दारा शुकोह
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‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’ (राजकमल प्रकाशन, 2024) मैनेजर पाण्डेय (23.9.1941-6.11.2022) की निधनोपरान्त प्रकाशित पुस्तक है.
बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से ही उन्होंने दारा शुकोह (20.3.1615-30.8.1659) पर सामग्री एकत्र करना और उस पर विचार करना आरंभ कर दिया था. अरुण प्रकाश को दिये इंटरव्यू (‘संवेद’, फरवरी, 2002) में उन्होंने अपनी नयी योजना के बारे में कहा था–
‘‘पिछले दो-तीन वर्षों से मेरी दिलचस्पी दारा शुकोह के जीवन, चिन्तन और लेखन में बढ़ी है. मैं दारा शुकोह के लेखन, चिन्तन और अनुवाद-कार्य को भारतीय समाज की समकालीन स्थितियों के लिए जरूरी समझते हुए हिन्दी पाठकों के सामने लाना चाहता हूँ.”
(‘मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ’, 2006, पृष्ठ 56)
इस कार्य में उन्हें लगभग पचीस वर्ष लग गये. विगत बीस वर्ष में उनसे हुई सभी बातों-मुलाकातों में दारा शुकोह की चर्चा आवश्यक रहती थी. उनका यह एक श्रम साध्य कार्य था. दारा शुकोह पर उनका ध्यान प्रेमचन्द की कहानी ‘दारा की दरबार’ (1908) और रामविलास शर्मा की कविता ‘दारा शुकोह’ (1943) पढ़ कर गया था.
‘‘कहानी पढ़ कर लगा कि दारा यदि प्रेमचन्द को प्रभावित कर सकता है तो उसके बारे में खोजबीन करनी चाहिए… मेरी दिलचस्पी के मूल स्रोत ये दोनों हैं.’’
(बतकही, 2019, पृष्ठ 138)
दारा को पढ़ने के क्रम में उन्हें लगा कि वह ‘भारतीय दर्शन और संस्कृत को पश्चिम में पहुँचाने वाला राजदूत’ (वही, पृष्ठ 139) है और है ‘पुराने यूनानी अर्थ में महान त्रासदी का उदात्त नायक’. (वही पृष्ठ 138)
दारा शुकोह पर उन्होंने समय-समय पर जेएनयू और अन्य कई स्थानों में कुछ व्याख्यान दिये थे और एकाध लेख भी लिखे थे-
‘‘मैंने दारा शुकोह और संगम-संस्कृति पर कुछ व्याख्यान दिए और एक-दो लेख भी लिखे. तभी से मेरे मन में दारा पर एक पूरी किताब लिखने की इच्छा थी, जिसे पूरा करने के लिए मैंने जरूरी सामग्री की खोज शुरू की.’’
(भूमिका, पृष्ठ 14)
उनका एक भाषण ‘संवाद धर्मी दारा शुकोह’ उनकी पुस्तक ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा’ (वाणी प्रकाशन, 2013) में संकलित है. यह भाषण संभवतः दूसरा कुँवर स्मृति व्याख्यान 2006 का है, जिसका विषय था ‘संवाद धर्मी सोच के दार्शनिक दारा शुकोह’. अपने इस भाषण में उन्होंने ‘सभ्यताओं के बीच संवाद’ जरूरी माना है, न कि ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ (सैमुएल हटिंग्टन) ‘‘. हमारे सामने एक सवाल यह है कि आज के समय में जब संघर्ष की ललकार लगभग चीख की तरह चारों ओर सुनाई दे रही है, उस समय संवाद की चिन्ता अधिक जरूरी है या संघर्ष की? दारा शुकोह एक संवादधर्मी दार्शनिक हैं.’’ (वही, पृष्ठ 48)
एक |
मैनेजर पाण्डेय ‘गहरी खुदाई’ करने वाले हिन्दी के अकेले आलोचक हैं. उनके व्याख्यान-भाषण और लेख इसके उदाहरण हैं कि किसी भी विषय पर उनकी कितनी अधिक तैयारी होती थी. अपने लेख ‘संवाद धर्मी दारा शुकोह’ में उन्होंने कालिका रंजन कानूनगो (जुलाई 1895-29.4.1972) की किताब ‘दारा शुकोह’ से प्राप्त सामग्री का अधिक उपयोग किया. यह किताब उन्होंने बीएचयू से प्राप्त की थी और ‘मज्म-उल-बहरैन’ का अंग्रेजी अनुवाद कलकत्ता के एशियाटिक सोसाइटी से प्राप्त किया था.
पाँच अध्यायों में विभाजित अपनी पुस्तक के आरम्भिक चार अध्यायों में उन्होंने 21 बार कालिका रंजन कानूनगो को उद्धृत किया है. प्रसिद्ध इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार (10.12.1870-12.5.1958) के शिष्य थे कालिका रंजन कानूनगो. जिस समय कानूनगो के पाठक उनसे ‘जाटों का इतिहास’ के दूसरे खण्ड की प्रतीक्षा कर रहे थे, उस समय जदुनाथ सरकार ने उन्हें दारा शुकोह पर एक पुस्तिका लिखने को कहा था. जदुनाथ सरकार ने ‘‘जयपुर दरबार के ग्रन्थ-रक्षागार से कुछ नवीन सामग्री ढूँढ निकाली थी.’’
(प्रथम संस्करण की भूमिका)
प्रथम संस्करण का प्रकाशन 1935 में हुआ था, जब वे ढाका विश्वविद्यालय में थे. दूसरे संस्करण का प्रकाशन वर्ष 1953 है जब कानूनगो लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष थे. मैनेजर पाण्डेय ने दूसरे संस्करण का उपयोग किया है. पहले और दूसरे संस्करण में कोई अन्तर नहीं है. अगस्त 1905 में इतिहासकार विलियम इरविन (4.7.1870-3.11.1911) ने जदुनाथ सरकार को अपने पत्र में ‘इतिहास की युद्ध-प्रशंसक विचारधारा की सर्वप्रियता’ की बात लिखी थी और दारा जैसे पराजित पक्ष को इतिहास में कम न्याय मिलने की बात कही थी. (कानूनगो की पुस्तक ‘दारा शुकोह’ की भूमिका का प्रथम संस्करण)
जदुनाथ सरकार ने विलियम इरविन द्वारा दो खंडों में लिखित ‘लेटर मुगल्स’ का 1922 में सम्पादन किया. इतिहास जिसके साथ अन्याय करता है. कला और साहित्य ने उसके साथ न्याय होता है. मैनेजर पाण्डेय ने 2006 के अपने एक भाषण में मैक्सिको के प्रसिद्ध उपन्यासकार, निबंधकार और आलोचक कार्लोस फूएन्ते (11.11.1928-15.5.2012) को उद्धृत किया है –
‘‘इतिहास जिनकी हत्या करता है, कला उनको जीवन देती है. इतिहास जिनकी आवाज सुनने से इनकार करता है, कला में उनकी आवाज सुनाई देती है.’’
(भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा, पृष्ठ 53)
अपनी पुस्तक ‘दारा शुकोह’ के द्वितीय संस्करण की भूमिका (1953) में कालिका रंजन कानूनगो ने लिखा है –
“आज के भारत जैसे स्वतंत्र तथा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में ही इन दो उदार विचारकों (अकबर और दारा शुकोह) के महल का सत्य मूल्यांकन हो सकता है… हमारे देश भक्तों को यह ध्यान रखना चाहिए कि अकबर या दारा का मार्ग कायरों का मार्ग नहीं है, परन्तु यह मार्ग उन पुरुषों के लिये है, जो इसके लिए तत्पर है कि अपने व्यक्तिगत लाभ तथा सर्वप्रियता को अपने सच्चे विचारों के अनुसरण पर न्योछावर कर दें.’’
(1 जनवरी, 1953)
मैनेजर पाण्डेय की यह पुस्तक उस समय आई है, जब देश संकीर्णताओं और कट्टरताओं में फंसा हुआ है. इक्कीसवीं सदी के आरंभ में ही उन्होंने ‘साम्प्रदायिक मानसिकता’ को ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रयत्न से’ फैलते देखकर सामाजिक संकट की बात कही थी.
(‘मैं भी मुँह में जुबान रखता हूँ, पृष्ठ 56)
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की काट है ‘संगम-संस्कृति’, जो मुगल-काल में जितनी आवश्यक थी, उससे कहीं अधिक आज है. दारा शुकोह को पाण्डेय जी ने ‘संगम-संस्कृति का साधक’ कहा है. हिन्दू-मुसलमानों की मिली-जुली संस्कृति को अक्सर ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ कहा जाता है,
“लेकिन गंगा-जमुनी संस्कृति से केवल उत्तर भारत की संस्कृति का बोध होता है, दक्षिण भारत की सांस्कृतिक एकता का नहीं, जब कि संगम-संस्कृति से पूरे देश की संस्कृति की एकता जाहिर होती है.’’ (भूमिका, पृष्ठ 12)
भारतीय संस्कृति संगम-संस्कृति है. कुछ अपवादों को छोड़ कर राजसत्ता का इस संस्कृति से सदैव विरोध रहा है. वह कल भी था और आज भी है. भविष्य में न रहे, इसके लिए आवश्यक है ऐसे संस्कृति-पुरुषों के कार्य से परिचय. आज औरंगजेब हाशिये पर है और दारा शुकोह केन्द्र में हैं.
दो |
मैनेजर पाण्डेय के लिए ‘संस्कृति’ का प्रश्न एक बड़ा प्रश्न रहा है. ‘संस्कृति का समाज शास्त्र’ लेख में उन्होंने रेमण्ड विलियम्स (31.8.1921-26.1.1988) की पुस्तक ‘कल्चर एण्ड सोसाइटी’ (1963) की कई बातें उद्धृत की हैं.
रेमण्ड विलियम्स ने ‘संस्कृति को जीवन की समग्र पद्धति का द्योतक’ कहा है. समाज के स्वरूप-निर्माण में संस्कृति की बड़ी भूमिका है.
‘‘सांस्कृतिक प्रक्रिया समाज की दूसरी प्रक्रियाओं (आर्थिक राजनीतिक) से प्रभावित होती है और उन्हें प्रभावित भी करती है.’’ (संस्कृति का समाज शास्त्र, भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा, पृष्ठ 13)
अपने एक अन्य लेख ‘भारत के मध्यकालीन समाज में साहित्य की संस्कृति’ में उन्होंने दारा शुकोह की फारसी पुस्तक ‘मज्म-उल्-बहरैन; (1654) के अनुवाद ‘समुद्र संगम’ (1655) का उल्लेख कर यह बताया है कि संगम-संस्कृति की धारणा’ दारा शुकोह की थी.
‘‘आज हिन्दुस्तान में अनेक रूपों में संगम-संस्कृति का विरोध और विनाश हो रहा है जो भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. ऐसे में संगम-संस्कृति की रक्षा के लिए दारा शुकोह के चिन्तन, लेखन और शहादत को याद करना जरूरी है. इसलिए यह किताब लिखी गई है.’’
(भूमिका, पृष्ठ 14)
कट्टर साम्प्रदायिक संगठन और राजनीतिक दल भी पिछले कुछ वर्ष से दारा शुकोह और सूफी विचार एवं चिन्तन पर ध्यान दे रहे हैं. हिन्दू संस्कृति और ‘हिन्दुत्व’ के समर्थक और संगम संस्कृति के विरोधी अपने हित के लिए दारा शुकोह के प्रति प्रेम-भाव प्रकट कर रहे हैं. दारा शुकोह की 400वीं वर्षगाँठ (2015) के बाद ये अधिक सक्रिय हैं. आरएसएस ने दारा शुकोह को ‘सच्चा मुसलमान’ कहा है. पूर्व सांसद और मुस्लिम संगठन ‘जमीयत उलेमा-ए-हिन्द’ के महासचिव महमूद मदनी की 2005 में एक किताब प्रकाशित हुई थी- ‘Good Muslim, Bad Muslim: America, the Cold War, and the Roots of Terror’
जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदानी और आरएसएस प्रमुख, सरसंघ चालक मोहन भागवत ने 2019 में दारा शुकोह पर कार्य कराने का निर्णय एक-डेढ़ घंटे की बैठक में लिया था. इसके पहले नयी दिल्ली की पूर्व सांसद मीनाक्षी लेखी ने नई दिल्ली म्यूनिसिपल काउंसिल (एनडीएमसी) को ‘डलहौजी रोड’ का नाम बदल कर ‘दारा शुकोह रोड’ करने का एक प्रस्ताव भेजा था. इसके पहले प्रधानमंत्री आवास और औरंगजेब रोड का नाम बदलने में उनकी प्रमुख भूमिका थी.
