डायल किया गया नम्बर मौज़ूद नहीं है मंगलेश डबराल का काव्य-संसार संतोष अर्श |
कविता पर विचार करते समय हमें कवि की चेतना में उतरना चाहिए. इससे हमारी अपनी विचार सरणियों में कुछ अवरोध अवश्य उत्पन्न होते हैं, हम तनिक और भावुक, किंचित और अवसादग्रस्त, थोड़े ज़्यादा दर्शन व सौन्दर्य ग्राही भले ही हो जाते हैं, किंतु हमारी काव्य-पीड़ा का उपचार भी इन्हीं घटना-योगों में कहीं होगा.
काव्यालोचन का विकास कविता के वैचारिक और सौंदर्यशास्त्रीय विकास से जुड़ा हुआ है. कविता की व्याख्या की आवश्यकता तब अधिक होती है जब वह समय और स्थान से सीधा-सरल जुड़ाव न रखती हो और जब रखती हो, तो उसकी व्याख्या की नहीं, केवल यह बताने की ज़रूरत होती है कि इससे कैसे हो कर गुज़रा जाये.
विगत चार दशकों का संचित हिन्दी काव्य-कोष बिना मंगलेश डबराल की उपस्थिति के पूर्ण नहीं हो सकता. उनकी कविताई काल के ऐसे टुकड़े पर दर्ज़ है जिसमें पहले दो दशक और तरह के हैं तथा दूसरे दो दशक भिन्न प्रकार के. यही कारण है कि उनकी परवर्ती कविताएँ अधिक उद्विग्न करती हैं और यहीं उनकी काव्य-संवेदना को समझा जा सकता है. मंगलेश में रघुवीर सहाय की खनक भी है, उतनी व्यंग्यात्मकता के साथ नहीं, थोड़ी अधिक नम्रता और सादगी के साथ. यह खनक कविता में ही नहीं, मंगलेश के गद्य में भी है. अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘एक बार आयोवा’ में उन्होंने रघुवीर सहाय को ही उदधृत करते हुए कहा कि ‘पश्चिमी सभ्यता माँस के ढेर के सिवाय और कुछ नहीं है.’
मंगलेश डबराल की कविताएँ समय, स्थान और स्मृति से बनती हैं. इनमें जीवन की मार्मिक अनुभूतियों से रचे गए चित्र कुछ नरमी और हल्की दबी हुई सरसराहट के साथ खुलते हैं. इनमें दुःख की घनीभूत परिस्थितियों में जीवन की रुचिकर छवियाँ शेष हैं. मानवीयता का राग सितार की धुन पर अस्तित्व के पार्श्व में गुनगुन करता रहता है. इन कविताओं में स्मृतियाँ एक अमूर्त सौन्दर्य की ओर ले जाती हैं और स्मृति तथा मानवीय चेतना के गहन संवेगात्मक संबंधों की रहस्यमयता को पर्वतीय ह्यूमर के साथ प्रस्तुत करती हैं.
पहाड़ पर लालटेन (1981), घर का रास्ता (1988), हम जो देखते हैं (1995), आवाज़ भी एक जगह है (2000), नए युग में शत्रु (2013), स्मृति एक दूसरा समय है (2020) संग्रह सिलसिलेवार और गम्भीर कविताई के मज़मू’ए हैं. इसमें ‘नए युग में शत्रु’ की कविताएँ अधिक राजनीतिक, आर्थिक और भूमण्डलीकृत भारत के परिवेश से आक्रान्त हैं, परन्तु इन्हीं के मध्य कुछ ऐसी कविताएँ भी हैं जो दिलो-दिमाग़ को संवेदित करती हैं. ये साधारण मनुष्य के सुख-दुःख और संघर्ष से जुड़कर भावक में साहस का प्रसार करती हैं, जीवन से जूझने की ख़ातिर यह काव्य मददगार है. कई बार ऐसा लगता है कि जहाँ मंगलेश डबराल कम राजनीतिक होते हैं, वहाँ उनकी काव्य-कला अधिक खिलती-खुलती दिखाई देती है. अस्ल में सत्ताओं के आततायी, उत्पीड़क रूप का विरोध करते हुए कवि-कलाकार और अधिक निर्दोष एवं प्यारा दिखायी देने लगता है, क्योंकि इस प्रयास में वह अपनी कला के स्तर को प्रभावित करता है और न चाहते हुए भी उसमें किंचित दरम्यानीपन आयात कर लेता है.
एक कलाकार, कवि गहन कलात्मक मूड्स, दार्शनिक गम्भीरता, ऐन्द्रिक प्रेम और दुःख में डूबा रहना चाहता है. यह आयरनी है कि कभी स्व-विवेकी इरादों और कभी ग़ैर-इरादतन उसे सत्ताओं से भी टकराना पड़ता है. इस टकराव में कवि और निरीह हो जाता है. इस निरीहता में मायूसी के सिवाय क्या हाथ लगना है ? सत्ता के प्रतिरोध में ज़बान का लचीलापन जाता रहता है, लताफ़त घटती जाती है, लिहाज़ा कविता इससे चोटिल होती है. कवि भी चोटिल होता है. हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर मंगलेशी ज़िन्दगी में उनके आख़िरत के बयानात इसी चोट का कुल जमा हैं-
“इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है. काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता.” किन्तु यह भी सत्य है कि बिना द्वंद्व के किसी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं होती, काव्य-कला में भी नहीं. फ़ासिज़्म के हॉरर को जाने-समझे बिना कवि मनुष्यता और राजनीति की अन्तिम तहों तक नहीं पहुँच सकता.
मंगलेश की कविताओं में एक झीनी उदासी दूर तक पसरी हुयी है. कभी-कभी वह पहाड़ियों की ढलान से लुढ़कती हुयी आती है, भूस्खलन में गोल-बेडौल पत्थरों की तरह नहीं, नर्म रुई के फाहों की भाँति, यहाँ उसकी गति तेज़ नहीं है, वह उतरती हुयी सी है. और जब यह पहाड़ों पर चढ़ती हुयी-सी होती है तो गहरा जाती है. उन पर से दीखने वाली कहीं खोयी-खोयी नीली धुन्ध की तरह. बहुत निराशा के बाद जब मन की गीली धरती पर अनजानी आशा की कोई बेनाम घास उगती है तो उनकी कविता में व्यक्त जीवन शहद लगने लगता है. उनकी शुरुआती रोमानी कविताओं में युवा मन का प्रेम और परिवर्तन की आकांक्षा का जुनून निर्झर सा बहता है:
तुम्हारा प्यार एक लाल रुमाल है
जिसे मैं झंडे सा फहराना चाहता हूँ
तुम्हारा प्यार एक पेड़ है
जिसकी हरी ओट से मैं तारों को देखता हूँ
तुम्हारा प्यार एक झील है
जहाँ मैं तैरता हूँ और डूब रहता हूँ
(तुम्हारा प्यार, पहाड़ पर लालटेन)
प्रेम का यह प्रथम पाठ है, जहाँ अभिज्ञता अल्प है कि प्रेम है क्या ? प्रेम करने की यही सही आयु है जब वह विप्लव की तरह महसूस हो. प्रेम में आघात लगने के पश्चात न वह लाल रुमाल रह जाता है, न झील, न पेड़. वह अन्तहीन पीड़ा का पर्याय बन जाता है. फिर एक गँवई हिन्दी जवान को रोज़गार के घने, हिंस्र पशुओं से युक्त वन में लकड़हारे की तरह लकड़ियाँ काटने निकलना और किसी रात्रि में वहाँ खोना होता है. नौजवानी में ही पहाड़ से ग़ुरबत की मार खा कर महानगर की हृदयविदारक भीड़ में उतरना. और सब छोड़ आना. पहाड़ी कहावत है कि ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती.’
