• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मुक्तिधर्मा आलोचक: मैनेजर पाण्डेय: रणेन्द्र

मुक्तिधर्मा आलोचक: मैनेजर पाण्डेय: रणेन्द्र

वरिष्ठ मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय आज अस्सी वर्ष के हो गये. उन्हें हिंदी समाज की तरफ से शुभकामनाएं. हिंदी आलोचना की सैद्धांतिकी में उनका महत्वपूर्ण अवदान है, उन्होंने कुछ सार्थक किताबें संपादित की हैं. अपने अध्यवसाय और अध्यापन से कई पीढ़ियों का निर्माण किया है. यह अवसर उनकी विशिष्टता को रेखांकित करने और मूल्यांकित करने का है. हिंदी में ऐसे बहुत कम आलोचक होंगे जिन्हें विश्व राजनीति की इतनी समझ होगी, अमेरिका की नीतियों का उनसे बड़ा आलोचक शायद ही हिंदी में कोई हो. वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने उनके इस अनछुए पहलू पर आलेख लिखा है- ‘आज के समय में मैनेजर पाण्डेय’. चर्चित उपन्यासकार रणेंद्र ने मैनेजर पाण्डेय की मुक्तिधर्मी आलोचना की पहचान की है और समाज के हाशिये के पक्ष में खड़ी उनकी आलोचना को रेखांकित भी किया है. आज यह दो आलेख प्रस्तुत हैं.

by arun dev
September 22, 2021
in आलेख
A A
मुक्तिधर्मा आलोचक: मैनेजर पाण्डेय: रणेन्द्र
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

मुक्तिधर्मा आलोचक: मैनेजर पाण्डेय
रणेन्द्र

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र के तत्कालीन विभागाध्यक्ष और हिन्दी आलोचना के दैदीप्यमान प्रकाश स्तम्भ डॉ. मैनेजर पांडेय से पहली भेंट तो उनकी रचनाओं के माध्यम से ही हुई थी. ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’, ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’, ‘आलोचना की सामाजिकता’, ‘अनभै सांचा’ आदि ने हिन्दी साहित्य की मेरी समझ को तराशने में जो भूमिका निभाई उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती बस उसे महसूस किया जा सकता है. वैसे भी हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी न होने की एक तरह के हीनता-बोध से उबरने के लिए मैंने ऐसी पुस्तकों से दो-चार होते रहने की कोशिशें की हैं. पढ़ने-समझने के क्रम में डॉ. मैनेजर पांडेय के ‘शब्द और कर्म’ के साथ मेरे मानसिक जुड़ाव गहराते गये. इसमें मेरे नगर राँची ने भी बड़ी भूमिका निभाई. यहाँ जन संस्कृति मंच की गतिविधियों-कार्यक्रमों में, राष्ट्रीय अधिवेशन में डॉ. पांडेय की अक्सर उपस्थिति रहती रही है. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दी आलोचना जगत के ही एक दूसरी बड़ी शख़्सियत, प्रतिबद्ध मार्क्सवादी आलोचक डॉ. रविभूषण का इस नगर में आवासन भी उनके राँची आगमन हेतु एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाता रहा होगा. साथ ही डॉ. पांडेय के जेएनयू के एक प्रिय शिष्य डॉ. राहुल सिंह की जन्मभूमि राँची ही है. इन तीन-तीन जुड़ावों के कच्चे धागों को पकड़ कर धीरे-धीरे मैं भी डॉ. पांडेय से जुड़ गया. उसके बाद जब भी दिल्ली जाना होता तो पहले जे.एन.यू. और उसके बाद डॉ. राहुल सिंह या रेयाज़ उल-हक के साथ मुनरिका स्थित उनके आवास पर पहुँच जाता.

