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समालोचन

Home » प्रतिरोध के अभिप्राय और तुलसीदास का महत्त्व: माधव हाड़ा

प्रतिरोध के अभिप्राय और तुलसीदास का महत्त्व: माधव हाड़ा

किसी कवि की इससे बड़ी सफलता क्या होगी कि उसका काव्य इतना लोकप्रिय हो जाए कि घर में किसी मांगलिक आयोजन से पहले उसका सामूहिक पाठ किया जाए, और विडंबना यह कि उसे बिना समझे किसी धार्मिक अनुष्ठान की तरह किया जाए. महाकवि तुलसीदास की कविता और उसके मंतव्य को लेकर मंथन चलता ही रहता है. उनकी काव्य-कला की सर्वोच्चता स्वीकार करते हुए उनके अर्थात को लेकर सवाल उठते रहें हैं, और यह हिंदी साहित्य के प्रारंभ से है. सरस्वती के संपादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने रामचरितमानस के कई प्रसंगों पर ‘हिंदी नवरत्न’ में मिश्र बन्धुओं की आलोचना का स्वागत किया था. आलोचक माधव हाड़ा ने तुलसीदास को उनके समय की स्थितियों में रखते हुए उनका पक्ष रखा है.

by arun dev
August 18, 2021
in आलोचना
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प्रतिरोध के अभिप्राय और तुलसीदास का महत्त्व: माधव हाड़ा
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प्रतिरोध के अभिप्राय और तुलसीदास का महत्त्व

माधव हाड़ा

तुलसी परंपरा के समर्थन में और उसके साथ हैं, यह बात आजकल उनकी महिमा के क्षरण का कारण बन गयी है. हिंदी में जब से विमर्शों का अतिरेक चलन में आया है, तब से तुलसी सहित सभी प्राचीन और मध्यकालीन कवियों को केवल उनके दलित और स्त्री संबंधी सरोकारों तक सीमित कर उनकी महिमा के दूसरे आयामों की उपेक्षा की जा रही है. कुछ विद्वान तुलसी को कबीर के सामने रखकर उनकी कविता में परंपरा के विरोध के अभाव को भी उनकी कमज़ोरी बता रहे हैं. हिंदी में साहित्य के मूल्यांकन में इस तरह प्रतिरोध की चेतना का सर्वोपरि और एक मात्र कसौटी के रूप में मान्य और स्वीकार्य हो जाना और इससे साहित्य की समझ और उसके महत्व के निर्धारण की दूसरी कसौटियों का हाशिये पर चले जाना अच्छा संकेत नहीं है.

तुलसी का मूल्यांकन और महत्व निर्धारण केवल प्रतिरोध की चेतना के कुछ रूढ अभिप्रायों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए. उनमें प्रतिरोध की चेतना नहीं है, यह धारणा ग़लत है. उनका प्रतिरोध परंपरा के दायरे में है और यह ढोल बजाकर किए गये प्रतिरोध से अधिक प्रभावी और स्वीकार्य है. अन्याय और उत्पीड़न का प्रतिरोध किसी भी समाज के सांस्कृतिक रूपों में बहुत ज़रूरी है, लेकिन यह किसी भी स्वस्थ समाज की असामान्य अवस्था है. प्रतिरोध की निरंतरता किसी भी स्वस्थ समाज की स्थायी अवस्था या लक्षण कभी नहीं होता. सांस्कृतिक रूपों में सजगतापूर्वक निरंतर प्रतिरोध के आग्रह और मौजूदगी से अक्सर धीरे-धीरे कुछ रूढ़ियों और अभिप्राय बन जाते हैं, जिससे साहित्य की प्रभावशीलता का क्षरण होता है.

 

1.

 

 

जार्ज ग्रियर्सन की तुलसी के संबंध में यह टिप्पणी सही है कि “वे बुद्धदेव के बाद भारत के सबसे बड़े लोकनायक थे.”

लोक संग्रह और जीवन के विस्तार-वैविध्य के मामले में तुलसीदास की कविता हिंदी में ही नहीं, समस्त भारतीय कविता में अलग और ख़ास है. वे परंपरा के साथ और समर्थन में रहे, लेकिन परंपरा के प्रतिरोध में रहने वालों से अधिक उन्होंने इसका संस्कार-परिष्कार किया. परंपरा के साथ होने के कारण जनसाधारण में उनकी स्वीकार्यता का अभूतपूर्व विस्तार हुआ और इसका उपयोग उन्होंने जनसाधारण के सामने जीवन के आदर्श रखने और इन्हें आचरण में लाने के लिए किया. उन्होंने जिस तरह से बिना किसी प्रतिरोध के अपने समय के विरुद्धों का सामंजस्य और समन्वय किया, यह उनकी सबसे उपलब्धि और सफलता है. उनके समय में ईश्वर दुर्लभ और असाधारण की श्रेणी में था, लेकिन उन्होंने उसको जनसाधारण की अपनी भाषा और व्यवहार में उतारकर उसको सबके लिए सुलभ की श्रेणी में ला खड़ा किया.