एनडीएमसी की एक विशेष बैठक में चेयरमैन नरेश कुमार और वाइस चेयरमैन करण सिंह तंवर सहित कई सदस्यों ने “हिन्दुओं और मुसलमानों को एक साथ लाने के लिए दारा शुकोह का सम्मान करते हुए उनके नाम से सड़क का नाम बदलने का फैसला” किया. अब नई दिल्ली का ‘डलहौजी रोड’, ‘दारा शुकोह रोड’ है. आरएसएस के ‘एकेडमिक्स फॉर नेशन्स’ ने ‘दारा शुकोह : हीरो ऑफ द इंडियन सिनक्रेटिस्ट ट्रैडिशंस’ शीर्षक से एक कार्यक्रम 11 सितम्बर 2019 को आयोजित किया था. संघ के सह-सर कार्यवाह कृष्ण गोपाल ने दारा शुकोह को ‘सच्चा मुसलमान’ कहा था. 2020 में संस्कृति मंत्रालय ने दारा की कब्र खोजने के लिए एक समिति भी गठित की. 2019 में ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) ने दारा शुकोह के नाम पर एक शोध पीठ स्थापित करने का निर्णय लिया. आरएसएस ने उन्हें ‘भारतीयता का प्रतीक’ भी बताया.
दारा शुकोह की कब्र को लेकर विशेषज्ञ एक मत नहीं थे. दशकों तक किसी विशेषज्ञ ने इसका सही पता नहीं लगाया था. उस समय के एक दरबारी इतिहासकार साकी मुस्ताद खान ने ‘मआसिर-ए-आलमगीर’ में हुमायूँ के मकबरे में दारा को दफनाने का जिक्र किया है. दक्षिण दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (एसडीएमसी) के सहायक अभियन्ता संजीव कुमार सिंह ने चार वर्ष में यह पता लगाया कि दारा को हुमायूँ के मकबरे में कहाँ दफनाया गया है. 2020 में संस्कृति मंत्रालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के सात सदस्यों की एक समिति गठित की थी, जिसके समक्ष अभियन्ता संजीव कुमार सिंह ने अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि दारा की कब्र हुमायूँ मकबरा परिसर में एक ‘अचिह्न्ति कब्र’ है.
हुमायूँ मकबरा परिसर में 140 से 145 कब्रें हैं, जिनमें से अनेक पर कुछ भी लिखा नहीं है. ये ‘अनमार्क्ड’ हैं. औरंगजेब के प्रमुख दरबारी इतिहासकार मिर्जा मुहम्मद काजिम ने ‘आलमगीर नामा’ में दारा शुकोह की कब्र के बारे में लिखा है कि गुम्बद के नीचे की तीन कब्रों में दो अकबर के बेटों – दानियाल मिर्जा (11.9.1572-19.3.1605) और मुराद मिर्जा (15.6.1570-12.5.1599) की है और एक दारा शुकोह की.
एक पाकिस्तानी विद्वान अहमद नबी खान ने 1969 के अपने एक शोध-पत्र ‘दीवान-ए-दारा शुकोह’ में दारा की कब्र का एक चित्र भी दिया है. उनके अनुसार उत्तर पश्चिम कक्ष (चेम्बर) में तीन कब्र प्रमुख हैं. दरवाज़े की ओर की कब्र दारा शुकोह की है.
किंचित विस्तार से यह सब लिखने की जरूरत इसलिए हुई कि आज जो सम्प्रदायवादी, कट्टर और धर्मान्ध हैं, वे भी दारा पर लिख-बोल रहे हैं.
‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’ पुस्तक का महत्व इसलिए आज कहीं अधिक है. मैनेजर पाण्डेय का श्रम-अध्ययन, अनुसंधान, विवेचन-विश्लेषण चकित करता है. उन्होंने दारा की किताबों के प्रायः सभी अनुवाद (अंग्रेजी और हिन्दी) देखे और पाठों को भी मिलाया. ‘मज्म-उल-बहरैन’ के अंग्रेजी और हिन्दी अनुवादों के पाठों को मिलाने और उसके अर्थ की प्रामाणिकता की जाँच करने में समय लगा. (भूमिका, पृष्ठ 14) अपनी इस पुस्तक को उन्होंने न तो इतिहास कहा है और न जीवनी. ‘‘इसमें दोनों का मेल है’’. (वही, पृष्ठ 13)
दारा शुकोह पर अंग्रेजी में कई पुस्तकें हैं, पर यह पुस्तक अंग्रेजी में लिखी गयी सभी प्रमुख पुस्तकों से इस अर्थ में भिन्न और विशिष्ट है कि इसमें पहली बार ‘हिन्दी में दारा शुकोह’ पर लिखी गयी अनेक पुस्तकों पर पाँचवें खण्ड में विचार किया गया है. पहले खण्ड ‘शहीद शाहजादा’ में दारा का जीवन, क़ाज़ियों की कचहरी में उस पर चले मुक़दमे, ‘दारा के जीवन में परिवार की स्त्रियों की भूमिका’ उसके साथ जेबुन्निसा और औरंगजेब के संबंध पर विस्तार से विचार के साथ-साथ दारा वास्तविक नाम पर भी विचार किया गया है.
पाँचवाँ मुगल सम्राट शाहजहाँ (5.1.1592-22.1.1666) का सबसे बड़ा पुत्र था दारा शुकोह (20.3.1615-30.8.1659). जहाँ आरा बेगम (2.4.1614-16.9.1681) दारा शुकोह की बड़ी बहन थीं. शाहजहाँ की शादी नूरजहाँ के भाई की बेटी अर्जुमन्द बानू बेगम से हुई थी 17 मई 1612 को. बाद में शाहजहाँ ने उसे दूसरा नाम दिया- मुमताज महल. मुमताज महल ने 14 संतानों को जन्म दिया था, जिनमें 8 लड़के और 6 लड़कियाँ थीं. इन सन्तानों में केवल सात जीवित रहे. जहाँ आरा बेगम चारों भाइयों से बड़ी थीं. उन्होंने दिल्ली में प्रसिद्ध चाँदनी चौक का निर्माण कराया.
दारा शुकोह के अन्य तीन भाई थे- शाह शुजा (23.6.1616-7.2.1661), औरंगजेब (3.11.1618-3.3.1707) और मुराद बख्श (9.10.1624-14.12.1661).