जब हम ऊँचाई से नीचे उतरते हैं तो अनेक सुन्दर दृश्य खो देते हैं और खो देते हैं थोड़ा सा आत्मसम्मान का आसमान जिससे अहं की क़िल्लत हो जाती है. छोटे-छोटे दृश्यों से घिर जाना कवि की सुंदरता को देखने की दृष्टि में बाधा है. गाँव में जीवन का एक टुकड़ा व्यतीत कर लेने के बाद संसार का कोई सभ्य महानगर उस ग्रामीण प्रवासी को पूर्णतः नहीं निगल सकता. स्मृति में जीवन का वह छूटा हुआ सुखद-दुखद, अच्छा-बुरा हिस्सा आजीवन बना रहता है. बक़ौल मीर: ‘दिल बहुत खेंचती है यार के कूचे की ज़मीं’ :
मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया
वहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया.
(शहर, पहाड़ पर लालटेन)
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दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज़ आँख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने…
(शीर्षक कविता, पहाड़ पर लालटेन)
प्रथम संग्रह की पहाड़ की लालटेन से लेकर आख़िरी संग्रह में लालटेन की रोशनी के पीले फूलों के मध्य कवि की सारी स्मृति, सारा द्वंद्व, समय-समाज, आत्मसंघर्ष, पूरी वेदना, व्यक्त और अव्यक्त पीड़ा, निर्वासन, अजनबियत और अलगाव का दुःख, यंत्रणाएँ, प्रेम की अपूर्ण इच्छाएँ सबकुछ कविता की बारीक़ बुनावट में दर्ज़ है. लंबा समय, उससे उपजे नग्न जीवनानुभव, जहाँ प्यार भी थका हुआ और निरर्थक लगने लगता है:
मैं बेहद अकेला था
जब मैंने उससे कहा प्यार जैसा कुछ
वे शब्द निरर्थक थे या थके हुए
(संरचना, घर का रास्ता)
मैं चाहता था वहाँ एक पेड़
हवा और रात
मैं चाहता था एक नदी
एक आदमी
थकान दूर करने के लिए
हाथ-पैर धोता हुआ
(संभव, घर का रास्ता)
सुख दिन में नदी की तरह था
दुख रात में नदी की तरह
(नदी, घर का रास्ता)
सुख और दुःख की इस नदी में रात और दिन का अन्तर है. रात में नदी कैसी दीखती है ? इसी नदी में हमें डूबना उतराना होता है. गृहत्याग के बाद किसी संन्यासी का घर लौटना संभव है, लेकिन आज की दुनिया में रोटी-रोज़गार के लिए घर से निकले आदमी की ख़ातिर ‘घर का रास्ता’ बेगाना हो जाता है. घर से निष्कासन और महानगर में खोने के बीच ‘हम जो देखते हैं’ वही कवि ने अपनी तक़लीफ़ की ज़ुबान में सुनाया है. तीन संग्रहों के पश्चात् मंगलेश ने अपनी परिचित शैली से विलग होकर हमसे कहा कि ‘आवाज़ भी एक जगह है’.
‘आवाज़ भी एक जगह है’ की कविताएँ बेबाकी से मंगलेश डबराल की कविताई का मास्टरपीस कही जा सकती हैं. इनमें अनुभूति की सघनता, गाढ़ी व्यंजना, भाषा का बेतरह सुन्दर प्रयोग और सबसे अधिक कलात्मकता है. यहाँ कवि का चेतन-अवचेतन गहन-गहरे में, धीर-गंभीर-विवेकी है, बल्कि तनिक समरस और निर्विकल्प. काव्य में प्रभेद भी उत्पन्न होता है. अतः यहाँ उन्हें एकदम विकसित और प्योर, बल्कि उस्ताद कवि कहा जाना चाहिए:
एक अकेलापन है जिसकी याद किसी और
अकेलेपन में आती है
(दृश्य, आवाज़ भी एक जगह है)
छिपने वाला कभी खोजने वाले की पीठ को ही ओट बना लेता है
अक्सर वह आवाज़ भी देता है कि अब आ जाओ
अब मैं अच्छी तरह छिप गया हूँ खोजे जाने के लिए तैयार
यह एक संकेत है कि जिसे तुम आसान समझते हो
वह दरअसल काफ़ी कठिन है.
(छुपम छुपाई, आवाज़ भी एक जगह है)
यहाँ काव्य रचना में अमूर्तन का प्रयोग बढ़ता है. इस रचना-प्रक्रिया में अनेकानेक अन्तर्ध्वनियाँ हैं. अर्थ के लिए पंक्तियों की सुरंग में पिलना पड़ता है और पिलते ही वे दृश्यों, बिम्बों और चित्रों का रूप धारण कर लेती हैं. यह किसी तिलिस्म की सी बात हो जैसे. जैसे कोई चीज़ घोली जा रही है और पूरी घुली नहीं है, और उसमें दृष्टि उतारने पर लगे कि घुल गयी है. कहीं-कहीं सरलता का एक बैण्ड वे छोड़ देते हैं. गोया वे बताना चाह रहे हों कि स्थूलता कवि की विवशता है. सम्प्रेषण के लिए उसे स्थूल तत्त्वों का समावेश करना पड़ता है. ऐसी कविता का क्या काम कि उससे भावक का संपर्क स्थापित न हो सके ? इस तरह कई बार लगता है कि मंगलेश डबराल की कविताई के पेड़ के तने में वलयों की सी अवस्थाएँ हैं या शान्त पानी के बीचोबीच ढेला फेंकने पर किनारे तक फैल कर जाने वाली तरंगें, जो कविता के कई स्फीयर बनाती हैं तथा उसके कारकों की सूचनाएँ भी देती हैं :
पेड़ की तरह एक पर्दा ज़रा सा काँपता है
उसी के पीछे है एक पुराना परिचित सचमुच का पेड़
जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता
वहीं से हवा का एक झोंका हमारी तरफ़ आता है.
(परदों की तरह, आवाज़ भी एक जगह है)
जो मुझे करना था उसे ना कर पाने की उम्र नहीं थी
अस्पतालों के बाहर टूटी हड्डियों वाले बच्चे
और उन्हें दिखा कर भीख माँगती माँयें नहीं थी
उनसे कतराकर निकलने का पश्चाताप नहीं था.