शास्त्र और परंपरा को बिना गरियाये-लतियाये उनका यह कार्य बहुत आश्चर्यकारी है. तुलसी के व्यक्तित्व, कार्य और साहित्य को देखकर लगता है कि परिवर्तन और क्रांति बिना उखाड़-पछाड़ और तोड़-फोड़ के भी हो सकती है. उन्होंने बिना किसी को दोषी-अपराधी ठहराये, बिना किसी पर कोई आरोप-प्रत्यारोप लगाए आदर्शों की रचना कर जनसाधारण को उन पर चलने-ढलने के लिए तैयार कर दिया. भक्ति आंदोलन में तुलसी की मौजूदगी बहुत प्रमुख और ध्यानाकर्षक है. भक्ति आंदोलन के वर्गीकरण में एक तरफ़ सभी कृष्ण भक्त कवि और उनका साहित्य हैं, जबकि दूसरी तरफ़ उनके बरअक्स अकेले तुलसी हैं. कृष्ण भक्त कवियों में एक-दूसरे के समकक्ष एकाधिक लोग हैं, जबकि तुलसीदास के समकक्ष कोई नहीं है और उनकी तुलना भी किसी नहीं है.

तुलसी और उनकी कविता पर उनके समय और समाज का गहरा प्रभाव है. तुलसीभक्त होते हुए भी अपने समय और समाज की ओर पीठ करके खड़े हुए व्यक्ति नहीं थे. उनकी कविता में उनका समय और समाज परोक्ष और प्रत्यक्ष, दोनों तरह से है. ‘कवितावली’ और ‘विनय पत्रिका’ में वे अपने समय और समाज के साथ सीधे रूबरू हैं. उनके समय में सल्तनत की लंबी पराधीनता के बाद जनसाधारण मुगलों के नए निज़ाम में रहने-जीने की आदत डाल रहा था. बाबर 1526 ई. में इब्राहिम लोदी को परास्त करने के बाद 1527 ई. में राणा सांगा को भी हराकर यहाँ मुगल साम्राज्य की नींव रख चुका था और 1530 ई. तक शासन भी कर चुका था. उसके बाद हुमायूँ और फिर 1556 से 1605 ई. तक अकबर सत्तारूढ़ रहा. हुमायूँ और उसके बाद ख़ासतौर पर अकबर के समय कुछ हद तक राजनीतिक स्थिरता आ गई थी.

सल्तनतकालीन शासकों की तुलना में अकबर सहिष्णु भी था और धार्मिक मामलों में उसकी नीति कमोबेश अहस्तक्षेप की थी. तुलसी ने पठानों और मुगलों का संघर्ष देखा था और इस कारण रही क्षेत्रीय अस्थिरता और असुरक्षा का भी उनको अनुभव था. उनकी कविता में रामराज्य को विचार इस अनुभव की प्रतिक्रिया के कारण है. तुलसी के समय जनसाधारण की सामाजिक स्थिति बहुत ख़राब थी. वर्णाश्रम के आदर्श की स्मृति थी, लेकिन यथार्थ में ये दोनों ही अपना रूप खो चुके थे. वर्ण व्यवस्था अमानवीय जातीय सोपान क्रम में ढल गई थी. वर्ण और जातीय गतिशीलता थी, लेकिन आग्रह इनको बनाए रखने का था.

मुसलमानों की मौजूदगी से पारंपरिक सामाजिक ताना-बाना हिल गया था. शासकों और उनकी तांत्रिक व्यवस्थाएँ जनसाधारण को लेकर उदासीन थीं. जनसाधारण का जीवन मुश्किल में था- उसे जीवन की आधारभूत सुविधाएँ भी मुहैया नहीं थीं. बार-बार पड़ने वाले अकालों और युद्ध अभियानों से जनसाधारण त्रस्त था. अकबर के शासनकाल 1556 ई. और 1573-74 ई. पड़े अकालों से जनसाधारण की हालात बहुत ख़राब थी. महामारियों का प्रकोप भी जनसाधारण पर अलग से था. शासक और अन्य अमीर-उमरा आराम और विलास का जीवन व्यतीत करते थे. समय की यह उठा-पटक उनकी कविता में कई तरह से आती है. ‘विनय पत्रिका’ और ‘कवितावली’ में यह बहुत मुखर और पारदर्शी है.

तुलसी के समय भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था. उत्तर और दक्षिण में कई धार्मिक विचार और संप्रदाय फैले हुए थे. दक्षिण में आलवार और नायनार संत-भक्तों ने भक्ति को प्रपत्ति से जोड़कर जनसाधारण के लिए सुलभ कर दिया. आंशिक प्रतिरोध के बाद भक्ति के लिए वर्ण और जाति की बाधाएँ भी ख़त्म हो गई थीं. रामानुजाचार्य, विष्णु स्वामी, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य आदि विचारकों ने भक्ति को एक दार्शनिक आधार भी दे दिया था. रामानंद आदि के माध्यम से दक्षिण का भक्ति आंदोलन उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हो रहा था, लेकिन यहाँ स्थिति अलग थी. यहाँ दक्षिण से अलग जनसाधारण में अभी भी बौद्धमत की जड़ें थीं और उससे भी अधिक यहाँ इस्लाम मौजूद था और ख़ास बात यह कि यह शासकों का धर्म था.

