फासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की कविताएं
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मंगलेश डबराल के नवीनतम तथा अंतिम काव्य संग्रह ‘स्मृति एक दूसरा समय है ‘ के आते ही मैंने मंगलेश डबराल से यह वादा किया था कि मैं उनके इस संग्रह पर जल्द ही लिखने वाला हूं, पर शायद नियति को यह मंजूर नहीं था. ‘पहाड़ पर लालटेन ‘ से लेकर अपने नए काव्य संग्रह ‘स्मृति एक दूसरा समय है‘ तक आते-आते मंगलेश डबराल की कविताएं कुछ अधिक व्यग्र, कुछ अधिक आक्रामक और कुछ अधिक घनीभूत पीड़ा से भरी हुई दिखाई देती है. यों तो उनके पिछले काव्य संग्रह ‘नये युग में शत्रु‘ में भी उनकी कविताओं में आए इन बदलावों को काफी हद तक देखा जा सकता है. खासकर इस संग्रह की कविताओं में संग्रहित उनकी कविताओं ’गुजरात के मृतक का बयान‘, ’भूलने के विरुद्ध ‘, ’पशु पक्षी कीट पतंग‘ तथा ‘राक्षसों क्या तुम‘ में.
मंगलेश डबराल का यह अंतिम काव्य संग्रह ’स्मृति एक दूसरा समय है ’ कई अर्थों में हिंदी के एक विलक्षण कवि की विलक्षण कविताओं का संग्रह है. मंगलेश डबराल की चिंता, उनकी बेचैनियां, उनका अंतर-संघर्ष इन कविताओं में सघन मार्मिकता के साथ उद्घाटित हुआ है. मनुष्य और प्रकृति के प्रति चिंता प्रारंभ से ही मंगलेश की कविताओं के केंद्र में रही है, यह चिंता इस संग्रह में पहले से कहीं अधिक व्यग्र रूप में दिखाई देती है.
‘ स्मृति एक दूसरा समय है‘ में एक कविता है ‘वर्णमाला‘. इसकी अंतिम पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं :
‘कोई मेरा हाथ जकड़ता है और कहता है
भ से लिखो भय जो अब हर जगह मौजूद है
द दमन का और प पतन का प्रतीक है
आतताई छीन लेते हैं हमारी पूरी वर्णमाला
वे भाषा की हिंसा को बना देते हैं एक समाज की हिंसा
ह को हत्या के लिए सुरक्षित कर दिया गया है
हम कितना ही हल और हिरण लिखते रहें
वे ह से हत्या लिखते रहते हैं हर समय‘
(’वर्णमाला’)
क्या हमारा यह समय भय, दमन और हत्याओं से भरा हुआ समय नहीं है ? इतनी क्रूरता और इस तरह के फासीवादी दौर की कल्पना हममें से शायद किसी ने भी कभी नहीं की थी. मंगलेश डबराल इस वीभत्स दौर के स्वयं साक्षी थे. फासीवाद के इस जघन्य रूप को वे दिल्ली से लेकर हर कहीं देख रहे थे. वर्णमाला को हिंसक बना दिए जाने के इस खतरनाक दौर में मंगलेश डबराल जैसे कवियों की पीड़ा को उनकी कविताओं में साफ-साफ देखा और समझा जा सकता है.
इस संग्रह की एक और कविता है ‘हिटलर‘. इस कविता में मंगलेश डबराल की चिंता या व्यग्रता, अधिक आक्रामक रूप में दिखाई देती है.
यह कविता अपने मिजाज में भी हिटलर के बहाने तमाम तानाशाहों का मजाक उड़ाती हुई जान पड़ती हैं:
‘यह सच है कि हिटलर मर चुका है लेकिन उसे इस तरह याद किया जाता है जैसे वह अभी जीवित हो. उसने पहले से ही दुनिया को दो हिस्सों में बांट रखा है. जो लोग उसकी पूजा करते हैं उन्हें इस पर गर्व है की दुनिया का यह सबसे बड़ा आदमखोर एकदम शाकाहारी था. वह हर दिन दो किलो चॉकलेट खाता था और शराब में भी चीनी डलवा कर पीता था. वह नुकीली, तेज धारदार चीजों, हजामत की ब्लेडो वगैरह से डरता था नाई से बाल बनवाते वक्त उसे लगता जैसे वह मौत के उस्तुरे के नीचे आ गया हो ‘ (’हिटलर’)
हिटलर या तानाशाह मंगलेश डबराल का प्रिय विषय वस्तु है. कोई भी सजग और संवेदनशील कवि या लेखक मनुष्य की समानता और स्वाधीनता में विश्वास करता है. जहां कहीं भी इनका हनन या दमन होता दिखाई देता है, जहां कहीं भी तानाशाही सिर उठाती हुई दिखाई देती है, वह आगे बढ़कर उसका विरोध करता है.
