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Home » कलकत्ते की याद और प्रियदर्शी प्रकाश: अशोक अग्रवाल

कलकत्ते की याद और प्रियदर्शी प्रकाश: अशोक अग्रवाल

साहित्य का भी तलघर होता है, जहाँ चेहरे नहीं होते, होते भी हैं तो धुंधले और स्मृतियों से कब के ओझल हो चुके होते हैं. वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल का यह संस्मरण ऐसे ही चेहरों पर रौशनी डालता है, उनके अंतर्मन की यात्रा करता है. बेहद दिलचस्प और लम्बे समय तक याद रहने योग्य.

by arun dev
September 8, 2021
in संस्मरण
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कलकत्ते की याद और प्रियदर्शी प्रकाश: अशोक अग्रवाल
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कलकत्ते की याद और प्रियदर्शी प्रकाश

अशोक अग्रवाल

“यहाँ से वह मंडी हाउस की ओर जायेगा. उस सांस्कृतिक दुनिया का रंग-बिरंगा संसार क्या उसकी जिन्दगी के कुछ घण्टों को अपने भीतर समेट पाने में समर्थ होगा? कदम-कदम पर रंगमंच सजा था. महान अभिनेता अभिनय की ऊँचाइयाँ छू रहे थे. संगीतकार, मूर्तिकार, फिल्मकार और कवि-लेखक सभी धुनों, रंगों और शब्दों के समुद्र में छपाक-छपाक छलाँगें लगाते तैर रहे थे, उसे लगता चारों दिशाओं में अनन्त पगडण्डियाँ फूट रही हैं, सिर्फ उसके कदम बढ़ाने भर की देर है. उसकी प्रतिभा जो ऐन वक्त पर मार खाती रही थी उसका प्रस्फुटन कोई शक्ति नहीं रोक सकेगी, ‘इनमें से कोई भी मेरी जिन्दगी नहीं जी सकता’ वह गर्व से मन ही मन गुब्बारा बन जाता.

(प्रियदर्शी प्रकाश को समर्पित लेखक की कहानी ‘एक नाटक खेलें’ का अंश)

‘भूत लेखकों’ की विचित्र दुनिया से पचास साल पूर्व मेरा पहला परिचय कराया प्रियदर्शी प्रकाश ने. वस्तु जगत में जिसे आपकी आँखें देख नहीं सकतीं, कान उसका स्वर नहीं सुन सकते और अंगुलियाँ जिसका स्पर्श नहीं कर सकतीं, उसे ही ‘भूत’ की संज्ञा प्रदान की गई होगी और वह भूत बिना रुके-थके आपको रोमांस-रोमांच के लम्बे-लम्बे आख्यान सुनाता चला जाये तो उसे ‘भूत लेखक’ ही कहा जायेगा.

जब उसने बताया कि वह भी ऐसा एक ‘भूत लेखक’ है जिसके एक नहीं अनेक नाम और चेहरे हैं, तो मेरे विस्मय की सीमा न रही. कलकत्ता से प्रकाशित ‘गल्प भारती’, ‘ज्ञानोदय’ और कई अन्य लघु पत्रिकाओं में मैं उसकी कहानियां पढ़ चुका था, इसी तरह वह भी मेरी कहानियां. पहली दफा आमना-सामना होने के बावजूद हम एक-दूसरे के नाम से भली-भाँति परिचित थे.

आसफ़ अली रोड स्थित ‘हिन्दी बुक सेंटर’ के काउण्टर से कुछ देर का अवकाश ले वह मुझे एक संकरी गली में स्थित रेस्तरां में ले आया. इसी दिन हमारी अंतरंग मित्रता के असमाप्त अध्याय का प्रारम्भ हुआ.

वर्ष 1970. उन दिनों मैं अल्पकाल के लिये (6 माह) अंसारी रोड, दरियागंज से निकलने वाले महत्वहीन साप्ताहिक ‘स्वराज संदेश’ के सम्पादकीय मण्डल के एक सदस्य के रूप में कार्यरत था. लंच के समय मौका पाते ही ‘हिंदी बुक सेंटर’ पहुँच जाता और पैसों के अभाव में प्रायः विण्डो शॉपिंग करता. किताबों के प्रति मेरे लालच और ललक को उसने भली-भाँति पढ़ लिया था.

