बेआवाज़ का बोलना |
भले इस साल के साहित्य के नोबेल की वजह से यून फ़ुस्से (Jon Fusse) के साहित्य संसार पर बात हो रही है, पर आधुनिक साहित्य में उनकी उपस्थिति कुछ इस तरह रही है कि नोबेल पुरस्कार मिलने पर भी यह उन पर बात करने के एक मौके से ज्यादा कुछ और नहीं लगता है और कमोबेश एक पुरस्कार भर होने से इतर किसी लेखन को देखने परखने की यह कसौटी भी नहीं है.
नॉर्वे के लोग अपनी भाषा के इस साहित्यकार को आधुनिक इब्सन कहते हैं और यह किसी साहित्यिक बिरादरी की बजाय आम पाठकों द्वारा उनके लिए प्रयुक्त किये जाने वाला शब्द है, जो इस लेखक के प्रति उनके प्रेम और आज के दौर में उसके लेखन की प्रभावी सामाजिक उपस्थिति को बताता है.
नॉर्वे में जिस देश के वे मूलतः निवासी भी हैं, इब्सन का वक़्त गुजरे सवा सौ साल हुए पर आज भी उनके लिखे नाटकों के प्रशंसकों की कमी नहीं. किसी दौर में यूरोप के समाज में चर्चा और तल्ख़ आलोचनाओं की शिकार रही उनकी रचनाएँ और अगर इस दावे को एक सामान्य टिप्पणी की तरह ही देखा जाए कि शेक्सपीयर के बाद सर्वाधिक मंचित नाटक ‘द डॉल हाउस ‘ के रचनाकार, तब भी इब्सन के कामों की झलक अगर आज का नॉर्वे यून फ़ुस्से के काम में देखता है, तो इसका एक विशेष मतलब है.
इब्सन का समय अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी का है और भले वे उतने पुराने न हों तब भी न सिर्फ़ नॉर्वे बल्कि काफी हद तक सारे स्केन्डेनेविया में वे उसी तरह स्मरण किये जाते हैं जिस तरह हमारे यहाँ कबीर, भले दोनों की लेखन विधाओं में बड़ा अंतर हो तब भी सामाजिक कुरीतियों और परम्पराओं का विरोध दोनों में अपनी-अपनी तरह से है और इसकी अनुगूँज उनके अपने-अपने समाजों में होती रही. यून फ़ुस्से के लेखन में ख़ासकर उनके पात्र और इक्कीसवीं सदी में आये उनके कुछ चर्चित नाटकों ने सामाजिक बुराइयों को जिस तरह से देखा-परखा है और यह भी कि कुछ रचनाओं खासकर जो चर्चित रहीं उन्हीं कुछ में आज से सौ बरस पहले के नॉर्वे के समाज को उन्होंने जिस तरह से चित्रित किया वह परिवर्तनों की जबरदस्त इच्छा के इर्दगिर्द रची कथाओं का विन्यास रचता है, जो इब्सन से उनकी निकटता की बात का सामान्य तर्क बनाता रहा है .
अस्सी के दशक से लगातार रचनाकर्म में लगे फ़ुस्से का लेखन संसार कविता, कहानी, उपन्यास, सृजनात्मक गद्य और नाटकों तक फैला है. मैलंकली (Melancholy) को फ़ुस्से का पहला ऐसा काम माना जा सकता है जिससे उनके रचनाकर्म की प्रभावी पहचान बननी शुरू हुई. यह उपन्यास उन्नीसवीं सदी के नोर्वेजीयन चित्रकार लार्स हर्टविग (Lars Hertervig) के जीवन पर आधारित है. प्रेम को खोते जाने और जिंदगी के संघर्षों के बीच अपने काम पर शक करने को मजबूर यह चित्रकार किस तरह मानसिक रूप से टूट जाता है, उसी के इर्दगिर्द यह उपन्यास है.