रोशन आरा बेगम (3.9.1617-11.9.1617) दारा शुकोह की छोटी और औरंगजेब की बड़ी बहन थीं. शाहजहाँ की शादी बीस वर्ष की उम्र में हुई थी. मुमताज महल भी तब उन्नीस वर्ष की थीं, पर शाहजहाँ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र दारा शुकोह की शादी पन्द्रह वर्ष की उम्र में ही कर दी. (1 फरवरी, 1630)
उस समय दारा शुकोह की पत्नी नादिरा बानो बेगम (14.3.1618-6.6.1659) महज बारह वर्ष की थी. शाहजहाँ को अपने बड़े बेटे दारा शुकोह से अधिक लगाव था. उसने इस पुत्र की प्राप्ति के लिए अजमेर के सूफी सन्त ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (1.2.1143-15.3.1236) की दरगाह पर जाकर प्रार्थना की थी.
मैनेजर पाण्डेय ने दारा के विवाहोत्सव में खर्च की गयी राशि का उल्लेख किया है. उस समय उस शादी में 32 लाख रुपये खर्च किये गये थे, जिसमें 16 लाख रुपये जहाँ आरा बेगम ने खर्च किये थे. पाण्डेय जी ने इसका उल्लेख आवश्यक नहीं समझा कि यह विवाहोत्सव आठ दिनों तक मनाया गया था और नादिरा बानो ने निकाह में जो लहँगा पहना था, वह आठ लाख का था.
बड़ा पुत्र और उत्तराधिकारी होने के कारण दारा शुकोह को ‘पद शाहजादा-ए-बुजुर्ग मर्तबा’ (उच्च पद का राजकुमार) कहा गया. शाहजहाँ ने अपने इस बेटे को ‘शाह-ए-बुलंद इकबाल’ की उपाधि दी थी.
ब्रिटिश प्राच्यविद् और ‘मुस्लिम शासन के तहत मध्यकालीन भारत, 712-1764’ के लेखक स्टेनली लेन-पूल (18.12.1854-29.12.1931) ने दारा शुकोह को उनकी सहिष्णुता और उदारता के लिए ‘छोटा अकबर’ (हंस अकबर) कहा है.
मैनेजर पाण्डेय उन्हें इस्लामी परम्परा और यूनानी ट्रेजडी की परम्परा दोनों के अनुसार ‘शहीद’ कहते हैं. उनकी पुस्तक के पहले अध्याय का शीर्षक है- ‘शहीद शाहजादा’. उन्हें शहीद इसलिए होना पड़ा कि वे
‘‘राजधर्म के विरूद्ध जनधर्म के उपासक थे, इनसानियत के पुजारी थे.’’ (पृष्ठ 19) दारा शुकोह धार्मिक कट्टरता के विरोधी थे. मुल्ला और मौलवी इस्लाम की जैसी व्याख्या करते थे, उसके वे खिलाफ थे, निंदक थे. अपनी एक रूबाई में उन्होंने मुल्लाओं और मौलवियों की निन्दा की है –
स्वर्ग वही है जहाँ मुल्ला न रहते हों,
जहाँ उनके वाद-विवाद एवं कलह का शोर न सुनाई देता हो,
ईश्वर करे संसार को मुल्लाओं के शोरगुल से मुक्ति प्राप्त हो जाए,
और कोई भी उनके फतवों पर ध्यान न दे.
जिस नगर में भी कोई मुल्ला बस जाता है,
वहाँ कोई भी बुद्धिमान ठहरना पसन्द नहीं करेगा.’’ (पृष्ठ 23)
चार सौ वर्ष बाद आज भी ऐसा कहना-लिखना कठिन है. दारा की हत्या के लिए औरंगजेब को बहाना चाहिए था क्योंकि जनता में उसके लिए प्यार और सम्मान था. मुराद अली बेग ने दारा पर लिखे अपने फिक्शन ‘ओसीन ऑफ कोबराज’ में दीवाने खास में चले मुकदमे का जो ब्योरा दिया है, पाण्डेय जी ने वहाँ चार क़ाज़ियों द्वारा पूछे गये सवालों और दारा द्वारा उसके दिये गये जवाबों की चर्चा की है. दारा ने कहा था –
‘‘मैंने केवल इस्लाम के मुल्लाओं और मौलवियों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि सभी धर्मों के पुरोहितों और पुजारियों की आलोचना की है.’’ (पृष्ठ 26)
इस्लाम की आज भी कट्टर व्याख्याएँ प्रचलित हैं. प्रश्न व्याख्या का है, इस्लाम हो या हिन्दू धर्म, इसकी वास्तविक व्याख्याओं को मुल्लाओं और पंडितों दोनों ने किनारे कर अपनी व्याख्याएँ पेश की हैं. कबीर ने इसी कारण मुल्लाओं और पंडितों को फटकारा था. इसलाम की मुल्लाओं द्वारा की गयी व्याख्या से असहमत दारा शुकोह पहले और अकेले व्यक्ति नहीं थे. दारा की समझ के निर्माण में उसके अध्ययन और सूफियों की संगत की अहम भूमिका है. धर्म के जरिये सत्ता प्राप्त करने वाले कल भी थे और आज भी हैं.
मैनेजर पाण्डेय की इस पुस्तक में उस सार्थक और विकासमान परम्परा का जिक्र है, जिसकी एक महत्वपूर्ण कड़ी है दारा शुकोह. भारत में संगम-संस्कृति कोई नयी घटना नहीं है. पाण्डेय जी ने संगम-संस्कृति के मूल में तीन परम्पराओं का उल्लेख किया है. इन तीन परम्पराओं में पहली परम्परा तेरहवीं-चौदहवीं सदी से भारत में फैलने वाली तसव्वुफ अथवा सूफी मत की है, जिससे अमीर खुसरो जुड़े थे.
‘‘जिनकी कविता में संगम-संस्कृति की अभिव्यक्ति हो रही थी.’’ (पृष्ठ 11) दूसरी परम्परा ‘‘हिन्दी के सन्त कवियों की थी, जिसके अगुआ थे कबीर और दादू. वे दोनों हिन्दू और इस्लाम के रूढ़िवाद के विरोधी और एकेश्वरवाद या तौहीद के साधक थे… तीसरी परम्परा का प्रारम्भ दारा के परदादा अकबर ने किया था.’’ (वही)
शाहजहाँ के दरबार में विद्वानों एवं गुणीजनों की कमी नहीं थी. संस्कृत के विद्वानों में दो विशिष्ट थे. कवीन्द्राचार्य सरस्वती और पंडित राज जगन्नाथ. कवीन्द्राचार्य अद्वैतवादी संन्यासी होने के कारण ‘सरस्वती’ उपाधि से विभूषित थे. वे शाहजहाँ के राज्य काल में प्रयाग तथा वाराणसी के सबसे प्रमुख संन्यासी थे. शाहजहाँ के दरबार में वे काफी समय तक थे और शाहजहाँ ने उन्हें ‘सर्व विद्यानिधान’ की उपाधि दी थी. वे संस्कृत और ब्रजभाषा के कवि थे. उनके मठ में हजारों पाण्डुलिपियाँ थीं, जिनमें से अनेक बड़ौदा, पुणे और लंदन में हैं. कुछ पर दारा शुकोह के हस्ताक्षर भी हैं. दारा से इनका अधिक लगाव था.