डॉ. मैनेजर पांडेय के आवास पर पुस्तकों और टेबुल पर पड़े दुनिया भर की साहित्यिक आलोचना की पत्रिकाओं की उपस्थिति ने बिना कुछ कहे बहुत कुछ समझाने की कोशिश की. यह अनुभव हुआ कि साहित्यिक-समाचार जैसी अखबारी आलोचना या छात्र-छात्राओं को ध्यान में रख कर लिखी अकादमिक आलोचनाओं से भिन्न मार्क्सवादी दृष्टि से समाजशास्त्रीय भूमिका निभाने वाली एक नवीन आलोचना पद्धति को अंकुरित-प्रस्फुटित एवं विकसित करने में आजीवन कितना परिश्रम करना होता है. एक ऐसी आलोचना पद्धति डॉ. पांडेय ने हिन्दी जगत को दी जिसने न केवल हमारी ऐतिहासिक दृष्टि साफ की बल्कि रचना-रचनाकार पाठक के अन्तर-सम्बन्धों को व्याख्यायित करती व्यापक वाङ्मय-विमर्श का हिस्सा भी बनने में भी सफल हुई.

डॉ. पांडेय की यह अवधारणा हमारे समक्ष धीरे-धीरे स्पष्ट हुई कि

“साहित्यिक रचनाएँ इतिहास से निर्मित होती हैं और इतिहास का निर्माण भी करती हैं. रचना का अस्तित्व इतिहास के भीतर होता है, इतिहास के बाहर नहीं. कृतियों की उत्पत्ति में इतिहास की सक्रिय भूमिका होती है और पाठकों द्वारा उनके अनुभव तथा मूल्यांकन का इतिहास उनके जीवन का इतिहास होता है. कलाकृतियाँ अपने सामाजिक ऐतिहासिक सन्दर्भ की उपज होती हैं, लेकिन महत्वपूर्ण कलाकृतियाँ अपने सन्दर्भ के परे भी सार्थक सिद्ध होती है.”

 (डॉ. पांडेय मैनेजर: साहित्य और इतिहास दृष्टि: भूमिका)

जब हम डॉ. मैनेजर पांडेय के आलोचना संसार से रूबरू होते हैं तो हमें यह भी गहराई से अनुभव होता है कि अन्तःकरण से समाज के वर्चस्ववादी विमर्श से आत्मिक जुड़ाव और ऊपर से जन पक्षधरता के छद्म रचने वाली रचनाओं की निर्मम आलोचना करने वाली बौद्धिक तेजस्विता कैसी होती है. वह तेजस्विता किस प्रकार अथक परिश्रम से अर्जित अपनी इस बौद्धिकता से अपने समय, समाज और संस्कृति के आलोचनात्मक विवेक का प्रतिनिधित्व करती है. साथ ही यह भी हम समझ सके कि डॉ. पांडेय का आलोचनात्मक विवेक के निरन्तर सक्रिय संवेदी तन्तु केवल साहित्य के इतिहास से ही नहीं बल्कि समय की हर हलचलों और धड़कनों से भी ऊर्जा ग्रहण करते रहते हैं. इसलिए उनकी लेखनी में परम्परा की स्मृति, वर्तमान के बोध और भविष्य की चिन्ता को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है.

डॉ. पांडेय के शब्दों से बौद्धिकता की मूलगामिता और सत् चित् वेदना-बोध की हमारी समझ विकसित होने में मदद मिलती है,

“बौद्धिकता का लक्ष्य मनुष्य की स्वाधीनता है, मनुष्य की अमूर्त अवधारणा की दार्शनिक स्वतंत्रता नहीं, समाज में पराधीनता के शिकार मनुष्यों की सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता. यही उस बौद्धिकता की मूलगामिता है, जिसके अभाव में आलोचनात्मक चेतना की सारी क्रियाशीलता सत्ता और व्यवस्था के लिए मात्र मनोरंजक होती है.”

“आलोचना की मूलगामिता ही उसे मुक्तिधर्मी बनाती है. तभी आलोचना टीका-परम्परा की रूढ़ियों और अकादमिक आलोचना की आत्ममुग्धता से बचकर मुक्तिबोध के शब्दों में ‘सभ्यता समीक्षा’ बनती है.”