(मंगल, आवाज़ भी एक जगह है)
स्त्रियों के प्रति एक कवि की दृष्टि कैसी होनी चाहिए यह हमें मंगलेश बताना चाहते हैं. उनके यहाँ उत्तर-आधुनिक स्त्रीवाद की मारक प्रतिस्थापनाएँ नहीं हैं. बल्कि वे एक स्नेहमयी, काव्योचित् आलोक में स्त्री को देखते हैं. किसी प्रेमिल करुणापूर्ण आकांक्षा के साथ. स्त्री का निश्छल प्रेम एक उपलब्धि की भाँति व्यंजित है –
एक स्त्री के कारण तुम्हें मिल गया एक कोना
तुम्हारा भी हुआ इंतज़ार
एक स्त्री के कारण एक स्त्री
बची रही तुम्हारे भीतर
(तुम्हारे भीतर, आवाज़ भी एक जगह है)
कुछ औसत पँक्तियाँ भी हैं. जैसे कि आगे की कविता में. जब प्रेम ही एक वंचना है तो उसमें क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या जानवर, सब ही ठगे जाते हैं. प्रेम में ठगी सबसे ज़्यादा तो प्रेम ही करता है :
प्रेम करती स्त्री
ठगी जाती है रोज
उसे पता नहीं चलता बाहर क्या हो रहा है
कौन ठग रहा है कौन है खलनायक
पता नहीं चलता कहाँ से शुरू हुई कहानी.
(प्रेम करती स्त्री, घर का रास्ता)
किन्तु कतिपय इतनी अच्छी पंक्तियाँ हैं कि वे हृदय का स्पंदन प्रभावित कर दें, होंटों पर थरथराहट खड़ी कर दें और थोड़ी देर के लिए हम काठ के होकर अपने जीवन की सबसे सुन्दर स्त्री की स्मृति में जलते सितारे की तरह टूटकर, गिरकर बुझ जाएँ :
वह स्त्री पता नहीं कहाँ होगी
जिसने मुझसे कहा था
वे तमाम स्त्रियाँ जो कभी तुम्हें प्यार करेंगी
मेरे भीतर से निकलकर आयी होंगी
और तुम जो प्रेम मुझसे करोगे
उसे उन तमाम स्त्रियों से कर रहे होगे
और तुम उनसे जो प्रेम करोगे
उसे तुम मुझसे कर रहे होगे
(उस स्त्री का प्रेम, स्मृति एक दूसरा समय है)
इससे मिलती-जुलती बात काफ़्का कहीं मिलेना से भी कहता है. एक पुरुष की स्मृति में स्त्री किस तरह रहती है इसे दुनिया में कवियों के अतिरिक्त सही-सही कोई बताने वाला नहीं है. मंगलेश ने उपरोक्त कविता में जिस प्रकार किसी स्त्री की स्मृति का अनश्वर रूप-भाव रचा है, यह कविता का अप्रतिम व दुर्लभ हासिल है. ऐसा रचाव हिन्दी भाषा की कविता में तलाश करने योग्य है. ऐसी परतदार, स्निग्ध अनुभूति और उसकी सरासर अभिव्यक्ति यह सिद्ध करती है कि मंगलेश डबराल हिन्दी के कलाकार कवि हैं. जिनका अपना एक लहजा है. जिनकी अपनी एक शैली है, अनुभवों, स्मृतियों और पीड़ाओं को रचने की. स्त्रियों के प्रति कवि की दृष्टि संकुचन का ग्रास नहीं बनी है. वह इतिहास और समय के बेहद ज़रूरी स्थानों पर भी ठहरी है. स्त्री के प्रति प्रेम और करुणा की अभिव्यक्ति तो ठीक है, परंतु उसके ऐतिहासिक संघर्ष, दुःख और शोषण को कैसे देखा जाए, यह बड़ा सवाल है. अगरचे नीचे उल्लिखित कविता में रची गयी इमेज़री सिनेमाई है, जो इसे शिथिल करती है. यदि कवि यहाँ मौलिक बिम्बों का इस्तेमाल करता तो कविता और अधिक कलात्मक होती. तिस पर भी एक दृष्टि तो बनती ही है :
इस तरह स्त्रियाँ जाती हैं अत्याचारियों के साथ
या सामंतों की रस्सियों से बंधी हुई
चल देती हैं तानाशाहों के पीछे
उनकी जगमग पोशाक और तमगे देखती हुईं
उन्हें ले जाया जाता है निर्जन रोमांचक यात्राओं में
ख़तरनाक कगारों तक
बागीचों और रोशनियों से होते हुए
वासना के धुएँ से भरी शानदार इमारतों में
रात्रिभोजों और इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में
जहाँ पियक्कड़ अय्याश उन पर सवारी गाँठते हैं
उन्हें कोड़ों से फटकारते हैं
जबकि वे अपने स्तनों को बेहिचक इतनी देर तक दिखाती हैं
जैसे उनमें कोई रहस्य न हो
और उन्हें देखते पुरुष दिखने लगे मूर्ख और लज्जित
(स्त्रियाँ, आवाज़ भी एक जगह है)
प्रकारान्तरों से उपरोक्त कविता में सिल्विया प्लाथ के उस कथन की छाया है कि ‘प्रत्येक औरत एक फ़ासिस्ट को पूजती है.’ आख़िर ऐसा है क्यों ? इसका उत्तर बहुत सरल है कि औरत की अशक्त और अरक्षित परिस्थितियाँ उसे शक्ति का भूखा बना देती हैं. जैसे कोई निरीह सिंह को इसलिए पसंद करे कि सिंह शक्तिमान है. इस आकर्षण में वह सिंह के निकट चला जाये और सिंह उसे ही मार कर खा जाए. ऐसा कई बार किसी राष्ट्र की जनता के साथ भी होता है. वह किसी नेता में अपनी शक्ति को देखने लगती है और किसी हिंसक, क्रूर तानाशाह को अपने सिर पर बिठाकर आत्मघात कर लेती है. स्त्रियों के ऐतिहासक शोषण को कवियों ने कई तरह से देखा है. मंगलेश की दृष्टि अलग है. यह प्रचलित स्त्रीवादियों की-सी रूखी युद्धक चाँदमारी नहीं है, जो अंततः पूँजीवाद और बाज़ार की मनुष्यता-विरोधी साज़िशों की ही कोई उलझी हुयी, जंग-लगी कँटीले तार की बाड़ जान पड़ती है. यह स्त्री की अस्मिता को सही ढंग से देखने-दिखाने की बात है. बाज़ारू फ़ेमिनिज़्म स्त्री की जितनी मानसिक और आध्यात्मिक क्षति कर रहा है, उसका अनुमान कर पाना मुश्किल है. वह पिंजरे में घुसते हुए तोते की रटन है कि मुझे पिंजरे में नहीं क़ैद होना है. मंगलेश के यहाँ स्त्रियों पर तमाम करुणामयी कविताएँ हैं. भावपूर्ण और गरिमामय. ये उनकी स्त्रियों के प्रति करुणा व्यक्त करने की अपनी युक्ति है. पागलों के सन्दर्भ में मंगलेश की किसी कविता की एक विक्षिप्त स्त्री भी सामने आती है, जो चौराहे पर अपने धोखेबाज़ प्रेमी को गालियाँ दे रही है. विक्षिप्तता और सभ्यता के गहरे अन्तर्सम्बन्ध हैं. सभ्य मनुष्य का स्वयं से गहरा लगाव होता है. इसे स्वयंलग्नता या आत्म-आसक्ति कह सकते हैं, जिसे मिशेल फूको ‘पागलपन का प्राथमिक लक्षण’ मानते हैं :