‘‘यहाँ आते हुए अपना झोला साथ लाया करो.’’ उसने एक दिन फुसफुसाते हुए कहा. उस दिन के बाद मेरे झोले में अनेक भारतीय और विदेशी लेखक समय-समय पर समाते गए. राही मासूम रज़ा के ‘आधा गाँव’, मोहन राकेश द्वारा अनूदित, हेनरी जेम्स का उपन्यास ‘एक औरत का चेहरा’ और फणीश्वरनाथ रेणु के ‘परती परिकथा’ की याद आज भी है. मेरे संकोच को दरकिनार करते, काँच के केबिन की ओर इशारा करते उसने तलखी से कहा, ‘‘मैं सिर्फ अपना मेहनताना वसूल रहा हूँ.’’ ऐसे ही एक दिन रेस्तराँ ले जाते समय वह बंद केबिन की ओर देखते हँसा, ‘‘आज मेरा भूत लेखक इस संस्था के मालिक के स्वरूप में बम्बई से आए एक फिल्म निर्माता से साइनिंग एमाऊंट की भारी रकम का चेक हासिल कर रहा है.’’

सिर्फ छह माह बाद मैं उस साप्ताहिक की परम्परा के अनुरूप सेवामुक्त हो वापिस अपने शहर लौट आया और हमारी नियमित मुलाकातों का सिलसिला भंग हुआ.

हापुड़ शटल के छूटने का समय था- 6.45. छह बज रहे थे, मुझे चलने की हड़बड़ी में देख प्रियदर्शी बोला, ‘‘कभी-कभी घर लौटने की छुट्टी कर दिया करो, आज तुम मेरे साथ चल रहे हो.’’

जंगपुरा एक्सटेंशन के लिये हमने दिल्ली गेट से बस पकड़ी. कंडक्टर की ओर इशारा करते प्रियदर्शी ने मुझसे टिकिट लेने के लिए कहा, तो मैं समझ गया उसकी जेब खाली है. बस से उतर जंगपुरा मार्केट की एक दूकान से उसने एक दर्जन अण्डे, बड़ी ब्रेड, मक्खन और दूध का पैकेट लिया. मेरा हाथ जेब की ओर बढ़ा ही था उसने मेरा हाथ पीछे करते हुए कहा, ‘‘यहाँ मेरा उधार खाता खुला है … कोई जरूरत नहीं.’’

घर की तीसरी मंजिल पर टीन की छत वाली बरसाती. रसोईघर का काम खुली छत पर या बरसाती के भीतर होता. पेशाब के लिए छत की नाली जिसके पास पानी से भरी बाल्टी और एक मग्गा रखा था. शौच निवृत्ति के लिये सुलभ सार्वजनिक शौचालय. एक माह का किराया एक सौ बीस रुपये. पत्नी और दो छोटे बच्चे.

प्रियदर्शी की पत्नी नेपाली मूल की थी. दिल्ली आने के बाद हिन्दी बोलने-समझने लगी थी. खुले आकाश के नीचे दरी पर मदिरापान करते कब उसके अतीत के पन्ने एक-एक कर खुलने लगे, पता ही नहीं लगा. उन दिनों वह कलकत्ता में था, जब उन भूमिगत वाम पंथियों के सम्पर्क में आया जो नेपाल की राणाशाही के विरुद्ध जूझ रहे थे. वह भी नेपाल जा पहुँचा और एक भूमिगत बड़े कमाण्डर का घर उसका ठिकाना बना. उसकी पत्नी उसी कमाण्डर की भतीजी थी जो वहीं रह रही थी.