मंगलेश डबराल की कविताओं में प्रारंभ से ही जनशत्रुओं के खिलाफ घृणा दिखाई देती है. हिटलर हो या कोई भी फासिस्ट मंगलेश डबराल के लिए वे सब मनुष्य विरोधी हैं, इसलिए घृणा के पात्र हैं.
यह सच है कि मंगलेश डबराल स्मृतियों के कवि हैं, उनकी कविताएं एक तरह से स्मृतियों की कविताएं हैं. मंगलेश की स्मृति में बार-बार चाहे-अनचाहे पहाड़ और लालटेन के बिम्ब उभर आते हैं. छूटे हुए घर और पहाड़ की स्मृति उनकी कविताओं में लालटेन की तरह हमेशा जलती-बुझती सी रहती है. एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी बार-बार आती रहती है. इस संग्रह में ‘ स्मृति : एक ‘ में यह दृश्य एक रूपक की तरह उभर कर आया है :
‘एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से
तब भी आती रहती है
पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी
एक हारमोनियम के बादलों जैसे उठते हुए स्वर
और आंगन में जंगल से घास लकड़ी लाती
स्त्रियों के पैरों की थाप ‘
(’स्मृति : एक’)
मंगलेश डबराल अपनी पीढ़ी के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में स्मृति सबसे अधिक जगह घेरती है. ‘पहाड़ पर लालटेन‘ से लेकर ’स्मृति एक दूसरा समय है‘ तक की काव्य यात्रा एक तरह से स्मृतियों की ही विरल यात्रा है. पहाड़ और घर से लेकर जीवन संघर्ष की अनेक छवियां जैसे इन स्मृतियों में रची बसी हैं. जंगल से घास और लकड़ी लेकर आने वाली स्त्री की थाप की धूसर स्मृति को भी उनकी कविता में आसानी के साथ देखा जा सकता है.
मंगलेश के यहां अन्याय का प्रतिकार ही नहीं है, अपितु अन्याय के विरुद्ध एक गहरी तड़फ भी है. यही कारण है कि मनुष्यता के विरुद्ध रचे जा रहे हर तरह के षड्यंत्र के प्रतिकार के साहस को उनकी प्रारम्भिक कविताओं से लेकर अब तक की कविताओं में भी स्पष्ट रूप से चीन्हा जा सकता है. मंगलेश के काव्य संसार में सर्वत्र मनुष्य की विकलता के चिन्हे-अनचिन्हे अनेक बिम्ब और प्रतीक हैं. मनुष्य की हताशा और निराशा के कई जाने और अनजाने प्रसंग हैं. मंगलेश की कविताएं एक तरह से उन सारे पराजित मनुष्य की गाथाओं का कोलाज है, जो इस दुर्निवार समय में हमारे आस-पास हर कहीं मौजूद हैं.
पर इन पराजित मनुष्यों की ताकत की गहरी पहचान भी मंगलेश डबराल जैसे कवि को कम नहीं है :
‘मनुष्य की मेरी देह किसी तहखाने में छिपी नहीं रहती
वह हमेशा दिखती रहती है
आसपास मामूली कामों में लगी रहती है
सड़क पार करती है कुछ दूर पैदल चलती है
थक कर बैठ जाती है और उठ खड़ी होती है
प्रेम करती है और फूल की तरह खिल उठती है
दुनिया के तानाशाहों को उसे कहीं खोजने की जरूरत नहीं पड़ती
दुनिया में अद्वितीय यह मनुष्य देह थोड़ा साहस जुटाती है
और ताकत के सामने
अकेली निष्कवच खड़ी हो जाती है ‘
( ‘ आसान शिकार ‘ )
दुनिया में अद्वितीय यह मनुष्य देह थोड़ा साहस जुटाकर प्रतिरोध कर सकती है. यही नहीं अपितु ताकत के सामने अकेले निष्कवच खड़ी भी हो सकती है. मंगलेश डबराल के लिए कविता अपने भीतर के आंतरिक जल में डुबकियां लगाने जैसा है. उनके भीतर का आंतरिक जल इतना निर्मल, इतना शांत और इतना पारदर्शी है कि वह जीवन की हर कठोरता को अपनी तरह पिघला सकने का सामर्थ्य रखता है. उनके भीतर का यह निर्मल जल उनकी हर कविता में बहता हुआ चला आता है. उनके भीतर का यह आंतरिक जल उनकी कविता की सांद्रता को बचाएं रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता हैं. समकालीन हिंदी कविता में मंगलेश डबराल की उपस्थिति को एक वृहद परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.
