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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : नूतन डिमरी गैरोला

सहजि सहजि गुन रमैं : नूतन डिमरी गैरोला

नूतन डिमरी गैरोला  की इन कविताओं में उनकी काव्य – यात्रा का विकास दीखता है. संवेदना  और शिल्प  दोनों ही स्तरों पर वह परिमार्जित हुई हैं. कविताएँ अनुभवों की सघनता और सच्चाई से आश्वस्त करती हैं. लगभग सभी कविताओं में उनका ‘लोकल’ है. इस स्थानीयता के खुरदरेपन से वे अपना एक संदर्भ पाती हैं और […]

by arun dev
July 29, 2015
in Uncategorized
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नूतन डिमरी गैरोला  की इन कविताओं में उनकी काव्य – यात्रा का विकास दीखता है. संवेदना  और शिल्प  दोनों ही स्तरों पर वह परिमार्जित हुई हैं. कविताएँ अनुभवों की सघनता और सच्चाई से आश्वस्त करती हैं. लगभग सभी कविताओं में उनका ‘लोकल’ है. इस स्थानीयता के खुरदरेपन से वे अपना एक संदर्भ पाती हैं और हस्तक्षेप करती हैं. 
उनकी पांच कविताएँ.

नूतन डिमरी गैरोला की कवितायेँ                

सोच

संघर्षों की कथा जीने की कथा है
कि नहीं की जाती है हर कथा हर बार दर्ज
नहीं होता है उनका कोई दस्तावेज़ कोई लेखा जोखा
गर्म हुए लोहे पर चलते हथौड़े की तरह
शीत युद्ध में व्याकुल विचारों की तरह
दिमागों में रिश्तों के, जातियों के, नीतियों के, समाजो के, भाषा के, राष्ट्रों के, स्त्री पुरुष के
जुगुप्सा भरते हुए दृश्य.
नहीं मिलेगा इनका कोई निशान
किसी सफे पर या किसी संगणक में.
दर्ज किये गए आख्यान और मुद्रालेख
किसी तिरोहित कुंजी के लिए अभिशापित हैं
जिनको डीकोड करना यूँ आसान नहीं कि कह दो खुल जा सिम सिम
और दस्तावेज चाबी के बाद हाज़िर हो जाएँ.
ये खुलेंगे जैसे खुलने पर भीतर टिमटिमाता हो एक विचार.
वह जितना विरोध करते हो उतना ही शक्तिशाली हुए जाता हूँ मैं
विरोध के इन संघर्षों ने मुझे कन्धों पर टिका नहीं दिया है कि लिए जा रहे हो मेरी लाश ……
सहस्त्र हाथ ऊपर से मैं जा टिका हूँ उनके मस्तिष्क पर
इसे नफरत कह लो या मेरे लिए प्यार
कभी जब सहलाता हूँ मैं उनका माथा
उनकी धमनियों में उबलता हूं मैं और किसी के विचारों में किरकिराता हूँ
कभी गुद्दियों में खुजलाता हूँ मैं
मुझे मालूम है मैं स्वीकार्य नहीं
कि उनके लिए ज्यादा अनिवार्य है
विरोध और संघर्ष की छद्म आग को हवा देना कि उनका सूत्रपात वहीँ से होता है
नजरअंदाज कर दिया जाता हूँ या
गुमनाम रख दिया जाता हूँ मैं
कि जैसे अनाम रख दिया जाता है कोई नाम और उसका लेख
और वहीँ कहीं अंधेरों में दफ़न कर दिए जाते हैं विचार
कुण्डियों वाले कपाटों के तहखानों में.
मैंने देखा है अक्सर हुंवा हुंवा करता सियारों का सरदार
कि सारे सियार जिसके पीछे पीछे मुंह फाड़ कर हुंवा हुंवा कर शोर मचाते हैं
अर्थ जो भी हो उन विकट स्वरों का
एक अकेला कुत्ता गली का दुम दबा कर छुप जाता है
चिंचियाता-सा
सियार जब चले जाते हैं कुत्ता सौ बार सोचता है भौकने से पहले
अबकी बार उसे भी शामिल होना होगा
सड़क पर गिरोह बना कर चलने वाले लेंडी कुत्तों में|

स्त्रियाँ

 गुजर जाती हैं अजनबी जंगलों से
अंधेरों में भी
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वह जानती हैं
सड़क के किनारे तख्ती पर लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है
और वह पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा
फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों के बीच से 
कांपती है रूह उनकी
कि
तख्तियां
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं
यह कि
सावधान! यहाँ आदमियों से खतरा है

