अष्टभुजा शुक्ल की दो कविताएँ
1.
आज की रात कल जो जो कहोगे अपनी भूख में से |
2)
बहुत बैचेन हिया बरखा ऋतु की उमस बहुत बैचेन हिया उसुर–पुसुर मत करना खींचाखींच |
अष्टभुजा शुक्ल: ‘आज की रात’ एवं ‘बहुत बैचेन हिया’
सदाशिव श्रोत्रिय
किसी काल-विशेष में आने वाले परिवर्तनों को उस काल की कविता अपने विशिष्ट तरीके से दर्ज़ करती चलती है. यह कविता सामान्यतः जो दर्ज़ करती है वह मोटे तौर पर इन परिवर्तनों का भावनात्मक पक्ष होता है और एक कवि का, जो कि आम लोगों की तुलना में एक अतिरिक्त संवेदनशील इंसान होता है, ध्यान (शायद अचेतन रूप से ) मुख्यतः इन भावनात्मक परिवर्तनों की ओर ही जाता है.
अष्टभुजा शुक्ल की अलग-अलग समय पर लिखित और प्रकाशित दो कविताओं में मैं कवि और कविता द्वारा इस तरह परिवर्तन दर्ज़ किए जाने का एक अनूठा उदाहरण पाता हूँ . इनमें से एक कविता का प्रकाशन 2010 में हुआ था और दूसरी का 2019 में. लगभग एक दशक के इस समय ने हमारे पारिवारिक और सामाजिक वातावरण में जिस तरह के परिवर्तन ला दिए हैं उन्हें ये दो कविताएं बखूबी दर्ज़ करती हैं. एक भारतीय पत्नी के परम्परागत चित्त (psyche) में भी जो बदलाव इस एक दशक में आया उसकी झलक हमें इन कविताओं में भी निश्चित रूप से दिखाई दे जाती है.
कवि ने एक एकल परिवार की जिस स्थिति को इन दोनों कविताओं की पृष्ठभूमि के रूप में इस्तेमाल किया है वह बहुत कुछ एक जैसी है. इनमें प्रकट रूप में एक युवा पत्नी ,जो अब तक एक संतान की माँ भी बन चुकी है, अपने पति को उसके साथ समागम से विमुख करने का प्रयास कर रही है. पर इन दो कविताओं में यह काम ये दो युवा पत्नियां जिस भिन्नता के साथ करती है वह इस समय-अंतराल में आए परिवर्तनों को भी भलीभांति दर्शाता है.
इनमें से पहली कविता का शीर्षक है ‘आज की रात’ और यह शुक्ल जी के काव्य-संग्रह ‘इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है’ (राजकमल प्रकाशन) के पृष्ट 62 पर मुद्रित है. इसकी पर्सोना की बात से लगता है कि अपने पति की कामेच्छा के शमन को वह एक पत्नी के रूप में अपने एक धार्मिक-नैतिक कर्तव्य के रूप में देखती है और इसीलिए पति की इच्छा के बावजूद रति के लिए तैयार न होना उसके चित्त को एक तरह के अपराध-भाव से भर देता है. पति को काम-विमुख करने के लिए वह इसीलिए तरह-तरह के अन्य प्रलोभन देती है. वह उसके सामने अधिक सेवा का, अधिक अच्छा खिलाने-पहनाने का तथा अधिक आराम से सो सकने का वैकल्पिक सुख प्रस्तावित करती है. वह कहती है :
कल जो जो कहोगे
वो वो खाना बना दूँगी
प्याज़, लहसुन, नमक और मिर्चा मिलाकर
वो मोटी रोटी सेंक दूँगी खरी खरी
उस दिन मजूरी के बदले
बड़े बाबू ने जो पुरानी नीली वाली
कमीज़ दी थी उसे फींच दूंगीमेरी खटिया में से आधी खटिया ले लो
मेरी कथरी से दो तिहाई कथरी
चाहो तो पूरी चादर ले लो
या ओढ़ लो मेरी आधी साड़ी ही
महत्वपूर्ण यह है कि यह पत्नी अपने पति की न केवल खाने-पहनने और आराम जैसी बाहरी आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील है, वह उसकी देह- भोग की क्षुधा को भी अपने प्रति किसी प्रकार की हिंसा या ज़्यादती के रूप में नहीं देखती. देह-भोग को वह उतना ही अपनी तृप्ति के साधन के रूप में भी देखती है जितना अपने पति की तृप्ति के साधन के रूप में. स्वयं को वह अपने पति और उसकी आवश्यकताओं से अलग करके नहीं देखती. इस बात पर विचार करके ही हम इस कविता की उन पंक्तियों का ठीक अर्थ लगा सकते हैं जिनमें वह कहती है कि :
अपनी भूख में से
आधी भूख मुझे दे दो
या
मेरी नींद में से आधी नींद ले लो
अधिकतर पाठक इस स्त्री की कल्पना प्रतिदिन के सहवास से ऊबी हुई एक पत्नी के रूप में ही कर सकते हैं जो इसके मुआवजे के तौर पर अन्य सुख प्रस्तावित कर रही है. इस प्रक्रिया में वह एक अन्य,अपेक्षाकृत कम तृप्ति-दायक यौन-सुख भी उसके सामने पेश करती है :
जहाँ मन हो वहाँ मेरे बदन पर रख लो हाथ
लेकिन हाथ जोड़ती हूँ
बगल में सोए बिट्टू की कसम
आज रहने दो.