इसका दूसरा भाग भी आया जो इसी चित्रकार की मृत्यु पर केंद्रित फ़ुस्से का अपनी तरह का काम है. चूंकि फ़ुस्से थिएटर लिखते रहे थे इसलिए उनकी रचनाओं में एक किस्म की नाटकीयता, पात्रों और संवादों की थोड़ी अलहदा किस्म की बुनावट होती है. यही वजह थी कि किसी दौर में मैलंकली (Melancholy) के पहले भाग का नाट्य रूपान्तर हुआ, एक तरह की नृत्य नाटिका में और इसकी सामाजिक उपस्थिति भी इस तरह से रही.
इक्कीसवीं सदी के पहले और दूसरे दशक में आये तीन उपन्यास जिन्हें आप उपन्यास त्रयी भी कह सकते हैं, क्योंकि पहले उपन्यास के पात्र ही दूसरे और तीसरे में भी हैं कहीं मुख्य भूमिका में भी, फ़ुस्से के लेखन में नाटकों के तत्वों से इतर अपनी उस भाषा के विकास के लिए खास तौर पर जाने गए जिन्होंने उनके नये और कई मायनों में थोड़ा अलहदा कामों की शुरुआत की, यद्यपि एक किताब दूसरे से अलग होती है पर उपन्यास लेखन के नज़रिये से जिन कामों की चर्चा ज्यादा हुई उनकी शुरुआत यहीं से होती है. इन तीनों लघु उपन्यासों पर जो बातें हुई हैं वे इन्हें कुछ इस तरह से साहित्य में देखती हैं, कि इनके प्रति स्वाभाविक उत्सुकता जागती है. ये कहीं उपलब्ध नहीं दिखते जबकि तीनों का अंग्रेज़ी अनुवाद हुआ है. इसमें से वेकफुलनेस जो सबसे पुराना है और 2007 में आया इस त्रयी का पहला उपन्यास है. आम जिंदगी के पात्रों के इर्दगिर्द रची यह रचना अपनी भावप्रवणता, कथा की नाटकीयता और संघर्षरत इंसानों के सरोकारों की ओर ध्यान आकृष्ट करने वाली एक अद्भुत रचना है. इसमें एक जाति बाहर कर दी गयी गर्भवती औरत है और एक यतीम नौजवान और यह उपन्यास कमोबेश इन्हीं दोनों के इर्दगिर्द चलता है. बाद में इसी की त्रयी में ओल्वस ड्रीम्स और वियरिनेस आये थे. वियरिनेस इन त्रासद जीवन जीते पात्रों के आगे का किस्सा कहता है जिसमें पहले उपन्यास के मुख्य पात्र की बेटी एक प्रमुख चरित्र है.
हौग, काफ्काँ, फ़ौकनर और वर्जिनिया वुल्फ के अलावा बेकेट सारीखे कुछ नाटककारों का ज़िक्र फ़ुस्से के कामों में हुआ है और कहीं उन्होंने बेकेट और कुछ अन्य नाटककारों को अपना साहित्य सम्बन्धी भी कहा है. वे बाइबिल के 2011 में प्रकाशित नये अनुवाद से भी जुड़े रहे जिसमें कुछ पुराने शब्दों की जगह नये शब्द और इस मूलतः धार्मिक किताब का ज्यादा साहित्यिक अनुवाद हुआ.
इस लेखक के काम को उस वक़्त जाना था जब नॉर्डिक काउंसिल के एक प्रतिष्ठित पुरस्कार और उस पर कुछ पढ़ने के बाद एक मित्र ने इसे पढ़े जाने की सलाह दी थी. उस दौर की चर्चित किताब वेकफुलनेस तो नहीं मिल पायी, पर बाद में सेप्तोलाजी (Septology) के नाम वाली सात हिस्सों वाली तीन किताबों की एक किताब मिली. यह उनका एकदम बड़ा काम है, लगभग सात सौ पेज होगा पर उससे इतर भाषा, कहन और ग़ज़ब की किस्सागोई की वजह से न सिर्फ़ साहित्यिक हलकों में, बल्कि आमजन के बीच आज भी इस किताब की खासी चर्चा है.