जो अपना मानसिक स्वास्थ्य हमेशा के लिए खो चुके हैं
वे अचानक प्रकट होते हैं
सूखी रोटियों की एक पोटली के साथ
कहीं पर विकराल कहीं निरीह
मैं नहीं जानता कि वे कहाँ से आए
उनका कहीं जन्म हुआ या नहीं
उनके होने पर खुशी मनाई गई या नहीं
(पागलों का एक वर्णन, आवाज़ भी एक जगह है)
पागलपन में समाज और उसकी सांस्थानिकताएँ, क़ानून, राज्य, अपराध, दण्ड और न्याय-अन्याय जैसी मूल साभ्यतिक अवधरणाओं की नींव के टेढ़ेपन की भूमिका भी है. जैसा कि विचारक फूको फ़रमाते हैं, ‘लेकिन यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य स्वयं से संलग्न है कि वह ग़लती को सत्य, झूठ को वास्तविकता, हिंसा और कुरूपता को सौंदर्य और न्याय के रूप में स्वीकार करता है.’ (मिशेल फूको, मैडनेस एंड सिविलाइज़ेशन) फ्रायड का भी यही मानना है कि ‘मनुष्य की अधिकांश समस्याओं का मूल सभ्यता में है.’ (फ्रायड, सिविलाइज़ेशन एंड इट्स डिसकन्टेंट) कवि मंगलेश सभ्यता की ओर कुछ ऐसी ही दृष्टियों से देख रहे हैं :
बहुत ज़्यादा ख़ुशी को वह संदेह से देखता था
इसलिए किसी किस्म के उल्लास की आवश्यकता नहीं है
वह बहुत ज़्यादा दुख के भी विरुद्ध था
इसलिए ग़मगीन दिखना चेहरे लटकाना व्यर्थ है
(मरणोपरांत कवि, आवाज़ भी एक जगह है)
एक रास्ता उस सभ्यता तक जाता था
जगह जगह चमकते दिखते थे उसके पत्थर
जंगल में घास काटती स्त्रियों के गीत पानी की तरह
बहकर आ रहे थे
किसी चट्टान के नीचे बैठी चिड़िया
अचानक अपनी आवाज़ से चौंका जाती थी
दूर कोई लड़का बांसुरी पर बजाता था वैसे ही स्वर
मैं एक कोने में सिहरता खड़ा था
कमरे में थे मेरे पिता
अपनी युवावस्था में गाते सखि मोरी रूम-झूम
कहते इसे गाने से जल्दी बढ़ती है घास
(राग दुर्गा, आवाज़ भी एक जगह है)
यह प्रकृति से अलगाव की पीड़ा है. मानवीय जीवन में स्थानिक लगाव की भी एक विलक्षणता है. पहाड़ी भौगोलिकता के संपन्न प्राकृतिक परिवेश से अलग होकर महानगरीय कचरे के ढेर में खप जाना आख़िर में बेकार सौदा जान पड़ता है. यहाँ मन में सभ्यताओं के प्रति संदेह से भर जाना स्वाभाविक है. यह disenchanted मन:स्थिति तो अपनी जगह है, लेकिन अपनी अनेक कविताओं में मंगलेश एक पर्यावरणवादी कवि के रूप में भी दिखायी देते हैं. हम उन्हें इको-पोएट कह सकते हैं:
दूसरे लोग भी पेड़ों और बादलों से प्यार करते हैं
वे भी चाहते हैं कि रात में फूल न तोड़े जाएं
उन्हें भी नहाना पसंद है एक नदी उन्हें सुंदर लगती है
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सभ्यता का गुणगान करने वालों
तुम अगर सभ्य नहीं हो
तो तुम्हारी सभ्यता का कद तुमसे बड़ा नहीं है
एक लंबी शर्म से ज़्यादा कुछ नहीं है इतिहास.
(दूसरे लोग, आवाज़ भी एक जगह है)
महानगरीय जीवन का रूखा यथार्थ तो एक उजाड़ की रचना करता ही है. नैसर्गिक हैबिटेट छूटने का दंश भी मंगलेश की कविताओं में एक विचारात्मक रूप ग्रहण करते हुए अर्थध्वनि बनता है. अजनबियत और अकेलेपन की यातना झेलते हुए प्रवासी मज़दूर-सा इंसान बहुत मजबूर दिखता है. ‘कवि का अकेलापन’ दारुण कथाएँ सुनाता है. यह अकेलापन वस्तुतः अलगाव की वह विकट और संत्रासपूर्ण है जिसे पूँजीवादी समाज के भीतर चिह्नित करते हुए मार्क्स और ऐंगल्स कहते हैं, Thus conceived, alienation is always self-alienation. The alienation of man (of himself) from himself through himself. (Marx and Engels, On Literature and Art)
यानी हम ऐसे होना नहीं चाहते थे, जैसे हो गए हैं. इसी कारण यह पीड़ा अकथनीय हो जाती है:
इन दिनों कोई किसी को अपना दुख नहीं बताता
हर कोई कुछ छुपाता हुआ दिखता है
दुख की छोटी-सी कोठरी में कोई रहना नहीं चाहता
कोई अपने अकेलेपन में नहीं मिलना चाहता.
(ग़ुलामी, नये युग में शत्रु)
माता-पिता के लिए मंगलेश ने अपने संग्रहों में कई-कई बहुत अच्छी और मार्मिक कविताएँ ऐसी लिखी हैं, जिन्हें पढ़कर न केवल मन भीग जाए, बल्कि सन्तान की अपने माता-पिता को देखने की दृष्टि कुछ और अधिक उदार, नम्र और रागात्मक हो जाए. विशेषकर वृद्धाश्रमों के इस दौर में. इधर के फ़ासिस्ट दिनों में किसी अवसरवादी, औसत फ़िल्मी कवि ने जनवादियों के विषय में कहा था कि वे हमें अपने माता-पिता से घृणा करना सिखाते हैं. उस घृणित को मंगलेश डबराल की कविताएँ पढ़नी चाहिए. जो वामपंथी भी हैं और जिनका प्यार एक ‘लाल रूमाल’ है. महान गोर्की ने अपनी क्लासिक रचना को ‘माँ’ नाम क्यों दिया था, यह फ़ासिस्टों की ख़ून-सनी मेज़पोशों पर गिरी जूठन बटोरने-चखने वालों को क्यों नहीं जानना चाहिए ? क्यों आख़िर माँ को सबसे अधिक प्यार जन-लेखकों ने किया? ज्ञानरंजन ने ‘पिता’ और उदय प्रकाश ने ‘नेलकटर’ और ‘तिरिछ’ जैसी कहानियाँ किस प्रेम के बूते लिखीं ? बहरहाल मंगलेश के यहाँ पिता की बहुत कोमल स्मृतियाँ कविताओं में आती हैं. वे हू-ब-हू पिता की तरह सामने आकर खड़ी हो जाती हैं :
सामने नंगे पहाड़ पर
जैसे ही चाँद चमकता है
अँधेरे में पिता माँगते हैं थोड़ी-सी मदद
माचिस की तीली बराबर रोशनी
कुछ देर की गाढ़ी निर्भय नींद
सुबह सीढियाँ उतरने की सामर्थ्य
और एक लाठी पत्थरों को टटोलने के लिए.
