भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श के अंतर्गत प्रस्तुत है तरुण भटनागर की कहानी – ‘दादी, मुल्तान और टच एंड गो’ पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख – ‘आरोपित विस्मरण के विरुद्ध स्मृतियों का जीवनराग’. भारत-विभाजन भारतीय महाद्वीप का लम्बा और कारुणिक ‘शोक- गीत’ है. हालाँकि इस पर हिंदी साहित्य में पर्याप्त रचनाएँ नहीं मिलती पर यह सिलसिला अभी रुका नहीं है. विस्थापन को लेकर अभी भी लिखा जा रहा है. तरुण भटनागर की उक्त कहानी इस सिलसिले की नवीनतम कड़ी है. कहानी जितनी संवेदनशील है राकेश बिहारी का आलेख भी उतना ही हृदय-स्पर्शी है. विस्थापन पर लिखी प्रसिद्ध कहनियों के साथ उन्होंने इस कहानी को रखकर देखा परखा है. आप यहाँ कहानी भी पढ़िए और यह आलेख भी.
आरोपित विस्मरण के विरुद्ध स्मृतियों का जीवनराग
(संदर्भ: तरुण भटनागर की कहानी दादी, मुल्तान और टच एंड गो)
राकेश बिहारी
स्त्री दुनिया की सबसे पहली और बड़ी विस्थापित प्रजाति है. विस्थापन का दर्द आजन्म उसकेवज़ूद का हिस्सा होता है. स्त्रियों की हर छोटी-बड़ी उदासी, उनका सुख-दुःख,उमंग–उत्साह, नेह-छोह कहीं न कहीं जड़ों से उनके गहरे जुड़ाव को रेखांकित करते हैं.उन्हें उनकी जड़ों से अलग करने की एक सुनियोजित कोशिश भी समय और समाज के हर मोर्चे पर होती रही है. नतीजतन लोक में प्रचलित पर्व-त्योहार हों कि रस्म-रिवाज,उनके यादों मे बसी मायके की गलियां हों या ससुराल की दहलीजें, पोते-पोतियों से भरा-पूरा उनका घर हो या फिर अकेलेपन से जूझते हुये सन्नाटों के शोर से गूँजता उनके जीवन का उत्तरार्ध, अपनी जड़ों से बेदखल किए जाने का दंश उनके मन-प्राण का जैसे स्थाई हिस्सा होता है. सच पूछिए तो स्त्रियॉं का जीवन विस्थापनों की एक लंबी श्रंखला होती है. माता-पिता के घर से विस्थापन, पति के घर से विस्थापन, बेटों के घर से विस्थापन… स्त्रियों के जीवन में घटित होनेवाले विस्थापनों का यह सिलसिला अमूमन उनके दुनिया से विस्थापित होने तक यूं ही अनवरत चलता रहता है. विस्थापन का दर्द तो यूं ही बहुत मारक होता है ऊपर से उसके साथ किसी तरह की लड़ाई या हिंसा की घटना भी जुड़ जाये तो तकलीफ कई गुणा बढ़ कर पीढ़ियों तक संवहित होती चली जाती है.
सुपरिचित कथाकार तरुण भटनागर की कहानी दादी, मुल्तान और टच एण्ड गो स्त्रियों के विस्थापन के उसी शाश्वत संदर्भ को एक बेधक संवेदनशीलता के साथ उकेरती है. चूंकि इस विस्थापन की पृष्ठभूमि में यहाँ भारत-पाक विभाजन की घटना है, इसका महत्व दुहरा हो जाता है.