अपने पहले काव्य संग्रह ‘ पहाड़ पर लालटेन ’ से लेकर ’स्मृति एक दूसरा समय है ‘ तक आते-आते मंगलेश डबराल की कविता में अगर कोई परिवर्तन घटित हुआ है तो वह उनकी कविताओं में अंतर्निहित ज्ञानात्मक संवेदना है, जो इधर देश में बढ़ती हुई हत्याओं, दमन और क्रूरता के फलस्वरूप अधिक घनीभूत रूप में उनकी कविताओं में कहीं अधिक सघनता के साथ दिखाई देती है.
मंगलेश डबराल के यहां कविताएं पहले जिन विषयों पर कुछ कम बोलती दिखाई देती थीं, इधर इन विषयों पर वे कुछ ज्यादा ही बोलती हुई दिखाई देती हैं. यह अनायास नहीं है कि प्रतिरोध का स्वर कुछ अधिक मुखर रूप में उनकी कविताओं के भीतर से फूटता हुआ दिखाई देता है. ‘ स्मृति एक दूसरा समय है ’ में एक कविता है ‘ नया डर ’. इस कविता को मंगलेश डबराल ने एम.एम.कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे की स्मृति को समर्पित की है.
‘नया डर ’ में मंगलेश डबराल की चिंता वही जानी पहचानी है. यहां भय शक्ति नहीं देता है अपितु हमारे समय की विकरालता को प्रदर्शित करता है. यह कविता लोकतंत्र के नाम पर देश में जो कुछ भी चल रहा है उसे अनावृत्त करने की कोशिश करती है :
“भय का एक लोकतंत्र है
और डर उपजाना एक नया रोजगार
कुछ बोलने-लिखने
खाने-पीने-पहनने से पहले
लगता है कोई है
जो हमें घूर रहा है
सजाएं भी उतनी ही अनिश्चित हैं
जो डराता है उसकी कामयाबी
इस डर को बनाए रखने में है ‘
( ’नया डर’)
मंगलेश डबराल के यहां छिपाने के लिए कुछ नहीं है, जो कुछ भी है वह जैसे खुल्लम-खुल्ला है. न कवि की अपनी दृष्टि और न ही प्रेम या घृणा ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे कवि कविता की ओट में छिपा लेने की कोशिश कर रहा हो. कवि अपनी पसंद या नापसंद को भी अपनी कविता में दर्ज करने से या प्रकट करने से गुरेज नहीं करता है.
उनकी कविता ’ गुड़हल ’ इसका बेहतर उदाहरण है. कवि को यह फूल पसंद है, क्योंकि यह फूल दिन-रात खिला हुआ नहीं रहता है, रात में बदल जाता है या गायब हो जाता है. सूरजमुखी को लेकर कवि की सोच अलग है, यह फूल कई कारणों से उन्हें नापसंद है :
’सूरजमुखी भी कुछ इसी तरह है
लेकिन मेरे जैसे मनुष्य के लिए
वह कुछ ज्यादा ही बड़ा है
और उसकी एक यह आदत
मुझे अच्छी नहीं लगती
कि सूरज जिस तरफ भी जाता है
वह उधर ही अपना मुंह
घुमाता हुआ दिखता है. ’
(’गुड़हल’)
सुप्रसिद्ध शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान को लेकर लिखी गई कविता ’शहनाइयों के बारे में बिस्मिल्लाह खान ’ मंगलेश डबराल की एक उल्लेखनीय कविता है. यह कविता एक साथ बहुत सारे मोर्चों पर सक्रिय दिखाई देती है. यह कविता शास्त्रीय संगीत के सुर से लेकर हमारी गंगा जमुनी तहजीब को भी अपनी कविता की अंतर्वस्तु में विन्यस्त करती है. भूमंडलीकरण के दुष्प्रपभाव के चलते शास्त्रीय संगीत और नृत्य की दुर्गति को भी यह कविता अपनी चिंता के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में शामिल करती है.
यह कविता समकालीन हिंदी कविता के ग्राफ को बढ़ाती ही नहीं, बल्कि समकालीन हिंदी कविता को नए और अर्थवान भंगिमाओं, क्रियाओं, बिंबों से दीप्त भी करती है. हिंदी कविता को जीवन के नए-नए क्षेत्रों में जाने के लिए प्रेरित करती हुई उसे एक नया विस्तार प्रदान करने का कार्य करती है. इस कविता का प्रारंभ ही संगीत की राग-रागनियों से होता है, खासकर कोमल रिखभ या शुद्ध मध्यम से :
“क्या दशाश्वमेध घाट की पैड़ी पर
मेरे संगीत का कोई टुकड़ा
अब भी गिरा हुआ होगा ?
क्या मेरा कोई सुर
कोमल रिखभ या शुद्ध मध्यम
अब भी गंगा की धारा में
चमकता होगा ?
बालाजी के कानों में
क्या अब भी गूंजती होगी
मेरी तोड़ी या बैरागी भैरव
क्या बनारस की गलियों में
बह रही होगी मेरी कजरी
देहाती किशोरी की तरह
उमगती हुई ?”
( ’शहनाइयों के बारे में बिस्मिल्लाह खान’ )
यह काव्य पंक्तियां कितना कुछ कह जाती है, बिस्मिल्लाह खान, उनकी शहनाई और बनारस के बारे में. आज का समय भी जैसे इस कविता की आंतरिकता में संगीत के इन सुरों और स्मृतियों के बीच कहीं लिपटा हुआ है. कविता की अंतिम पंक्तियां इस प्रकार हैं :
’ अच्छा हुआ इस बीच मैं
रुखसत हो गया
बनारस अब कहां रह गई थी
मेरे रहने की जगह ’
(’शहनाई के बारे में बिस्मिल्लाह खान’)
बनारस ही क्यों ? यह देश भी किसी संवेदनशील नागरिक के लिए शायद अब रहने की जगह नहीं रह गई है. मुक्तिबोध और वर्गीज कुरियन की स्मृति में लिखी गई कविताएं भी मंगलेश डबराल के काव्य संसार को काफी हद तक जानने और समझने में हमारी मददगार साबित हो सकती हैं.
मंगलेश का काव्य संसार एक ऐसे कवि का अपना काव्य संसार है जो हमारे समय के अंधेरे में जाने के लिए एक तरह से हमेशा व्यग्र और लालायित दिखाई देता है. उनकी कविताएं ऐसे अनेक लोगों से संवाद करने की कोशिश करती हुई दिखाई देती हैं, जिनका होना हमारे लिए महत्व रखता है.
अपनी एक कविता में मुक्तिबोध से संवाद करते हुए कवि हमारे समय के गहरे अंधेरे को भी लक्ष्य करने की कोशिश ही नहीं करते हैं बल्कि आज के डोमा जी उस्ताद और उनके बगलगीर अनेक छोटे-छोटे डोमा जी की भी खबर लेना नहीं भूलते हैं, जो आज एक साथ राजनीति, साहित्य, संस्कृति सभी जगह सक्रिय हैं. मुक्तिबोध से कभी न मिलने की व्यथा के साथ हमारे अपने समय के अंधेरे का जिक्र कवि ने यहां जान बूझ कर छेड़ा है :
’मैं तुमसे कभी मिल नहीं पाया
मेरे साथ के बहुत से लोग
तुमसे नहीं मिल पाए
हम सिर्फ उस अंधेरे से मिले
जो तुम्हारे जाने के बाद
और ज्यादा अंधेरा था
हम उस विकराल जुलूस से मिले
जो मृत्यु दल की तरह था
और ज्यादा विकराल
हमने डोमाजी उस्ताद को देखा
जो उस शोभा यात्रा में
आगे-आगे चलता था
बल्कि कई डोमाजी उस्ताद थे
छोटे-छोटे बगलगीर ‘
( ’मुक्तिबोध स्मृति :एक’ )
हमारे अंधेरे दौर को अपनी रोशनी से जगर-मगर कर देने वाले लोगों की शिनाख्त भी मंगलेश की एक बड़ी चिंता है. मुझे नहीं लगता हिंदी के किसी कवि ने वर्गीज कुरियन को अपनी कविता का विषय वस्तु बनाया हो. वर्गीज कुरियन को याद करना कोई साधारण बात नहीं है, खासकर एक ऐसे भयावह समय में जब हम सार्वजनिक उपक्रमों को एक-एक कर निजी हाथों में जाते हुए देख रहे हैं. वर्गीज कुरियन देश के सहकारिता आंदोलन के बड़े नायकों में से एक हैं. उनके अमूल दूध और मदर डेरी के क्षेत्र में अमूल्य अवदान को भूला पाना मुश्किल है.
वर्गीज कुरियन के लिए लिखी गई यह कविता बहुत गंभीरता के साथ हमारे भ्रष्ट हुक्मरानों की खिलाफत के साथ-साथ सहकारिता आंदोलन के पक्ष में खड़ी हुई एक महत्वपूर्ण कविता है. पर यह कविता बेहद मार्मिकता और गंभीरता के साथ हमें बहुत कुछ बताना भी चाहती हैं. वर्गीज कुरियन के बहाने एक ऐसे आदमी की कथा कहना चाहती हैं, जो सचमुच हमारे इस अंधेरे दौर में किसी रोशनी से कम नहीं है :
‘जब भी दिखाई देता है मेज पर
रखा दूध का गिलास
या किसी गरीब बच्चे के हाथ में
एक कटोरे में जरा सा दूध
तो तुम्हारा नाम याद आता है
और याद आता है वह सब
जिसने तुम्हें अमूल छोड़ने को विवश किया
और जब मैं एक चम्मच भर तुम्हारा गाढ़ा दही
मुंह में ले जाने की होता हूं
तो सहसा एक उदासी घेर लेती है ‘
( ’मदर डेरी’ )
मंगलेश डबराल लंबे समय तक मीडिया में रहे हैं. अंग्रेजी तथा हिंदी मीडिया के पतन को उन्होंने निकट से देखा है. हमारा यह दौर दुर्भाग्यवश अंग्रेजी सहित हिंदी मीडिया के अधोपतन का दौर है. मंगलेश डबराल मीडिया के इस अधोपतन को ’ मीडिया विमर्श ’ नामक अपनी कविता में दर्ज करने से नहीं चूकते हैं :
‘ समाज में जो कुछ दुर्दशा में था
उसे अखबार के भीतरी पन्नों पर फेंक दिया गया था
रोग शोक दुर्घटना बाढ़ अकाल भुखमरी
बढ़ते विकलांग खून के धब्बे
अखबारी कूड़ेदान में डाल दिए गए
किसान आत्महत्या करते थे
भीतरी पन्नों के किसी कोने पर
आदिवासियों के घर उजाड़े जाते थे किसी हाशिए पर ’
( ’मीडिया विमर्श’ )
कहना न होगा कि मंगलेश डबराल समाज में जो कुछ भी घटित हो रहा है, उस पर गहरी नजर रखते हैं. इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द के भारत की विविध और बदरंग तस्वीर अकेले मंगलेश डबराल की कविताओं में इतनी अधिक दिखाई देती है कि आश्चर्य होता है कि वे न जाने किन-किन दुर्गम और दुर्लभ छवियों को अपनी कविता के कैनवास पर रचने की जिद में लगे हुए थे.
मंगलेश डबराल का काव्य संसार एक व्याकुल कवि की उर्वर चेतना के साथ-साथ एक सजग और बेचौन कवि की अपनी असमर्थता को व्यक्त करने वाला काव्य संसार तो है ही, जीवन की अनेक अंधेरी और सीलन भरी राहों में ले जाने वाला काव्य संसार भी है.
’स्मृति एक दूसरा समय है ’ मंगलेश डबराल की काव्य यात्रा का एक ऐसा पड़ाव है जहां उनकी कविताओं को अधिक बेचैनी के साथ चहल कदमी करते हुए देखा जा सकता है. मंगलेश डबराल का यह अंतिम काव्य संग्रह स्मृति के बहाने हमारे अपने समय और समाज में धंसकर दमन, उत्पीड़न और बर्बरता की याद दिलाता है साथ ही फासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की एक व्यापक पृष्ठभूमि का निर्माण भी करता है.