‘‘समस्या तब पैदा हुई जब उसे गर्भ ठहर गया. मैं उसे लेकर कतई गम्भीर नहीं था, सिर्फ मौज-मस्ती के लिए उससे सम्पर्क बनाया. मेरे ऊपर खतरा मण्डरा रहा था. उसका चाचा पता चलते ही मेरे टुकड़े-टुकड़े कर खाई-खंदक में फिंकवा देगा और मैं, चील-कौओं का भोज्य बन रहा होऊँगा. मैंने चुपचाप वहाँ से खिसक लेने की योजना बनायी और एक रात, जब सभी गहरी नींद में डूबे थे, मैं भाग निकला, मुश्किल से एक फलाँग गया होऊँगा की हाँफती-दौड़ती उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. …उल्लू की पट्टी को पता नहीं कैसे भनक लग गयी. वापिस लौटने का तो अब कोई सवाल ही नहीं था. उसे साथ लिये पहले पटना पहुँचा फिर कलकत्ता…”

‘‘कलकत्ता पहुँचने तक मैं सिर्फ उससे छुटकारा पाने की सोच रहा था. प्यार-व्यार कुछ नहीं यार… न ही इन फालतू किस्म के झमेलों के लिये मेरे मन में कोई जगह थी. सोचा यही कि जैसे ही मौका पाऊँगा भाग खड़ा होऊँगा या सोनागाछी के किसी दल्ले के हाथ उसे सौंप दूंगा. कलकत्ता पहुँचते ही रेलवे प्लेटफार्म की बेंच पर उसे बिठा और बहाना बना स्टेशन के बाहर निकल गया.”

‘‘होटल में खाने का आर्डर दिया, जैसे ही पहला ग्रास मुंह में गया मन धिक्कारने लगा. कुछ भी मुंह के नीचे नहीं उतरा. खाने को पैक करा शंकाओं-आशंकाओं से घिरा स्टेशन वापिस लौटा. दो घण्टे बीत गये थे. मन में संशय बना था कि कहीं मुझे तलाशने इधर-उधर न निकल गयी हो. जब बेंच पर गर्दन झुकाये उसे बैठे देखा तो तसल्ली मिली.”

‘‘पता नहीं यार… कैसे लेखक दूसरी-तीसरी औरत से सहज सम्बन्ध बना लेते हैं. मुझे देखो, यह औरत अभी तक मुझसे बंधी हुई है और मेरे दो बच्चों की माँ भी है.’’

प्रियदर्शी ने ठहाका लगाया. सुनते हुए मुझे लगा कि कहीं वह मानिक वंद्योपाध्याय के ‘पुतुल नाचेर इतिकथा’ का आख्यान तो नहीं सुना रहा है. रचना का सत्य और जीवन का यथार्थ एक दूसरे का पर्याय ही तो हैं.

नींद से बोझिल होती मेरी आँखों को देख प्रियदर्शी मुझे बरसाती के भीतर लाया. दोनों बच्चे फर्श पर गद्दे के ऊपर कम्बल की गरमायी में सोये थे. गद्दे के सिरहाने बैठी भाभी संभवतः ऊबी हुए हमारे भीतर आने की प्रतीक्षा कर रही थी.

पलंग पर रखी रजाई खोलते प्रियदर्शी मुस्कराया, ‘‘अपना अभिजात्य छोड़ो. दिसम्बर की सर्दी है और एक ही रजाई है. हम तीनों को इसी एक रजाई से काम चलाना है.’’

सुबह मेरी सबसे बड़ी चिन्ता शौच-निवृत्ति की थी. सार्वजनिक शौचालय की कतार में लगना मेरे लिये कठिनाई भरा था. प्रियदर्शी मुझे साथ लिये जंगपुरा की एक तिमंजिला कोठी में आया. वह भीतर प्रवेश कर गया और मैं सकुचाया, बरामदे में खड़ा उसकी प्रतीक्षा करने लगा.

गैलरी का दरवाजा खोल उसने मुझे भीतर आने का इशारा किया और बाथरूम की ओर उंगली उठाते कहा, ‘‘तुम बिना संकोच के इत्मीनान से निवृत्त होओ. मैं कुछ देर माँ और बहनों से बतियाता हूँ.’’

यह घर उसके पिता का था. वह ‘ज्योग्राफिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ के डायरेक्टर पद से सेवानिवृत्ति के बाद दिल्ली आकर बस गये थे. प्रियदर्शी उनकी सबसे बड़ी संतान था.