किसी खास भूखंड से उखड़ने या कि उखाड़ दिये जाने के बाद स्त्रियाँ जिस नए भूखंड की निवासी बनती हैं, उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिहाज से उस नई जगह को भी वे उतना ही अपना मानती हैं जितना कि पहली जगह को. लेकिन अपना होने का यह भावबोध स्त्रियॉं के मामले में हमेशा ही एकतरफा होता है. परिणामतः: दूसरा पक्ष बिना उस अपनेपन की परवाह किए स्त्रियॉं के लिए एक और नए विस्थापन के मार्ग का सतत निर्माण करता रहता है. स्त्री-विस्थापन की इस पीड़ा को प्रस्तुत कहानी की दादी कुछ इस तरह अभिव्यक्त करती हैं – “औरत को हर छत छोड़नी पड़ती है. ऐसी हर छत जिसे वह अपना कह देती है. ऐसी हर छत, जिसे अपना कहने का उसका मन करता है. या वह हँसकर या रोकर उसे अपना कह देती है. दादी रुआँसी होकर कहती कि यह औरत का दुस्साहस है, कि फिर भी वह किसी शहर या घर को अपना कहती है.” अपनी जमीन से बार-बार बेदखल किए जाने के बावजूद हर नई जमीन को अपना कह कर अपनाने का जो दुस्साहस स्त्रियाँ करती रही हैं, वह पितृसत्ता को हमेशा से प्रीतिकर रहा है. लेकिन स्त्री मन की पीड़ा और पितृसत्ता की इस सहज व्यवस्था के बीच द्वंद्व का कारण यह है कि स्त्रियाँ जमीन पर कर दी गई उस बेदखली को कभी अपने मन के भूगोल पर स्वीकार नहीं कर पातीं. नई जमीन को अपनाने का अर्थ उनके लिए पुराने जमीन का विस्मरण नहीं होता. बल्कि इसके विपरीत पितृसता यह चाहती है कि वह हर विस्थापन के साथ न सिर्फ नई जमीन को अपना समझ कर उसकी सेवा-सुश्रुषा करे बल्कि खुद को पिछली जमीन की बेदखली के दंश की स्मृतियों तक से भी मुक्त कर ले, भावना और संवेदना के स्तर पर भी. विस्थापन के दंश के बहाने अपनी तमाम स्मृतियों और परम्पराओं को सँजोये रखने की स्त्रीसुलभ संवेदना और हर जमीन से बेदखल कर स्त्रियॉं को उनकी जड़ों और स्मृतियों तक से मुक्त कर देने के पितृसत्तात्मक नियोजन की अभिसंधि पर ही इस कहानी की संवेदनाएं सांसें लेती हैं. स्त्रियॉं को पहले उसकी जमीन से और फिर उसके स्मृतिबोध से बेदखल कर देना अपने असली अर्थों में भविष्य को इतिहास से मुक्त कर देने की एक चरणबद्ध कोशिश है, जो भूमंडलोत्तर समय की एक बड़ी अभिक्रिया- ‘यूज एंड थ्रो’ का सुनियोजित उपोत्पाद और इस व्यवस्था का गंतव्य दोनों ही है.
स्मृतियाँ वर्तमान का आधार और भविष्य की भूमिका होती हैं. अतीत और स्मृति से विलग वर्तमान क्षणभंगुर क्रियाओं का लोथड़ा भर होता है जो संचय के विरुद्ध उपभोग के आत्मघाती दर्शन की प्रस्तावना करता है. स्मृतियों की साँसों पर पहरा बिठाकर नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था हमें सर्जक होने से रोक कर सिर्फ और सिर्फ एक ‘पोटैन्शियल कस्टमर’ में तब्दील कर देना चाहती है.इस कहानी में दादी के द्वारा स्मृतियों को सहेजने की आद्योपांत अकुलाहट मनुष्य के सर्जक रूप को ग्राहक और उपभोक्ता में तब्दील कर दिये जाने की उसी सुनियोजित प्रस्तावना का प्रतिरोध है.