कविता की अंतिम पंक्तियों से लगता है कि एक माँ बनने से पहले यह पत्नी अपने पति को देह-भोग में शायद हर तरह की छूट देती रही है, पर अब उनके बीच एक बच्चे की उपस्थिति उसके मन में कुछ संकोच और लज्जा भाव का भी संचार करती है. संभव है उसके यौन -सुख की प्रकृति में भी मनोवैज्ञानिक स्तर पर अब शायद कुछ अंतर आ गया हो और उसे अब वह आंशिक रूप से अपने बच्चे के लालन-पालन और स्तन –पान आदि से भी प्राप्त करने लगी हो.
इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह पत्नी उस तरह की पत्नी है जो अपने पति का प्रेम प्राप्त करने के लिए किसी भी तरह का श्रम या त्याग करने के लिए तैयार रहती है. किसी भी शर्त पर और कुछ भी करके वह अपने पति के दिल में बसी रहना चाहती है. शायद इसी तरह की पत्नियों के संदर्भ में पहले यह कहा जाता था कि उनके पतियों के दिल का रास्ता उनके पतियों के पेट से होकर जाता है. पति की सुविधा और सुख के लिए किया जाने उसका श्रम प्रेम और श्रद्धा से शून्य नहीं है. मीरा अपने एक पद में प्रेमपूर्ण श्रम की इस चाहत का एक क्लैसिकल उदाहरण प्रस्तुत करती है जब वह कृष्ण का प्रेम पाने के लिए उनकी चाकर बन कर रहना और उनके लिए बाग़ लगाना चाहती है. अतिरिक्त परिश्रम करके और अधिक कष्ट उठा कर भी अंतर्मन को तृप्ति देने वाले भावनात्मक पति-प्रेम की प्राप्ति की भारतीय पत्नी की पारम्परिक चाह की झलक हमें इस कविता में भी मिलती है.
पर इस तरह की एक युवा पत्नी के चित्त में जो परिवर्तन इसके बाद के एक दशक का अंतराल ले आया है उसका अनुमान हमें अष्टभुजा शुक्ल की उस दूसरी कविता को पढ़ कर होता है जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है.