छोटा भाई व्यवसाय में और दो छोटी बहनें कॉलिज में पढ़ने के साथ-साथ रंग-कर्म से जुड़ी थीं. कलकत्ता प्रवास के दिनों में ही प्रियदर्शी के अराजक व्यवहार को देखते परिवार ने उससे दूरी बना ली थी, फिर उसके देहाती अनपढ़ नेपाली लड़की से विवाह करने के बाद खिन्न परिवार ने स्थायी रूप से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया. उसके इस परिवार के बारे में और सिंधी भाषा में उसे बतियाते मुझे पहली बार पता चला कि प्रियदर्शी मूलतः सिंधी भाषी है. उसका वास्तविक नाम प्रियदर्शी प्रकाश नहीं प्रकाश गुगलानी है.

प्रियदर्शी के साथ कलकत्ता (अब कोलकाता) की दो यात्रायें हुईं. वर्ष, 1975-76 में. दोनों यात्राओं की स्मृतियाँ परस्पर इस तरह गुथी हुई हैं कि उन्हें जोड़कर एक यात्रा के रूप में स्मरण कर रहा हूँ.

‘हिन्दी बुक सेंटर’, जहाँ प्रियदर्शी नौकरी करता था, अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों की पच्चीस-पच्चीस प्रतियों की आपूर्ति हेतु ‘अमेरिकन लायब्रेरी ऑफ काँग्रेस’ का अधिकृत वेन्डर था. कलकत्ता से प्रकाशित हो रही कुछ ऐसी पुस्तकों के क्रय के लिए, जिन्हें लेखक प्रायः स्व-प्रयासों से छापते थे और जिसकी जानकारी उन्हें नहीं मिल पाती थी, प्रियदर्शी को यह दायित्व सौंपा था. प्रियदर्शी ने ‘कालका मेल’ से अपने साथ मेरा भी आरक्षण करा लिया. यात्रा से एक दिन पहले मैंने अपनी यात्रा स्थगित करने का निर्णय लिया. उन दिनों मोबाइल जैसी कोई सुविधा नहीं थी. उसे सूचित करने का सिर्फ एक उपाय मेरे पास था. हापुड़ से प्रातः 5.25 पर छूटने वाली ‘मसूरी एक्सप्रेस’ से 7.15 पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचा.

‘कालका मेल’ के छूटने का समय 8.10 था. वह व्यग्रता से मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. मेरे साथ न चलने की सुनते ही उसका चेहरा लटक गया, ‘‘खाली बर्थ देखते हुए मैं कलकत्ता की यात्रा कैसे कर पाऊँगा?’’

मेरा मन डांवांडोल होने लगा, विवशता जाहिर करते बोला, ‘‘मेरे पास न तो कपड़े हैं और न ही पैसे. घर में भी किसी को बताकर नहीं चला हूँ. चाची (माँ) और पिता चिन्तित होंगे.’’ मात्रा बीस रुपये मेरी जेब में थे जो घर वापसी के लिए पर्याप्त थे.

‘‘पैसों की कोई चिन्ता नहीं, ‘हिन्दी बुक सेंटर’ ने पर्याप्त पैसे पकड़ाये हैं. घर के लिये स्टेशन के तारघर से तार दिये देते हैं.’’ प्रियदर्शी ने मेरा हाथ पकड़ा और प्लेटफार्म की सीढ़ियाँ भागते हुए पार की. तार घर से तार भेजने के बाद उसी तरह हॉफते-भागते अपने कम्पार्टमेंट तक उस समय पहुँचे, जब ‘कालका मेल’ ने रवानगी की सीटी दे दी थी.

बिना पैसे और मकान के मेरी इतनी दूरी की यह पहली यात्रा थी.

लगभग सात-आठ घंटे के विलम्ब से कालका मेल हावड़ा पहुँची. संध्या हो चली थी. स्टेशन के आसपास कुछ होटलों और धर्मशालाओं की खाक छानने के बाद भी कोई कमरा न मिल सका. प्रियदर्शी ने कोई निर्णय लिया और एक रिक्शेवाले को ‘साहा लेन’ चलने को कहा.
मुख्य सड़क पर रिक्शा छोड़ हम कई तंग गलियों से होते हुए छेदीलाल गुप्त के घर पहुँचे. एक तिमंजिला बड़ी सी हवेली, नीचे के फ्लोर पर चार दिशाओं में चार कमरों में बसी चार गृहस्थियाँ, इसी तरह दूसरी और तीसरी मंजिल पर. एक घर में अनेक घर, अनेक परिवार. पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक की गलियों में बसी हवेलियों का स्मरण कराता.

