विश्व के अग्रिम पंक्ति के आलोचक-अध्येता प्रो. हरीश त्रिवेदी का कविता लिखना और समालोचन में उसका प्रकाशित होना विश्व-साहित्य की घटना है, ठीक उसी तरह जैसे अगर Terry Eagleton कहें कि उन्होंने कविता लिखी है और वह प्रकाशित हो रही है.
प्रो. हरीश त्रिवेदी हिंदी में लिखते रहें हैं पर ये कविताएँ छात्र-जीवन के बाद अब लिखी गयीं हैं और समालोचन पर ही प्रकाशित हो रहीं हैं.
लगभग आजीवन गद्य में रमने के बाद आख़िर वह क्या है जिसे कहने के लिए कविता की जरूरत महसूस हुई?
ये कविताएँ अंदर की यात्रा करती हैं. जो कि कविता की अपनी ख़ास विशेषता है. पहली कविता का शीर्षक पुनश्च भी बहुत कुछ कहता है, जैसे पूरा जीवन कोई लम्बा पत्र रहा हो जिसमें यह कहना छूट गया था.
यह ऐतिहासिक अंक प्रस्तुत है. साथ में आलोचक–पत्रकार आशुतोष भारद्वाज की एक टिप्पणी भी दी जा रही है.
प्रोफेसर हरीश त्रिवेदी का सन्दर्भ मेरे सामने अक्सर बड़े अप्रत्याशित तरीके से आता रहा है. कई बरस पहले जब मैं रामचंद्र गुहा से पहली मर्तबा मिला था, बातचीत में उन्हें मालूम चला कि मैं उपन्यास विधा पर काम कर रहा हूँ, तुरंत बोले: “आप हरीश त्रिवेदी से परिचित हैं? उनसे ज़रूर मिलिए.” राम गुहा उन्हें अपने निबंधों में भी उद्धृत करते रहे हैं.
मैं पिछले बरसों में सेमिनार में पेपर पढ़ने यूरोप गया हूँ. रोम और पेरिस जैसी जगहों पर वहाँ के अकादमिक मुझसे पूछते हैं: “आप इंडिया से हैं. हरीश त्रिवेदी को जानते होंगे?”
पिछले कई दशकों से तमाम विधाओं में काम करते क़द्दावर भारतीय हरीश त्रिवेदी को भारत का श्रेष्ठतम आलोचक मानते आये हैं. वे पश्चिम के अकादमिक जगत में भारतीय आलोचना का चेहरा हैं, जिनका उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन और अनुवाद पर काम दुनिया भर में पढ़ा और संदर्भित किया जाता है. पश्चिम में मेरे दो अकादमिक मित्र, एक जर्मन और एक फ्रांसीसी, प्रोफेसर त्रिवेदी को ‘द बिग मैन’ कह कर बुलाते हैं- और ये दोनों खुद वरिष्ठ अध्येता हैं, हालाँकि प्रोफेसर त्रिवेदी से कभी नहीं मिले हैं.
मैथ्यू अर्नोल्ड ने कभी कहा था कि अँग्रेजी के आलोचक के लिए अँग्रेजी का ज्ञान, किसी समकालीन यूरोपीय भाषा का ज्ञान, पश्चिम की किसी एक क्लासिक भाषा यानी ग्रीक या लेटिन का ज्ञान और पूर्वीय सम्पदा यानी संस्कृत अथवा चीनी साहित्य का ज्ञान अनिवार्य है. अगर इसे हम भारतीय आलोचक के संदर्भ में देखें तो लगता है मैथ्यू अर्नोल्ड ने शायद यह प्रोफ़ेसर त्रिवेदी के लिए ही लिखा था, जो संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अँग्रेजी और यूरोप की सम्पदा से अपना सत् ग्रहण करते रहे हैं.
शायद इसलिए जब एके रामानुजन का निबंध ‘थ्री हंड्रेड रामायण’ चर्चा में था, प्रोफ़ेसर त्रिवेदी हमें तुरंत याद दिला सके थे कि तुलसीदास बहुत पहले लिख गए हैं- “रामायण शत कोटि अपारा.” और जब रामानुजन ने अपना प्रसिद्ध वाक्य दिया कि “कोई भी भारतीय रामायण पहली बार नहीं पढ़ता”, तो प्रोफ़ेसर त्रिवेदी ने तुरंत पूछा : “आप ऐसे कितने भारतीयों को जानते हैं जिन्होंने रामायण एक बार भी पढ़ी है?”
आलोचक का लेकिन एक गुण और होता है, जो इस क़िस्से में झलकता है. शिमले आने से पहले जब मैं दिल्ली में था, संजीव कुमार (आलोचक) से फ़ोन पर कभी-कभार उपन्यास विधा पर, ख़ासकर हिंदी उपन्यास पर, बतियाया करता था. एक दिन फ़ोन पर वे बोले, “आशुतोष, हरीश त्रिवेदी मेरे पड़ोस में रहते हैं. एक दिन टहलते हुए मिल गए, मैंने तुम्हारा ज़िक्र किया कि तुम उपन्यास पर काम कर रहे हो, बड़े अच्छे प्रश्न उठा रहे हो. वे तुरंत बोले, ‘अच्छा! कौन है जो हिंदुस्तान में उपन्यास पर काम कर रहा है, लेकिन जिसे मैं नहीं जानता हूँ?”
यह कहकर संजीव जी हँसने लगे. प्रोफ़ेसर त्रिवेदी के इस प्रश्न की अतिरंजना में ही उसका मर्म था. एक अध्येता-आलोचक हमेशा अपनी विधा में हो रहे काम पर सजग और चौकन्नी निगाह रखता है.
वे अँग्रेजी के प्रोफ़ेसर हैं, लेकिन हिंदी में पूरी तरह रमे हुए हैं. उन्होंने प्रेमचंद की जीवनी से लेकर हिंदी के अनेक लेखकों के अनुवाद अँग्रेजी में किए हैं, तमाम लेखकों को अँग्रेजी की दुनिया तक ले गए हैं. अमिताव घोष और मकरंद परांजपे जैसे लोग उनके विद्यार्थी रहे हैं. मैंने क़द्दावर, उनके हमउम्र और विकट अहंकारी लोगों को भी उनके सामने गुरुजी कहते हुए पैरों में पड़ते देखा है.
किसी सच्चे आलोचक की तरह वे विपरीत मत का बहुत सम्मान करते हैं. नब्बे के दशक में शिमले के उच्च अध्ययन संस्थान में फ़ेलो रहे जयदेव ने हिंदी के तीन लेखकों की ‘नक़ली आधुनिकता’ पर शोध किया, जिनमें निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद शामिल थे. जयदेव के शोध का शीर्षक था- ‘कल्चर ऑफ़ पेस्टीच’ (मेरी समझ से निर्मल और वैद पर इससे भीषण प्रहार कभी नहीं हुआ. यह दिलचस्प है कि हिंदी में इन दोनों को गरियाता जाता है, अक्सर हल्के और भावुक ढंग से, लेकिन उनका सबसे बेहतरीन तार्किक प्रतिकार अँग्रेजी में हुआ है.)
ख़ैर, जैसी कि शिमले के संस्थान की परम्परा है, यह पांडुलिपि एक रिव्यूअर के पास पहुँची. वह रिव्यूअर थे हरीश त्रिवेदी- निर्मल वर्मा के अभिन्न मित्र, ज़बरदस्त प्रशंसक और अनुवादक भी. कोई अन्य शायद उस पांडुलिपि को ख़ारिज कर देता, और संस्थान के नियमों के तहत फिर संस्थान उसे कभी नहीं छापता. प्रोफ़ेसर त्रिवेदी ने लेकिन जयदेव की पांडुलिपि को बड़ा सम्मान दिया. इस तरह निर्मल वर्मा को सबसे बड़ी वैचारिक चुनौती देती किताब उस संस्थान से छपी जहाँ निर्मल ख़ुद कभी फ़ेलो रहे थे, उस इंसान की स्वीकृति और समर्थन से छपी जो निर्मल के गहरे दोस्त थे.
अब प्रोफ़ेसर त्रिवेदी कविता लिख रहे हैं (मैंने उन्हें काफ़ी पढ़ा है, और मुझे उनकी कोई कविता याद नहीं आती और मेरे ख़याल से यह उनकी पहली प्रकाशित कविता (एं)होनी चाहिए), यानी ख़ुद को आलोचकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.
आशुतोष भारद्वाज
हरीश त्रिवेदी
कविताएँ
१.
पुनश्च
(रघुवीर सहाय जी की स्मृति को,
जिनकी आधी पंक्ति यहाँ भटकी चली आयी है.)
इस रेले में निकल जाते तो निकल ही जाते
इतनी बड़ी भीड़ में घुल जाते मिल जाते.
रोज़ बढ़ता आंकड़ा अगले दिन जब आता
उसमें मैं हूँ या नहीं कौन बता पाता.
हफ्ते–दस दिन में छुट्टी बेहतर है
महीनों कढ़िलने से बरसों घिसलने से
काया गलाते किसी रोग की कारा में
स्वयं कष्ट पाने से औरों को दुखाने से.
जीवन तो कट ही गया, और क्या होना है.
तिहत्तर हो गए, फिर होंगे चौहत्तर
पचहत्तर छेहत्तर यही तो होंगे अब.
बाकी सब हो चुके, अब यही होना है.
बिटिया ब्याह गयी, लड़का लग गया.
इतनी दूर जाके लगा है पाताल में
उसकी जब सुबह है तब अपनी शाम है.
एक ही धरा में हैं यही आराम है.
आठ साल हो गए हम को रिटायर हुए.
चालीस साल खट के चाकरी करने पर.
बिलकुल निकम्मे हैं, पेंशन खाते हैं
निकम्मी सरकार को चूना लगाते हैं.
मान लें बच गए तो फिर करेंगे क्या.
कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठेंगे.
इंतज़ार करते हुए अनमने जीते हुए
टकटकी लगाये कि काल कब आता है.
…या फिर हो सकता है ऐसा भी हो जाए
आगे के बरसों में हम कुछ कर जाएँ.
ऐसा कुछ जो अभी कल्पना से बाहर है.
ऐसा कुछ काम जो किसी के काम आये.
पहले के पत्रों में ‘पुनश्च’ होता था.
कुछ सयाने थे रिश्तेदारों में,
गुनी कलाकार थे, असली खबर वे
पुनश्च तक पहुँच जाएँ तभी बताते थे.
यही हरि इच्छा है क्या अपने बारे में?
जो बीत चुका वह तो सब रीता था.
अब कुछ होगा क्या, कुछ कर पाएंगे
ऐसा कुछ हो सकेगा हौसला-हारे में?
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पुनश्च 1.: और अब मंगलेश डबराल की स्मृति को भी.
जब मुझे भान हुआ कि रघुवीर जी की एक पंक्ति या उसकी ध्वनि यहाँ चली आई है तो मुझे उनकी उस कविता की कुछ और पंक्तियाँ तो याद आयीं पर कविता का शीर्षक नहीं याद आया. मैंने सोचा कि किससे पूछूं तो लगा कि मंगलेश से अधिक उपयुक्त कौन होगा. वे रघुवीर जी के सच्चे भक्त और अनुयायी थे, मतलब मुरीद हम भी थे और सैकड़ों और भी थे मगर वैसे नहीं. तो मैंने उन्हें फ़ोन किया. वे बोले. “हरीश जी, पांच मिनट का समय दीजिये”, और फिर तीन ही चार मिनट में पूरे ब्यौरे के साथ उनका फ़ोन आया. यह सितम्बर 2020 के अंत की बात है. वही मेरा उनसे अंतिम संपर्क था.)
पुनश्च 2. यह कविता मैंने पिछले साल 28 सितम्बर को लिखी थी. होते-होते कोरोना मुझे हुआ तो इस वर्ष 21 अप्रैल को. कभी-कभी कला आगे चलती है, जीवन पीछे. वैसे रघुवीर जी की उस कविता का शीर्षक है “बचे रहो”, जैसा कि घटित भी हुआ.
२.
पुराना वो ज़माना
फिर न आएगा पुराना वो ज़माना हरगिज़.
याद भूले-से भी उसकी न दिलाना हरगिज़.
बैठे-बैठे यूँ ही उठ पड़ना औ’ चल देना कहीं.
चल नहीं सकता वो अब तर्ज़ पुराना हरगिज़.
नाक-मुंह बाँधे हुए चोर-उचक्कों की तरह
अपने कूचे में हमें फिर न घुमाना हरगिज़.
दिल तो चाहे है तुम्हें पहलू में लेकिन फ़िलवक़्त
दो कदम दूर रहो, पास न आना हरगिज़.
ख्वाब में भी कभी सोचा न था ये गत होगी.
इससे भी बद कोई सूरत न दिखाना हरगिज़.
ख्वाहिशें पहले की जितनी भी थीं पूरी कर लीं,
दिल में अरमान नए अब न जगाना हरगिज़.
हम बुज़ुर्गों का भला क्या है, चले जायेंगे,
नौजवानों को यहाँ से न उठाना हरगिज़.
अब तो जाते हैं जहन्नुम को या फिर जन्नत को,
हमें “हरीश” यहाँ फिर न बुलाना हरगिज़.
आभार: यह छोटी सी झोपड़ी मैंने उसी ज़मीन पर (यानी उसी भाव-भूमि पर और उसी बहर और रदीफ़-काफ़िये को लेकर) खड़ी की है जिस पर 1857 में दिल्ली शहर की तबाही के बाद मौलाना अल्ताफ़ हुसैन “हाली” ने एक मशहूर ग़ज़ल कही थी: “तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़ / न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़.” तो मौलाना साहेब को सलाम और बहुत शुक्रिया!
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हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे. फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की, और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं. हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है “अब्दुर रहीम खानखाना” पर. (वाणी, 2019).
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