विपिन चौधरी की कुछ कविताएँ
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अभिसारिका
ढेरों सात्विक अंलकारों को थामें
हवा रोशनी ध्वनि की गति से भी तेज़
भागते मन को थाम
होगी धीरोचित नायक से मिल
तन-मन की सारी गतियां स्थगित
निर्विकार चित में प्रेम
शीशे में पडे बाल समान
देहरी छूटी
आँगन में सोये माँ पिता छूटे
सूरजमुखी से खिले फूल सी
जाती मिलन स्थल की ओर
ऊपर पूरा चाँद
नीचें सांप, बिच्छुओं, तूफ़ान, डाकू, लुटेरों, अंधेरों को त्वरित लांघती हुयी
एक दुनिया से दूसरी दुनिया में रंग भरने
नायक यथास्थान न मिला
अब
लौटती उन्हीं पांवों से
क्या तुम्हारी निर्भीकता को दायें हाथ से थामा था किसी ने ?
क्या तुम भी अकेले ही वरण करती अपने हौंसले के स्याह परिणाम
आज सी बोल्ड बालाओं की तरह
कहती हुयी अनायास \” इट्स माई लाइफ \”.
समझौता
उसके अपराध में वह न दरवाज़े की ओर देखती है
न भौहें टेडी करती हैं
न मंगलसूत्र उतार कर फेंकती हैं
बस अश्रुयुक्त नयनों से दो मासूमों की तरफ देखती है.
मेज़ पर नमकदान
इतना सहज
रिश्ता
मेज़ पर नमकदान सा
नमक ही
हमारे बीच ठहरा रहा
नमक ही जीवन को गलाने से बचाता रहा
लकड़ी के बीच सावधान खड़ा
नमक
आंसुओं को धार देता
नमक .
बुद्ध के बाद की दुनिया
पश्चिमी तट से गंगा के मैदानी इलाकों को जोड़ते साँची स्तूप में
तुम्हारा समूचा आभास
तुम्हारी देह ने नहीं धरा ध्यान इधर
अवशेषों के साथ ही आ ठहरे इस ठौर
आज भी निराकार सो रहे शाश्वत
बाहर की पीड़ा चिंता भय को बिसरा
स्तूप भीतर कितनी तरंगें
एक दूसरे को काटती सी
बाहर इसके सारी तरंगें बिना एक दूसरे को छू,
लोप होती
एक लामा सारे बंधनों को काटने
गया स्तूप के भीतर
बाहर निकलते ही गुम हुआ
मोबाइल में
बुद्ध ने इस जीवन को सही ही दुःख माना था.
अभ्यास
पहले उसे अच्छे से गोदी में लेने
का अभ्यास करती
उसे रगड़ कर सफ़ा करती
आँखों में अंजन लगाती
फिर
नज़र ना लगे इस डर से एक टीका माथे पर या कान के पीछे लगा देती
पाउडर लगा कर अच्छे से साफ़ सुथरे कपडे पहना देती
फिर उसे लगातार अपनी भीतर उतरते हुए देखती
इस तरह
मृत्य को अपने गर्भ में जगह देती तुम.
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विपिन चौधरी को यहाँ भी पढ़ें.
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