छेदीलाल गुप्त का नाम मेरे लिए अपरिचित नहीं था. बांग्ला से अनुदित होकर हिन्दी में प्रकाशित होने वाली हर दूसरी पुस्तक पर अनुवादक के नाम के आगे छेदीलाल गुप्त छपा होता था. ऐसी पुस्तकों की संख्या पचास-साठ से ऊपर रही होगी. यही कार्य उनकी जीविका का साधन था. उनका कमरा देख बरबस मुझे प्रियदर्शी प्रकाश की जंगपुरा की उस बरसाती का स्मरण हो आया जिसमें एक रात गुजारी थी. एक कोने में रसोई और एक दीवार पर ट्रेन की मानिन्द तीन बर्थ, पत्नी के अलावा दो बड़ी होती लड़कियाँ और दो लड़के.

प्रियदर्शी और छेदीलाल गुप्त कमरे के बाहर आँगन में खड़े कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे थे. प्रियदर्शी ने जेब से कुछ रुपये निकाल उनके हाथ में थमाये. छेदीलाल घर से बाहर चले गये और प्रियदर्शी मेरे पास आकर बैठ गया. मेरे चेहरे पर उसने कोई भाव पढ़ा होगा कि मेरा हाथ पकड़ फुसफुसाया, ‘‘हमारे बीच कुछ छिपा हुआ नहीं है.’’

छेदीलाल गुप्त राशन और सब्जियों के साथ वापिस लौटे. खाने-पीने से निवृत्त होने के उपरान्त देखा कि दोनों लड़कियाँ बगल में तकिया और चादर सम्हाले कमरे के बाहर जा रही हैं.

मेरे संकोच और उलझन को लापरवाही भरी मुस्कराहट से दरकिनार करता प्रियदर्शी बोला, ‘‘यहाँ ऐसे ही चलता है. किसी घर में कोई मेहमान आता है तो परिवार के कुछ सदस्य सोने के लिए छत पर चले जाते हैं.’’

बिना नहाये और वस्त्र बदले दो दिन से अधिक का वक्त हो गया था. स्वयं अपने शरीर से बदबू का अहसास होने लगा था. ‘‘इस समस्या का समाधान निकलेगा मानिक भाई के यहाँ.’’ प्रियदर्शी ने कहा. मानिक भाई यानी मानिक बच्छावत. मानिक बच्छावत कविताएँ लिखने के साथ लघु पत्रिका ‘अक्षर’ भी निकालते थे. साहित्यिक अभिरुचि से सम्पन्न वह समृद्ध मारवाड़ी व्यवसायी थे.

मानिक बच्छावत बेहद आत्मीयता से मिले. मेरे नाम से वह परिचित थे. चाय-नाश्ता करने के दौरान प्रियदर्शी गम्भीरता से बोला, ‘‘मानिक भाई, आते हुए ट्रेन में अशोक के साथ हादसा हो गया. कोई उच्चका इनका बैग उठाकर चलता बना. अब देखो, न नहाये हैं और न वस्त्र बदले हैं.’’, मानिक बच्छावत ने बिना विलम्ब किये मेरे लिए नये खादी के वस्त्रों की व्यवस्था की और स्नान की सुविधा प्रदान करने के साथ अनेक मारवाड़ी व्यंजनों से सुसज्जित स्वादिष्ट भोजन भी कराया.

इस यात्रा का उपयोग मैं ‘संभावना’ के लिये उत्पल दत्त के बांग्ला नाटकों और विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय के उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद के अधिकार प्राप्त करने के लिये करना चाहता था.