 पहाड़ की वह दुकान

लाल नाक को ऊँगली के पोरों से गरम करते हुए
जैसे पूरी एवरेस्ट की ठंडी चोटी भींच ली हो हथेली में
कि पिघलनी हो बरफ बाकी
और उंगलियाँ ठण्ड से थरथराती हों
फिर भी पहाड़ की चोटियों में उतरते चढ़ते हुए
गरमी का अहसास भरते लोग,
कि याद आते हैं
चाय के गिलास
जिन्हें हाथों में थाम पहाड़ी सड़कों के किनारे चाय का सुढका मारते दिन  ,
एक सौंधी खुशबू, मिट्टी लिपी केतली की
और चीड़ से उठते धुंवे की,
छोटा सा वह कमरा
जिसमे आधा उकड़ू आदमी भर खड़ा हो सकता है
कि मिट्टी के फर्श से थोड़े ही ऊपर होती है लकड़ी की छत
गुनगुने को सिमटा के रख लेती थी जो खोखे के आलिंगन में …..
एक अदद लकड़ी के चौड़े फ्रेम की संकरी लम्बानुवत खिड़की
धूप के साए रेशा रेशा हो आते हो भीतर पर ठंडी हवाओं की नो एंट्री
फिर वहीँ पर गर्म गर्म पकोड़े जलेबी छोले हलुवा
अदरक मिली चाय के साथ
लकड़ी की बेंच और खपची पर अटकी मेज जिसकी टांगें हिलती हुई
छिड़ती थी वहीँ बात मनसुख की बाँझ गाय की और नरबक्षी बाघ की
बाघ को शिकार बनाया गया था, जहाँ जरिया गाय की मृत देह थी जहर से भरी हुई
बाँझ थी किसी काम की न थी
और उस रीछ के  आतंक के किस्से  जिसने
परसों खेत में निवृत होने जाती सोणीदेवी के
चेहरे पर एक पंजे का वार किया था
और निकाल डाली दी थी आँख उसकी
शहर अस्पताल ले जाने के लिए गाँव वालों को कोई आँख न मिली थी
कोई बस वहां खड़ी नहीं थी, न ही कोई सड़क थी वहां
और वहीँ चाय के खोखे में कोई ट्रेकिंग  के लिए
चाय के ग्लास के साथ पहाड़ का नक्शा उतार लेता था
कि कौन सा रास्ता कम खतरनाक और छोटा हो
गाँव और खेतों से कई पहाड़ ऊपर
उसे देखने हैं बुग्याल, करने है पार ग्लेशियर और पहुंचना है स्वर्गारोहिणी
स्वर्ग की सीढ़ी
और उधर कहीं पहाड़ पर बच्चे
तेरी भाप ज्यादा की मेरी भाप ज्यादा
पहाड़ी कोहरे पर  भी भाप भाप खेलते
चाय के सिप के साथ उत्तेजित हो
जीत और पराजय का आनंद लेते
मुंह से भाप उड़ाते हुए
.और वहीँ. सेवा सौली लगाते लोग
मीलों लम्बी छुईं बातें करते अघाते नहीं
पर  हाँ  बात बात पर कानों तक हँस आते थे वो लोग…
वह जो एक चोटी से
गाँव के बीच अपनी बात पहुंचाते
कि बेतार के तार सदियों से झूल रहे थे वहां 
और दौड़ लगा कर देते थे जवाब
और जिरह छिड़ती एक चोटी से दूसरी चोटी तक  
उन तीखे पहाड़ों के बीच ठीक ऊपर छोटा सा एक टुकडा आसमान का होता
ठीक नीचे धरती पर जिंदगी खूब हरी हरी भरी भरी
उधर एक मेट्रोपोलीटटन सिटी के
होटल हौलीडे फन में
एसप्रेसो के शोर में
चाहते हुए भी कपाचीनो के फेने को सुढक लेना आसान नहीं
कि तहजीब इजाज़त नहीं देती
जरूरत के हिसाब से मुस्कान भी नाप तोल कर आती हैं वहां
आदमी आदमी बने रहने के लिए 
आदमीपन को छोड़ देता है 
आवाज दबा कर धीमे बोलना
मुंह बंद कर खाना खाना सीख लेता है
मिल्क पावडर, टी बेग, बॉयल्ड वाटर
मिक्स इट ( मिलाओ इसे ) एंड देन हेव इट
ओह ! चाय की प्यास बुझती नहीं
एक ग्लास चाय रेडीमेड टी की तलब में
याद आता है
किस्से कहानियों बहस वार्तालापों का स्थल
पगडण्डी के किनारे ही
तिम्ला के डाल के नीचे
गाँव में रहने वाले
रामलसिंह का टी स्टाल
तिम्ला का पेड़ काट लिया गया था चार साल पहले
क्योंकि वह सड़क के नक़्शे के भीतर था
और रामसिंह का टी स्टाल तीन साल पहले
जोरजबरन
गाँव को आने वाली सड़क की भेंट चढा गया
और रामसिंह
सुना है कि दो साल पहले
उसी सड़क के रास्ते
गाँव छोड़ कर नौकरी की तलाश में चला गया वह
अब एक मेट्रोपोलिटीन सिटी के बहुत बड़े होटल में
बर्तन  धो रहा है.