सात हिस्सों में होने की वजह से यह सेप्तोलाजी कहलाती है और यह इसमें संकलित किताबों में से किसी का भी शीर्षक नहीं है. इस कृति में कुल जमा तीन किताबें हैं जिनमें से पहली किताब दो हिस्सों को, दूसरी तीन और तीसरी दो हिस्सों से मिलकर बनी है. ‘द अदर नेम’ सेप्तोलाजी की पहली किताब है और इसके सात भाग में से पहले दो हिस्से यही किताब है.
यह किताब अपनी कथा में थोड़ी उलझाव भरी है, पर थिएटर के प्रभाव की वजह से कथा की रोचकता इसे एक तरह का प्रवाह देती है. इसमें दो चरित्र समरूप हैं, यानी एक ही तरह के दिखते हैं और इतने मिलते जुलते हैं कि उनकी बनक अलग-अलग नहीं है और उपन्यास में जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते जाते हैं ये दोनों जीवन के एकदम अलग ध्रुवों पर दिखाई देने लगते हैं. जैसे यही कि एक शराबी है और लद्दड़ किस्म का है और दूसरे ने बरसों पहले शराब छोड़ दी है और बेहद शालीन है और पेंटिंग करता है. इन्हें लेखक ने इस तरह से रचा है कि दोनों का एक सा होना इतनी बार और कई-कई तरह से बार-बार आता है कि उनकी धुर विपरीत प्रवृत्तियां थोड़ा चौंकाती हैं. इन दोनों समरूप चरित्रों के बीच कुछ वार्तालाप बेहद रोचक हैं.
इसी में एक किसान है, एक शुद्ध स्केंडेनेवीयन चरित्र, जिसे यह सज्जन किस्म का समरूप आदमी माँस और दूसरी खाने की चीजों के बदले पेंटिंग देता है जो दरअसल उसकी बहन के लिए है, जिसे ये दोनों चाहते रहे हैं. इस उपन्यास में अतीत और वर्तमान के तमाम प्रेम प्रसंगों और रोजमर्रा की कुछ बेहद सामान्य पर अविस्मरणीय किस्म की बातों और वाकयों के बीच गुजरते जीवन को विस्तार और कहन की एक अलहदा शैली में बुना गया है. याद पड़ता है एक और प्रभावशाली स्त्री पात्र है, जो इनकी बहन है और जिसके बारे में ये जानते हैं कि वह मर चुकी पर वह धीरे-धीरे इन सबकी दुनिया में आ जाती है. परेशान करते अतीत और प्रेम के इर्दगिर्द सम्मोहित सा करने वाली, खूब बातें करने वाली भाषा की रोचकता इस उपन्यास को अनूठा बनाती है. बाइबिल के कुछ दृश्य से जो तुलनात्मक रूप से इस आधुनिक कहानी में कहीं तमाम अपनी छायाओं के साथ हैं, अद्भुत है.
septology नाम से मुख्य रूप से तीन किताबों में जिसमें ऊपर उल्लिखित के अलावा ‘आई इज़ एनोदर’ तथा ‘अ न्यू नेम’ नाम से अंग्रेज़ी में अनूदित हैं, उस पर जो बातें हुईं उसकी वजह से तथा अन्य कारणों से खासकर नाटकों के लेखन पर चर्चा कम ही दिखती है. स्केन्डेनेवीया के इस क्षेत्र में जहाँ से फ़ुस्से आते हैं, नाट्य लेखन और मंचन की समृद्ध परम्परा रही है और आज भी नाटकों पर काफी काम है. न्यूयॉर्क टाइम्स में फ़ुस्से के कुछ नाटकों पर प्रभावोत्पादक आलेख हैं, जिनमें ‘ड्रीम ऑफ़ ऑटम’ तथा ‘नाईट सिंग्स इट्स सॉंग’ जैसे थोड़े चर्चित नाटक भी हैं, पर ये किताबें अनुवाद के बावजूद किताबों की दुकानों पर और ऑनलाइन कहीं दिखी नहीं.