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Comments 18

  1. deven mewari says:
    4 years ago

    ‘प्रियदर्शी प्रकाश के बहाने कलकत्ता की याद’ पढ़ा। पढ़ कर कुछ समय तक हतप्रभ होकर सोचता रहा कि संस्मरण इतनी अद्भुत स्मरण शक्ति और बारीक दृष्टि से कैसे लिखे जाते होंगे? ऐसा आपका हर संस्मरण पढ़ते समय अनुभव किया फिर चाहे वह बाबा नागार्जुन पर था या लक्ष्मीधर मालवीय अथवा अमितेश्वर पर।
    संस्मरण पढ़ते समय पाठक स्वयं उस चरित्र से जुड़ जाता है। यह ध्यान ही नहीं रहता कि वह सब हमें लेखक बता रहा है। लगता है, सब कुछ हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है। यह आपकी क़लम की बहुत बड़ी विशेषता है। इस क़लम को संभाल कर रखिएगा।
    प्रियदर्शी प्रकाश की कहानियां उस दौर में हम भी पढ़ते थे लेकिन यह कल्पना नहीं की थी कि उनके जीवन में ऐसे विकट उतार-चढ़ाव रहे होंगे। एक व्यक्ति का पूरा जीवन आपने जीवंत कर दिया।
    -देवेन्द्र मेवाड़ी, शहर दिल्ली से

    Reply
  2. Santosh Dixit says:
    4 years ago

    कैसे कैसे लोगों ने यह पतवार थामी है! सबको सलाम!!

    Reply
  3. प्रयाग शुक्ल says:
    4 years ago

    यह तो अद्भुत है।कलकत्ता का होने
    के नाते कुछ अधिक सराह सका।
    छेदीलाल गुप्त से अच्छा परिचय था।मानिक मेरे आत्मीय मित्र है।मेरा पहला कविता संग्रह ‘कविता संभव ‘उन्होंने ही प्रकाशित किया।प्रियदर्शी प्रकाश का प्रेम मुझे भी मिला।मै भी हिन्दी बुक सेन्टर जाया करता था।पर उनके बारे मे यह सब नही जानता था।
    अशोक जी को बधाई।
    मेरे बड़े भाई रामनारायण शुक्ल की
    कहानियाँ तीन खंडों मे छापी ।अब अनुपलब्ध।संभावना से ।मेरा भी
    संग्रह छायाओं और अन्य कहानियां।
    वे सच्चे साहित्य व्यसनी हैं।
    यादों से घिर गया हूं।
    शुभकामनाएं।

    Reply
  4. मनोज मोहन says:
    4 years ago

    दिल नहीं भरा…

    Reply
  5. लीलाधर मंडलोई says:
    4 years ago

    अशोक की नज़र,कथ्य पर पकड़ और तरल निर्वाह का जवाब नहीं।अपुन पुराने आशिक़ हैं और कभी नाउम्मीद नहीं हुए।

    Reply
  6. Anonymous says:
    4 years ago

    बहुत अद्भुत। पढ़ते हुए ऐसा लग रहा था जैसे कोई फ़िल्म देख रहा हूं और लगभग सभी पात्रों से परिचित हूं। सौभाग्य से संस्मरण में आये बहुत से नामों से परिचय है और साथ ही बहुत से सवालों के अनायास ही जबाब भी मिल गए। आपका तो कैसे शुक्रिया करें अरुण जी। खुश कित्ता सर जी।

    Reply
  7. RAMJI TIWARI says:
    4 years ago

    एक सांस में पढ़ गया. जीवन के विविध रंगों के बीच नियति मनुष्य के लिए कैसी कैसी कहानियां रचती है.

    यादगार संस्मरण

    Reply
  8. अरुण कमल says:
    4 years ago

    यह भी इतिहास लेखन है।महत्वपूर्ण ।
    साहित्य का समाज हर लेखक और पाठक और साहित्यसहचर से मिल कर बनता है।

    Reply
  9. Madhu Bala joshi says:
    4 years ago

    Kitna itihas hamaaree jankari ke bahar rah gaya…

    Reply
  10. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    आत्मीय संस्मरण। यह सिर्फ एक महानगर नहीं देश का दिल भी है। यह शहर खींचता है अपने मानवीय गंध और स्पर्श से जो अन्यत्र (महानगरों में) महसूस नहीं होते। वहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक हलचलों और उस माहौल में बुर्जुआ मानसिकता के प्रति हिकारत भरी दृष्टि इस शहर को एक अलग पहचान देती है।यहाँ आम आदमी की कद्र है।पैसे की धाक कम है।थोड़ी बहुत मनुष्यता यहाँ अब भी बची है। इन सबका एहसास इससे गुजरते हुए हआ। यह एक उपलब्धि रही।सभी को शुभकामनाएँ !

