कैलाश मनहर के सॉनेट |
(एक)
लिप्साओं में ढूँढ़ रहे हो तुम जिस जन को
अपने मन की निर्मलता में तनिक टटोलो
त्याज्य मान कर यश वैभव सुविधा के धन को
शब्द-तुला पर बिन पासंग के उसको तोलो
धरती की माटी और नभ की व्यापकता में
श्रम-बल से वह ओतप्रोत जन यहीं कहीं पर
उर्वर करता होगा बंजरपन अकाल का
गुम्फित गहन गरिष्ठ काल की गाँठें खोलो
वह जो जलती भट्टी में पिघलाता लोहा
वह जो तोड़ रहा है पत्थर उस खदान में
वह जो कूट रही लोहे को भारी घन से
वह जो झुक कर दुहरा हो रहा है लदान में
लो अच्छे-से थाह कृषक औ” श्रमिक हृदय की
वहीं सुनोगे निर्विकार ध्वनि जीवन लय की
(दो)
पाखण्डों के अंध-कूप में निपट मूर्ख जन
पड़े हुये हैं नहीं जानते छद्म तुम्हारा
भोग रहे हैं कुंठाओं की कलुषित कारा
गिरवी रख कर स्वर्णिम सपनों वाला जीवन
सुखानुभव की तन्द्रा में अलसाये सारे
भक्ति-भाव में मग्न आत्म-विस्मृत बेचारे
वायवीय मिथ्या विकास के सुन कर नारे
देख रहे हैं दिवास्वप्न में दीपित तारे
हाय! देश में निर्मम वधिक समय आया है
सत्ता-सुख ने श्रम-निष्ठा को भरमाया है
राष्ट्रवाद का घृणित रूप हर दिशि छाया है
पूज्य बन रही प्रवंचकों की छल-माया है
शोषण के षड्यन्त्र जाल-जंजाल बने हैं
शासन के दुर्गन्धित जबड़े रक्त सने हैं
(तीन)
क्रूर-कुटिल षड्यंत्र रचाने में है माहिर
जो सत्ता के अहंकार में डूबा रहता
जिसकी सारी करतूतें हैं सब पर जाहिर
सींग-पूँछ के बिना फालतू बातें कहता
सब स्वायत्त संस्थाओं पर कब्ज़ा कर के
दुरुपयोग से विरोधियों को दबा रहा जो
लगा लगा कर टैक्स न जाने कैसे कैसे
परिश्रमी निर्धन जनता को सता रहा जो
करता है जो बातें सदा विरोधाभासी
सही बात पर कभी न अपने कान लगाये
जो समाज में अँधास्था का भ्रम फैलाये
समझ रहा है सच्चाई को अपनी दासी
बना विषम दुर्योग देश की किस्मत फूटी
लोकतंत्र को पिला रहा वो विष की घूँटी
(चार)
चला रहा है दमन-चक्र जो यह तानाशाह
श्रमिक-कृषक समुदाय निशाने पर है उसके
बना दिया है देश समूचा ज्यों कि क़त्लगाह
क़ातिल और गुण्डे हैं सब अनुयायी जिसके
शिक्षण संस्थानों में पुलिस-फौज के बल पर
वहाँ अध्ययनरत छात्रों पर जो हमला करते
नाज़ीवादी हिटलर के साँचे में ढल कर
ग़ैरधर्म के लोगों को जेलों में धरते
वे जिनका आचरण रहा पूरा सन्देहास्पद
अहँकार में चूर हुये सत्ता पाकर अब
कृषक-श्रमिक ही नष्ट करेंगे उनका सब मद
नई क्रान्ति के उठ्ठेंगे नारे चहुँदिशि जब
जुल्मी सत्ता के सम्मुख अब कृषक तनेंगे
और इसके ताबूत की अन्तिम कील बनेंगे
(पाँच)
कितना झूठ सहें बोलो अब इस प्रधान का
उत्तर में क्या कहता पूरब में क्या जाने
मान नहीं रखता जो बिल्कुल संविधान का
नित काले क़ानून बनाता है मनमाने
भ्रमित हो रहा है समाज सब इसके छल से
करता है फुंफकार विषैली हर भाषण में