अफवाहों के किस्से

तुम उस रोज मत्स्य कन्या पर बात कर रहे थे
तुम्हें मत्स्य कन्या बरबस खिंच लेती थी अपनी ओर
सो तुमने गढ़ी थी कितनी कहानियां
अफवाहों का बाजार गर्म था
नौचंदी की झील पर रोज मत्स्यकन्या आती थी मिलने तुमसे
पूरी चाँद की रात में
सिर्फ तुमसे ही मिलती
तुमको ही दिखती
ऐसा लोग मानते थे
एक रात अमावस के अन्धेरे में तुम्हारी आँखों में शोले भभके थे
तुम जिस रोज हमारे घर आये नए एक्वेरियम पर नजरे गढ़ायें बैठे थे घंटो
मैंने देखा था उस रात हमारे खाने की प्लेट में भी मछली थी
बस तुम चुप हो गए थे
फिर कभी नहीं सुनी मत्स्यकन्या की कहानी
तुम्हारी जुबानी
तुम गुम गए थे
लोगो ने बताया था
वटकेशर का फकीर
जो रात झील किनारे बिताता था
दिन में किस्से सुनाता था
उस अमावश की रात को वह
नौचंदी की झील में डूब गया
कोई कहता था उसे तैरना नहीं आता था
और उसने जलसमाधि ली थी
कोई कहता था
उतर गया था वह झील में
मत्स्यकन्या उसे लेने वहां आई थी
कोई कहता था वह मछुआरा था
पूरनमासी को जाल डालता था
एक दो कहते थे
वह चीन के लिए मुखबिरी करता था.


खालीपन 

डब्बे में लबालब भरी थी हवा, फिर भी डब्बा खाली था
याद आयीं मुझे वे खाली बोतले जो रख ली जाती थी फ्रीज में
बेहद गर्मी में बुझाती थी प्यास
और फिर से हो जाती थी खाली
और अंत में उनका होना, घर के किसी कोने में खालीपन लिए
एक अदद कबाड़ी का इन्तजार भर हो जाता था.

याद आया घर का खाली कोना
जो गवाह था
आते जाते उन लोगो का जो भीतर से खाली थे
जो मुस्कुराते थे हाथ हिलाते मिलाते थे
और मिलते थे गले भी
जो घर में
फ्रीज में रखी बोतलों से उन दिनों प्यास बुझाते थे और चले जाते थे
घर अक्सर खाली था
उनके साथ भी उनके बाद भी …
ऐसे में याद आई वह स्त्री
जो
ढूंढ ढूंढ के बोतलों में भरती थी पानी, रखती थी फ्रीज में
जिसे तलाश रहती किसी चमत्कार की
जैसे वह भर देना चाहती थी मन को
वह घर का कोना कोना भर  देना चाहती थी
रंगों से खुश्बू से पानी से जीवन से
बहा देना चाहती थी हवाओं में प्रेम भरा एक राग
वह चाहती थी आँगन हो भरा भरा हरा हरा.

पर वह टूट चुकी थी
खाली बोतल सी वह  
वह भीतर से खाली थी.

___________________________________
डॉ नूतन गैरोला,  चिकित्सक (स्त्री रोग विशेषज्ञ), समाजसेवी और लेखिका हैं. गायन और नृत्य से भी लगाव.  पति के साथ मिल कर पहाड़ों में दूरस्थ क्षेत्रों में निशुल्क स्वास्थ शिविर लगाती रही व अब सामाजिक संस्था धाद के साथ जुड़ कर पहाड़ ( उत्तराखंड ) से जुड़े कई मुद्दों पर परोक्ष अपरोक्ष रूप से काम करती हैं. पत्र पत्रिकाओं में कुछ रचनाओं का प्रकाशन.

nutan.dimri@gmail.com
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