“मुक्तिबोध सभ्यता-समीक्षा के लिए सत् चित् आनन्द के बदले सत् चित् वेदना का बोध जरूरी समझते हैं, जिससे पैदा होती है सत्ताओं द्वारा सताये हुए लोगों के प्रति गहरी संवेदनशीलता, जो मुक्ति धर्मी आलोचना की शक्ति का स्रोत है और उसकी सामाजिकता का एक जरूरी शर्त भी.”

(डॉ. पांडेय, मैनेजर/आलोचना की सामाजिकता, पृ. 17)

डॉ. पांडेय की लेखनी हमेशा से आलोचना की हस्तक्षेपकारी भूमिका के प्रति आश्वस्त रही है. उनकी आलोचना की सामाजिकता, समाज के मानस की रचनात्मक क्रियाशीलता के समग्रता बोध और उसकी व्याख्या से निर्मित हुई है. वह समाज में चल रहे निरन्तर टकरावों से सुपरिचित है और उसे मालूम है कि सदियों से आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक पराधीनता के बोझ से दबे दलित-स्त्री-आदिवासी एवं अन्य हाशिया कृत तबकों के साथ खड़े होकर उनकी पक्षधरता कैसे निभानी है.

डॉ. पाण्डेय की आलोचना के समाजशास्त्रीय सूत्रों ने हिन्दी-जगत के समक्ष यह स्पष्ट किया कि भक्तिकाल की निर्गुण-सगुण धारा ने ऐसा क्या परिवेष रचा की हजारों साल के मौन के बाद दलित और स्त्री स्वर इतने भास्वर हुए. पुनः एक लम्बे अन्तराल के बाद पिछले कुछ दशकों से सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में एक ओर दलित साहित्य की धारा निर्मित हो रही है तो दूसरी ओर स्त्री दृष्टि की प्रभावशाली अभिव्यक्ति भी हो रही है.

समाज के हाशियाकृत समुदायों के पक्ष में निरन्तर प्रतिबद्ध डॉ. पाण्डेय की आलोचना की सामाजिकता ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ की अन्तर्वस्तु को स्पष्ट करने के क्रम में ‘दानवीकरण’ ‘यथार्थ के मिथकीकरण’ तथा ‘उन्मूलन या अनुकूलन’ की सैद्धान्तिकी प्रस्तुत करती है. इस सैद्धान्तिकी के मूल भाव को उनके शब्दों ने यूँ प्रकट किया है,

‘‘वैदिक साहित्य से शुरू हो कर रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में निर्मित असुरों की यह छवि एक ओर उनके समुदाय और जीवन के दानवीकरण और दूसरी उनके जीवन के यथार्थ के मिथकीकरण का परिणाम है. प्रभुत्व शाली सताएँ जिनका विनाश करना चाहती हैं उनका पहले दानवीकरण करती है, फिर उन पर हमला करती हैं और बाद में उनकी जमीन तथा जीवन पर कब्जा करती हैं.

दानवीकरण की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है मिथकीकरण की प्रक्रिया. मिथकीकरण की प्रक्रिया में कल्पना की मदद से यथार्थ को अयथार्थ बनाया जाता है और इतिहास को रहस्यमय. इस छल-योजना के सहारे विरोधियों के अस्तित्व की अनिवार्यता को अस्वीकार करना आसान हो जाता है. दानवीकरण और मिथकीकरण की प्रक्रिया उस बौद्धिक साम्राज्यवाद का हिस्सा है जो भौतिक साम्राज्यवाद के आगे-आगे चलता है’’.

(डॉ. पाण्डेय, मैनेजर, उपन्यास और लोकतंत्र पृ0 208)