जैसा कि ऊपर उल्लिखित है, इस कहानी की पृष्ठभूमि में विभाजन की त्रासदी है, अतः इसे पढ़ते हुये विभाजन पर लिखी गई कुछ यादगार कहानियों का स्मृति-पटल पर कौंधना स्वाभाविक है. कहने की जरूरत नहीं कि विभाजन स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय और उसके बाद देश में घटित होने वाले सबसे बड़े और लोमहर्षक विस्थापन का कारण है. इतनी बड़ी त्रासदी के बावजूद संख्या की दृष्टि से इस विषय-संदर्भ की बहुत ज्यादा कहानियाँ हिन्दी में क्यों नहीं लिखी गईं या इस विषय पर उर्दू और पंजाबी में अपेक्षाकृत ज्यादा कहानियाँ क्यों मिलती हैं यह एक अलग शोध का विषय हो सकता है, लेकिन अपनी सघन संवेदना और विरल प्रभावोत्पादकता के कारण तरुण भटनागर की यह कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ (भीष्म साहनी), ‘मलबे का मालिक’ (मोहन राकेश) तथा ‘पानी और पुल’ (महीप सिंह) जैसी बड़ी कहानियों की श्रंखला की अगली कड़ी के रूप में शुमार किए जाने लायक है. गौर किया जाना चाहिए कि ‘अमृतसर आ गया है’ के कथानाक का काल-संदर्भ जहां विभाजन के आसपास का ही है वहीं, ‘मलबे का मालिक’ तथा ‘पानी और पुल’ के कथानक का काल-संदर्भ विभाजन के क्रमश: साढ़े सात और चौदह साल के बाद का है. इसी क्रम में यह उल्लेख भी जरूरी है कि ‘दादी, मुल्तान और टच एण्ड गो का’ कथानक विभाजान के लगभग 51 वर्षों के बाद का है. विभाजन और इन कहानियों में घटित घटनाओं के बीच की ये दूरियाँ किस तरह तात्कालिक प्रतिक्रिया, संवेदनात्मक अनुभूति, स्मृतिसुलभ लगाव और परिस्थितियों के तटस्थ मूल्यांकन के समानान्तर अतीत के चीरे का रफू कर उन्हें नए सिरे से गढ़ने और बचाने के पहल की अलग-अलग अर्थ छवियों का निर्माण करती हैं, उन्हें इन कहानियों में भिन्न-भिन्न स्तरों पर देखा जा सकता है.घटनाओं के साम्य, कुछ पात्रों के मनोजगेत की एकरूपता और स्मृतियों के बहाने सबकुछ सँजो कर रख लेने की एक जैसी विकलता के बावजूद जिस तरह ये कहानियाँ आपस में एक दूसरे से भिन्न और कुछ जगहों पर एक दूसरे का विस्तार हो पाई हैं तो उसका एक बड़ा कारण विभाजन और इन कहानियों के रचना काल के बीच की यह दूरी ही है.
पाकिस्तान से अमृतसर आया गनी मियां (मलबे का मालिक) हो या सराई स्टेशन पर रात के घने अंधेरे में भी अपने गाँव को देखने की ललक लिए जागती मूल सिंह की बीवी (पानी और पुल), इन दोनों की संवेदनाओं का बहुकोणीय विस्तार तरुण भटनागर की कहानी दादी, मुल्तान और टच एंड गो की दादी में देखा जा सकता है. गौर किया जाना चाहिए कि गनी मियां और मूल सिंह की बीवी उस स्थान पर खड़े हैं जहां उनकी जड़ें और उनका अतीत परस्पर नाभिनालबद्ध हैं. लेकिन दादी अपने उस शहर से दूर की जा चुकी हैं. उनका शहर उनकी स्मृतियों में बसता है, और उनकी स्मृतियाँ उन छोटी-छोटी चीजों में जिन्हें वे विस्थापन के वक्त अपने कलेजे से लगाकर सहेज लाई थीं- बहुत पुरानी उर्दू की स्कूल की एक किताब, पेंसिल से बिंदु मिलाकर चौखट्टे बनाने वाला अधूरा छूटा खेल, अखरोट की लकड़ी की टूटी-फूटी पिटारी, दो पुरानी तस्वीरें, पीतल का छोटा-सा ताला,पाँचवी दर्जे की स्कूल की मार्कशीट, पुराने रंग खो चुके गोटे, सलमा-सितारे, चटके कांच वाला दादी की माँ का चश्मा, कुछ पुरानी चिट्ठियाँ, एक पुराना मुड़ा-तुड़ा पीतल का हार और इसी तरह की कुछ अन्य चीज़ें जिसे कथाकार एक गहरी पीड़ा से आबद्ध हो कर अल्लम-टल्लम कहता है. नहीं! ये चीज़ें अल्लम-टल्लम नहीं, अतीत और वर्तमान को परस्पर आबद्ध रखनेवाला वह सूत्र हैं जिनके भीतर स्मृतियों का अनूठा और आत्मीय रेशमी अंतर्जाल छुपा है.