भक्ति आंदोलन ने यहाँ प्रपत्ति के साथ बौद्धमत और इस्लाम के प्रभाव में अलग रूप भी धारण किया. बोद्ध मत की परंपरा यहाँ सिद्धों और नाथों से होती हुई संत मत तक आई. संत मत ने समाज में जीवन विरत साधु-सन्यासियों को ख़ूब को प्रश्रय दिया. भक्ति आंदोलन ने न्याय और समता आधारित जीवन और व्यवस्था के लिए माहौल बनाया, लेकिन इससे शैव, शाक्त, वैष्णव जैसी संकीर्णताएँ और मत-मतांतर भी बढ़े. एक और परिवर्तन हुआ‌-

“नीच समझी जाने वाली जातियों में कई पहुँचे हुए महात्मा हो गए थे, उनमें आत्मविश्वास का संचार हो गया था, पर, जैसा कि साधारणतः हुआ करता है, शिक्षा और संस्कृति के अभाव में यही आत्मविश्वास दुर्वह गर्व का रूप धारण कर गया था.”

तुलसी भक्ति आंदोलन के इन बनते-बिगड़ते रूपों से अवगत थे. उन्होंने अपनी राह इन सबके बीच में रहकर, इनके साथ अतःक्रिया से बनायी.

तुलसी के समय साहित्य में कई शैलियाँ और कथा-कवि समय विद्यमान थे और उन्होंने इन सभी को अपनाया. वीरगाथा काव्य की परंपरा बहुत पहले से थी और तुलसी ने इसमें प्रयुक्त कवित्त, छप्पय, तोमर आदि छंदों की ‘कवितावली’ और ‘रामचरितमानस’ के लंकाकांड में अपनाया. सिद्धों-नाथों की साखी शैली के दोहों का प्रयोग उन्होंने ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘रामाज्ञाप्रश्न’ और ‘दोहावली’ में किया. गीतिकाव्य की पद शैली की परंपरा संतों और कृष्ण भक्त कवियों के यहाँ थी. तुलसी ने इसका प्रयोग ‘गीतावली’, ‘कृष्णगीतावली’ और ‘कवितावली’ में किया. तुलसी अपने समय के जनसाधारण में प्रचलित लोकगीतों से प्रभावित हुए. उन्होंने ‘जानकी मंगल’, ‘पार्वती मंगल’, ‘रामलला नहछू’ आदि में सोहर आदि लोकगीतों प्रयोग किया. तुलसी के समय दोहा-चौपाई वाली कड़वक शैली का प्रचलन ख़ूब था. यह परंपरा प्राकृत-अपभ्रंश से चली आती थी. इसका उपयोग प्रेमाख्यानक सूफ़ी कवियों ने भी किया. तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में प्राकृत-अपभ्रंश की यही कड़वक शैली अपनायी. यह धारणा निराधार है कि इसके लिए वे जायसी और दूसरे प्रेमाख्यानक कवियों के ऋणी हैं.

 

2.

 

 

तुलसीदास ने परंपरा के दायरे के भीतर रहकर अपने समय और समाज की ज़रूरतों के अनुसार अपने लिए एक भक्ति पद्धति और दर्शन का विकास किया. उनके भक्ति दर्शन में भक्ति और दर्शन के सभी संप्रदायों की स्मृति और संस्कार थे. यह मुख्यतया वह समय था जब शंकर के अद्वैत और मायावाद के विरोध में कई सिद्धांत और मत-मतांतर अस्तित्व में आ गए थे. कुछ आचार्य ज्ञान और भक्ति, शैव और वैष्णव मतों में समन्वय के लिए भी प्रयत्नशील थे. तुलसी ने इन सभी मत-मतांतरों में जो ग्राह्य था, उसको लिया और उसके आधार अपनी राय कायम की. उनकी भक्ति की परिणति अंततः मानवतावाद में होती है. तुलसी के राम निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार और सगुण-साकार तीनों हैं. ज्ञानवादी  दार्शनिकों ने ईश्वर को निर्गुण, निराकार, अगोचर और गुणातीत माना, जो भक्तों का आलंबन नहीं हो सकता था. निर्गुण संप्रदाय के कबीरादि संतों का राम इसलिए निराकार होते हुए भी दया आदि गुणों से युक्त है.

सगुण भक्तों का राम अवतारी है- वह भक्तों के उद्धार के लिए अवतीर्ण होता है और लीला करता है. तुलसी ने इन तीनों का सामंजस्य किया- उनके राम सगुण हैं, लेकिन वे एक साथ साकार और निराकार, दोनों हैं. उनके लिए सगुण और निर्गुण में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है. उन्होंने कहा कि

“सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा.
गावहि मुनि पुरान बुध वेदा.
अगुन अरूप अलख भज जोई.
भगत प्रेम बस सगुन सो होई.”