डॉ. मैनेजर पाण्डेय की इस सैद्धान्तिकी में अतीत की स्मृति, वर्तमान का कटु यथार्थ का प्रतिबिम्ब और भविष्य की चिन्ता को आसानी से महसूस किया जा सकता है. यह भी रेखांकित किया जा सकता है कि सत्ता-विमर्श की ओर से दानवीकरण और मिथकीकरण की प्रक्रिया कभी स्थगित नहीं की जाती. पूँजीवादी साम्राज्यवादी शक्तियों ने 1991 के पहले कम्यूनिस्ट शासनों विशेषकर सोवियत रूस के दानवीकरण में अपनी सामर्थ्यभर ऊर्जा का निवेशीकरण किया. 9/11 के बाद अब इस्लाम उनका नया पंचिंग बैग है तब से लगातार उसके दानवीकरण-मिथकीकरण की प्रक्रिया गतिमान है. 2014 के बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवादी सत्ता-विमर्श एक साथ कई मोर्चों पर सम्बद्ध है वह केवल अन्तर-राष्ट्रीय माहौल का लाभ उठाता हुआ इस्लामोफोबिया की ही मात्र हवा नहीं दे रहा है बल्कि देष के सर्वोत्कृष्ट शिक्षण-संस्थाओं में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नागरिकता- कानून विरोधी आन्दोलन, किसान-आन्दोलन एवं देश के चुनिन्दा बौद्धिकों के दानवीकरण मिथकीकरण में भी परपीड़क आनन्द की अनुभूति कर रहा है.

सदा-सदा से हाशियाकृत आदिवासी समुदायों के प्रति डॉ. पाण्डेय की यह चिन्ता आज भी समीचीन है,

’’वर्तमान समय में भारत के आदिवासी समुदायों के सामने एक खतरा उन्मूलन का है और दूसरा अनुकूलन का. उन्मूलन का अर्थ है अस्तित्व का अन्त तो अनुकूलन का अर्थ है अपनी अस्मिता को खो कर दूसरे धर्मों, संस्कृतियों और समाजों में विलय. उन्मूलन का खतरा सत्ता की ओर से है तो अनुकूलन का धर्मों की ओर से.’’

 (डॉ. पाण्डेय, मैनेजर, उपन्यास और लोकतंत्र पृ. 213)

डॉ. पाण्डेय की शोधपरक दृष्टि ने समय के गोदाम में धूल खा रहे हमारे स्वनामधन्य पुरखों की तस्वीर को धो-पोछ कर हमारे सामने खड़ा कर दिया. ऐसे ही हमारे पुरखे थे ‘सखाराम गणेश देउस्कर’. श्री देउस्कर का जन्म 17 सितम्बर, 1869 को तब के बंगाल, बाद के बिहार और अब हमारे झारखंड के देवघर जिले के कैरों ग्राम में हुआ था. 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय उनके पूर्वज उनकी पुस्तक ‘देशेर कथा’ के हिन्दी संस्करण की बत्तीस पृष्ठों की प्रस्तावना के माध्यम से डॉ. पाण्डेय की लेखनी ने श्रीयुत् सखाराम गणेश देउस्कर और उनकी देशेर कथा (देश की बात) की महत्ता को पुनः स्थापित किया. दरअसल श्रीयुत देउस्कर के साथ दिक्कत यह हुई कि वे पैदा हुए देवघर में, पत्रकारिता और लेखन किया कोलकाता में. आजादी के बाद कोलकाता में बंग वर्चस्व, बिहार की पिछड़ों की राजनीति और झारखंड के अस्मिता बोध में सखाराम गणेश देउस्कर कहीं अनुकूलित होकर समा नहीं पा रहे थे. नतीजन विस्मृति के अँधेरे में विलुप्त होने को शापित से हो गए. उस शाप से मुक्ति हिन्दी में ‘देश की बात’ के प्रकाशन ने दिलवाने की कोशिश की. तब हम जान पाये कि सखाराम गणेश देउस्कर की 1904 में बांग्ला में प्रकाशित ‘देशेर बात’ ने कैसे एक वैचारिक विस्फोट की तरह जन-मानस को धक्का देकर चकित करते हुए जगाया. महज पाँच वर्षो में पाँच संस्करण एवं तेरह हजार प्रतियाँ लोगों के हाथों तक पहुँची. 1905 के बंग-भंग के विरूद्ध स्वदेशी आन्दोलन में इस पुस्तक ने अहम् भूमिका निभाई. इस पुस्तक की लोकप्रियता से अंग्रेजी-राज इतना भयभीत हुआ कि 28 सितम्बर, 1910 को उसे प्रतिबन्धित कर दिया. उसी प्रकार उनके आलेख ‘क्या आपने’ वज्र-सूची का नाम सुना है? के माध्यम से हम अश्वघोष का संस्कृत में एकमात्र उपलब्ध ग्रन्थ ‘वज्रसूची’ से परिचय पा सके.

