निर्देशक नवदीप सिंह की हिंदी फ़िल्म ‘एन.एच.-१०’ ऑनर किलिंग’ के मुद्दे को गम्भीरता से उठाती है. इस फ़िल्म पर समालोचन में आपने सारंग उपाध्याय का लेख पढ़ा है. जय कौशल की टिप्पणी कुछ जरूरी सवालों के साथ.
ऑनर किलिंग और एन.एच. – १०
जय कौशल
‘ऑनर किलिंग’ असल में अपने परिवार अथवा सामाजिक समूह के सदस्यों की उसी परिवार या सामजिक समूह के अन्य सदस्यों द्वारा मिलकर अंजाम दी गई हत्या है. माना जाता है कि \’भूलकर्ता या अपराधी\’ ने जानबूझकर एक ऐसा अपराध किया है, जो उसके परिवार और उस सामजिक समूह की पीढ़ियों से कमाई इज्जत को मिट्टी में मिलाकर रख देगा. इसलिए अपनी इज्जत बचाने और भविष्य में ऐसे ’अपराध’ न होने देने के लिए \’भूलकर्ता\’ का \’इलाज\’ करना जरूरी है. जाहिर है, इसकी ज्यादातर शिकार लड़कियाँ अथवा महिलाएँ बनती हैं. ‘ऑनर किलिंग’ के लिए निम्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं :
1. सगोत्र (कुल या परिवार के भीतर) विवाह या सम्बन्ध
2. अपनी इच्छा से परिवार, जाति अथवा धर्म के बाहर प्रेम-विवाह या सम्बन्ध
3. विवाहेतर सम्बन्ध
4. समलैंगिक सम्बन्ध
5. परिवार या समुदाय की कथित संस्कृति के विरुद्ध पहनावा
इनमें प्रथम दो कारणों से ‘ऑनर किलिंग’ के सर्वाधिक मामले सामने आए हैं. समाजशास्त्रियों के अनुसार इसकी प्रमुख वजह कथित जाति-व्यवस्था की कठोरता और धर्म की कट्टरता है. समाज के ठेकेदारों को भय लगने लगता है कि कहीं ऐसे मामलों से उनकी जाति या धर्म की शुद्धता, पारम्परिकता और इसकी वजह से मिल रहे लाभों पर आँच आ जाएगी. इसलिए अपराधियों को सबक सिखाना जरूरी है. गौरतलब है कि 1947 में भारत-विभाजन के दौरान ‘ऑनर किलिंग’ के काफी मामले सामने आए थे. इसके बाद से यह मसला बढ़ता ही गया है. पिछले कुछ सालों में इस जघन्य समस्या ने भारत एवं अरब-देशों सहित दुनिया भर में विकराल रूप धारण कर लिया है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि इज्जत के नाम पर दुनिया भर में हो रही हत्याओं में हर पांचवीं भारत में हो रही है. यही वजह है कि इन दिनों यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय चर्चा के केंद्र में है. इस पर लगातार चिन्तन-मनन और लेखन जारी है.
हाल ही में निर्देशक नवदीप सिंह ने NH10 नाम से एक फिल्म बनाई है, जिसमें इसी \’ऑनर किलिंग\’ को मुद्दा बनाया गया है. यों पहले भी इस पर फ़िल्में बन चुकी हैं. 2013 में पॉवला क्वेस्किन द्वारा लिखित एवं निर्मित \’ऑनर डायरीज\’ ऐसी ही फिल्म है. पॉवला के अनुसार, \’2013 में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री का इंटरफेथ अवार्ड पाने वाली \’ऑनर डायरीज\’ इज्जत के लिए की जाने वाली हिंसा के मुद्दे पर बनी अपनी तरह की पहली फिल्म है. इसमें इज्जत के नाम पर शिकार रह चुकी मध्य एशिया की नौ मानवाधिकार कार्यकर्ता महिलाओं की खुलकर बातचीत उन्हीं की जबानी दिखाई गई है. इसी वर्ष हिन्दी में इसे लेकर मिलिंद उके ने देहरादून डायरीज नाम की फिल्म बनाई थी, उससे पहले निर्माता–निर्देशक अजय सिन्हा ’खाप’ शीर्षक से एक फ़िल्म बना चुके थे लेकिन NH10 इस प्रसंग पर अब तक की हिन्दी में सबसे गंभीर बल्कि किसी भी संवेदनशील मन को झकझोर देने वाली फ़िल्म है.