(शुरुआत, घर का रास्ता)
बूढ़े हो गए हैं पिता
बहुत बूढ़े हो गए हैं पिता
कभी-कभी कहते हैं
कैसा था हमारा ज़माना
तुम्हारे रद्दी ज़माने से पहले
तुम तो आए नहीं किसी काम.
(पिता, घर का रास्ता)
ये बहुत सरल कविताएँ हैं. साधारण माता-पिता की साधारण सन्तान होने का जनवादी भाव इन कविताओं का सौंदर्य है. हालाँकि इनकी बुनावट में निर्वासन के रेशे भी नज़र आते हैं. निर्वासन सहज मानवीय संबंधों को किस तरह जर्जर करता है, यह निर्वासित व्यक्ति की पीड़ित चेतना ही जानती है. इसका सबसे पहला प्रभाव जैविक संबंधों पर पड़ता है. जिनमें सबसे पहले आते हैं माता और पिता. माता और पिता से बिछड़ने के बाद जीवन से एक बेज़ारी हो जाती है. उनसे बिछड़कर ही हम जान पाते हैं कि ज़माने में कितनी निर्ममता और संबंधों की कैसी कसैली सियासत है. निर्वासन में वात्सल्य और प्रेम की भूख इतनी गहरी हो जाती है कि माता-पिता का स्नेह, उनकी शिकायतें, झल्लाहट और निरीहता निर्वासित की स्मृतियों से रिसने लगती है:
उनकी आँखों में कोई पारदर्शी चीज़
साफ़ चमकती है
वह अच्छाई है या साहस
तस्वीर में पिता खाँसते नहीं
व्याकुल नहीं होते.
(पिता की तस्वीर, हम जो देखते हैं)
पिता की तस्वीर से कई तस्वीरें जुड़ती हैं. दादा की तस्वीर, माँ की तस्वीर. पुरानी तस्वीरों की बातें कई कवियों के यहाँ मिलती हैं, किन्तु मंगलेश उन तस्वीरों को थोड़े अलग सलीक़े और नॉस्टेल्जिया के साथ प्रस्तुत करते हैं. भौतिक रूप से दूर हो गयी सन्तानों से माता-पिता की जो शिकायतें होती हैं वे भी मंगलेश के यहाँ कविताओं में अर्थ रखती हैं. निर्वासन में माता-पिता को लेकर हम भारतीयों के भीतर एक गिल्ट मुसलसल जोंक की तरह रेंगती, चिपटती और उचटती रहती है. पिता पर लिखी कविताओं में ‘पिता का चश्मा’ शीर्षक कविता ज़ेहन पर सवार हो जाने वाली कविता है. बूढ़े पिता का बालसुलभ यक़ीन एक ऐसी मुलायमियत से हमें नहला देता है कि एहसास में हम देर तक डूबे रह जाएँ :
पिता के आख़िरी समय में जब मैं घर गया
तो उन्होंने कहा संसार छोड़ते हुए मुझे अब कोई दुःख नहीं है
तुमने हालाँकि घर की बहुत कम सुध ली
लेकिन मेरा इलाज देखभाल सब अच्छे से करते रहे
बस यही एक हसरत रह गई
कि तुम मेरे लिए फुटपाथ पर बिकने वाले चश्मे ले आते
तो उनमें से कोई न कोई ज़रूर मेरी आँखों पर फिट हो जाता.
(पिता का चश्मा)
पिता की ख़राब गयी आँखों के यथार्थ से अधिक अस्ल लगता है पिता का यह यक़ीन कि फुटपाथ पर बिकने वाले चश्मों में से कोई न कोई उनकी आँखों पर ज़रूर फिट बैठ जाता. इन कविताओं को पढ़ते हुए एक सत्य और पुख़्ता हो जाता है कि ग़ुरबत में हमारे संबंधों का भी अमूर्तन हो जाता है. भले वे जैविक संबंध ही क्यों न हों. पिता की याद के साथ भूल गईं चीज़ों की याद भी संलग्न है:
तुम कितनी आसानी से शब्दों के भीतर आ जाते थे. तुम्हारी काया में दर्द का अंत नहीं था और उम्मीद अंत तक बची हुई थी. धीरे-धीरे टूटती दीवारों के बीच तुम पत्थरों की अमरता खोज लेते थे. खाली डिब्बों फटी हुई क़िताबों और भूल गई चीज़ों में जो जीवन बचा हुआ था उस पर तुम्हें विश्वास था. जब मैं लौटता तुम उनमें अपना दुख छुपा लेते थे. सारी लड़ाई तुम लड़ते थे, जीतता सिर्फ़ मैं था.