    Reply
  11. Soumitra Mohan says:
    4 years ago

    यह एक ऐसा संस्मरण है जो अभिभूत करता है, झकझोरता है और परेशान भी करता है। इसके केंद्र में सिर्फ एक शख्सियत नहीं, एक पूरी पीढ़ी है जो प्रियदर्शी प्रकाश की ही तरह अपने दुस्वप्नों, संघर्षों और महत्वाकांक्षाओं से जूझ रही थी। मुझे यह बात खास तौर पर पसंद आई कि अशोक ने इसे नैतिक चौखटों से बाहर रखा है। अफसोस कि प्रियदर्शी प्रकाश साहित्य की दुनिया में अपने लिए वह जगह नहीं बना सका जो उसके आसपास के लेखक बना पाए।

    Reply
  12. Ramesh Anupam says:
    4 years ago

    बहुत सुंदर एवम मार्मिक संस्मरण । गजब का आदमी है प्रियदर्शी प्रकाश ।अशोक अग्रवाल भी । इतना सुंदर संस्मरण ,इतना डूबकर लिखा हुआ बहुत कम पढ़ने को मिलता है।बधाई अशोक अग्रवाल और ’समालोचन’ को।

    Reply
  13. हरिमोहन शर्मा says:
    4 years ago

    प्रियदर्शी के बहाने अशोक जी ने कोलकाता और वहाँ के हिन्दी बांग्ला साहित्यकारों का जीवंत परिचय प्रस्तुत कर दिया है। यह सातवें आठवें दशक का सांस्कृतिक इतिहास है जिसे उस समय के संस्कृति कर्मी निष्ठा पूर्वक बना रहे थे। इसे हमारी आंखों के सामने पुनःसृजित करने के लिए अशोक भाई और समालोचन बधाई के पात्र हैं। – – हरिमोहन शर्मा

    Reply
  14. रवि रंजन says:
    4 years ago

    अशोक जी ने जिस तरह लेखकों के निजी जीवन में आनेवाली अनेकानेक समस्याओं का जीवंत चित्रण किया है,वह काबिले तारीफ है।
    इस दिलचस्प सर्जनात्मक संस्मरण के लिए उन्हें साधुवाद।

    Reply
  15. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    झकझोर कर परेशान करने वाला संस्मरण। सचमुच। अशोक अग्रवाल जी ने, अरुण देव द्वारा सही अर्थ में चिह्नित , साहित्य, हिंदी साहित्य के तलघर की कैसी तस्वीर खींची है!अशोक जी की क़लम वाकई अनोखी है, ज्यादातर रुलाने वाली।

    Reply
  16. G B Kashyap says:
    4 years ago

    Only a professional swimmer can take you deep inside to let you feel the treasure hidden there. Likewise Ashok is such a skilled writer, through whom you can travel and enjoy virtually only by reading his brilliant memoirs on writers, places and things. His style and he himself always induces others to read and write, I know that being his local friend.

    Reply
  17. Garima Srivastava says:
    4 years ago

    कलकत्ते का जीवंत चेहरा ,स्मृतियाँ ,लेखकीय जीवन की विडंबनाएँ -सब कुछ आँखों के सामने- जिसका माध्यम बनी है अशोक अग्रवाल की सहज भाषा .संस्मरण कला का बेहतरीन नमूना .साधुवाद अशोक जी और समालोचन !

    Reply
  18. विजय बहादुर सिंह says:
    4 years ago

    अशोक अग्रवाल के संस्मरण सचमुच एक भूली बिसरी किन्तु बेहद जीवंत और दिलचस्प जीवन शैली की सुगंध लिए हुए हैं।जिन दिनों के कलकत्ते की याद उन्होंने की है,वे सचमुच वैसे ही थे।शलभ,कपिल तो मेरे दोस्तों में थे ही,कपिल से अभी कल ही बात हुई,छेदीलाल जी,सकलदीपसिंहआदि तो जा चुके हैं।चौंसठ से सत्तर बहत्तर तक मेरी भी यही दुनिया थी।उन्यासी के बाद शलभ मेरे पास आकर विदिशा रहने लगा और तिरानबे तक रहा।फिर हम दोनों अलग रहनेलगे।था वह वैसे ही जैसा अशोक ने लिखा है।अशोक ने सब कुछ तरोताज़ा और जीवंत करके परोस दिया है।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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