नवदीप ने दिल्ली और उसके आस-पास के गाँवों तथा छोटे शहरों में अक्सर होने वाली ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं को फ़िल्म का केन्द्र बनाया है और उसके बहाने पितृसत्ताक व्यवस्था, महिलाओं को लेकर हमारे समाज की जड़, अश्लील और हिंसक सोच, तथाकथित ‘भारत-माता ग्रामवासिनी’ तक संविधान की पहुँच, पुलिसिया रवैये आदि पर प्रहार किया है. इसकी नायिका मीरा (अनुष्का शर्मा) एक ऐसी लड़की है, जिसके लिए प्रेम-प्यार, महानगर की नौकरी, हाई-क्लास सोसायटी और शॉपिंग मॉल और वीकेंड पर अपने पति अर्जुन (नील भूपलम) या दोस्तों के साथ मौज-मस्ती ही जैसे जीवन है. लेकिन वह महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के प्रति भरपूर जागरूक है, पितृसत्ताक-व्यवस्था से वाकिफ़ है. उसे औरतों को लेकर दी जाने वाली गालियाँ बर्दाश्त नहीं, अगर सार्वजनिक टॉयलेटों या दीवारों पर कहीं उसे कोई अश्लील शब्दावली लिखी दिख जाती है, तो वह तुरंत कपड़ा लेकर उसे पोंछने में जुट जाती है. पुलिस और संविधान में उसका विश्वास है. इस देश में जेंडर और जाति की अस्मिता की सुरक्षा इतना बड़ा मुद्दा है कि उसकी पूरी गारंटी हम महानगरों तक में नहीं दे पाए हैं, गाँवों की तो बात ही बेमानी-सी है, फ़िर भी बहुत फर्क है इस ‘इंडिया’ और भारत में, जिसे NH10 फ़िल्म में जेंडर और जाति के नजरिए से दिखाया गया है.
ऐसा नहीं है कि महानगरों में महिलाओं के साथ अपराध नहीं होते या वहाँ जाति-प्रथा जड़ से नष्ट हो चुकी है. वहाँ भी रात में या सुनसान इलाकों में महिलाएँ असुरक्षित हैं, वहाँ भी यही मानसिकता है कि ऐसी ‘संकट’ की स्थितियों में स्त्री के साथ किसी परिचित पुरुष का होना जरूरी है, फ़िल्म में भी इसे दिखाया गया है. अर्जुन और मीरा देर रात एक पार्टी में गए हैं, वहाँ से मीरा को अपने ऑफ़िस में होने वाली एक प्रॉडक्ट लांचिंग के लिए लौटना पड़ता है. रास्ते में उस पर दो मोटरसाइकिल सवार हमला कर देते हैं. मीरा और अर्जुन इस हमले की रिपोर्ट दर्ज कराने थाने जाते हैं, जहाँ पुलिसवाला अर्जुन को सलाह देता है कि, ‘देर रात औरत को अकेले जाने ही क्यों देते हैं’ और अगर जाना जरूरी ही हो तो इन्हें लाइसेंसी गन साथ में रखनी चाहिए, क्योंकि, ‘यह शहर बढ़ता बच्चा है, कूद तो लगायेगा ही’. इस सबके बावजूद महानगरों में ‘खाप’ का वैसा आतंक नहीं है, प्रेम करने के लिए ‘गोत्र’ की छान-बीन प्राय: नहीं की जाती, अब विवाह के लिए जाति को तरजीह देना भी थोड़ा शिथिल पड़ने लगा है. लापरवाही और पक्षपात के लिए प्रसिद्ध हमारी पुलिस द्वारा महानगरों में खुलकर सामाजिक-अपराध करने वालों का साथ नहीं दिया जाता. जी हाँ, महानगर अस्मिता-उत्पीड़न से मुक्त नहीं हैं लेकिन गाँवों और छोटे शहरों की तरह डंके की चोट पर वहाँ यह जारी भी नहीं है. वीकेंड पर मीरा का पति अर्जुनअपनी पत्नी का जन्मदिन मनाने के लिए गुड़गाँव के ग्रामीण इलाके में एक प्राइवेट विला बुक करता है. जहाँ जाते समय रास्ते में वे एक ढाबे पर कुछ खाने के लिए रुकते हैं. वहीं मीरा को एक लड़की मिलती है, जो उससे अपने पति को बचाने के लिए मदद की गुहार करती है. लेकिन तत्काल मीरा उसके मामले में पड़ने से खुद को बचा लेती है. यह हमारे तथाकथित सभ्य और महानगरीय समाज का सच है. हमारी संवेदनशीलता का दायरा इस तरह सिकुड़ रहा है कि हम जल्दी से किसी के दु:ख में शामिल नहीं होते. तभी दृश्य आता है कि उसी लड़की का सगा भाई और गाँववाले मिलकर उसे और उसके पति के साथ मारपीट रहे हैं, सारा गाँव उन्हें देख रहा है, लेकिन कोई उनको बचाने में मदद नहीं करता. सबको पता है कि लड़के-लड़की ने एक ही गोत्र में होने के बावजूद आपस में शादी की है, जो कि ‘खाप’ की नजर में एक सामाजिक-अपराध है, इज्जत का मामला है. इसमें जो भी मदद करेगा, वो ‘खाप-न्याय’ का विरोधी माना जाएगा और उसके साथ भी वही सुलूक किया जाएगा जो लड़के-लड़की के साथ किया जाना है-यानी सामूहिक हत्या. लेकिन अर्जुन को यह नहीं पता था, वह एक सामान्य नागरिक की तरह लड़के-लड़की की मदद करना चाहता है, जिसके बदले में उसे एक झन्नाटेदार थप्पड़ मिलता है.