(पिता की स्मृति में, हम जो देखते हैं)
यहाँ पर एक बात और देखने में आती है कि कवि मनुष्य के व्यवहार का कितना बड़ा ऑब्ज़र्वर है. अन्य मनुष्यों के साथ-साथ वह अपने लोगों की गतिविधियों को कितनी चारुता से देखता है और उस सूक्ष्म निरीक्षण जितना ही सूक्ष्म है उसका प्रेम. पिता की भाँति माँ के लिए लिखी गयी कविताओं में भी वैविध्य है. उसमें माँ के ममत्व के साथ-साथ उसके साहस और कर्मठता के भी ब्यौरे हैं. यह मंगलेश डबराल के कवि की बड़ी खूबियों में से एक है कि वे जब माता-पिता के विषय में लिखते हैं तो लगता है वे हर ऐसे किसी व्यक्ति के माँ-बाप के बारे में लिख रहे हैं जो गाँव छोड़कर शहर कमाने-खाने गया हुआ है. और वे भारत के प्रत्येक गाँव के माता-पिता का प्रतिरूप हैं. ग़ालिबन यही जनवादी कवियों की सबसे बड़ी उपलब्धि है :
घर में माँ की कोई तस्वीर नहीं
जब भी तस्वीर खिंचवाने का मौका आता है
माँ घर में खोई हुई किसी चीज़ को ढूँढ रही होती है
या लकड़ी घास और पानी लेने गई होती है
जंगल में उसे एक बार बाघ भी मिला
पर वह डरी नहीं
उसने बाघ को भगाया घास काटी
घर आकर आग जलायी और सबके लिए खाना पकाया
(माँ की तस्वीर, हम जो देखते हैं)
जब भी खुद पर निगाह डालता हूँ
पलक झपकते ही माँ स्मृति में लौट जाती है
मैं याद करता हूँ कि उसने मुझे जन्म दिया था
कभी-कभी लगता है वह मुझे लगातार जनमती रही
(माँगना, नये युग में शत्रु)
ये पंक्तियाँ दिल में सूराख़ करती हुयी चली जाती हैं- कवि कई बार जन्म लेता है और माँ उसे लगातार जन्मती रही. यह सम्भव है कि माँ पर लिखी मंगलेश की कविताएँ पढ़ते हुए कभी निराला याद आयें कभी मुक्तिबोध (वह मेरी माँ खोजती अग्नि के अधिष्ठान), चन्द्रकान्त देवताले, अंतोनियो पोर्चिया, मुनव्वर राना, अब्बास ताबिश जैसे कवियों का स्मरण भी हो सकता है, प्रभात का भी, किन्तु मंगलेश की माँ पर लिखाई इसलिए अलग है कि यहाँ उसके विविध रूप हैं और स्मृतियों का रंग इतना गाढ़ा है कि कविता के शब्दों में चित्रों को छुआ जा सकता है:
माँ कहती थी उस जगह जाओ
जहाँ आख़िरी बार तुमने उन्हें देखा उतारा या रखा था
अमूमन मुझे वे चीज़ें मिल जाती हैं और मैं ख़ुश हो उठता
माँ कहती थी चीज़ें जहाँ होती हैं
अपनी एक जगह बना लेती हैं और वह आसानी से मिटती नहीं
माँ अब नहीं है सिर्फ़ उसकी जगह बची हुई है
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चीज़ें खो जाती हैं लेकिन जगहें बनी रहती हैं.
(बची हुई जगहें, नये युग में शत्रु)
माँ की बची हुयी जगह को देखते हुए कवि को देखकर उदासी से भर जाना लाज़िम है. माँ की मृत्यु एक ऐसी घटना है जो किसी बच्चे के लिए स्तब्धकारी है, वह बूढ़ा ही क्यों न हो गया हो ! कवि के लिए यह कितना भारी दुःख है इसे कवि हुए बिना नहीं जाना जा सकता. उदय प्रकाश ने कहीं लिखा है कि ‘माँ के बाद दुनिया में सिर्फ़ निर्ममता और सियासत बचती है.’ माँ से बिछोह की वेदना मंगलेश के यहाँ महाकाव्यात्मक अगर नहीं है, तो औपन्यासिक अवश्य है. जैसे कोई आदिवासी अफ़्रीकी बच्चा अपनी माँ से बिछड़ कर योरोप के व्यक्तिवादी समाज में खो गया हो. माँ की स्मृति मंगलेश की कविताओं में वज़्न भरती है और इन्हें संज़ीदा आख्यान सौंपती है :
पिछली सर्दियों में मेरी माँ चली गई थी
मुझसे एक प्रेम पत्र खो गया था एक नौकरी छूट गई थी
रातों को पता नहीं कहाँ-कहाँ भटकता रहा
कहाँ-कहाँ करता रहा टेलीफोन
पिछली सर्दियों में
मेरी ही चीज़ें गिरती थीं मुझ पर
(इन सर्दियों में, नये युग में शत्रु)
तरह-तरह से होने वाली औरतों की मृत्यु के बावज़ूद
मैं अंत तक सोचता था माँ कहीं नहीं जाती
हद से हद पड़ोस में गई रहती है
या खेत और जंगल की ओर
जैसे शाम होते ही चिड़ियाँ लौटती हैं वह लौट आती है
माँओं का शाम का आसमान हर जगह घर वापसी से भरा होता है
(वही, नये युग में शत्रु)
आख़िर में जब मृत्यु आयी
तो उसने उसे भी नमस्कार किया होगा
और अपना जीवन उसे देते हुए कहा होगा
बैठो कुछ खाओ
(माँ का नमस्कार, स्मृति एक दूसरा समय है)
माँ का नमस्कार माँ पर लिखी गयी कविताओं का समापन हो जैसे. समापन के बाद क्या रह जाता है? यहाँ एक ऐसी वेदनात्मक अनुभूति है जो कविता को अव्याख्येय बना देती है. गोया ये कहना चाहती है कि यह केवल अनुभव करने की बात है, और शून्य में झाँकते हुए, गर्दन को एक ओर घुमाकर मौन रहा जाय. इस कविता के बाद का साइलेंस ही इसका सौंदर्य है. माँ ने स्वयं को, मत्यु को खाने दे दिया है. यह जीवन रूपी महाकाव्य का अन्तिम पर्व है, जहाँ पीड़ा के साथ विश्रांति है. मंगलेश की माता-पिता और उनके गुण-व्यवहार को विषय बना कर लिखी गई कविताएँ हमें अपने माता-पिता के प्रति सोचने को विवश करती हैं. बल्कि कई बार लगता है कि माता-पिता पर इससे अच्छी कविताएँ नहीं लिखी जा सकतीं या उनकी स्मृति को इससे अधिक उदात्त रूप में नहीं रचा जा सकता.
दो |
‘नए युग में शत्रु’ की कविताओं से मंगलेश बाज़ार और फ़ासीवाद के गठजोड़ को पहचान कर लगातार उस पर काव्यात्मक चोट करना चाहते हैं और इस प्रयास में अपनी कविता को प्रभावित भी करते हैं. परन्तु यहाँ भी भाषिक कौशल और कविता की कहन बनी रहती है. इस दौरान बहुत अच्छी कविताएँ भी उनके संग्रहों में देखी जा सकती हैं. ‘भूमंडलीकरण एक पॉलीथिन का नाम है’ जैसी पंक्तियाँ लिखकर कवि बाज़ारवाद और उसके जटिल यथार्थ को सरल करने के सफल प्रयास करता है:
ताक़त की दुनिया में जाकर मैं क्या करूँगा
मैं सैकड़ों हजारों जूते चप्पल लेकर क्या करूँगा
मेरे लिए एक जोड़ी जूते ही ठीक से रखना कठिन है
हजारों लाखों कपड़ों मोज़ों दस्तानों का मैं क्या करूँगा
मैं इतने सारे कमरों का क्या करूँगा
यह दुनिया घर है कोई होटल नहीं
और मेरी नींद का आकार हद से हद एक चिड़िया के बराबर है.
(ताक़त की दुनिया, नए युग में शत्रु)
लोग किसी चमत्कार की उम्मीद में
घरों से बाजारों की ओर जाते हैं.