ब्रजभाषा की कविता-पुस्तक ‘कवीन्द्र कल्पलता’ में दारा और उनकी बेगम की प्रशंसा में 150 छंदों में प्रशस्ति गीत हैं. पण्डित राज जगन्नाथ (1590-1670) कवि, आलोचक और वैयाकरण थे. कालिदास के बाद कुछ लोग उन्हें ‘बड़ा कवि’ मानते हैं. ‘रसगंगाधर’ उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति है. वे दारा शुकोह के गुरू थे. संस्कृत में उपलब्ध हिन्दू-धर्म-दर्शन-संबंधी ज्ञान दारा ने इन दोनों से प्राप्त किया था. दारा शुकोह का हिन्दू-धर्म-दर्शन और इस्लाम से उसकी एकता पर किया गया लेखन बाद का है.
मज्म ‘उल बहरैन’ (1654) प्रबुद्ध मुसलमानों के लिए फारसी में लिखी गयी पुस्तक है, जिसकी प्रतियाँ एशियाटिक सोसाइटी लाइब्रेरी बंगाल, असाफिया लाइब्रेरी हैदराबाद दकन, खुदा बख्श खाँ लाइब्रेरी पटना, रामपुर स्टेट लाइब्रेरी रामपुर और विक्टोरिया मेमोरियल हॉल, कोलकाता में है. इसका अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, अरबी और अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है.
मध्यकालीन भारत के आधुनिक इतिहासकार, सम्पादक और अनुवादक सैयद अतहर अब्बास रिजवी (1921-3.9.1994) ने मज्म उल बहरैन का ‘समुद्र-संगम’ शीर्षक से अनुवाद किया. दूसरा अनुवाद और सम्पादन संस्कृत विद्वान और कवि जगन्नाथ पाठक (2.2.1934) का है. संस्कृत में दारा ने दूसरी किताब ‘समुद्र-संगम’ लिखी. फारसी में लिखी गयी किताब के बारे में पाण्डेय जी ने जगन्नाथ पाठक के विचार लिखे हैं –
‘‘कुरआन के सूरः कह्फ़ (18/60) में दो दरियाओं के मिलने की जगह का, मज्-म-अल-बह्रैनि बह् रैनि/मज् मअल्-बह्रैनि नाम से उल्लेख मिलता है. ऐसा समझा जाता है कि ‘‘दारा शुकोह ने अपनी पुस्तक का नाम इस उल्लेख से प्रेरित होकर रखा है.’’ (पृष्ठ 48)
दारा ने इस्लाम और हिन्दू धर्म को दो समुद्रों की तरह देखा-समझा और यह माना कि इन दोनों के बीच संगम है. पाण्डेय जी इन दोनों पुस्तकों- मज्म ‘उल् बहरैन’ और ‘समुद्र संगम’ में अंतर देखते हैं. उनका स्वतंत्र चिंतन-विचार पूरी पुस्तक में मौजूद हैं. वे इन दोनों पुस्तकों में प्रमुख रूप से दो अन्तर देखते हैं.
‘‘बाबा लालदास (1565-1648) का उल्लेख मज्म ‘उल् बहरैन’ में नहीं है’’. (पृष्ठ 48) जबकि ‘समुद्र संगम’ में उनकी ‘पर्याप्त प्रशंसा’ है. बाबा लालदास ने ‘लालपंथ की स्थापना’ की. उनकी रचनाएँ अप्राप्त हैं. एक हस्तलिखित संग्रह ‘लालदास की चेतावणी’ स्वर्गीय पुरोहित हरिनारायण शर्मा के पुस्तकालय में है. दूसरा अन्तर यह है कि ‘‘दारा ने समुद्र-संगम के अन्त में पुराणों में वर्णित समुद्र मन्थन के रूपक का उपयोग किया है.’’ (वही) यह एक संयोग है कि दारा का जन्म ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (1.2.1143-15.3.1236) के आशीर्वाद से हुआ था और जिस जमीन पर वे पैदा हुए थे, ‘‘वहीं पुष्कर नाम का प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ स्थान है’’. (पृष्ठ 49)
इस आधार पर पाण्डेय जी दारा को इस्लाम और हिन्दू धर्म से जोड़ते हैं और उन्हें ‘‘इस्लाम और हिन्दू धर्म के संगम की देन’ कहते हैं.
‘‘बाद में उस संगम-संस्कृति को अधिक गहरा और व्यापक बनाने के लिए 52 उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया और उसका नाम रखा ‘सिर्रे अकबर.’’ (पृष्ठ 49)
‘सिर्रे अकबर’ के कारण ही उपनिषदों की ओर सबका ध्यान गया और उसे विश्व-स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त हुई. ‘सिर्रे अकबर’ का अर्थ महान रहस्य है. पाण्डेय जी को अंग्रेजी या हिन्दी में इसका पूरा अनुवाद प्राप्त नहीं हुआ था.
‘‘दारा पर लिखी विभिन्न किताबों में सिर्रे अकबर के बारे में जो कुछ लिखा मिला मैंने उसका गहन अध्ययन करके सिर्रे अकबर के बारे में जानकारी हासिल की.’’ (भूमिका, पृष्ठ 15)
दारा शुकोह पर मुकदमे में क़ाज़ियों ने उससे पूछा था कि क्या उसके- ‘‘संरक्षण में कुछ ब्राह्मणों ने उपनिषदों और गीता का फारसी में अनुवाद नहीं किया है.’’
दारा ने उन्हें जवाब दिया था – ‘‘जी हाँ, इन ग्रन्थों में एकेश्वरवाद की अभिव्यक्ति है और वह इस्लाम तथा ईसाई मत से प्राचीन है… उपनिषद और श्रीमद् भगवद गीता में महान रहस्य हैं और पवित्र क़ुरआन के 56वें अध्याय में इन्हें गुप्त किताब कहा गया है.’’ (वही, पृष्ठ 25)
‘सिर्रे अकबर’ 52 उपनिषदों का दारा शुकोह द्वारा फारसी में किया गया अनुवाद है.