रमेश अनुपम
1952rameshanupam@gmail.com
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स्मृति एक दूसरा समय है : मंगलेश डबराल, प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली.
बहुत सुंदर समीक्षा रमेश अनुपम जी ने की है ।उन्हें साधुवाद और समालोचन को बहुत-बहुत धन्यवाद ।सेतु प्रकाशन से जब मैं यह संग्रह खरीदा था तो एक ही बैठक में पूरी कविताएं पढ़ ली थी ।इसमें मैंने मंगलेश डबराल को पूरी तरह से अलग पाया था ।पिछले दौरे में जब वे रायपुर आए थे तब उनसे हम सब कविता नहीं सुन पाए थे ।उन्होंने वादा किया था कि इसके बाद में आऊंगा तो पूरी कविताओं के साथ उपलब्ध रहूंगा और बैठकर कविताएं सुनी जाएंगी पर ईश्वर को यह मंजूर नहीं था।
जब भी
मंगलेश डबराल की बात आती है
मेरा गला भर आता है
मुझे वह छलांग लगाता हुआ पहाड़ी हिरण की तरह लगता है
जो मैदान में आकर अनेक हिंस्र पशुओं से घिर गया था
डरा सहमा प्रतिरोध की भाषा रचता
शेर और भेड़िये की खाल ओढ़े लोगों के क्रूर इरादों से सावधान करता
चुपचाप करते रहे अपना काम
वक्त की पहचान में मुब्तिला
अपने इरादों को खुबसूरत शब्द देते
पांच फुट दो इंच की काया को मिट्टी में लथेड़ते
और लंबी सांस खीचते उठ खड़े होते
और हकलाते -से चौराहों पर खड़े ट्रैफिक को सही दिशा की ओर
जाने का संकेत देते
अब भी खड़े हैं जैसे बड़ी ऊम्मीद में कि इस अंधेरे में जाने के लिए
एक लालटेन तो है।
( समालोचन में रमेश अनुपम की मंगलेश डबराल के कविता संग्रह पर समीक्षा पढ़कर )
-हीरालाल नागर
उनकी
मंगलेश जी के अंतिम काव्य संग्रह पर यह समीक्षा उनके काव्य विवेक के मर्म को छूती है।एक ऐसा कवि जिसकी संवेदना हमेशा आम आदमी की पक्षधर रही और जिसने सर्वग्रासी सत्तातंत्र से एक निश्चित दूरी बनाए रखी ।उनकी कविताएँ हमारे सपनों को जीवित रखती हैं और हमारे समय के आतताइयों से जूझती एक अदम्य जीवट से भरी जीजिविषा का परिचय देती हैं।ये एक पराजित समय का शोकगीत तो कतई नहीं हैं।इनमें संघर्ष का माद्दा अब भी है।इसलिए मानवीय आस्था के घिसे-पिटे मुहावरों से अलग हटकर इनमें एक विरल आशावाद दीखता है।समालोचन एवं विशेष रूप से रमेश अनुपम जी को बधाई !
मंगलेश डबराल की अंतिम कविता संग्रह पर रमेश अनुपम जी आपने बहुत सुंदर लिखा है। मंगलेश डबराल की कविताओं में छिपी बेचैनियों को आपने जिस तरह से उद्धृत किया है वह आश्चर्यजनक है। एक कवि की चिंता को आपने जैसे अपनी भी चिंता बना ली है। मंगलेश डबराल जी से मेरा परिचय जब हुआ तब उनकी कुछ ही कविताओं से मेरा परिचय था। लेकिन जब उनसे परिचय हो गया तब उनकी कविताएं मुझे और ज्यादा बेचैन करने लगी थीं। वे खुद भी बेहद संवेदनशील मनुष्य थे। उनके साथ जब भी मिलना हुआ है मैंने उनसे बहुत कुछ अर्जित किया है। ‘ समालोचन ‘ पर आपने मंगलेश जी की कविताओं पर लिखकर एक बार फिर से हमें उनके करीब ले आएं। हालांकि हम सब उनके चाहने वाले उन्हें कभी भुला नहीं पायेंगे और वे सदा अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे दिलों में रहेंगे। आपको खूब बधाई इस जरूरी और महत्वपूर्ण समीक्षा के लिए।
बेहतरीन रचनाएं हैं, और प्रतिनिधित्व करने वाली भी।