विगत कुछ वर्षों में हमारे आसपास कुछ ऐसी शक्तियों का बसेरा हो चला है जो इस अनूठे और आत्मीय रेशमी अंतरजालों को तहस-नहस कर हमें अपने अतीत से काट देना चाहती हैं. इन छोटी-छोटी चीजों में दादी का वह शहर सांसें लेता है जिसमें उनकी विनिर्मिति के ईंट-गारे का इतिहास लयबद्ध है. दादी इन छोटी-छोटी चीजों के सहारे अपने उस अतीत को बचा लेने का जतन करती हैं,कारण कि उन्हें पता है कि अतीत से मुक्त वर्तमान डाल से गिरे पत्ते सा इधर-उधर डोलता हुआ कब और कहाँ विलीन हो जाता है पता ही नहीं चलता. लेकिन अतीत से आबद्ध अपनी जड़ों को बचा लेना इतना आसान है क्या? इसके लिए इसके समानान्तर सक्रिय उन ताकतों से लड़ना होता है जो हर हाल में हमें हमारी जड़ों से दूर रखने को कटिबद्ध हैं. तरुण भटनागर इस कहानी में दादी और पोते के बीच संवेदनाओं की अर्थपूर्ण आवाजाही का पुल विनिर्मित कर उन्हीं ताकतों को बौना और असफल साबित करना चाहते हैं. बच्चे के कम्पास में पाया जानेवाला ‘टच एंड गो’ जो किसी भी तरह की लकीरें मिटा सकता है और जिसके सहारे दादी का पोता रेडक्लिफ लाइन को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा देना चाहता है, की उपस्थिति उसी पुल की विनिर्मिति का मासूम सपना है.लेकिन यह एक बच्चे की मासूमियत भर नहीं उसकी वह दूधिया विकलता है जो इस दुनिया को नए सिरे से सिरजना चाहती है. दुनिया को नए सिरे से सिरजने की यही मासूम अकुलाहट इस कहानी को तमाम एकरूपताओं के बाद अपनी परंपरा की अन्य कहानियों से अलग ला खड़ा करता है. यही वह विशिष्टता है जो एक लंबे समयान्तराल के बीत जाने के कारण एक खास तरह की तटस्थ तन्मयता से युक्त हो कर एक जैसी त्रासदी का शिकार होने के बावजूद दादी को गनी मियां और मूल सिंह की बीवी से अलग ला खड़ा करता है.
आज़ादी के बाद हमारे देश में प्रतिक्रियावादी ताकतों की एक ऐसी पौध विकसित हुई है जो स्मृतियों में संचित भाव-संवेगों की सभी सकारात्मकताओं को तहस-नहस कर देना चाहती है. नफरत और दहशत की खेती करनेवाली ये शक्तियाँ वक्त की स्लेट से इतिहास की इबारतों को पोंछ कर हमें जड़विहीन करने पर आमादा हैं. यह कहानी उन प्रगतिविरोधी कारकों को भली भांति पहचानती है.स्त्रियाँ स्मृतियों की सबसे बड़ी वाहिका होती हैं. जबतक उनके स्मृति कोष का आखेट न कर लिया जाये वर्तमान की चेतना को कुंद नहीं किया जा सकता. यही कारण है कि समाज और आनेवाली संततियों को जड़ और स्मृतिविहीन बनाने के लिए स्त्रियॉं को ही सबसे पहला निशाना बनाया जाता है. यह कहानी न सिर्फ उन स्मृतिविरोधी शक्तियों का शिनाख्त करती है बल्कि दादी और भावी पीढ़ी के बीच स्मृतियों के हस्तांतरण के बहाने नवांकुरों की जिम्मेवारी को भी रेखांकित करती है.यह कोई मासूम या रूमानी कल्पना नहीं, स्मृति की सत्ता के सुयोग्य उत्तराधिकारी के तलाश की बेचैनी और सुगबुगाहट है
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