यह अनुवाद उसने मुसलमानों को हिन्दू धर्म से परिचित कराने के लिए किया था. दारा के लिए उपनिषद् ‘कलामुल्लाह’ (ब्रह्मवाणी) था. वेद और उपनिषद् उसके लिए अद्वैत (तौहीद) के ग्रन्थ थे. उपनिषदों के अनुवाद में दारा ने काशी के कुछ संस्कृत के पंडितों से सहायता ली थी. पंडित राज जगन्नाथ ने उसकी मदद ‘समुद्र-संगम’ की रचना के अतिरिक्त उपनिषदों के अनुवाद में भी की थी. उन्होंने ‘‘दारा द्वारा बावन उपनिषदों के अनुवाद में मदद के लिए काशी के पंडितों को इकट्ठा करने में उसकी सहायता की.’’ (पृष्ठ 58)
तीन |
दारा का उद्देश्य अकबर के उद्देश्य से कुछ भिन्न है. अकबर ने 1574 के आसपास फतेहपुर सीकरी में मकतबखाना की स्थापना की थी, जो अभिलेखों और अनुवादों का एक ब्यूरो था. उसने अपने दरबार और अपने समय के प्रतिभाशाली लेखकों और अपने सचिवों को प्रमुख संस्कृत ग्रन्थों से फारसी में अनुवाद करने और पांडुलिपियों को चित्रित करने का कार्य सौंपा था. इन ग्रंथों में महाभारत, रामायण और राज तरंगिणी के अलावा अरबी विश्व कोश, उसका इतिहास और बाबरनामा सहित अन्य कई ग्रन्थ थे. अकबर ने यह कार्य ‘सत्य की एकजुट खोज के लिए एक आधार’ निर्मित करने के लिए किया था. उसके मकतबखाना में मुस्लिम एवं हिन्दू विद्वानों के महाभारत आदि के अनुवाद पर चर्चा करने वालों के कई चित्र हैं. दारा का उद्देश्य “भारत के हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच एकता और सामंजस्य स्थापित करना था’’ – कालिका रंजन कानूनगो का यह मत अकाट्य है. दारा के जीवन और कर्म से यह स्पष्ट है और इसी कारण उसे मृत्यु दण्ड दिया गया.
फारसी के पहले उपनिषदों का विश्व की किसी भी भाषा में अनुवाद नहीं हुआ था. अनूदित उपनिषदों की संख्या को लेकर मतैवय नहीं है. अक्सर 52 उपनिषदों के फारसी अनुवाद का उल्लेख है, पर यह संख्या 50 भी मानी गयी है. डॉ. ताराचन्द (17.6.1888-14.10.1973) ने 50 उपनिषदों का उल्लेख किया है और डॉ. हसरत ने 52 उपनिषदों का. डॉ. ताराचन्द ने ‘सिर्रे अकबर’ का सम्पादन किया है और डॉ. विक्रमजीत हसरत की पुस्तक है- ‘दारा शुकोह : लाइफ एण्ड वर्क्स; (1953)
पाण्डेय जी ने इस पुस्तक के 1982 के संस्करण का उपयोग किया है. डॉ. हसरत विश्वभारती, शान्ति निकेतन के इस्लामिक स्टडीज सेक्शन में थे. उनकी पुस्तक का प्रकाशन विश्वभारती ने 1953 में किया था. 334 पृष्ठों की इस पुस्तक के दूसरे भाग के अन्त में सिर्रे अकबर पर विचार है. डॉ. ताराचन्द ने जिन 50 उपनिषदों के फारसी अनुवाद लिखे हैं, उनमें ऋग्वेद के 3, सामवेद के 1, यजुर्वेद के 13 और अथर्ववेद के 33 उपनिषद् है. पाण्डेय जी की पुस्तक में यजुर्वेद के आगे कोष्ठक में 12 संख्या है, जो 13 होनी चाहिए.
डॉ. हसरत के अनुसार अथर्ववेद में संख्या 36 है और ताराचन्द के यहाँ यह 33 है. केन उपनिषद, वामोत्तरवाणी उपनिषद् और गोपालोत्तरवाणी उपनिषद् डॉ. ताराचन्द की सूची में नहीं है. ‘दारा शुकोह’ : संगम-संस्कृति का साधक’ पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘दारा शुकोह का लेखन’ में पाण्डेय जी ने डॉ. हर्ष नारायण द्वारा लिखित ‘सिर्रे अकबर’ की भूमिका का एक बड़ा अंश उद्धृत किया है (पुष्ठ 100-101), पर उन्होंने उनके द्वारा उल्लिखित 50 उपनिषदों की चर्चा नहीं की है.
डॉ. हर्ष नारायण काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन-विभाग में प्रोफ़ेसर थे. 50 हो या 52 महत्वपूर्ण यह है कि दारा द्वारा उपनिषदों के अनुवाद के बाद ही इसकी ख्याति एशिया से यूरोप तक पहुँची. दारा ने “उपनिषदों का शब्दशः अनुवाद किया है. अनुवाद करते समय न तो कुछ घटाया है और न कुछ बढ़ाया है. उसमें वाक्य के स्थान पर वाक्य, शब्द के स्थान पर शब्द दिया गया है. उपनिषदों के जिन हिस्सों में गूढ़ता है, वहाँ शंकराचार्य की टीका का अनुवाद किया गया है.’’
(पृष्ठ 102)
आज भी दारा शुकोह से संबंधित जितनी भी पुस्तकें हैं, उनमें कालिका रंजन कानूनगो और विक्रमजीत हसरत की पुस्तकें अधिक प्रामाणिक और महत्वपूर्ण है.
उपनिषदों का फारसी अनुवाद 1640 से 1657 तक हुआ था. सितम्बर 1657 में फारसी अनुवाद पूरा हुआ था. इस अनुवाद की प्रशंसा कालिका रंजन कानूनगो ने इन शब्दों में की है – ‘‘दारा शुकोह के सिर्रे अकबर में अच्छे अनुवाद के समस्त गुण ही विद्यमान नहीं है, उसमें एक मूल ग्रन्थ की मनोरमता और सघनता भी है.’’ (पृष्ठ 102 पर उद्धृत)
दारा शुकोह के समय जो विदेशी यात्री मुगल दरबार में आये, उनमें फ्रांसीसी चिकित्सक और यात्री फ्रांस्वा बर्नियर (25.9.1620-22.9.1688) और इतालवी लेखक और यात्री निकोलाओ मनूची (19.4.1638-1717) विशेष उल्लेखनीय है. बर्नियर एक इतिहासकार और राजनीतिक दार्शनिक था. वह अठारह वर्ष की उम्र में भारत आया था और मनूची सोलह वर्ष की उम्र में. बर्नियर आरम्भ में दारा शुकोह का चिकित्सक था. भारत में वह बारह वर्ष रहा- 1656 से 1668 तक. उसकी पुस्तक है ‘व्यायजेज डे फ्रांस्वा बर्नियर’ (1830) अंग्रेजी में यह ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ है. निकोलाओ मनूची मुगल-दरबार में एक चिकित्सक था. उसने कई मुगल शासकों के लिए चित्र बनाये. मुगल साम्राजय के बारे में उसने प्रत्यक्षदर्शी के रूप में लिखा है. उसकी रचना ‘स्टोरियो डू मोगोर’ मुगल इतिहास और जीवन का लेखा-जोखा है. यह 1698 में प्रकाशित हुआ था– ‘स्टोरिया डो मोगोर’ ऑर ‘मोगुल इंडिया’, 1653-1708’.
बर्नियर का दारा शुकोह से नजदीकी संबंध था. उसने दारा के बारे में लिखा है कि वह बहुत उदार था और उसका विश्वास था कि सभी ताकत दिमाग में है. वह किसी की सलाह नहीं मानता था, जिससे उसके नजदीकी मित्रों ने भी उसके विरूद्ध हो रही दुरभिसंधियों से उसे सावधान नहीं किया. दारा के कहने पर बर्नियर ने उसकी पत्नी नादिया बानो बेगम की बीमारी का इलाज किया था. भारत से यूरोप लौटते हुए बर्नियर अपने साथ ‘सिर्रे अकबर’ की एक पाण्डुलिपि ले आया था. बर्नियर से यह पाण्डुलिपि फ्रांसीसी भारतविद् और प्राच्य विद्या विशारद् एनक्वेटिल दुपेरोन (आंकेतिल द्यूपरो, (7.12.1731-17.1.1805) को प्राप्त हुई. जीवन के अंतिम वर्षों में उसकी मूल्यवान उपलब्धि है ‘ऑपनिखत’ (उपनिषद) का अनुवाद है.
भारत से प्राप्त फारसी अनुवाद का उसने फ्रैंच और लैटिन में अनुवाद किया. फ्रेंच का अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ. 1801-02 में लैटिन में यह अनुवाद प्रकाशित हुआ. जर्मन दार्शनिक शॅपेन हावर (22.2.1788-21.9.1860) ने यह अनुवाद 1814 ईसवी में देखा. मैनेजर पाण्डेय ने मैक्सिकन कवि, लेखक और राजनयिक आक्टॉवियो पॉज (31.3.1914-19.4.1998) की पुस्तक ‘इन लाइट ऑफ इंडिया’ (1995) से उनका यह कथन प्रस्तुत किया है-
‘‘दारा शुकोह के अनुवाद के प्रभाव की व्यापकता इतनी थी कि उससे एक ओर नीत्से (जर्मन दार्शनिक, 15.10.1844-25.8.1900) प्रभावित हुआ तो दूसरी ओर इमर्सन (अमेरिकी निबंधकार और दार्शनिक, 25.5.1803-27.4.1882) भी.’’ (पृष्ठ 102)
दारा शुकोह शायर, कलाकार, विचारक, दार्शनिक, सूफी साधक, कला प्रेमी, चित्रकार, कृषि-शास्त्री, अनुवादक, ‘भारतीय दर्शन का अग्रदूत’ ज्ञानी, चिन्तक, गंभीर अध्येता, संवाद धर्मी, पत्र लेखक, उदार, सुलेखक, आत्मविश्वासी और सज्जन था. उसके सभी रूपों और पक्षों पर पाण्डेय जी ने विचार किया है. शायद ही कोइ ऐसा पक्ष होगा, जिस ओर उनका ध्यान नहीं गया है. शायद कोई पक्ष नहीं. दारा का लिखा हुआ और दारा पर लिखा हुआ जो भी गंभीर, आधिकारी और प्रामाणिक लेखन है, उन सब का उन्होंने केवल शोध और गहन अध्ययन ही नहीं, गंभीर विवेचन भी किया है.
ब्रजभाषा में दारा के कविता-संग्रह ‘दोहास्तव’ का उल्लेख मिलता है. ‘‘लेकिन उसकी पांडुलिपि बहुत प्रयत्न के बावजूद” उन्हें प्राप्त नहीं हो सकी. अपने गंभीर शोध, अध्ययन और विवेचनादि से पाण्डेय जी एक पैराग्राफ में जितना कुछ कह देते हैं, उसके लिए काफी पन्ने खर्च करने पड़ेंगे. दारा शुकोह की प्रत्येक पुस्तक पर पाण्डेय जी ने विचार किया है और अनुपलब्ध पुस्तकों का उल्लेख भी किया है. ‘सफीनतुल औलिया’; ‘सकीनतुल औलिया’, ‘हसनातुल् आरफीन’, ‘तकीकतुल हकीकत’ और ‘रिसाल: ए-हक़नुमा’ दारा की आरंभिक पुस्तके हैं. पचीस वर्ष की अवस्था में उसने पहली पुस्तक ‘सफीनतुल औलिया’ लिखी थी, जिसमें ‘हजरत मुहम्मद, चारों खलीफाओं, बारह इमामों तथा विभिन्न सिलसिले के सूफी सन्तों की चर्चा’ है.
किशोरवय में ही दारा का झुकाव सूफी संतों, उनके विचारों और उसकी उदार दार्शनिक दृष्टि की ओर हो गया था. (पृष्ठ 87) मुल्ला अब्दुर्रहमान जामी (7.11.1414-9.11.1492) फारसी कवि और प्रसिद्ध सूफी थे- जामी नक्शबंदी सूफी सम्प्रदाय से संबंधित. दारा अपने को फकीर कहते थे. उसने जामी के गद्य-पद्य ग्रन्थों का अध्ययन किया था –
‘‘यह फकीर (दारा) सदा उनके गद्य-ग्रन्थों तथा पद्य ग्रन्थों का अध्ययन किया करता है और उनसे लाभ प्राप्त करता है’’ (पृष्ठ 87) दारा ने अपनी पहली पुस्तक ‘सफीनतुल औलिया’ का लेखन उन्हीं का अनुकरण कर किया है. पुस्तक लिखने के लगभग दस वर्ष पहले उन्होंने गंभीर ग्रंथों का अध्ययन आरंभ कर दिया था. ‘सकीनतुल औलिया’, ‘‘कादिरी सम्प्रदाय के संतों की जीवनी की किताब है. इसमें लाहौर के प्रसिद्ध संत मियाँ मीर के जीवन का वर्णन है और साथ ही उनके शिष्य मुल्ला शाह बदख्शी के जीवन और साधना का विवेचन है.’’