तुलसी जीवन विरत या विमुक्त भक्त नहीं हैं. संसार के नश्वर होने का विलाप उनके यहाँ अन्य संत-भक्तों की तरह नहीं के बराबर है. उनके अनुसार माया राम की शक्ति है. वह राम के साथ ही अवतार लेती है. उन्होंने मानस में शिव के मुख से कहलवाया कि “आदि सक्ति जेहिं जग उपजाया. सोउ अवतरिहिं मोरि यह माया.” तुलसी ने वैष्णव वेदांतियों की तरह माया के दो भेद, विद्या और अविद्या किए. तुलसी जब माया की निंदा करते हैं, तो यह अविद्या माया है. तुलसी के लिए यह संसार असत्य और मिथ्या नहीं है. उनके अनुसार राम जगत के निमित्त और कारण हैं. उन्होंने ‘मानस’ में कहा है कि ‘‘जेहि सृष्टि उपाई त्रिविध बनाई संग सहाय न दूजा.” जीव को तुलसी ईश्वर राम का अंश मानते हैं और वह ‘सत्य, चेतन और आनंदमय’ है. वह अविद्या माया के अधीन अपने को भूलकर संसार में कष्ट पाता है. उन्होंने कहा है कि

“ईसवर अंस जीव अबिनासी. चेतन अमल सहज सुखरासी॥
सो माया बस भएउ गोसाईं. बंध्यों कीट मर्कट की नाई॥”

उनका जीव संबंधी नज़रिया वेदान्तियों के प्रतिबिंबवाद से अलग है. वे यह नहीं मानते कि प्रकृति पर ब्रह्म का जो प्रतिबिंब पड़ता है वही जीव है. जीव उनके अनुसार ईश्वर का अंश और नित्य है. तुलसी भक्त हैं और भक्ति ही उनके लिए मोक्ष का साधन है, लेकिन उन्होंने वैष्णव होने के कारण धर्म, वैराग्य, योग आदि को मोक्ष में सहायक माना है और मानस में वे गाहे-बगाहे यह उल्लेख भी करते चलते हैं. उनके लिए वर्णाश्रम धर्म और मानव धर्म, दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं. उनके अनुसार धर्म के आचरण से साधक का चित्त निर्मल हो जाता है, चित्त शुद्धि से सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य उत्पन्न होता है और इससे अष्टांग योग की उपलब्धि होती है. भक्ति में उन्होंने निश्चल प्रेम और समर्पण को महत्त्व दिया और उनके अनुसार यह अधिकारी की योग्यता पर निर्भर करती है. इस कारण राम-लक्ष्मण के लिए उन्होंने भगवत पुराण की आचारपरक विधिविधान वाली नवधा भक्ति, जबकि शबरी के लिए सत्संग आदि लोक सामान्य सुलभ भक्ति का विधान किया. तुलसी व्यर्थ विरोध और खंडन आदि में नहीं पड़ते, लेकिन सनातन धर्म और अवतारवाद का विरोध करने वालों प्रति उनके मन में नाराज़गी और रोष का भाव ज़रूर है. यह उन्होंने जब-तब व्यक्त भी किया. ‘दोहावली’ में एक जगह वे लिखते हैं कि “साखी, सबदी, दोहरा, कहि, कहिनी उपखान. भगति निरूपहि भगत कलि निंदहिं वेद पुरान..” रामचंद्र शुक्ल ने भी उनकी इस पीड़ा का पहचाना. उन्होंने लिखा कि “लोक मर्यादा का उल्लंघन, समाज व्यवस्था का तिरस्कार, अनाधिकार चर्चा भक्ति और साधना का मिथ्या दंभ, मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्र की निंदा, ये सब बातें ऐसी थीं, जिनसे गोस्वामीजी की अंतरात्मा बहुत व्यथित हुई.”

 

3.

 

 

तुलसीदास का महत्त्व, सफलता और लोकप्रियता उनके लोक संग्रह और समन्वय की चेतना के कारण है. रामचंद्र शुक्ल तुलसी के लोक संग्रह पर मुग्ध हैं. उन्होंने तुलसी को ‘लोक व्यवस्थापक‘ कहा है. सुधारकों के संबंध में शुक्लजी की राय अच्छी नहीं है. उनके अनुसार “मत प्रवर्तकों या सुधारकों के कारण लोक में शांति स्थापित होने के स्थान पर अब तक अशांति ही होती आई है.” रामचंद्र शुक्ल समाजशास्त्री गिडिंग के हवाले से जनसाधारण के चार वर्ग- लोकसंग्रही, लोक बाह्य, अलोकोपयोगी और लोकविरोधी करते हैं. लोकबाह्य उनके अनुसार वे हैं, जो लोक के हिताहित से उदासीन रहते हैं, जबकि अलोकोपयोगी समाज से संबद्ध तो दिखते हैं, लेकिन आलसी और निकम्मे होते हैं. लोकविरोधियों को लोक से द्वेष होता है और वे उसकी व्यवस्था और अनुशासन से खफ़ा रहते हैं. लोक संग्रही वे हैं, जो

“समाज की व्यवस्था और मर्यादा की रक्षा में तत्पर रहते हैं और भिन्न-भिन्न वर्गों के संबंध को सुखवाह और कल्याणप्रद करने की चेष्टा करते रहते हैं.”