इस दूसरी कविता का शीर्षक है ‘बहुत बैचेन हिया’. यह अष्टभुजा जी के काव्य-संग्रह ‘रस की लाठी’ (राजकमल) के पृष्ठ 26 पर छपी है. यहां भी दृश्य एक शयन कक्ष का ही है जहाँ एक युवा पत्नी अपनी एक दुधमुंही बच्ची के साथ मौजूद है. किंतु हम देख सकते हैं कि इस युवा पत्नी के तेवर अपने पति के प्रति उस पहली कविता की पत्नी जैसे नहीं रह गए हैं. पति को दिए जाने वाले यौन–सुख को अब वह कुछ- कुछ सौदे की चीज़ की तरह देखने लगी है जिसे अपने पिया को देकर वह उसकी कुछ कीमत भी वसूल कर सकती है. बहुत दिनों के बाद पति के साथ सोने की चाह तो बेशक उसके मन में भी होग, उसका जिया भी मिलन की इस आकांक्षा से बहुत बैचेन होगा, पर अपने पति के साथ वह अब एक चतुर सौदागर की तरह पेश आती है. पति की प्रसन्नता के लिए अपनी नींद,अपने आराम और अपनी सुख-सुविधाओं का स्वेच्छया से त्याग करने के बजाय वह अब पति का इस्तेमाल अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए करना चाहती है. अपने समय के व्यापक उपभोक्तावाद ने इस पत्नी को भी अप्रभावित नहीं छोड़ा है. उसे अब इस बात पर ऐतराज़ है कि पति ने अपने मोबाइल को रोमिंग का अतिरिक्त चार्ज लग जाने की वजह से बंद कर दिया है . इस तरह के कंजूस पति को अब वह कोई आदर्श पति नहीं कह सकती:
बरखा ऋतु की उमस बहुत बैचेन हिया
गाड़ी तो चल दी होगी अब निठुर पिया
बन्द मोबाइल बोल रहा क्या बिजली नहीं रही
या रोमिंग कटने की चिन्ता हमसे अधिक कहीं
भारतीय गृहस्थी में पति-पत्नी के परम्परिक श्रम-विभाजन की तस्वीर भी इस पत्नी के मन में पहले जैसी नहीं रह गई है. गृहस्थी चलाने के लिए किसी रोजगार हेतु बाहर रहने वाले पति के रात भर की यात्रा के बाद सुबह घर पहुंचने पर भी इस पत्नी को उसके लिए चाय बना कर देना या उसके आराम की चिंता करना ज़रूरी नहीं लगता. उसे ज़्यादा फ़िक्र अब अपनी और अपनी सोई हुई बच्ची की नींद में खलल डाले जाने की है . इसीलिए वह कहती है :
कुल्ला-दातौन यहीं आकर जो भी करना
उस तरह किन्तु इस बार अंक में मत भरना
शिखा रहेगी हम दोनों के बीच
उसुर-पुसुर मत करना खींचाखींच
संभव है अपने आप को सरलता से प्राप्य न बताने के पीछे भी इस पत्नी की कुछ इच्छा अपने पति की कामेच्छा उकसाने की रही हो. पर उसकी यह धारणा निश्चय अब पक्की हो चली है कि पत्नी होने का मतलब उसके लिए पति की नौकरानी होना नहीं है. नारी-सशक्तीकरण, पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री के परम्परागत शोषण , ग़ैर-बराबरी , ग़ुलामी, बलात्कार ,अन्याय आदि से संबंधित जो बातें वह रात- दिन सुनती रहती है उनके असर से पति के लिए निस्वार्थ भाव से कुछ करने के बारे में वह शायद स्वयं संशय से भर उठी है. उसे विश्वास हो चला है कि वक़्त आ गया है जब हर स्त्री को अपने इंसानी अधिकारों लिए उठ खड़ा होना चाहिए. हर पति को घर के काम में पत्नी का हाथ बँटाना ही चाहिए? इस दूसरी कविता में इसीलिए यह पत्नी अब कई दिनों बाद घर आ रहे इस पति के लिए भी निस्संकोच यह आदेश जारी कर देती है:
गाय पिआ ले उसके पहले ही दुह लेना
पर बछिया के लिए छीमियाँ दो तज देना
पिया को उसका प्यार अब मुफ़्त में नहीं मिल जाने वाला है :जब इतना तप कर लोगे बिन आँखें खोले
सुबह हाफ़ चुम्बन दूँगी समझे बमभोले !
पुराने किस्म के कुछ लोग कह सकते हैं कि पत्नी के इस भावनात्मक परिवर्तन ने अब घर-परिवार को उन बहुत से रसों से शून्य बना दिया है जो पहले उसका एक अविभाज्य अंग हुआ करते थे. वह अब पत्नी के उस पारंपरिक प्रतीक्षा और स्वागत भाव से विहीन होता जा रहा है जिसका वर्णन हम सामान्यतः अपने कई लोक-काव्यों में पाते हैं. पहली कविता का गहरा दाम्पत्य-भाव दूसरी कविता में नदारद सा लगता है. पति-पत्नी के बीच मैत्री, विश्वास, सहयोग, संगीपन और सायुज्य के भावों का स्थान अब व्यक्तिवादी सोच और आत्मकेन्द्रितता ने ले लिया है.