(वही)
वैचारिक रूप से बेहद शॉर्प कवि ने अपने समय से जुड़े हर एक अंदेशे को कविता का पैरहन पहनाया है. फ़ासीवाद के गहराते अँधेरे को पहचानकर मंगलेश टूटकर उसे अभिव्यक्त करना चाहते हैं. यह बेचैनी उनकी अन्तिम समय की कविताओं में सर्वत्र है. जैसा कि कहा गया था कि आख़िर में कवि को रीते-बीते हुए जीवन की स्मृतियों, प्रेम, निस्सारता, वीतराग, मृत्युबोध इत्यादि की कविताएँ लिखने का अवकाश होना चाहिए, किन्तु वह अन्त तक अँधेरी गहराती रात्रि में कुछ टटोलता, हाँफता, भागता रहता है. उसके पास संघर्ष और प्रतिरोध का वह आदिम साहस है, जो मनुष्यता की उपलब्धि है. कवि भाषा पर बाज़ार और राजनीति के एकतरफ़ा नियंत्रण से आहत है :
अभी तक ख से खरगोश लिखता आया हूँ
लेकिन ख से अब किसी ख़तरे की आहट आती है
मैं सोचता था फ से फूल ही लिखा जाता होगा
बहुत सारे फूल
घरों के बाहर घरों के भीतर मनुष्यों के भीतर
उनकी आत्मा में
लेकिन मैंने देखा तमाम फूल जा रहे थे
हत्यारों के गले में माला बन कर डाले जाने के लिए
आततायी छीन लेते हैं हमारी पूरी वर्णमाला
वे भाषा की हिंसा को बना देते हैं
एक समाज की हिंसा
(वर्णमाला, स्मृति एक दूसरा समय है)
कला-साहित्य के उदात्त मूल्यों से विमुख समाज राजनीतिक घृणा के ऐसे दलदल में जा धँसा है, जहाँ से उसे मुक्त होने में लंबा समय लगेगा. पूँजीवादी शक्तियों द्वारा जनता को अशक्त अनुभव कराने के बाद ताक़त का जो पुतला खड़ा किया गया है उसकी परछायी में अपनी हीनता-ग्रंथि को छुपाता हुआ समाज, उसी ताक़त को अपनी ताक़त समझ बैठता है. देश और समाज की वर्तमान परिस्थितियों को कवि चित्रित करना चाहता है, यथार्थ को समझाना चाहता है, लेकिन हम जानते है कि इससे कवि पीड़ा ही उठा रहा है:
जब ताक़तवर आदमी ने कहा
कि उसने देश के लिए घर त्याग दिया शादी नहीं की
तो मैंने सोचा मैं कितना ख़ुशनसीब था
कि रात को लौटने के लिए मुझे एक जगह नसीब हुई
एक भली सी पत्नी मिली
जिसने अपने प्रेम के एवज में मुझसे कुछ नहीं चाहा
(ताक़तवर आदमी, स्मृति एक दूसरा समय है)
कुछ ही शब्द हैं जिनके अर्थ बचे रह गए हैं
भय अब और भी भय है आतंक और ज्यादा आतंक
प्रेम के भीतर प्रेम करते लोग नहीं दिखते
तक़लीफ़ की इबारत की जगह
एक क्रूर जश्न का इश्तिहार मिलता है.
एक दिन मैंने एक ताक़तवर आदमी के सामने
मनुष्यता का जिक्र किया तो उसने चिढ़कर कहा
तमाम लोग अपने-अपने काम में लगे हैं
लेकिन सिर्फ़ आप हैं जो मनुष्यता मनुष्यता करते रहते हैं
(शब्दार्थ, स्मृति एक दूसरा समय है)
यह सही है कि भाषा अब साहित्य लेखकों के हाथ से निकल चुकी है और उस पर पूँजी प्रेरित राजनीतिक संस्थाओं की आक्रामकता हावी हो गयी है. जिन-जिन औज़ारों से भाषा में घृणा, हिंसा और अश्लीलता का विष घोला जा सकता था, घोला जा चुका है. ऐसे में कविता की बात सुनने वाला कौन है ? स्मृति को इरेज़ किया जा रहा है और बिना स्मृति के, आने वाली पीढ़ी में कैसी मनुष्यता होगी ?
यह भूलने का युग है जैसा कि कहा जाता है
नौजवान भूलते हैं अपने माताओं-पिताओं को
चले जाते हैं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर
याद रखते हैं सिर्फ़ वह पता वह नाम
जहाँ ज़्यादा तनख्वाहें हैं
ज़्यादा कारें ज़्यादा जूते और ज़्यादा कपड़े हैं.
(भूलने का युग, स्मृति एक दूसरा समय है)
कला मंगलेश में कम नहीं है. चाहे बिम्बों की बात हो या प्रतीकों की. प्राकृतिक प्रतीकों को प्रयुक्त करने के वे माहिर हैं. रोशनी को फूलों और स्वरों को बादलों में बदलने की कला इस कविता में दर्शनीय है. और शाम…वह तो एक गुमसुम बच्ची जैसी है:
खिड़की की सलाखों से बाहर आती हुई
लालटेन की रोशनी
पीले फूलों जैसी
हवा में हारमोनियम से उठते प्राचीन स्वर
छोटे-छोटे बारीक़ बादलों की तरह चमकते हुए
शाम एक गुमसुम बच्ची की तरह
छज्जे पर आकर बैठ गई है
जंगल से घास लकड़ी लेकर आती औरतें
आँगन से गुज़रती हुईं
अपने नंगे पैरों की थाप छोड़ कर जाती हैं.
(स्मृति: एक, स्मृति एक दूसरा समय है)
इसी प्रकार ‘गुड़हल’ कविता है तब भी फूल है, फूल है तब भी कविता है. यह रूपक-प्रयोग में विश्वस्तरीय कविताओं की सानी है. नेरूदा और नाज़िम हिकमत जैसे कवियों की कविताओं की कतार में खड़ी होने वाली. फूलों की भाषाचर्या में अपनी बात कहना कितना कलात्मक काम है! सूरजमुखी के फूल को प्रतीक बनाकर सत्तामुखी लोगों पर कितना बारीक़ व्यंग्य है. जैसे फूलों का कोई तीर बनाकर उसे चुभने के लिए तान दिया गया हो. जब वे कहते हैं कि ‘गुड़हल एक ऐसा ही फूल है’ तो नेरूदा की पंक्ति याद आती है कि ‘बूढ़े पतझर के घोड़े की एक लाल दाढ़ी है.’ गुड़हल का गाढ़ा लाल रंग जनता के ख़ून के रंग जैसा है. संकल्पधर्मा चेतना को गुड़हल के फूल के प्रतीक में व्यक्त करना अभूतपूर्व है, वरना चमन में फूल तो तमाम हैं :
मुझे ऐसे फूल अच्छे लगते हैं
जो दिन-रात खिले हुए न रहें
शाम होने पर थक जायें
और उनींदे होने लगें
रात में अपने को समेट लें सोने चले जायें
आख़िर दिन-रात मुस्कुराते रहना कोई अच्छी बात नहीं
(गुड़हल, स्मृति एक दूसरा समय है)
मंगलेश डबराल की कविताई मनुष्यता में यक़ीन बनाए रखने का अन्तिम प्रयास है. इसमें भाषा को बरतने और उसकी व्यंजना से काव्यार्थ के शीशे को चमकाते रहने की उस्तादाना सीख है. इसमें जनसंघर्ष और मानवीयता के पक्ष में खड़े होने की संवेदनात्मक पुकार है. कविता के मंगलेश रचित चार दशक साभ्यतिक मूल्यों के स्तर पर हुए परिवर्तनों के साक्षी हैं. कविता कितना संयम, मितकथन, धैर्य और कितनी बेचैनी चाहती है यह भी हम मंगलेश को पढ़ते हुए जान पाते हैं. हिन्दी का यह कवि हमें अच्छा मनुष्य बनाने की सच्ची इच्छा रखता है, हममें और मनुष्यत्व जोड़ता है और मनुष्यता को एक बड़े मूल्य के रूप में स्थापित करना चाहता है:
हमने कुछ शब्दों को पत्थरों की तरह हाथ में लिया था
और उनसे चिनगारियाँ पैदा करने की कोशिश करते रहे
नक्शे पर वसंत की गर्जना सुनाई दे रही थी
और उम्मीद नमक की तरह थी
जिसके साथ हम अपनी रोटियाँ खाते रहे.