उनके अनुसार तुलसी लोक संग्रही थे- समाज की मर्यादा, व्यवस्था और अनुशासन की उनको चिंता थी. अपनी इसी चिंता के निवारणार्थ उन्होंने राम का चरित्र गढ़ा. उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम सहित भाई, माता, पिता, मित्र, सेवक, पत्नी आदि के आदर्श चरित्र जनसाधारण के सामने रखे, जिससे समाज की व्यवस्था, मर्यादा और अनुशासन बना रहे. भगवान राम के रूप में उन्होंने ईश्वर का ऐसा रूप गढ़ा, जो लोक की रक्षार्थ लीला में प्रवृत्त होता है. तुलसी के समय जनसाधारण में साधुओं की तीन कोटियाँ थीं- एक वे जो प्रेम मग्न और संसार विरत थे, दूसरे वे जो अनधिकार ज्ञान के दंभ से समाज के आदर्शों की अवमानना और अपमान कर रहे थे और तीसरे वे जो हठ योग और रसायन आदि के चमत्कारों से जनसाधारण को भ्रमित कर रहे थे. इन तीनों वर्गों के साधुओं से समाज के लोकधर्म में प्रवृत्ति की कोई आशा नहीं थी. लोक धर्म की प्रतिष्ठा का काम तुलसीदास ने किया. उन्होंने इन तीनों से अलग राह पकड़ी. उन्होंने जनसाधारण के बीच रहकर सनातन धर्म के आदर्शों को ‘रामचरितमानस’ के रूप में पुनर्जीवन दिया. उन्होंने आदर्शों और मूल्यों का सृजन कर केवल अपने समय और समाज का ही मार्ग प्रशस्त नहीं किया, उन्होंने भावी समाज की बुनियाद भी रखी. हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो “आज साढ़े तीन सौ वर्ष बाद भी इस विषय में कोई संदेह नहीं रह गया है कि उन्होंने सचमुच ही भावी समाज की सृष्टि की थी. आज का उत्तर भारत तुलसीदास के आदर्शों पर गठित हुआ है. वही उसका मेरुदंड है.”

तुलसीदास में समन्वय की असाधारण प्रतिभा और बुद्धि थी. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी सफलता के रहस्य का खुलासा करते हुए लिखा कि “वे समन्वय की विशाल बुद्धि लेकर पैदा हुए थे.” तुलसी भारतीय समाज के वैविध्य और एक-दूसरे अलग और कई विरोधी मत- मतांतरों के संबंध में अच्छी तरह जानते थे. उनका अपना वैयक्तिक जीवन भी इस सामाजिक वैविध्य और विरोध के बीच व्यतीत हुआ. वे ऐसे व्यक्ति थे, जो लोक और शास्त्र, दोनों के ज्ञाता थे और यह असाधारण संयोग था. उनकी रचनाओं यह साफ़-साफ़ दिखता भी है. ‘रामचरितमानस’ ऐसी रचना है, जिसमें धुर विरोधी तत्त्वों को एक-दूसरे में साफ़-साफ़ घुलते-मिलते देखा जा सकता है. वैराग्य और गार्हस्थ्य, भक्ति और ज्ञान, भाषा और संस्कृत, निर्गुण और सगुण, पुराण और काव्य, ब्राह्मण और चांडाल, पंडित और अपंडित, राग और  विराग आदि बिना किसी अंतर्विरोध के एक-दूसरे के साथ हैं.

तुलसीदास के समय सांप्रदायिक मत-मतांतर अपने चरम पर थे और कहीं-कहीं उनमें पारस्परिक संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता का भाव भी था. तुलसीदास की रचनाओं में जगह-जगह इस विरोध का परिहार और शमन है. शैवों और वैष्णवों की प्रतिद्वंद्विता और विरोध का परिहार ‘रामचरितमानस’ में एकाधिक स्थानों पर है. उन्होंने ‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’, जिसमें शिव हरि मंत्र के जापक कह गए हैं, के हवाले से राम के मुँह से कहलवाया कि “शिवद्रोही मम दास कहावे. सो नर सपनेहु मोहिं न भावै॥” आशय यह है कि शंकर प्रिय, मम द्रोही, शिवद्रोही, ममदास मुझे पसंद नहीं है. उन्होंने हिन्दू समाज में एकाधिक देवों की उपासना के कारण होने वाले विभेद का भी निराकरण किया. तुलसीदास रामभक्त हैं, लेकिन लोकाचार के अनुसार उन्होंने मानस की शुरुआत में गणेश वंदना की है. तुलसी की यह समन्वय चेतना सामाजिक विभेदों, मत-मतांतरों के पारस्परिक विरोधों आदि के शमन में निर्णायक सिद्ध हुई. उनकी इस प्रतिभा और बुद्धि ने उन्हें समाज के सभी वर्गों और स्तरों में मान्य और स्वीकार्य बनाया.