और अन्त में यह कि सत् चित् वेदना के हमारी मुक्तिधर्मी आलोचक की समय के पार जाती दृष्टि 2005 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘आलोचना की सामाजिकता’ के आलेख ‘आलोचना का समाज’ में गहराई से रेखांकित करती है कि

“आजकल भारतीय समाज में ऐसी मानसिकता का प्रभाव बढ़ रहा है जो विवेक पर आस्था का कब्जा चाहती है और संस्कृति को पूजा की वस्तु मानती है. वह आलोचना से डरती है और चिढ़ती भी है, इसलिए आलोचना का अन्त चाहती है.

आज भारतीय समाज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर साम्प्रदायिकता के जिस बर्बर रूप का सामना कर रहा है उसके कारण संस्कृति के मानवीय प्रयोजन और भाषा के सामाजिक सरोकार का अस्तित्व संकट में है. जब भाषा पर राक्षसी उन्माद और झूठ का बोझ लाद दिया जाता है तब उसकी मानवीय अर्थवत्ता का विघटन और विनाश होता है.”

(डॉ. पांडेय, मैनेजर/आलोचना की सामाजिकता, पृ. 18)

_______________________

रणेन्द्र
नारायण इन्क्लेव, ब्लाॅक- ए, 2सी, ‘घरौंदा’
हरिहर सिंह रोड, मोराबादी, राँची – 834008
(झारखण्ड)
मो० न० 9431114935

Tags: मैनेजर पाण्डेयरविभूषण
ShareTweetSend
Previous Post

कांवड़-यात्रा: पारम्‍परिक तीर्थों का समकालीन प्रतिस्‍थापन: नरेश गोस्‍वामी

Next Post

आज के समय में मैनेजर पाण्डेय: रविभूषण

Related Posts

ऋत्विक घटक का जीवन और उनका फिल्म-संसार : रविभूषण
फ़िल्म

ऋत्विक घटक का जीवन और उनका फिल्म-संसार : रविभूषण

शतरंज के खिलाड़ी: रविभूषण
आलोचना

शतरंज के खिलाड़ी: रविभूषण

दारा शुकोह : रविभूषण
आलोचना

दारा शुकोह : रविभूषण

Comments 2

  1. डॉ कुमारी उर्वशी says:
    4 years ago

    गंभीरता से लिखे गए इस आलेख की विशेषता है कि आलोचना जैसे विषय पर आधारित होने के बावजूद भी यह अत्यंत सरल है। आदरणीय रणेंद्र सर को हार्दिक धन्यवाद।

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    श्री मैनेजर पाण्डेय जी के जन्मदिन पर आज के समय और समाज के संदर्भ में एक सजग आलोचक की हैसियत से उनके अवदान को श्री रवि भूषण एवं श्री रणेन्द्र ने अपने आलेखों में रेखांकित किया है। हम जिस समय में जी रहे हैं वह एक सर्वग्रासी, क्रूरतापूर्ण एवं अनेक अंतर्विरोधों से भरा समय है। खासकर 1990 के बाद इस व्यवस्था का अमानवीय चेहरा ज्यादा वीभत्स रूप लेता गया जब हर चीज़ को उत्पाद में बदलते हुए हमने देखा। रचना को वस्तुतः समाज की आँख मानते हुए उनकी आलोचना दृष्टि के केंद्र में आलोचना की सामाजिकता है और उसके दो धरातल हैं -साहित्य का समाजशास्त्र और साहित्य की इतिहास दृष्टि। पाण्डेय जी के आलोचना कर्म, जो उनके लिए एक सामाजिक दायित्व भी है, पर ये दोनों आलेख चिंतनपरक हैं। श्री पाण्डेय जी को जन्मदिन की शुभकामनाएँ एवं बधाई !

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक