रामचंद्र गाँधी
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वह आवाज…अदम्य आवेग, अभीप्सा में गुँथी, बिंधी आवाज. जादूगर अपने जादूपाश में बांधे हो, कुछ भी न रहे शेष, न जादू, न जादूगर, न श्रोता, सिर्फ आवाज की धमनियों से टपकता जुनून.
सिर्फ कुछेक मर्तबा बोलते सुना था उन्हें- सुना नहीं, देखा भी था उन्हें. न जाने कौन-सा संबंध था उस आवाज़ से, आवाज की उस शख़्सियत से, जो बींधती थी, बांधती थी. उन्हें मंच पर हाथ झटकते,माथे पर आ बाल बिखरते,बोलते देख लगता, कोई साधक भरी सभा में,साधनारत, बेखबर कि वह लोगों के बीच है. अपने में डूबा, पगलाये मंत्रोच्चार में लीन, हरेक अक्षर एक स्तबक. ‘असाध्य वीणा’ का केशकंबली- नीरव पद रखता जालिक मायावी, डाल रहा हो जाल अपनी आवाज के तारों का.
इसलिये जब सोलह जून दो हजार सात, उनकी स्मृति सभा में सभी को कहते सुना कि रामचन्द्र गाँधी अत्यंत सार्वजनिक स्थलों पर भी नितांत निजी स्थान बचाये रखते थे, आश्चर्य नहीं हुआ. आखिर बाह्य संवाद करती उनकी आवाज मूलतः व अंततः आत्म-संबोधित ही होती थी. शायद अद्वैत का अध्येता ही ऐसा कर सकता था, जिसका प्रत्येक बाह्य कर्म आत्म-लक्षित होता था.
परंतु मेरे लिये न तो वे वेदांत के दार्शनिक थे, लेखक न ही चिंतक. उनकी आवाज़ अपने किसी पूर्वज की सी लगती थी जिसकी ध्वनि-शाखों से उतरती मेरी समूची वंशावली मुझे संबोधित करती, मेरे पितृ-ऋण याद दिलाती थी, वे अधूरी शपथ जिन्हें मैं अब तक नहीं निभा पाया था.
क्या ऐसा सिर्फ मेरे ही साथ है या सभी यह महसूस करते हैं- शब्द की सृष्टि में सहमते सकुचाते प्रवेश करते एक नवजात शब्दकार को बुजुर्ग की उपस्थिति- संगति नहीं महज दृश्य पर उपस्थिति- अत्यंत आश्वस्तिदायक लगती है. पीठ पर आहिस्ते से आ ठहरी हथेली, सिर पर कोमल छांह, निरंतर चलता जाता एहसास कि हमारे पुरखे हमारे साथ हैं. निर्मल वर्मा के बाद वह ऐसे दूसरे इंसान थे जिनसे मैं- उनके जाने बगैर, या क्या पता वह जालिक मायावी जानता रहा हो- यह संबंध महसूस करता था.
लेकिन ऐसा क्यों महसूस करता था? जब तक उन्हें अपना पूर्वज नहीं मान लिया था, यह बड़ा रहस्यमय-सा लगता था. निर्मल को तो उनके लेखन से जानता था, लेकिन रामू के साथ यह नहीं था. उन्हें तो सिर्फ सुना था, संयोगवश सबसे पहले निर्मल की स्मृति में बोलते सुना था- पाँच नवंबर दो हजार पांच. वे अंतिम वक्ता थे उस दिन. हाथ झटकते माथे पर बिखर आते सफेद बालों के बीच कह रहे थे, तुम नहीं गये हो निर्मल तुम अभी नहीं गये हो. मुझे याद है शिमला की वे बहसें. तुम इस तरह बीच बहस में बहस अधूरी छोड़कर नहीं जा सकते निर्मल.
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की वह शाम, निर्मल की माला जड़़ी तस्वीर और पगलाये फकीर उस अंतिम वक्ता की वह झनझनाती आवाज. कबीर की उलटबाँसियाँ, बरसे कंबल,भीगे पानी.
उस लम्हे को याद करने के लिये अपनी डायरी के पन्ने टटोलने की जरूरत नहीं है मुझे,वह क्षण ज्यों का त्यों स्मरण है क्योंकि उसके बाद मैंने उस आवाज़ तक पहुँचने की कोशिश शुरु कर दी थी. सबसे पहले गूगल पर गया, पता चला वे बंगाली मार्केट में रहते हैं- पता नहीं रहते हैं या रहते थे, वह पता काफी पुराना लग रहा था. जून दो हजार सात में उन पर श्रद्धांजलि लेखों को पढ़ पुष्टि हुई वे वाकई वहीं रहते थे. उन्होंने ‘मुनियाः अ नैरेटिव इन ट्रूथ एंड मिथ’ लिखी है- इसकी समीक्षा ‘द हिन्दू’ में हरीश त्रिवेदी ने की थी. एक-आध जगह उनकी तस्वीर भी मिलीं और सहसा लगा थॉमस फ्रीडमैन से भले ही कई जगह असहमति हो लेकिन कई और जगह मसलन यहाँ वे एकदम ठीक ही कहते हैं- ऐवरीथिंग इज गूगलेबिल.
नैट पर तलाश के साथ ही याद आया उन्होंने ‘कव्वे और काला पानी’ पर भोपाल में कुछ बोला था जिसे अर्सा हुये कहीं, न जाने कहाँ, पढ़ा था जहाँ उन्होंने ख़ुद को बातूनी बताते हुये बात शुरु की थी. फिर साहित्य अकादमी लाइब्रेरी में खोज बीन शुरु हुई – ‘सीता किचिन’, व्हाइटहैड पर दो लंबे निबंध और सेमिनारों में पढ़े गये कुछ प्रपत्र. कुल मिलाकर कुछ भी ऐसा ठोस नहीं मिला था उनका लिखा या उनके बारे में ही सही जो मेरे सहसा उनसे बंधते जाने को कोई वजह दे.
लेकिन, किसी बुजुर्ग से आरम्भिक लेखक का संबंध किन्हीं किताबों को पढ़ने या उनको समझ लेने के आधार पर थोड़े ही जुड़ता है. कोई अनचीन्ही डोर होती है, एक अदृश्य नस, रक्त सनी एक गर्भनाल जिसके एक सिरे पर हमारे पूर्वज हैं, दूसरे पर हम व बीच में दीर्घ संस्कार. गर्भनाल जो हमें प्राणवायु देती है,हमारा संबंध उस असीम परंपरा से जोड़ती है जिसे हमारे पितामह ने ताउम्र बड़ी शिद्दत से अपने भीतर से गुजर हम तक पहुँचने दिया था. हमें पता भी न चला था,लंबी नींद के बाद सोकर उठे तो अपने को बहती आती नदी के किनारे पाया था.
लेकिन मैंने उन्हें पहली बार कब जाना था? जब ‘धुंध से उठती धुन’ में- क्या यह संयोग है कि निर्मल व रामचन्द्र गाँधी अक्सर मेरे सामने एक संग आते रहे हैं, एक दूसरे को आलोकित करते, एक दूसरे से आलोकित होते- यह पढ़ा था,
28 सितंबर 1987. आज शाम पार्टी है. रामू अमेरिका जा रहे हैं- एक साल के लिये. वह दिल्ली में उन कम,बहुत कम मित्रों में से हैं,जिनसे खुल कर वार्तालाप होता था. उनके न होने से खाली शामों का सिलसिला शुरु होगा….
कौन थे यह रामू जिनके चले जाने पर निर्मल की शामें अकेली पड़ जाने वालीं थीं? उन्हें अधपढ़ी किताबों,अधलिखी कहानियों की ओर लौटना पढ़ रहा था. क्या रामकुमार? लेकिन उनका जिक्र तो राम करके आया ही है ‘धुंध से उठती धुन’ में. फिर ये कौन हैं निर्मल के इतने करीबी?
सोचता रहा, नहीं सूझा. भूल-भाल गया. फिर पांच नवंबर दो हजार पांच की निर्मल स्मृति में उन्हें बोलते सुना तो चौंका- क्या यही वे अमरीका जाने वाले रामू हैं? परंतु नहीं पता चला. अर्सा बाद मई दो हजार सात में अशोक वाजपेयी को उन्हें रामू संबोधित करते सुन एक गहरी सांत्वना मिली- फिर संयोग, उनके जाने से महज पखवाड़ा पहले ही पता चला था कि वे ही रामू थे.
दो
किसी महावृक्ष की उपस्थिति अगर छोटी कोंपल की न्यूनता को बारंबार रेखांकित करती है,उसके अस्तित्व की निरर्थकता को उघाड़ उसे कुछ करने को प्रेरित करती है तो उसे कहीं गहरे भीतर आश्वस्ति भी देती, मुक्त भी करती चलती है कि भले ही अपनी वासनाओं में फंसा, ऐबों में धंसा युवक कुछ न कर पाये, लेकिन कोई है कहीं जो उसके हिस्से के ही नहीं उसकी समूची पीढ़ी के दायित्व अकेला निभा रहा है, वे सभी किताबें पढ़ रहा है जो वह न पढ़ पाया, वह सब लिख रहा है जो वह न लिख सका, उस जगह पहुँच रहा है,जहाँ के दुर्गम रास्ते का ख्याल कर उसके कदम घबराने लगते हैं.
कितना संतोषजनक ख्याल है यह एक कच्चे कमजोर सिपाही के लिये कि उसका सेनापति काल की मचान पर मोर्चा बांधे डटा हुआ है,भले ही सिपाही को नींद आ जाये वह दुश्मन की शक्ति से घबड़ाकर पीछे हट जाये लेकिन उसका सेनानायक बिना शत्रु को ध्वस्त किये चैन नहीं लेगा,रणभूमि से नहीं हटेगा.
इसलिये जब सोलह जून दो हजार सात इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के लॉन में प्रभाष जोशी ने उन्हें भेड़ू महाराज कहा तो मेरी धारणा ही पुष्ट की. जोशीजी बोले कि वे अपने क्रिकेट खेलने वाले बेटे के क्रिकेट खेलने वाले बेटे को पहली बार खादी पहना कर उनसे मिलवाने लाये और पोते से कहा कि चल पैर पड़ इनके और जब लौटते में पोते ने पूछा कि आखिर आपने इनके पैर क्यों पड़वाये तो जोशीजी ने कहा कि वे हमारे भेड़ू महाराज हैं.
मालवा में कालभैरव को भेड़ू महाराज कहते हैं जो पूरे कुटुंब की रक्षा करता है. जोशीजी दोनों हाथ उठाकर सबसे आह्वान करते थे कि सभी उन्हें अपना भेड़ू महाराज मान लें, जो मैं बहुत पहले ही माने बैठा था और लॉन में खड़ा उन जगहों को देख रहा था जहाँ अब तक उन्हें दूर से देखा करता था. इंडिया इंटरनेशल सेंटर के कर्मियों ने हरी प्लास्टिक की उनकी कुर्सी पर फूल रख दिए थे, जहाँ वे कभी बैठते थे, जहाँ मैं उन्हें चोरी छुपे देखा करता था. लंबी लंबी शामें वे उसी कुर्सी पर बैठे बिता देते थे. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर किसी को सुनने या कुछ देखने आया मैं भूल जाया करता आखिर क्यों आया था, बस उन्हें देख वापस चला जाया करता.
आश्चर्य होता मंच पर इतना बतरसी प्रतीत होता व्यक्ति इतनी देर अकेले कैसे बैठे रह सकता है. कुछेक मर्तबा उनके सामने से चलते हुये गुजरा भी, शायद वे एक आध बार देख लें,आवाज दे बुला लें- अरे भाई कौन हो तुम जो यहाँ टुकुर-टुकुर खड़े रहते हो. यह मासूम कल्पना ही थी,खुद को बहलाना ही था. कोई वजह नहीं थी उन्होंने बूँद भर भी गौर किया हो.
चौदह जून दो हजार सात सुबह ‘द इंडियन एक्सप्रैस’ के पहले पन्ने पर नीचे एकदम दांये उनकी तस्वीर देख सहसा चौंक गया. सोकर उठ, बालकनी में आ अभी आँखें मीढ़ ही रहा था उगती धूप में कि अखबारवाले का फेंका अखबार गमले से आ टकराया. रबड़बैंड में बॅंधे, बेलन की तरह मुड़े अखबार पर भूरा कुर्ता व मफलर पहने उनकी तस्वीर मुझे देख रही थी. उन्होंने आखिर ऐसा क्या कर दिया कि वे एक्सप्रैस के मुख्य पृष्ठ पर हैं? अपने में खोया व्यक्ति अखबार में अपनी तस्वीर भला क्यों आने देगा? कोई अवार्ड, पद्मश्री वगैरा मिला क्या? लेकिन पद्मभूषण तो शायद छब्बीस जनवरी से कुछ दिन पहले घोषित किये जाते हैं और इस साल तो दिए भी जा चुके हैं. कोई सद्भावना या सांस्कृतिक सम्मान हाल फिलहाल में उन्हें मिला है क्या?
अधखुली आँखों से अखबार उठाया, रबरबैण्ड हटाया. अभी भी मन में कोई आशंका नहीं थी. अवार्ड नहीं तो शायद उन्होंने कोई किताब लिखी होगी. रबरबैण्ड हटाकर, अखबार झटककर कागज की अकड़न निकाली. सबसे नीचे उनकी तस्वीर के साथ हैडिंग थी- ए फ्रैंड रिमेंमबर्स…… फ्रैंड रिमेंमबर्स!!
आखिर कौन-सा दोस्त है जो उन्हें याद कर रहा है? और फिर याद कर ही क्यों रहा है? ये क्या खबर हुई फ्रंट पेज पर आने लायक! दोस्त की याद पहले पन्ने पर क्यों आयेगी? मृणाल मिरि अपनी याद को इस तरह क्यों अखबार में छपवा रहे हैं?
अब तक कुछ न समझता या शायद न समझने का बहाना करता मैं सहसा अटक गया था. डेढ़-दो साल पहले इसी एक्सप्रैस के पहले पन्ने पर सबसे नीचे ठीक इसी जगह प्रतीक कंजिलाल का स्मृति लेख था निर्मल पर जब वे गये थे. हड़बड़ाती घबड़ाती निगाह पूरी खबर पर सरसरायी थी,आलस के बजाय आँखें एकदम चौकन्नी थीं. उनकी तस्वीर के नीचे हाइफन से विभाजित दो तारीखें दर्ज थीं. हाइफन के बांयी ओर की तारीख नौ जून उन्नीस सौ सैंतीस, दांयी तारीख तेरह जून दो हजार सात. कल. पिछला कल. बीता हुआ कल.
परंतु नहीं. वे अभी भी हैं. यहीं कहीं,बहुत नजदीक. आज भी. इसी वक्त. मेरी उँगलियाँ लैपटॉप के की-बोर्ड पर टकटका रही हैं, यह पंक्तियाँ स्क्रीन पर उभर रहीं हैं और मुझे कुछ सूझता है मैं लिखना छोड़ फाइल मिनिमाइज करता हॅूं…डैस्कटॉप पर हाथ बांधे खड़े उनकी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर,गूगल से कभी उतारी तस्वीर. अखबार की तस्वीर से कहीं युवा तस्वीर. कुर्ता,बास्केट,मफलर. ऊँचा,बहुत ऊँचा माथा, बीच की मांग, नहीं, एकदम बीच की नहीं,तस्वीर में तनिक भर दाहिने दीखती मांग जो असलियत में बाँयी ओर रही होगी. दोनों ओर गिरते चांदी सफेद बाल. उनकी बांयी कलाई पर बंधी कुर्ते की आस्तीन छूती काले पट्टे की घड़ी पट्टे का निचला सिरा लुप्पी से इंच भर बाहर निकला हुआ. चमकता डायल. किसी वृक्ष के नीचे खड़े हैं वे,पीछे पानी का कुंड और कोई पुरानी सी इमारत धुंधलायी सी. शायद कोई मकबरा है शायद लोधी के ही बगीचे हैं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर गोद में बैठा है जिनकी.
तीन
सेंट स्टीफ़ेंस से पढ़ाई करने के बाद रामू ने ऑक्सफ़ोर्ड से डॉक्टरेट की, और फिर सत्तर के दशक में शिमले के उच्च अध्ययन संस्थान में फ़ेलो बन कर आ गए जहाँ उनके साथ निर्मल वर्मा, मृणाल मिरि और सुधीर चंद्र भी फ़ेलो हुआ करते थे. क़रीब साढ़े चार दशक बाद जब मैं ख़ुद इस संस्थान में फ़ेलो बनकर आया, मेरे भीतर रामू पर किताब लिखने की आकांक्षा कुलबुला रही थी.
उनपर एक किताब लिखने की आकांक्षा लिए मैं पिछले वर्षों में उनके कई परिजनों और करीबी दोस्तों से मिला हूँ. सभी ने मेरी उस आरम्भिक धारणा की पुष्टि की है कि महात्मा गांधी का पोता और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का धेवता स्वतंत्र भारत की सबसे विलक्षण मेधावी शख़्सियत में शुमार था. उनके करीबी मित्र आशीष नंदी मुझसे बोले कि रामू के भीतर कुछ ऐसी अद्भुत प्रतिभा थी कि वे किसी भी विषय या प्रश्न को बड़े मौलिक और एकदम अप्रत्याशित जगह ले जा सकते थे. जब रामू व्याख्यान दिया करते थे, तो भारत की विराट विभूतियाँ पीछे बैठकर नोट्स लिया करती थीं, जिनमें ख़ुद आशीष नंदी शामिल थे. रामू के शायद सबसे पुराने मित्र, सेंट स्टीफ़ेंस के दिनों के मित्र प्रोफ़सर आर राजारमन, जो ख़ुद प्रतिष्ठित भौतिक विज्ञानी हैं, एक पुरानी घटना याद करते हैं. जब वे उच्च अध्ययन के लिए बाहर जा रहे थे, रामू उनसे स्टेशन पर मिलने आए थे. बाईस बरस के रामू चलते-चलते उन्हें एक नोटबुक दे गए थे, जिसमें उनके उन दिनों के प्रिय दार्शनिक क़िर्केगार्द के रामू लिखावट में तमाम उद्धरण थे. प्रोफ़सर राजारमन ने वह नोटबुक मुझे दिखाई- लगभग पैंसठ वर्ष हो गए, उन्होंने अपने दोस्त की स्मृति बहुत सहेज कर रखी हुई थी.
यह शायद अनिवार्य था. रामचंद्र गुहा जो उनसे उम्र में बीस बरस छोटे थे, कहते हैं,
“रामू से मेरे क़रीब तीन दशक लम्बे परिचय के दौरान मेरी उनसे अनगिनत मुलाक़ातें हुईं, और हर बार जब मैं उनसे मिलकर लौटा, तो भारत और भारतीय सभ्यता के बारे में नयी अंतर्दृष्टि लेकर लौटा.”
गुहा यह भी कहते हैं कि
“इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के मंच पर रामू जैसा विलक्षण वक़्ता कोई और नहीं हुआ, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की दहलीज़ पर उन जैसे किसी अन्य विलक्षण विद्वान के कदम नहीं पड़े.”
गुहा के इस कथन की ताईद रामू के सभी मित्र करते हैं.
मैं ख़ुद गवाह रहा हूँ. मसलन सर्दी की एक शाम इंडिया इंटरनैशल सेंटर एनैक्सी में श्याम बेनेगल मंच पर थे, और दर्शकों में बैठे रामू सहसा फ़िल्मकार से बोले कि
“भारतीय सिनेमा को अपनी आत्मा में एपिक रियेलिटी समाविष्ट करने का प्रयास करना चाहिये.”
एपिक रियेलिटी. मुझे नहीं मालूम उनका इससे क्या अभिप्राय था लेकिन उन्होंने रियेलिटी के प्रचलित अर्थ यानी यथार्थ को इंगित नहीं किया होगा, ज्ञानमीमांसीय नहीं बल्कि तत्वमीमांसीय संकेत उनका ध्येय रहा होगा.
एपिक रियेलटी- महाकाव्यात्मक यथार्थ नहीं बल्कि महाकाव्यात्मक सत्य. ऐसा सत्य जो स्वतः प्रमाण्य है,अपनी वैधता के लिये परतः प्रमाण्य नहीं है, किसी बाह्य प्रमाण पर निर्भर नहीं है. भारतीय सिनेमा या कलाकृति के संदर्भ में यह सत्य ऐसी एपिक अनुभूति को प्रस्तावित करता है जो मनुष्य को काल के तात्कालिक दवाब से मुक्त कर त्रिकाल में स्थित करती है.
लेकिन एपिक अनुभव जरूरी नहीं किसी कलाकृति से संबद्ध हो कर ही आये, आवश्यक नहीं उसमें असीम विस्तार हो, प्रत्येक वह अनुभव जो मनुष्य को संकुचित काल चेतना से मुक्त करता है, एपिक हो जाने की संभावना रखता है.
व्यक्ति के चले जाने के बाद उसकी आवाज़ सुनना भी एपिक अनुभव ही है. अठारह जुलाई दो हजार सात महर्षि रमण पर रामचन्द्र गाँधी का आख्यान. फिर से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का सभागार और रिकार्डर पर चलती वही आवाज. कार्यक्रम शुरु होने से पहले उद्घोषिका ने बताया था कि रामू इस आख्यान को ले अत्यंत उत्साहित थे. उनके न रहने पर उनकी कोई पुरानी रिकॉर्डिंग सुनायी जा रही थी. सहसा मुझे याद आया था, उन्होंने साहित्य अकादमी की किसी सेमिनार में प्रपत्र पढ़ा था —
“ टी एच से खत्म होने वाले अंग्रेजी शब्द बड़े ही सारगर्भित होते हैं. डैथ,ट्रूथ,मिथ. मिथ व ट्रूथ में तो बड़ा गहरा संबंध है. मिथ याने माई ट्रूथ.”
जो व्यक्ति नहीं रहा था, उसकी आवाज, रिकार्डर पर चलती सिर्फ आवाज सुनने के लिये सभागार भरा हुआ था. वह आवाज उनका अपना सत्य थी जो सभागार में उपस्थित श्रोताओं का मिथक बन रही थी.
एपिक व मिथक में गहरा सम्बंध है. मिथक सामुदायिक स्मृति व संस्कार का एक अंग है, एपिक इस स्मृति और संस्कार को उनकी संपूर्णता में अभिव्यक्त करने की आकांक्षा लिए जीता है. दोनों ही अपनी स्वतंत्र सत्ता रचते हैं. एपिक की भांति मिथक भी स्वतः प्रमाण्य है, अपना सत्व आप ही निर्धारित, प्रमाणित करता है. मिथक की काया में महाकाव्य सरीखा विस्तार अंतर्निहित भले न हो, परंतु वह भी मनुष्य को उसकी सामुदायिक स्मृति से संपृक्त कर इतिहास के तात्कालिक आवेश से मुक्त करता है.
और मैं….इस मिथक यानी माई ट्रूथ का साक्षी हूँ. कुछ स्मृति प्रतीकों के साथ. सोलह जून दो हजार सात को समेटे कुछ चिन्हों के साथ. सोलह जून की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के लॉन में किताबों व निजी वस्तुओं की प्रदर्शनी सी सजी हुई है. गर्मी व उमस है. सेंटर की दीवार से परे लोधी गार्डन के पेड़ों के पीछे ग़ायब होती धूप है. विस्मित सा खड़ा मेज पर सजी चीजें देखता रहता हूँ. यह रामचन्द्र गाँधी की निजी चीजें हैं. हम अपनी पसंद की किताब या वस्तु उनकी स्मृति बतौर ले जा सकते हैं. निर्मल, कृष्ण बलदेव वैद की अनेक किताबें हैं- ‘अंतिम अरण्य , ‘ख्वाब है दीवाने का’, ‘काला कोलाज’. निर्मल के जाने के बाद उन पर केंद्रित कई पत्रिकाओं के अंक.
‘पूर्वग्रह‘ का पुराना अंक, संस्कृत कैसे सीखें, ‘सीता किचिन’ ,तैयब मेहता की पेंटिंग पर लिखी ‘स्वराज्य’, उपनिषद, कुछ कुर्ते, मफलर, पेंसिल , सफेद लिफाफे, और भी बहुत कुछ. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के कर्मचारी विनती करते हैं एक व्यक्ति को सिर्फ एक किताब लेनी चाहिये ताकि सबको किताबें मिल सकें. हिंदी की एक बड़ी कवयित्री ने पेट भर किताबें उठा अपने झोले में भर ली हैं.
मैं देर तक देखता रहता हूँ. मेज धीमे-धीमे खाली होती जा रही है. पेंसिल लेकिन अभी भी बची हैं. किसी का शायद ध्यान तक नहीं गया है उन पर. आहिस्ते से कुछ पेंसिल उठाता हूँ. नीले रंग की STAEDTLER Mars Lumograph Made in Germany 4B पेंसिल . 1.2 डॉलर की एक पेंसिल . वही Friedrich Staedtler जिसने न्यूरैंमबर्ग में पेंसिल बनाने का दुनिया का सबसे पहला कारखाना 1662 में स्थापित किया था. क्या ये सृष्टि की पहली पेंसिल है?
दो पेंसिल बिन छिली हैं. दो पेंसिल छिली हुई हैं- नोंक बहुत ही तीखी है. बचपन में हम पेंसिल छील नोंक का नुकीलापन महसूस करने के लिये अपने गाल पर चुभाते थे. नोंक पैनी करने के लिये बार-बार छीलते थे,पेंसिल दो दिन में ही खत्म हो जाती थी, पेंसिल जल्दी खर्च कर देने के लिये माँ की डांट पड़ती थी. रामू की नीली पेंसिल अपने गाल पर चुभोई…..महीन सी चुभन. क्या वे भी हमारी तरह बार-बार पेंसिल छीलते नुकीली करते थे बचपन में अपनी माँ की डांट खाते थे. कुछ दिन पहले तक इन्हीं पेंसिलों से उन्होंने अपने रफ नोट्स बनाये होंगे,किताबों के हाशिये पर लिखा होगा. आज ये पेंसिल मेरी उॅंगलियों में सरसराती हैं. नीली नीली लंबी पेंसिल . रघुवीर सहाय ने लिखा है शायद नीले रंग के बारे में- एक रंग जो नीला होता है, एक जो तेरे कंधे पर आकर नीला होता है. एक रंग जो इस पेंसिल पर आकर नीला हुआ है. मिथ. ट्रूथ. माई ट्रूथ. नीला मिथक. नीला सत्य. मेरा सत्य.
नीली ये पेंसिल उॅंगलियों में सिहरती हैं. न जाने कहाँ से उमड़ती आतीं,न जाने क्यों घुमड़ती आतीं,दो पंक्तियाँ याद आती हैं. पहली, स्टीफन डैडलस की ‘द पोर्टे्र्ट ऑफ़ एन आर्टिस्ट एज अ यंग मैन’ में अंतिम अभिलाषा- “अपनी रुह की भट्टी में अपनी प्रजाति की अजन्मी चेतना गढ़ देना चाहता हूँ.”
दूसरी, अनंतमूर्ति के आग्रह पर कीमती मो-ब्लांक पैन खरीदने पर निर्मल वर्मा की झिझकती, सिमटती हुई सी आकांक्षा –
पहली बार मो-ब्लांक से अपनी डायरी शुरु कर रहा हूँ, इस कलम को खरीदने की सजा यही है कि इससे कोई झूठा शब्द न लिखा जाना चाहिये-इच्छा होने पर भी नहीं.
जब भी अपनी अलमारी में सहेज कर रखी इन नीली पेंसिलों को छूता हूँ, लगता है वे शायद इन्हें मेरे लिये ही छोड़कर गये थे. उन्हें शायद मालूम था कि जो इंसान जिस जगह उन्हें चोरी-छिपे देखा करता था वह सोलह जून को उसी जगह आयेगा जहाँ ये नीली पेंसिलें रखी होंगी. लोघी के बागों की धूप होगी मेज पर अटी किताबों के बीच नीली पेंसिल चुपचाप रही आयेंगी. सिर्फ उस इंसान की प्रतीक्षा में.
क्या यह एक तुतलाई कल्पना है.
कभी-कभार नितांत अतार्किक कल्पनायें भी कितना सुकून देती हैं. फिर से जी उठने का मन हो आता है. वासनायें घुल-धुल कर बहने लगती हैं. क्या यही मिथकीय अनुभव है? एक स्वतः प्रमाणित सत्य, जो अपनी वैधता के लिये किसी ऐतिहासिक साक्ष्य पर निर्भर नहीं है. मिथ यानी माई ट्रूथ. किसी के चले जाने के बाद उसकी STAEDTLER Mars Lumograph 4B नीली पेंसिल छूना,कागज पर उससे कहानी का पहला वाक्य लिखना शायद एक मिथकीय अनुभव है, जो महाकाव्य हो जाना चाहता है.
लेखक पत्रकार आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह, एक आलोचना पुस्तक, संस्मरण, डायरियां इत्यादि प्रकाशित हैं. चार बार रामनाथ गोयनका सम्मान से पुरस्कृत आशुतोष 2015 में रॉयटर्स के अंतर्राष्ट्रीय कर्ट शॉर्क सम्मान के लिए नामांकित हुए थे. उन्हें भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, और प्राग के ‘सिटी ऑफ़ लिटरेचर‘ समेत कई फेलोशिप मिली हैं. दंडकारण्य के माओवादियों पर उनकी उपन्यासनुमा किताब, द डैथ स्क्रिप्ट, हाल ही में प्रकाशित हुई है. उन्हें ‘पितृवध’ के लिए आलोचना का देवीशंकर अवस्थी सम्मान भी मिला है. इंडियन एक्सप्रेस से सम्बन्धित हैं. abharwdaj@gmail.com |