 

4.

 

 

भक्ति आंदोलन के अन्य संत-भक्तों से अलग तुलसी शास्त्र सिद्ध कवि भी थे. उनकी कविता इसीलिए केवल भावावेग नहीं है, यह कविता भी है. श्यामसुंदरदास ने सही कहा है कि उनमें “काव्य कवित्व और शास्त्र कवित्व का अद्भुत समन्वय था.” तुलसीदास ने अपने समय के सभी प्रचलित काव्यरूपों और शैलियों का प्रयोग किया. उन्होंने इनका प्रयोग ही नहीं किया, इनको अपनी काव्य प्रतिभा से पुनर्नवा भी किया. उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी छंदों- चौपाई, दोहा, कुंडलियाँ, कवित्त, बरवै आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया. लोकगीतों को विभिन्न रूप- सोहर, नहछू, चांचर, बेली, बसंत आदि भी उनकी कविता में आ गए हैं. तुलसी को अलंकार योजना में महारत हासिल है और यह उनकी काव्यशास्त्रीय शिक्षा और अभ्यास के कारण है. तुलसी उपमा, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग करते हैं, लेकिन उनका प्रिय अलंकार उत्प्रेक्षा है. उनकी कविता में ऐसा स्थल मुश्किल से ही मिलेगा, जहाँ उत्प्रेक्षा का प्रयोग नहीं हुआ हो. तुलसी का मन मनुष्य की अंतःप्रकृति में रमता है और वे उसी का चित्रण भी करते हैं और इसके लिए प्राकृतिक उपादानों का सहारा लेते हैं. सादृश्य विधान में तुलसी के यहाँ नवाचार है, लेकिन वे कवि रूढ़ियों की उपेक्षा या अनदेखी नहीं करते.

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लक्ष्य किया है कि ‘कंज’ का रूढ़ उपमान उनकी कविता में सर्वाधिक प्रयुक्त हुआ है. तुलसीदास का भाषा पर असाधारण अधिकार है. यह उनकी कविता में अवसर और चरित्र के अनुकूल ढल जाती है. देश भाषा में संस्कृत का प्रयोग उन्होंने बहुत सहज ढंग से ऐसे किया गया है कि यह अलग लगता ही नहीं है. तत्सम और और पर्याय शब्दों की उनके यहाँ भरमार है. उनकी भाषा मुहावरेदार है- इसमें मुहावरे बहुत सहज और अनायास ढंग से आते हैं. उनकी भाषा में प्रवाह भी है और लचीलापन भी. जहाँ ज़रूरत होती है, तुलसीदास का अपना व्यक्तित्व इस भाषा में पारदर्शी होता है. ख़ास तौर पर ‘विनय पत्रिका’ की भाषा बहुत व्यंजक और प्रभावशाली है. यह भाषा लौकिक और शास्त्रीय के बीच आती-जाती है. हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो

“जहाँ भाषा साधारण और लौकिक होती है, वहाँ तुलसीदास की उक्तियाँ तीर की तरह चुभ जाती है और जहाँ शास्त्रीय और गंभीर होती है वहाँ पाठक का मन चील तरह मँडराकर प्रतिपादित सिद्धांत ग्रहण कर लेता है.”

तुलसीदास ने अवधी और ब्रज दोनों का इस्तेमाल किया. अवधी उनके समय में प्रबंध की भाषा बन चुकी थी, इसलिए मानस में उन्होंने इसका प्रयोग किया, जबकि ब्रज उस समय मुक्तक की भाषा थी, इसलिए ‘विनय पत्रिका’ आदि में उन्होंने ब्रज का प्रयोग किया. उनकी ब्रज में उस समय की चाल-चलगत में आ गई अरबी-फ़ारसी के शब्दों से परहेज नहीं है. ‘विनय पत्रिका’ के अंग्रेजी अनुवादक ने उनके भाषा शिल्प की जमकर सराहना की है. उन्होंने लिखा है कि

“वस्तुत: अनुवाद के माध्यम से तुलसी की भाषा का अनुमान करवा पाना असम्भव है. ब्रज में संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के सम्मिश्रण के कारण वह ताजमहल के सुमिश्रित सौंदर्य जैसी है.”

 

5.