नॉर्वे की जबान से अनुवाद की अपनी दिक्कतों के बावजूद ज्यादातर गद्य, नाटक और उपन्यास अनूदित हुए हैं, भले इनकी उपलब्धता न दिखती हो. हमारे यहाँ खासकर हिंदी में जिस तरह से काफ़ी लिखा हो तो उसके लिए प्रचुर या अतिलेखन जैसे फ़िकरे कभी सुनने में मिलते हैं, यद्यपि कम लिखे या ज्यादा का उत्कृष्टता से कोई तादात्म्य नहीं बैठता तब भी, और दीगर भारतीय भाषाओं और हिंदी में भी हमारे दौर के कई चर्चित रचनाकारों ने विपुल ही लिखा, इस लिहाज़ से इस बात की अपनी माकूल जगह दिखती है कि लिखने वाला लिखता है, कभी खूब और लगातार, भले उसकी दुनिया में ऐसे फिकरे सुनाई देते हों या नहीं. फ़ुस्से ने 30 से ज्यादा नाटक लिखे हैं और लगभग इतनी ही गद्य की किताबें. इनमें से ज्यादातर के अंग्रेज़ी और दीगर भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं. जो कुछ कम अनुदित है उसमें कविताएँ और कुछ निबंध भी हैं. कविताओं और निबंध की ज्यादातर किताबों के अनुवाद या तो हैं नहीं या शायद अब कभी हो जाएँ. जो जानकारी मिली है उसके अनुसार लगभग 13 कविता संग्रह और 5 निबंधों के काम हैं.
लम्बे पैराग्राफ में एकहरे कहन का खंडन करती अलग-अलग आयामों पर बातों को ले जाती फ़ुस्से की भाषा, जो मुख्य रूप से उनके गद्य में और खासकर उपन्यासों में है, उनके लेखन की अपनी जबान और कहन के अपने तरीके के रूप में है. यद्यपि नाटकों से सेप्तोलाजी जैसी बहु-प्रशंसित कृति के आने तक जिस तरह का बरताव वे कहन, पात्रों, कथा और कथा के प्रवाह को लेकर बरतते रहे हैं उसमें परिवर्तन होता रहा है. भले नाटकों के लिए थिएटर की जरूरत और ऐसे क्षेत्र में जहाँ नृत्य नाटिकाओं का प्रभाव जबरदस्त रहा हो, शास्त्रीय संगीत, नृत्य आदि को लेकर वहाँ रचना की जरूरत के मुताबिक इस बरताव में परिवर्तन की जरूरत और तर्क होता ही है, पर फ़ुस्से के लेखन में यह एक तरह का शिफ्ट नाटक और उपन्यासों दोनों विधाओं में है, मंच की जरूरत और पढ़ने के लिए गद्य की सृजनात्मक जरूरत जैसी विधागत स्थिति के बावजूद.
यद्यपि मूल भाषा को न जान पाने से अंग्रेज़ी का जो अनुवाद है उसमें वाक्यों को कॉमा से थोड़ा रोक-रोक कर लिखने का अपना तरीका हो सकता है और जितना जान पाया हूँ अपने व्याकरण में दोनों में वाक्यों को बनाने के तरीके बेहद अलग हैं, इसलिए अनुवाद की चुनौती रही होगी, पर फिर भी जो प्रवाह है और एक तरह से अनुवाद में जो कभी-कभी नैसर्गिकता का लोप होता है वह यहाँ यानी सेप्तोलाजी में एकदम भी नहीं लगा. यह चुनौतीपूर्ण इसलिए भी रहा होगा कि लम्बे पैरा में लिखने की बजाय छोटे और संप्रेषणीय वाक्यों में अंग्रेज़ी को लिखना अनुवाद के लिहाज़ से ज्यादा उपयुक्त होता है, पर लगता है कि जिस तरह से फ़ुस्से ने लिखा उसी तर्ज़ पर यह अनुवाद हुआ जिससे इसकी चुनौती और उसे साध ले जाने का सद्प्रयास दिखता है.
