इन घावों के कारण उसका चेहरा इतना भयानक हो गया है कि जिस पर नजर डालने से दिल काँप उठता है और हाय निकल आती है. ऐसा नहीं कि घावों अथवा कैद होने के कारण उसका कद छोटा हो गया हो. हालाँकि उसके जिस्म पर कपड़ों की जगह गरीबी और परेशानी के चिन्ह लत्ते मात्र लटक रहे हैं और खून के लम्बे लाल दाग भी उन लत्तों पर दिखाई दे रहे हैं. फिर भी उसका स्वाभिमान सुरक्षित है. जहाँ अन्य सभी लोग निगाह झुकाए हुए हैं वहीं वह सिर ऊँचा कर सीधे शासक की आँखों में आँखें डाले हुए है, वह निडर है और उसकी भी आँखों से अग्नि स्फुलिंग के समान नीली बिजली के टुकड़े निकल रहे हैं. चतुर्दिक खामोशी पसरी हुई है लेकिन शासक के आतंक और कैदी की निडरता के बीच आँखों ही आँखों में संवाद जारी है.
गलती ने ईमान को कैद कर लिया है इस अन्याय को देखकर भी सभी दरबारी जुबान बन्द किए हुए हैं. तमाम मनसबदार अर्थात पदवीधर, तमाम कवि और सूफ़ी अर्थात सन्त, तमाम दार्शनिक (अल गजाली तसव्वुफ़ का दार्शनिक है), तमाम ज्योतिषी (इब्ने सिन्ना एक ज्योतिषी था), तमाम इतिहासकार (अलबरूनी प्रसिद्ध इतिहासकार था), सभी ज्ञानी (आलिम-फाजिल इस्लामी शिक्षा की डिग्रियाँ हैं जो क्रमशः बी ए और एम ए के समतुल्य हैं), सभी सेनापति और सरदार अर्थात सभी शिक्षित, सुसंस्कृत और नेतृत्वकारी लोग चुप हैं. दूसरी तरफ़ ईमान से कहा गया है कि यदि वह कुछ शर्तें मान ले तो उसे जिन्दगी बख्श दी जायेगी लेकिन जिस शर्त को मानने में उसे शर्मिन्दगी महसूस हो ऐसी शर्त मानकर उसे जिन्दगी नहीं चाहिए. वह समर्पण करके शर्मनाक जीवन नहीं बिताना चाहता. वह हठपूर्वक इन्कार कर सिर ताने हुए खड़ा है. वह तो अपनी ही शर्तों पर जीवन बिताएगा, अपना निर्णायक वह स्वयं है. इस समूचे दृश्य को देखकर कोई सोच ही सकता है कि इस बादशाहत के दिन अब गिने चुने हैं, इस पर मौत के काले बादल छाए चले जा रहे हैं, जो रक्षा कवच लोहे का बना हुआ दीख रहा है वह दरअसल मिट्टी का है, और जो बादशाहत है उसमें भी पुरानी अकड़ नहीं है अब तो वह रेत की तरह भुरभुरा हो हो गया है, तथा पहले की जो बादशाही धाक थी उसमें अब कोई दम नहीं रहा अब वह सन्नाटे की तरह खोखली हो गयी है. लेकिन इस सोच के खिलाफ़ सावधान करते हुए कवि कहता है कि साँप कितना भी मरियल दिखे उसके काटे से जहर चढ़ेगा ही चढ़ेगा, और चूँकि लोग यह बात जानते हैं इसीलिए उससे आतंकित भी हैं. यहाँ कवि संकेत से सामन्ती व्यवस्था के बारे में बता रहा है. सन 1952 के जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के बाद ऐसा लगने लगा था कि पुराने जमींदारों का फन कुचल दिया गया है, उनके विषदन्त उखाड़ लिये गये हैं लेकिन इसी असावधानी का विरोध करते हुए कवि कहता है कि नहीं अब भी उसमें पर्याप्त मारक क्षमता बची हुई है. यह भूल रूपी बादशाह अब भी ताकतवर हैं तो इसका कारण यह है कि ये हमारी आपकी कमजोरियों से अपनी ताकत प्राप्त करते हैं.
गलती का शासन इसीलिए स्थायित्व प्राप्त कर लेता है कि हम सब अपनी कमजोरियों के चलते उसका विरोध नहीं करते. शासक का जो काले लोहे का रक्षा कवच है वह हमारी आपकी कमजोरियों से ही निर्मित है. उसे पहनकर वह और खूँखार हो गया है. उस शासक की, जिसे आलीजाह कहा जाता है, असलियत यही है कि वह क्रूरता से भरा हुआ है. ईमान को तो उसने कैद किया हुआ ही है, सच की भी आँख निकाल डालता है. सच्चाई और ईमानदारी का दमन करके ही गलती अपना शासन चला सकती है. जितनी भी कोमल भावनाएँ हैं (दिल की बस्तियाँ) उन सबको वह खत्म कर देता है तभी क्रूरता को वैधता प्राप्त होती है. इस तरह चारों तरफ़ से वह हमें, हमारी चेतना को घेर लेता है, हमारे पाँवों के नीचे कोई ठोस आधार नहीं रह जाता, हम बे-सिर-पैर के होजाते हैं, न सोच पाते हैं न चल पाते हैं. उसका जो सरकारी ताम झाम है, पद-प्रतिष्ठा के जो तमाम अवसर हैं, उन्हीं की लालच में उसके गुलाम होकर रह जाते हैं. बुद्धिजीवियों की बुद्धि को खरीदकर वह उन्हें अपना नौकर बना लेता है और वे उसकी क्रूरता के विरुद्ध कुछ नहीं बोल पाते.
शासक, जो स्वयं गलत है, ने विद्रोही, जो स्वयं ईमान है, को कैद कर लिया है फिर भी जनता चुप है, दरबारी खामोश हैं और बुद्धिजीवी, जिनमें कवि भी शामिल है, आधारहीन हो गये हैं. न सिर्फ़ वे विरोध नहीं कर सकते, बल्कि कराह भी नहीं सकते. लेकिन तभी जैसे किसी से गुस्ताखी हो गयी हो, जैसे कराह निकल गयी हो उसी तरह एक व्यक्ति इस समूचे मोहपाश को और आतंक को तोड़कर मुक्त हो गया. मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे और मार्क्सवाद के अनुसार पूँजीवादी शासन के साथ मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी भी स्वार्थवश हो जाता है परन्तु उन्हीं बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा स्वार्थ के तर्क को तोड़कर मजदूरों के पक्ष में खड़ा हो जाता है और अन्याय के विरुद्ध मजदूरों को संगठित करने लगता है. उक्त बिम्ब के जरिए मुक्तिबोध इसी विचार की पुष्टि कर रहे हैं . कवि कहता है कि उस व्यक्ति के भागते ही मेरी मोहनिद्रा भी टूट गयी और मैं लोगों से भरे हुए दरबार में संभलकर जाग गया. उस व्यक्ति के भागते ही तमाम दरबारी सहम गये. जो लोग कतारों में खड़े थे उनका शासक के साथ जो समझौता था उसके रक्षक हथियार स्वयं उनके स्वार्थ ही थे. शासक यह समझौता टूटने के आतंक से भर उठा. जो तमाम दढ़ियल सेनापति थे, उनके समूचे जीवन का अनुभव दोमुंहेपन का अनुभव था. उनके दिल में कोई और बात रहती थी जुबान पर कोई और तथा इस दोमुंहेपन की सच्चाई को छुपाने के लिए वे चेहरे पर गंभीरता धारण किए रहते थे. उस व्यक्ति के भागने से वे भी सहम गये. लेकिन जिस व्यक्ति ने इस मोह और आतंक के विरुद्ध विद्रोह किया था वह समूची किलेबन्दी को तोड़कर बाहर जा निकला और छापामार युद्ध चलाने के लिए अँधेरी घाटियों, गोल टीलों और घने पेड़ों के इलाके में जाकर छिप गया. लेकिन वह सक्रिय है, कवि को यह अहसास होता है कि वह गुमनाम और अगम्य दर्रों के इलाके में युद्ध के लिए तैयारियाँ जारी रखे हुए है.
यह दर्रों का इलाका और कुछ नहीं सच्चाई का इलाका है जिसे गलती ने देश निकाला दे दिया था. इस इलाके में सच्चाई की रोशनी की तेज किरणों की सुबह फैली हुई है. जहाँ शासक पर काले बादल छाए हुए हैं, वहीं सच्चाई के इलाके में सुबह हो रही है. कवि कहता है कि आज सच्चाई और ईमान की जो पराजय हुई है, उसका बदला कल वही विद्रोही लेगा जिसकी चेतना में सच्चाई का संकल्प है और जिसकी आवाज रक्त से लथपथ है. कवि को यह आशा है कि इस शासन के समाप्त हो जाने की जो इच्छा आज कवि के हृदय में गुप्त रूप से अवस्थित है, वर्तमान आतंक के कारण प्रकट नहीं हो पा रही है आगामी दिनों में सच्चाई का सहारा पाकर वही इच्छा ऐसे स्वर्णिम अक्षरों में प्रकट होगी कि उसकी अनदेखी कर पाना असंभव हो जाएगा .
उक्त कविता मुक्तिबोध के काव्य संग्रह \’चाँद का मुँह टेढ़ा है\’ से ली गयी है. संग्रह की भूमिका में शमशेर बहादुर सिंह ने संकेत किया है कि मुक्तिबोध की कविता की सर्वप्रमुख विशिष्टता नये और प्राणवान बिम्बों का निर्माण है. इस कविता में दरबार का अत्यन्त जीवन्त बिम्ब कवि ने निर्मित किया है . मुक्तिबोध की लंबी कविताओं में दृश्यों के बाद दृश्य उभरते रहते हैं लेकिन इस कविता में एक ही दृश्य के इर्द गिर्द समूची कविता गढ़ी गयी है. इसीलिए यह कविता मुक्तिबोध की उन कुछेक कविताओं में से है जो सुगठित हैं. नई कविता के कवि की काव्य भाषा भी खास तरह की होती है. उसमें शब्द, बिम्ब और अर्थ एक दूसरे में गुँथे होते हैं. इस कविता में भी फ़ारसी शब्दावली के जरिए मध्ययुगीन वातावरण का निर्माण किया गया है. कविता में बादशाह और कैदी की कथा भी उतनी ही प्रधानता से चलती रहती है जितनी प्रधानता से भूल और ईमान की कथा. लेकिन जैसा कि जयशंकर प्रसाद की कामायनी का विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध ने कहा था कि कथा की प्राचीनता के आवरण को चीरकर रह रह कर प्रसाद के समय का सत्य झाँक जाता है उसी तरह इस कविता के मध्ययुगीन वतावरण और मनोवैज्ञानिक आवरण को चीरकर मुक्तिबोध के समय का सत्य दिखाई पड़ने लगता है.
नई कविता के कवियों ने विरासत में निराला की भाषा को पाया था. मुक्तिबोध की विशेषता है सर्वत्र उनकी कविताओं में रिद्म (लय) का पाया जाना. यह लय पानी की लहरों की निरंतर उठान गिरान की तरह एक विशेष आरोह अवरोह के क्रम में चलती है. जैसा कि निराला ने कहा ऐसी कविताओं का सौंदर्य \’आर्ट आफ़ रीडिंग\’ के जरिए खुलता है. फ़ारसी शब्दावली का इतना प्रचुर उपयोग मुक्तिबोध ने इस कविता को छोड़कर और कहीं नहीं किया है लेकिन इसके बावजूद वे इस प्रयोग में सफल हुए हैं. समूची कविता की अन्तिम चार पंक्तियों में एक भी फ़ारसी शब्द नहीं आया है और वही मुक्तिबोध की स्वाभाविक भाषा है. इन पंक्तियों का मुक्तिबोध की अनेक काव्य पंक्तियों की तरह नारे के बतौर इस्तेमाल किया जा सकता है. धूमिल ने कहा था कि कोई भी कविता सबसे पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है. इन अन्तिम पंक्तियों में उसी तरह के वक्तव्य के जरिए कवि का आशावाद प्रकट हुआ है.