 

 

हिंदी में एक तबके में तुलसीदास को वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थक और इसलिए प्रतिगामी मानने की परंपरा रही है. कुछ लोगों की यह भी धारणा है कि तुलसीदास बुद्ध और कबीर की तरह समाज सुधारक नहीं थे. इसी तरह कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उन्होंने किसी सिद्धांत या मत का प्रवर्तन नहीं किया और न ही वे किसी एक मत के समर्थक रहे. दलित और स्त्री अस्मितायी आग्रह बढ़ने के साथ यह धारणा पहले से अधिक मजबूत हुई है कि तुलसी प्रतिगामी थे. यह विडंबना है कि गत कुछ दशकों से प्रतिरोध को और उसमें भी ख़ास तौर पर वर्ण और जातीय प्रतिरोध को साहित्य के मूल्यांकन को एक मात्र और अंतिम कसौटी मान लिया गया है. यह समझने की ज़रूरत है कि प्रतिरोध किसी स्वस्थ समाज की सामान्य अवस्था नहीं है और यह निरंतर और हमेशा भी नहीं रहता. यह विडंबना ही है कि हिंदी में प्रतिरोध को मूल्य की हैसियत कुछ ज़्यादा ही मिल गई और उसकी निरंतरता को ज़रूरी भी मान लिया गया. ख़ास तौर पर परंपरा के विरोध में खड़ा व्यक्ति कुछ अच्छा और अर्थपूर्ण करता है, यह धारणा बड़े वर्ग में मान्य हो गई है.

इसी तरह परंपरा के साथ और समर्थन में खड़े व्यक्ति की पहचान प्रतिगामी और दकियानूस की हो गई है. हिंदी में तुलसी का मूल्यांकन भी कुछ लोग इसीलिए प्रतिगामी व्यक्ति के रूप में करते हैं. तुलसी जिस समय और समाज में थे वहाँ समाज चलाने के लिए, उसकी व्यवस्था और अनुशासन के लिए परंपरा के साथ होना ज़रूरी था. उनके समय में ‘सुधारक’ होना आसान था, उनकी पहले से बहुतायत थी और उनके कारण मत-मतांतरों की भीड़ लगी हुई थी. जनसाधारण के लिए बहुत मुश्किल था कि वह क्या करें और किधर जाए. तुलसी ने ऐसे समय में परंपरा की ‘श्रुति सम्मत’ राह पकड़ी, तो जनसाधारण सहज ही उनके साथ हो लिया. प्रतिरोध में होने के झंझट कई थे. उसके आत्मसातीकरण में समय लगता था और इस बीच समाज की उपेक्षा, निंदा और कभी-कभी बहिष्कार में जीवन व्यतीत करना बहुत मुश्किल काम था.

तुलसी जो राह बताते थे, वह समाज सम्मत थी और उसमें सम्मान का जीवन भी था. इस समाज और श्रुति सम्मत राह की पहल ही तुलसी की सफलता का असल रहस्य है. तुलसी के यहाँ प्रतिरोध नहीं है, यह धारणा ग़लत है. परंपरा में जितना प्रतिरोध अंतर्निहित होता है, उतना तुलसी के यहाँ भी है. तुलसी सुधारकों की तरह उसकी झंडाबरदारी नहीं करते और न ही कबीर और उनके समानधर्माओं की तरह उसका हल्ला काटते हैं. वे परंपरा और व्यवस्था के साथ रहकर इनकी बुराइयों की पहचान करते हैं और साथ ही इनका अपना समाधान भी ढूँढते हैं. अपने समय में ब्राह्मणों के पतन पर ‘रामचरितमानस’ ‘कवितावली’ और ‘विनय पत्रिका’ में उन्होंने जितना लिखा, उतना तो संतों ने भी नहीं लिखा. संस्कृत और भाषा में से भाषा का उनका चुनाव भी उनके समय में बहुत क्रांतिकारी था.

तुलसी ने परंपरा और व्यवस्था के साथ रहकर समाज में जो सुधार किए उनका असर उत्तर भारत के जनसाधारण पर आज भी है. यह समाज आज भी तुलसी की शिक्षा और विचारों को जीने वाला समाज है. जॉर्ज ग्रियर्सन ही थे, जो तुलसी की सफलता के रहस्य को समझते थे. उन्होंने लिखा कि

“मेरे मन में उत्तर भारत के धर्म के दो प्रमुख पद हैं‌- बौद्ध धर्म और उसके दो सहस्र वर्ष बाद तुलसीदास की शिक्षा. बौद्ध धर्म का व्यावहारिक परिणाम हुआ संपूर्ण भारत द्वारा विश्वबंधुता में निष्ठा की स्वीकृति. तुलसीदास ने इसमें यह भाव जोड़ दिया कि भगवान ही सबका पिता है.”

बुद्ध परंपरा का प्रतिरोध थे, जबकि तुलसी उसके समर्थक. ख़ास बात यह है कि समर्थन में होकर भी तुलसी की हैसियत बुद्ध से किसी भी तरह कम नहीं है.
____________________________

माधव हाड़ा
(जन्म: मई 9, 1958)

प्रकाशित पुस्तकें:
सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992), तनी हुई रस्सी पर (1987), लय (आधुनिक हिन्दी कविताओं का सम्पादन, 1996).
राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज, नन्दकिशोर आचार्य, मणि मधुकर आदि कवियों पर विनिबन्ध. 