रोचक किस्म के नाट्य लेखन की बहुलता के बावजूद दो पात्रों के बीच संवादों को गद्य में लम्बे पैरा में लिखना और फिर एक हिस्से के बाद आगे का हिस्सा संवादों की शक्ल में लिखना अजीब लग सकता है, पर यह स्पष्ट है कि आपसी बात को बताने के लिए ऐसे पैरा कहीं से भी संवाद की शक्ल में न होने पर भी उस बात को, उसके भाव और कहन को प्रभावी रूप से संप्रेषित करते हैं. कहन में उसी तत्व की प्रधानता है जिसे ऊपर बताया है यानी अपनी ही बात का खंडन और वह भी उन संवादों में. जैसे इसी सेप्तोलाजी में एक संवाद है चित्रकार और एक दूसरे शख्स के बीच जो पैराग्राफ में लिखा है-
“मछली मारना (Fishing)एक ऐसा काम है जो किसी व्यक्ति में चित्र बनाने (painting ) से कहीं ज्यादा विवेक और समझ पैदा करता है, यकीनन, मैं कहता हूँ मछली मारने के काम में एक खूबसूरत सच होता है, क्योंकि इस काम में कोई पहले से यह नहीं जान पाता कि क्या होना है, उसे पता नहीं होता कि कांटे में मछली फंसेगी या नहीं, तो मैं कहता हूँ कि यह सब भाग्य पर आ टिकता है, मैं कहता हूँ यह ठीक वैसा ही है जैसा कि जीवन और एजलिक (Asleik) कहता है कि हो सकता है मैं सही कह रहा होऊँ पर जरूरी बात यह है कि मछली पकड़ने के लिए मछली पकड़ने जाना होता है, मछली पकड़ना ऐसा काम है जिसे पहले से तय कर आप करते हैं, वह कहता है कि यह काम ऐसा काम है जिसे आप करते हैं, एक काम, एक अभियान की तरह से, वह इस तरह के प्रभावशाली शब्दों का इस्तेमाल भी मछली मारने के इस काम के लिए कर ही सकता है…”
यह इसी तरह दोनों के बीच की बात है जो चलती चली जाती है, लम्बे पैराग्राफ में और मछली मारने पर एक के प्रस्तुत भाग्य की बात के विरुद्ध दूसरे की कर्म की बात यहाँ पर है. इसी तरह एक तरह की बात और उसके खंडन के इर्दगिर्द बहुत से संवाद, विवरण और दृश्य हैं, कई जगह बेहद रोचक.
विवरणों में बेहद साधारण चीजों में भी विपरीत चीजों का होते जाना बेतरह है, जैसे एक जगह बेहद सामान्य बात है पर उसमें भी ऐसा कुछ है-
“वह बड़ा हो चला था जब उन लोगों ने गाँव के लिए यह सड़क बनवायी थी, यकीनन, उसे यह सब याद भी है और गाँव के वे पुराने लोग, दुनिया से कटे, धर्मपरायण लोग, जो ये मानते थे कि अच्छा ही है जो अब तक सड़क नहीं बनी है ताकि तमाम पाप और बुराइयाँ इस गाँव में न आ सकें और फिर कौन ऐसा है जो गाड़ी पर चढ़कर गाँव से बाहर ही जाना चाहेगा ? उनमें से कुछ ऐसा ही मानते, इसलिए सबसे अच्छी बात होती अगर यह सड़क कभी न बनती पर सड़क बन चुकी थी और इस तरह से डिलगी (Dylgia) संसार का एक हिस्सा बन गया था.”
इस तरह के विवरण और बातें उनके तमाम लिखे में हैं, जिसका अपना आस्वाद है.