ये पुराने लोग अपने पक्ष में शायद यह भी कह सकते हैं कि पति-पत्नी के बीच का शारीरिक-संबंध एक अधिक गहरे और आत्मीय दाम्पत्य सम्बन्ध का केवल एक थोड़ा सा प्रकट हिस्सा है. साथ ही शायद वे यह भी कह सकते हैं कि स्वैच्छिक और प्रेमपूर्ण श्रम ही किसी परिवार को समृद्धि, मधुरता और आलंबन के गुणों से संयुक्त करता है. अपने नौस्टेल्जिया में उन्हें वे सुनहरे दिन भी याद आ सकते हैं जब घर में किसी मेहमान का आना परिवार के लोगों को खुशी से भर देता था और इस मेहमान को हर गृहस्थ स्वयं तकलीफ़ उठा कर भी अपने पास के सर्वश्रेष्ठ साधन उपलब्ध करवाने की कोशिश करता था.
बहरहाल इस सच से कोई इनकार नहीं करेगा कि हमारे परिवारों और समाज में आने वाले इन परिवर्तनों को अब रोका नहीं जा सकता. पर यह भी एक साहित्यिक सच है कि इन दोनों कविताओं के माध्यम से कवि अष्टभुजा शुक्ल ने जाने-अनजाने भारतीय परिवारों में आ रहे इन परिवर्तनों के बहुत से भावनात्मक पहलुओं का बहुत सटीक और सफल चित्रण किया है.
इस कविता को पढ़ते समय जो एक प्रश्न मेरे मन में आया यह था कि यह पत्नी अपने पति को गाय दुह लेने और ‘बछिया के लिए दो छीमियां तज देने’ की कुछ अजीब और अप्रासंगिक सी बात क्यों कहती है. इसका जो उत्तर मैं स्वयं खोज पाया वह यह था कि एक बच्ची की माँ बन जाने के बाद कवि-कल्पना की यह पत्नी अवचेतन मन में उसके वक्ष को पति की काम-तृप्ति के साधन के साथ-साथ अपनी बच्ची की क्षुधा-तृप्ति के साधन के रूप में भी देखने लगी है.
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सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 गो वि हा बो कोलोनी,
सेक्टर 14,उदयपुर -313001, राजस्थान.
ये दोनों कविताएँ मुझे भी प्रिय हैं लेकिन कभी यह बात दिमाग में आई ही नहीं कि इन्हें साथ रखकर देखा जा सकता है! दोनों कविताओं की काव्यसंवेदना का पल्लवन और उनकी तुलना विश्वसनीय व प्रभावकारी है।
ये दाम्पत्य जीवन के अद्भुत और विरल रूप है ।
यही है लोकजीवन का यथार्थ । प्यारे मीता कवि को बधाई ।
दोनों कविताओं का प्रभावी विश्लेषण !
बहुत सुंदर विश्लेषण लेकिन दाम्पत्य जीवन की कविताओं की परम्परा के ज़िक़्र के बिना यह आलेख अधूरा लगता है । केदारजी की ‘हे मेरी तुम’ और अन्य दाम्पत्य प्रेम की कविताओं की परम्परा की पड़ताल ज़रूरी है । आधा चुम्बन के तो क्या कहने ! आज समालोचन का यह अंक दिखाई दिया तो पढा और लिख दिया । शुक्रिया ।
सुचिंतित एवं पठनीय आलेख के लिए साधुवाद।
बावजूद इसके, इन कविताओं का स्त्रीवादी पाठ कवि की कुछ ऐसी मनोदशाओं का संकेत कर सकता है जो इक्कीसवीं सदी की युवा पीढी को स्वीकार्य न हो।
अष्टभुजा शुक्ल ने रूप विषयक अनेक प्रयोग करते हुए अपने समय की अंतर्वस्तु को पुराने रूप के माध्यम से सफलता के साथ सम्प्रेषित किया है।
सदाशिव जी ने दस वर्ष के अन्तराल से लिखी अष्टभुजा शुक्ल की दो कविताओं की तुलना कर एक सजग आलोचक होने की पुष्टि की है। दाम्पत्य प्रेम पर भी समय का कितना प्रभाव पड़ता है इन दोनों के माध्यम से आलोचक ने लक्षित किया है। अष्टभुजा शुक्ल लोक के कवि हैं, लोक में आये बदलाव पर उनकी दृष्टि रहती है।
दोनों कविताएँ इस दृष्टि से भी अनूठी हैं कि इनमें भारतीय स्त्री का पक्ष सुन्दर तरीके से व्यक्त हुआ है।पुरुष अदृश्य है, वह स्त्री के द्वारा अपरोक्ष रूप से घटित हो रहा है ।बेहतरीन प्रस्तुति है