संपर्क:
अध्येता,भारतीय उच्च अध्यान संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला-171005,
मो. 9414325302
ईमेल: madhavhada@gmail.com

Tags: जार्ज ग्रियर्सनतुलसीदास
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Comments 7

  1. Madhav Hada says:
    4 years ago

    आभार ! सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति !

    Reply
  2. Shri Bilas Singh says:
    4 years ago

    बहुत अच्छा आलेख। निश्चय ही किसी साहित्य का कालजयी होना मात्र स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के खाँचों में फ़िट होने पर ही निर्भर नहीं करता। तुलसी ने जो लिखा वे उसे जीते थे सिर्फ़ नारे नहीं लगाते थे। प्रतिरोध का अर्थ मात्र तोड़ फोड़ ही नहीं है बल्कि जो है उसका परिष्कार करना और निराश हताश लोगों को आशा का संबल प्रदान करना भी है। कुछ चलन हो गया है तुलसी के मुक़ाबले कबीर, गांधी के मुक़ाबले भगत सिंह, नेहरू के मुक़ाबले सुभाष आदि आदि।किसी का भी मूल्यांकन उसकी समग्रता में होना चाहिए। आज लोक में जो संस्कारहीनता पनप रही है उसके तमाम कारणों में एक तुलसी का लोक से लोप होते जाना भी है।

    Reply
  3. Jyotish Joshi says:
    4 years ago

    माधव जी ने बहुत बढ़िया लिखा। तुलसीदास की प्रासंगिकता और सामयिकता को विश्लेषित करते हुए ठीक ही वे प्रतिरोध के नाम पर उनको प्रश्नांकित करने को लक्ष्य करते हैं। वे आद्योपांत तुलसीदास की मनीषा के उन सभी बिंदुओं को छूते चलते हैं जिसमें उनकी लोक-स्वीकार्यता निहित है। विरोध बड़ा आसान है, पर एक सुसंगत व्यवस्था में ढालकर अपने समाज को चला सकने की संभावना बनाना, उतना ही कठिन है। इस सुंदर और सार्थक आलेख के लिए माधव जी को साधुवाद।

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    ब्राह्मणवाद के पक्ष में होने के बाद भी बनारस के कर्मकाडी ब्राह्मणों ने उन्हें नीच श्रेणी का ब्राह्मण कहकर अपमानित किया।उन्हें उच्च ब्राह्मणों की बिरादरी में स्थान नहीं मिला।उन्हें यहाँ तक कहना पड़ा कि माँगकर खायेंगे( तुम्हारा दिया हुआ नहीं ) और मस्जिद में सोयेंगे। इस व्यवस्था ने समाज को न केवल वर्णों में बल्कि हर वर्ण के भीतर भी उप वर्ण या जातियों में विभाजित किया। जिस जाति(गोस्वामी) में उनका जन्म हुआ था, वो ब्राह्मणों की एक उपजाति है जो भीक्षा मांगकर गुजर करती है। अब ये लोग घोर निर्धनता में जीकर भी ब्राह्मण तो है हीं। बौद्धधर्म इस व्यवस्था के विरोध में एक समतावादी विचार था । जिस तरह नास्तिक दर्शन होकर भी बौद्धधर्म का पुनर्जन्म में आस्था एक वैचारिक विरोधाभास सा है,वैसे ही तुलसी का राम राज्य भी है । लेकिन कवितावली में वे एक अलग भावभूमि पर खड़े दीखते हैं। वर्ण व्यवस्था के पोषक कवि की जगह एक दलित कवि की हैसियत में। समतामूलक दृष्टि से कवितावली रामचरितमानस से श्रेष्ठ ग्रंथ है।

    Reply
  5. भारतभूषण तिवारी says:
    4 years ago

    इसकी समापन पंक्तियाँ ही दरअसल ¨हुस्न-ए-आलेख´ (हुस्न-ए-ग़ज़ल की तर्ज पर) हैं. मैं इसका इम्प्रोवाइज्ड संस्करण पेश करना चाहूँगा.

    ¨आम्बेडकर परंपरा का प्रतिरोध थे, जबकि दीनदयाल उपाध्याय उसके समर्थक. ख़ास बात यह है कि समर्थन में होकर भी दीनदयाल उपाध्याय की हैसियत आम्बेडकर से किसी भी तरह कम नहीं है.¨

    Reply
  6. Praveen Yaduvansi says:
    9 months ago

    नितांत स्तरहीन लेख। औपनिवेशिक आधुनिक चिंतन के प्रतिगामी विचारों को नये बोतल में पुरानी शराब की नाईं परोसा गया है।

    Reply
  7. विष्णु कुमार शर्मा सहायक आचार्य हिंदी, सिविल लाइन, बारां says:
    9 months ago

    आग्रह से मुक्त निष्पक्ष और बहुत ही अच्छा लेख

    Reply

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