मतलब नहीं इसे जनता के कोलाहल से
कट्टरता की बदबू आती है प्रतिक्षण में
जो मरियल विपक्ष की हरदम हंसी उड़ाता
रहता है बहुमत के अहंकार में डूबा
तानाशाही का है जो एक क्रूर अज़ूबा
लोकतंत्र को लगातार जो जाये सड़ाता
हाय! देश के सिर पर बैठा काला कौवा
और प्रधान दिखलाता हमें धर्म का हौवा
(छह)
बात मुझे कहनी है शोषित-वंचित जन की
डर-डर कर जो मरे जा रहा भीतर-भीतर
मात्र कमाई पीड़ा है जिसके जीवन की
मँहगाई की मार पड़ रही प्रतिदिन जिस पर
झूठे आश्वासन हैं जिसका खाना-पानी
जो धर्मांध छलावों से नित छला जा रहा
राजनीति करती जिससे अपनी मनमानी
सुविधा हित सत्ता के पीछे चला जा रहा
मंदिर-मस्ज़िद के दलदल में धँसा हुआ जो
बिन सोचे-समझे कुछ भी करने को तत्पर
गाय और सूअर के भ्रम में फँसा हुआ जो
आपस में लड़ता झूठी अफ़वाहें सुन कर
उस जन को जागृत करने की अभिलाषा में
रचता हूँ कविता परिवर्तन की आशा में
(सात)
मिलीभगत से झूठ और पाखण्डीपन की
गु़ज़रा है काफ़ी मुश्किल से साल पुराना
रहा प्रधान सुनाता बातें अपने मन की
लेकिन जनता के दु:खों को नहिं पहचाना
अँधास्था का भ्रम फैला कर शासक ढोंगी
हुये उतारू लोकतन्त्र की हत्या करने
अति बड़बोले साधु-साध्वियाँ योगी-भोगी
आमादा सब संविधान को पशुवत चरने
क़ैद किया है स्वर्ग फौज़ के बल दुष्टों ने
फिर काला कानून बना कर आग लगाई
आत्मा की है देश की आहत उन भ्रष्टों ने
लगा कि शासक ख़ुद ही बन बैठे दंगाई
बहुत ही अत्याचार सहे हैं गये साल में
सब मिल कर प्रतिरोध करेंगे नये साल में
(आठ)
सदा खून में ही बहती जिसके मक्कारी
पास फटकने में भी सच घबराने लगता
बातों से विषभरी चलाये छुरी दुधारी
जुमलेबाज़ी से जनता को हरदम ठगता
जाने मिला देश को कैसा यह प्रधान है
मानवता के प्रति नफ़रत का व्यापारी ये
बुलवाता है सभासदों से ख़ुद अपनी जै
फैला रहा देश में संस्कृति हत्यारी ये
बात-बात में जो बहुमत का रौब़ झाड़ता
हाथ नचा कर बातें करता सदा फ़ालतू
बड़बोलेपन में बातों के थान फाड़ता
बने हुये हैं भक्त बहुत-से श्वान पालतू
यह प्रधान है असलियत में बज्जर झूठा
बना देश को मूर्ख दिखाये जाय अँगूठा
(नौ)
आन्दोलित है कृषक वर्ग इन दिनों देश में
तानाशाही के विरोध में निकल रहे हैं
लोग,फंसे हैं जो सत्ता के कुटिल क्लेश में
हाथ मिला कर स्थितियों को बदल रहे हैं
राष्ट्रवाद का छद्म मुखौटा पहने कपटी
सत्ताधारी अहंकार में ज़ुल्म कर रहे
दिखती है केवल सत्ता की झपटा-झपटी
सच्चाई की आँखों से बस अश्रु झर रहे
भ्रमित कर रहे जो काले कानून बना कर
सभी मंत्री अलग-अलग वक्तव्य दे रहे
दिन-प्रतिदिन जो अँधेरे को और घना कर
धनपतियों के बल पर अपनी नाव खे रहे
इस अत्याचारी सत्ता को करने बाहर
डटे हुये हैं ये किसान अब डगर-डगर पर
(दस)
झूठ बोलता है अक्सर जो बात-बात में
लड़ने को तैयार बना रहता है हर दम
निर्धन जन के शोषण की जो रहे घात में
कभी सामने धन-बल के जो न ठोके खम
जिसने सब इतिहास देश का तोड़-मरोड़ा
जिसको तर्क-विवेक ज़रा भी नहीं सुहातेी
दौड़ाते कपटी विकास का अँधा-घोड़ा
शर्म नहीं आती झूठी चिन्ता जतलाते
हर भाषण में विरोधियों को भौंडी भाषा
में जो गाली देता प्राय: हाथ नचा कर
सर्वोपरि बनने की कुंठित है अभिलाषा
जिसके मन में अँधास्था का खेल रचा कर
राष्ट्रवाद का पहन मुखौटा वह पाखण्डी
लगा बेचने देश उखाड़ो उसकी झण्डी
(ग्यारह)
हर महिने वह मन की बात सुनाये है पर,
मन के भीतर भरा हुआ है विष कितना ही
छल-छद्मों से उसका नाता रहा उम्र भर,
जबकि विषैला वह लगभग सर्पों जितना ही
भूल राष्ट्र को राष्ट्रवाद की बात करे है,
धर्मास्था के नाम बना पाखण्डी पक्का
कुटिल-कर्म से जो सत्ता के लिये मरे है
चला रहा विपरीत देश की गति का चक्का
मनचीता उसका करते सब चेले-चाँटी,
राजनीति के लिये भेद करता जन-जन में
जाति-धर्म में उसने जनता बाँटी-छाँटी,
व्याप्त हुआ भय अल्पसंख्यकों के जीवन में
जाने कैसा मिला देश को है यह शासक
ले विकास का नाम बन रहा क्रूर विनाशक.
कैलाश मनहर 02 अप्रैल, 1954. कविता की सहयात्रा में, सूखी नदी, उदास आँखों में उम्मीद, अवसाद पक्ष, हर्फ़ दर हर्फ़, अरे भानगढ़़, मुरारी माहात्म्य एवं मध्यरात्रि प्रलाप (कविता संग्रह) तथा मेरे सहचर: मेरे मित्र (संस्मरणात्मक रेखाचित्र) प्रकाशित.प्रगतिशील लेखक संघ, राजस्थान द्वारा कन्हैया लाल सेठिया जन्म शताब्दी सम्मान, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, श्री डूँगरगढ़ द्वारा डॉ.नन्द लाल महर्षि सम्मान एवं कथा संस्था जोधपुर द्वारा नन्द चतुर्वेदी कविता सम्मान प्राप्त. जयपुर (राजस्थान) |
एक से बढ़कर एक
‘मनहर’ सर को काफी पढ़ती हूँ और इनसे बहुत कुछ सीखती हूँ। मैंने सानेट के विषय में थोड़ा सा शमशेर बहादुर सिंह के संस्मरण में पढा था।
छंद लिखने में काफी रुचि है इसलिए सानेट पढ़े भी पर सीख नहीं पाई ।राजाराम भादू सर की पोस्ट के बाद आज फिर मनहर सर के शानदार और मार्मिक सानेट पढ़े।
प्रणाम सर.. जो आप निडरता से अपनी बात कह पाते हैं 🙏🙏
बात मुझे कहनी है शोषित-वंचित जन की
डर-डर कर जो मरे जा रहा भीतर-भीतर
मात्र कमाई पीड़ा है जिसके जीवन की
मँहगाई की मार पड़ रही प्रतिदिन जिस पर
आप तो छंदों के बादशाह हैं! अरुण जी ने इन्हें और गरिमा प्रदान कर दी.
दो या तीन किस्म के साॅनेट दिख रहे हैं। कुछ प्रयोग भी हैं। अच्छा है। इन साॅनेट्स का कथ्य भी पारम्परिक सानेटों से अलग है।
बढ़िया काम।
सानेट को साध लिया है हिन्दी की प्रकृति के अनुसार। तानाशाह के चरित्र की बखिया भी खूब उधेड़ी है। किसान आंदोलन और कृषक मजदूर वर्ग को लेकर भी बेहतरीन। बहुत बहुत मुबारक।