मीरा के पास वही लाइसेंसी गन मौजूद है, जो उसने दिल्ली में रात-बिरात अकेले चलने पर अपनी सुरक्षा के लिए ली थी. अर्जुन गन लेकर जंगल में उस ओर घुस जाता है, जहाँ गाँववाले गए हैं ताकि उन्हें डराकर लड़की-लड़के को मारने से बचा सके. लेकिन वहाँ मामला उलटा पड़ जाता है. मीरा और अर्जुन के सामने बर्बरतापूर्वक न केवल लड़के-लड़की को मार दिया जाता है बल्कि इन दोनों के साथ भी मारपीट की जाती है. एक पागल आदमी इनकी गाड़ी की चाबी ले लेता है, जिसे छीनने के क्रम में अर्जुन के हाथों गोली से उसकी हत्या हो जाती है. इसके बाद अर्जुन और मीरा की यातना का सिलसिला शुरू होता है. मीरा गंभीर रूप से घायल अर्जुन को एक रेलवे ब्रिज के नीचे छोड़ती है और सबसे पहले कानून के रखवालों के पास नजदीकी पुलिस थाने में मदद की गुहार के लिए निकल पड़ती है, लेकिन गाँव की पुलिस कानून और संविधान से नहीं अपने समाज और खाप के निर्णयों के अनुसार चलती है. पुलिस-वाले उसकी सहायता नहीं करते बल्कि उल्टे अपराधियों की तरह बर्ताव करते हैं. आखिर मीरा किसी तरह खोजते हुए सरपंच के घर पहुँचती है. इसे लोकतन्त्र में उसकी आस्था के तहत देखा जाना चाहिए. मीरा को नागरिक सुरक्षा की जिम्मेदार पुलिस और ग्राम-स्वराज्य की पैरोकार सरपंच दोनों से कोई मदद नहीं मिलती. फ़िल्म में गाँव की सरपंच के रूप में एक दबंग स्त्री (दीप्ति नवल)को दिखाया गया है, जो मारी गई लड़की और उसके हत्यारे भाई की सगी माँ भी है.
दीप्ति का किरदार यहाँ बेहद सशक्त बन पड़ा है. यह चरित्र बखूबी दिखाता है कि औरतें भी पितृसत्ताक व्यवस्था की वाहक होती हैं. तो मीरा जिस सरपंच से मदद माँगने पहुँची थी, वहाँ भी स्थानीय पुलिस की तरह उसे पकड़ लिया जाता है. लेकिन वह हत्यारों की ही गाड़ी लेकर वहाँ से भाग निकलती है, जो न केवल अर्जुन की हत्या कर अपने घर लौटे थे, वरन् उसी के खून से दीवार पर मीरा के लिए गन्दी गालियाँ भी लिखकर आए थे. सार्वजनिक शौचालयों तक में स्त्रियों को लेकर लिखी गालियों के प्रति संवेदनशील रहने वाली मीरा अपने पति की हत्या और अपने स्त्रीत्व को दी गई गालियों से इस कदर निराश और उत्तेजित हो जाती है कि प्रतिक्रियास्वरूप लड़के-लड़की और अपने पति को मारने वालों की जान ले डालती है. वस्तुत: मीरा का यह कदम लोकतन्त्र में उसकी उठ चुकी आस्था के रूप में देखे जाने की माँग करता है. इसके बावजूद हरियाणा की बेहद रियलिस्टिक लोकेशनों पर फ़िल्माई गई इस मूवी के अंत पर सवाल उठाए जा सकते हैं क्योंकि जो फ़िल्म ‘ऑनर किलिंग’ को केन्द्र में रख कर चल रही थी, उसका अंत ‘किलिंग’ में जाकर होता है. पर समझना यह भी चाहिए कि मीरा पारम्परिक हिंदी फिल्मों की पिछलग्गू प्रेमिका और पत्नीकी तरह नहीं है. अपने पेशे में सफल मीरा जबकठिन परिस्थितियों में उलझती है तो खुद को संभालती हुई अप्रत्याशित फैसले लेती दिखाई देती है, इन विकट स्थितियों में फंसी मीरा की लाचारगी जाहिर है. बख़ैर,जिन्हें आजकल भी अखबार में छपी अपराध की ऐसी घिनौनी खबरें कहानियाँ-सरीखी लगती हैं या जिनके लिए भारत के गाँवमहज ‘सीधे’,’श्लील’, ‘अहिंसक’ और ‘अपनत्व की संस्कृति’ से युक्त हैं तथा महानगर सिर्फ़ ‘धूर्त’, ‘अश्लील’‘हिंसक’ और ‘अजनबीपन’ से भरे हैं, उन्हें एक बार ये फ़िल्म जरूर देखनी चाहिए.