उपन्यास सेप्तोलाजी के कई हिस्से प्रेम के अद्भुत विवरणों से भरे हुए हैं. फिलहाल एक झूले का दृश्य याद आता है, जिसमें लड़की लड़के के झूला झुलाने के तरीके पर उससे बात करती है और याद करती है कि किस तरह उनकी दोस्ती ने झूला झूलने को लेकर उसके डर को कम करते-करते इतना कम कर दिया कि अब उसे इसमें मजा आता है. यह एक लम्बा दृश्य है जिसमें झूले की यादें, झूले की पीगों के तरीके, दोस्ती की बातें और तमाम चीजें साथ-साथ चलती हैं और एक तरह के विस्मय के साथ अपने विस्तार में तमाम बातों को मन्त्रमुग्ध तरीके बरतती जाती हैं.
दरअसल जैसा कि कमोबेश और खासकर पश्चिम के किसी लेखक को पढ़ते हुए होता है, उनकी दुनिया और संस्कारों हमसे बहुत अलग और भिन्न होना, वह हमारे लिए एक तरह का बनावटीपन बन कर आता है. जैसे ऊपर के इन दो- तीन उदाहरणों में, जैसे काँटे से मछली पकड़ना कोई ऐसा काम नहीं है जो हमारे यहाँ रोजमर्रा के कामों की तरह से प्रचलित हो, इसलिए जीवन की बहुप्रचलित और सामान्य क्रिया के रूप में जब लेखक इसे लिखता है तो यह अजीब लग सकता है या जैसे झूले वाला दृश्य जिसमें पेड़ पर लटकाये जाने वाला रस्सी वाला परम्परागत झूला जो बारिशों के मौसम में हमारे यहाँ पड़ता है, वह यहाँ नहीं है और यह लोहे की चेन वाला वह झूला है जो लोग घरों में लगा लेते हैं, तो तमाम विवरणों के बावजूद वह हमारे संसार की किसी सामान्य चीज सा नहीं दिखता, भले वहाँ होता हो.
किसी अन्य यूरोप के लेखक की तरह से दृश्य और यहाँ तक कि सामाजिक मूल्यों में भिन्नता की वजह से एकदम किस्म का जो बनावटीपन महसूस होता है, वह फ़ुस्से के लेखन में भी है, भले यह हमारी या लेखक की दुनिया की अपनी-अपनी सीमितताएँ हों.बाइबिल के संदर्भ, खासकर किसी चरित्र का पहनावा-ओढ़ावा या किसी व्यवहार से उसे पहचान लेना हमारे लिए थोड़ा कठिन है क्योंकि हमारी परम्परा में बाइबिल से जुड़ी कथाएं हैं नहीं और लगता है जो काम फ़ुस्से ने 2011 वाली बाइबिल पर किया, जो विवादित भी रहा था, उसका प्रभाव हो जो यह यहाँ उनकी रचनाओं में आता है, सेप्तोलाजी में भी है.
जब कहन का तरीका लगातार हो और कथा बहुत धीमी हो तो ऐसे गद्य को धीमी गति का गद्य शायद नहीं कह सकते. फ़ुस्से की रचनाओं में गल्प की रवानगी कुछ इस तरह है कि आप कथा में आगे क्या होगा इसका बहुत इंतज़ार नहीं करना चाहते या आगे कि कहानी कि रुचि कमजोर हो जाती है. दरअसल कहन के तरीके से जो भाव उपजता है वह भी इकहरा नहीं लगता. वह कहीं दारुण है तो कहीं किसी हँसी ठिठोली में लिपटा हुआ, कहीं एकदम साफ़ सुथरी जबान में विन्यस्त है तो कहीं एक किस्म का खिलंदड़ापन है. बहुत साधारण चीजों से जिंदगी के गहरे मायनों को खोजती उनकी भाषा कई बार हतप्रभ करती है. कोई अतिशयोक्ति नहीं पर आप एक बैठक में सब न पढ़कर आगे के लिए भी कुछ बचा कर रख लें कुछ इस तरह का आकर्षण हो जाए तो भी अचरज नहीं.
कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि जिस तरह के आरोप नॉर्वे और दूसरे स्केन्डेनेवीयन देशों के लेखकों को नोबेल मिलने पर लगते हैं, वह शायद यहाँ न ही हो अगर इस लेखक को पढ़ लिया जाए तो.
तरुण भटनागर
तरुण भटनागर का जन्म 24 सितम्बर को रायपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ. अब तक चार कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं: ‘गुलमेंहदी की झाडि़याँ’, ‘भूगोल के दरवाज़े पर’, ‘जंगल में दर्पण’ तथा ‘प्रलय में नांव’ ’पहला उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ वर्ष 2014 में प्रकाशित. दूसरा उपन्यास ‘राजा, जंगल और काला चाँद’ वर्ष 2019 में प्रकाशित. ‘बेदावा’ तीसरा उपन्यास है. कुछ रचनाएँ मराठी, उड़िया, अँगरेज़ी और तेलगू में अनूदित हो चुकी हैं. कई कहानियों व कविताओं का हिन्दी से अँगरेज़ी में अनुवाद. ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार’ ‘स्पंदन कृति सम्मान’; तथा ‘वनमाली युवा कथा सम्मान’ आदि से सम्मानित. tarun.bhatnagar1996@gamil.com |
एक लेखक और पाठक की इंटेलेक्चुअल जुगलबंदी की अभिव्यक्ति का सधा रूप।सुचिंतित समीक्षा का सूचनात्मक
विधान।
वाह आनन्द आ गया पढ़कर। इतना अच्छा लग रहा है कि मित्र तरुण भटनागर भी Jon Fosse के गंभीर पाठक हैं और जिस तरह उन्होंने उनकी सुदीर्घ लेखन यात्रा की एक परिक्रमा सी पाठक को करवाई है वह निश्चित ही Fosse में हिन्दी पाठक की रुचि को बढ़ाएगी।
नोबेल के पूर्वाग्रहों/दुराग्रहों के बावजूद इस वर्ष का नोबेल मेरे लिए उत्सव का सबब है।
अंग्रेज़ी में उनकी सभी किताबों का मिलना आसान नहीं है, लेकिन अब मुझे उसकी कोई चिंता नहीं क्योंकि उनकी लगभग सभी किताबें मेरे पास है। Ammber Pandey वह पहला अज़ीज़ था जिसके संग Fosse का उन्माद साझा कर पाई थी मैं क्योंकि वह भी सब लिये बैठा था।
बस एक शब्द * बनावटी* पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए। वैसे तो फ्योर्ड शब्द हिन्दी मे किसी के मन में कोई बिम्ब जागृत नहीं करता, लेकिन उसका अर्थ जान लेने के बाद Fosse का तमाम लेखन फ्योर्ड नाम की विशिष्ट जलराशि समान भासता है और फ्योर्ड उनके लेखन के बीज शब्दों में शामिल है।
नाटकों को हर हाल में हिंदी में आना चाहिए। यह प्रयास मैं वर्षों से करती आयी हूँ। मुझे कोई ऐसा थिएटर ग्रुप मिले यदि जो करना चाहेगा तो अनुमतियों की भीषण कंदराओं से गुज़र कर भी करूँगी, यदि जीवन रहा तो।
अन्त में पुनः प्रिय Tarun Bhatnagar के प्रति आभार और असीम स्नेह व्यक्त करती हूँ।।
उस व्याप्ति के सारे आयाम गहरी संवेदनशीलता से परखते हुए लिखा है। समृद्ध हुए।
महत्वपूर्ण लेख। आभार तरुण जी और समालोचन का।
धन्यवाद तरुण भटनागर जी, इतनी सहजता से यून फ़ुस्से का हाथ हमारे हाथ में देने के लिए।
– प्रेम साहिल
एक लेखक ,एक सुधि पाठक के आलोचकीय विवेक की गवाही देने वाला महत्वपूर्ण लेख पढ़कर समृद्ध हुई ।
बेहतर नोट है।