(दो प्रारूप, स्मृति एक दूसरा समय है)
मंगलेश डबराल की उम्मीद का यह नमक ही इस धरती का सबसे अनूठा स्वाद है जो हमारे पसीने, रक्त, आँसुओं और प्रेम में घुला हुआ है. यही है कविता का सबसे ज़रूरी प्रदाय.
संतोष अर्श कविताएँ, संपादन, आलोचना . रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित. poetarshbbk@gmail.com |
संतोष मेरे प्रिय आलोचकों मे हैं। उनके पास Subaltern दृष्टि है जो दुनिया को देखने की आधुनिक दृष्टि है। बड़े और प्राकृतिक कवि रमाशंकर यादव विद्रोही का ईमानदार मूल्यांकन संतोष ही कर सकते थे। संतोष को करना बस इतना है कि उन्हें हिंदी की ब्राह्मणवादी बेईमान आलोचना की परिपाटी से अपने को हरसंभव बचाकर रखना है क्योंकि इसी से उनकी पहचान भी बनेगी। हमारा रास्ता हमेशा से जुदा रहा है।
बहुत प्यार से, ध्यान से और धीरज से लिखा गया आलेख। मंगलेश की कविता के सुंदरतम लम्हों को रेखांकित करता हुआ।
कुछ दिन पहले कवि कल्लोल चक्रवर्ती की कविताएं हृदय में उतार भी नहीं पाया था कि आपने हमारे प्यारे कवि मंगलेश डबराल की कविताओं पर युवा आलोचक संतोष अर्श की टिप्पणी का पिटारा खोल दिया है, जिसे पढ़ना जरूरी समझा। हिन्दी का कोई ऐसा आलोचक या समीक्षक नहीं बचा होगा, जिसने मंगलेश डबराल की कविताओं पर न लिखा हो। लेकिन संतोष अर्श की आलोचना ने जैसे मेरे हृदय में बसे रंगों को छुआ हो। और इसे पढ़ता ही चला गया। प्रेम और करुणा की अक्षय स्रोत है मंगलेश डबराल की कविता, जो ज़िंदगी के हर ओट से हमें छूने का प्रयास करती हो। वह इस तरह से भी छूती है कि हम उसमें भीगने को लालायित हो उठें और जहां दुख हमारी आंख को डबडबाने के लिए छोड़ दे। एक चिग्घाड़ -सी उठती है भीतर और होंठ तक आकर भरभराकर ठहर सी जाती है।
संतोष अर्श की आलोचना कहीं से भी अमूर्त नहीं लगती । वह कविता के सोये हुए पंख सहलाती है और उसकी भावों और शब्दों की उड़ान को सही अर्थों में व्यक्त करती है। युवा आलोचकों में संतोष अर्श प्रतिभावान और अनेक अर्थों में संभावनाशील आलोचक हैं। संतोष अर्श को पहले भी पढ़ा है । उनमें हिन्दी आलोचना पद्धति के उदीयमान नक्षत्र की चमक है। उन्हें बधाई और शुभकामनाएं।
After reading many works of Dr. Santosh Arsh(Sir), I can say that his art of writing is marvellous..his way of elaborating the things does not just provide information , but also creates a picture in mind, which leads you to understand the depth of any work.And i feel it is an important thing in the profession of writing.
“अभी तक ख से खरगोश लिखता आया हूँ
लेकिन ख से अब किसी ख़तरे की आहट आती है” आज जब मणिपुर जल रहा है, बाकी सूबे को सुलगाया जा रहा है ऐसे दौर में मंगलेश डबराल की कविताएँ और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। एक बेहतरीन कवि पर शानदार लेख पढ़कर अच्छा लगा। लेखक के साथ-साथ संपादक महोदय का आभार। साथ ही बधाई और शुभकामनाएं भी💐
संतोष आपके नज़रिये से किसी रचनाकार को समझना,हमेशा समृद्ध करता है..सुंदर भाषा को साथ लिए जिस सूक्ष्मता और गहराई के साथ आप किसी साहित्यकार के कविकर्म का मूल्यांकन करते हैं..वह बेहद सराहनीय है..निश्चय ही आप हमारे समय के महत्वपूर्ण आलोचक हैं
Santosh Arsh आलोचना के प्रति विश्वास देते हैं। धीर और गंभीर, पूर्वाग्रहों से यथासंभव मुक्त पाठ को ही वस्तुतः आलोचकीय दृष्टि कहते हैं। पढ़ते हुए लगा कि संतोष जी की दृष्टि पूरमपूर सफल आलोचक की दृष्टि है। संतोष जी का यह लेख इनकी लगन और कविता से लगाव का परिचायक है। इस लेख से मंगलेश डबराल के कविता समग्र को नए अर्थों में खुलते हुए पढ़ा जाना संभव हो रहा है।
मंगलेश जैसे विराट कवि और मंगलेश की कविता जैसी व्यापक कविताई पर सूक्ष्म और गहरे विश्लेषण वाला यह आलेख नया और जबर्दस्त कहा जा सकता है.
संतोष अर्श ने जिन प्रमुख बातों को खंगाल कर रेखांकित किया है, मसलन — मंगलेश की कविता के बाद का साइलेंस ही उनकी कविता का सौंदर्य है या उनकी कविता मनुष्यता में यकीन बनाए रखने का अंतिम प्रयास है या फिर गोया मंगलेश बताना चाह रहे हों कि स्थूलता कवि की विवशता है और इसी तरह उनकी कविताओं में स्त्री का निश्चल प्रेम एक उपलब्धि की भांति व्यंजित है — इन सभी बिंदुओं पर विमर्श आगे जाना चाहिए.
और चर्चा की संगति ललित कार्तिकेय से एक लंबे इंटरव्यू में मंगलेश ने जो यह कहा कि क्या हम एक कविता जो कहती है उस पर विचार करें या उसे जो कहना चाहिए या वह जो कह सकती थी, उसे देखें ? से भी बैठानी होगी.