(पृष्ठ 88)
मियाँ मीर (18.5.1550-22.8.1635) दारा शुकोह के आध्यात्मिक गुरु/प्रशिक्षक थे. दारा शुकोह ने अपनी पाण्डुलिपि में कई स्थलों पर उन्हें ‘अबु सईद’, ‘मुल्ला सईद’, ‘ख्वाजा मसुम’, ‘मुल्ला मसुम’, ‘खान-ए-जहाँ’, अबु सईद खाँ, और ‘खान-ए-खानान’ कहा है. वे प्रसिद्ध सूफी मुस्लिम संत थे, जिनके मित्र पाँचवें सिख गुरु अर्जुन देव (15.4.1563-30.5.1606) थे. उन पर ज्ञानी ब्रह्म सिंह की पुस्तक है- ‘हजरत मियाँ मीर एंड द सूफी ट्रैडिशन’, (1994). पंजाबी में भी उन पर कुछ पुस्तकें हैं – ‘साईं मियाँ मीर’ शीर्षक से डॉ. करणजीत सिंह और भाई वीर सिंह की. मुल्ला शाह बदख्शी (1550-1635) संत मियाँ मीर के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे. वे दारा शुकोह और उसकी बहन जहाँ आरा बेगम के भी आध्यात्मिक गुरू थे. मियाँ मीर के शिष्य और भक्त उन्हें ‘हजरत अखुंद’ के नाम से पुकारते थे. दारा शुकोह का मियाँ मीर के शिष्य और भक्त उन्हें ‘हजरत अखुंद’ के नाम से पुकारते थे. दारा शुकोह का चित्रांकन मियाँ मीर और शाह बदख्शी के साथ है. मियाँ मीर लाहौर के कादरी सूफी संत थे.
मुगल सम्राट जहाँगीर (30.8.1569-28.10.1629) को, जब वे उनसे मिलने आये थे, उनके शिष्यों ने घर के दरवाजे पर ही उन्हें रोक दिया था. जहाँगीर के यह कहने पर ‘बा दर-ए-दरविस दरबाने ना-कैद’ (फकीर के दरवाजे पर कोई पहरेदार नहीं होना चाहिए) मियाँ मीर का जवाब था – ‘‘बा कैद केह सेज दुनिया न अयाद् (जिससे स्वार्थी लोग प्रवेश न करें).
मीर का दरवाजा दारा शुकोह के दादा जहाँगीर के लिये बंद था, पर दारा शुकोह के लिए खुला था. ‘सफीनतुल औलिया’ में ‘‘दारा ने मियाँ मीर से पहली मुलाकात तथा उनकी कृपा की चर्चा की है… दारा ने ‘मार्ग दर्शन के लिए पीर की आवश्यकता बतलाई है.’’ (पृष्ठ 87) दारा ने मियाँ मीर की बहन बीबी जमाल खातून (सहवान सिंध में रहने वाली सूफी महिला संत) के जीवन और चमत्कारों की चर्चा की है.
पाण्डेय जी ने दारा की प्रत्येक पुस्तक में व्यक्त उसके विचारों की जानकारी भी दी हैं उनकी पुस्तक ‘दारा शुकोह’ में कई दुर्लभ जानकारियाँ भी हैं. डॉ. जगन्नाथ पाठक ने ‘रिसाल : ए-हकनुमा’ को ‘सत्यार्थ दर्शन’ कहा है. दारा के जीवन और लेखन से संबंधित सभी पक्षों पर गंभीरता पूर्वक विचार कोई सामान्य कार्य नहीं था. पुस्तक में शायर दारा और ‘दारा शुकोह और तसव्वुफ’ पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है.
चार |
दारा शुकोह फारसी भाषी आर्मीनियाई रहस्यवादी कवि और यात्री सरमद कशानी (1590-1651) के अनुयायी थे. सरमद ने इस उपमहाद्वीप को अपना स्थायी निवास बना लिया था. शाहजहाँ के अंतिम समय में वे दिल्ली आये थे. वे अपने समय के प्रसिद्ध सूफी थे, जो कलमा का केवल एक पार्ट पढ़त थे. छह कलमा – तय्यब, शहादत, तमजीद, तौहीद, इस्तिगफ़ार और रद्दे कुफ्र में से वे केवल चौथा कलमा पढ़ते थे- ‘ला इलाह इल्लल्लाहु’ अर्थात् अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, वह एक है. काजी की शिकायत पर औरंगजेब ने पूरा कलमा न पढ़ने के कारण उनकी हत्या का आदेश दिया था. अबुल कलाम आजाद (11.11.1888-22.2.1958) ने विचार और अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के लिए अपनी तुलना सरमद से की है. इस पर मतभेद है कि दारा शुकोह के समर्थन के कारण उनकी हत्या की गयी या उनके सूफी विचारों के कारण. उनके जीवन और कार्य पर एम.जी. गुप्ता की किताब है – ‘‘सरमद द सेंट: लाइफ एंड वर्क्स’, 1991.
मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि दारा शुकोह को तौहीद (अद्वैतवाद) की चेतना मियाँ मीर, मुल्ला शाह बदख्शी और दूसरे सूफी सिलसिलों के संतों से जुड़ने से प्राप्त हुई थी. कालिका रंजन कानूनगो ने लिखा है
‘‘तौहीद का सिद्धान्त दारा के आजीवन अध्ययन का विषय बना रहा. ज्ञान और ध्यान द्वारा इसका पूर्ण साक्षात्कार उसके अध्यात्मवाद का उद्देश्य बन गया.’’ (पृष्ठ 49 पर उद्धृत) इतना ही नहीं ‘‘अल्लाह, मुहम्मद और क़ुरआन को छोड़ कर इस्लाम के समस्त वाह्य अंग वास्तव में दारा के रहस्यवाद में विनष्ट हो गए.’’ (वही पृष्ठ 51) दारा के इस पक्ष पर विचार करते हुए पाण्डेय जी ने लिखा है –
‘‘तौहीद के सिद्धान्त के अनुसन्धान में वह अन्य धर्मों की प्रामाणिक पुस्तकों तक पहुँच गया. उसको लोग अलकामिल अर्थात पूर्ण की उपाधि से संबोधित करते थे और उसके उदार समकालीन पुरुष उसको सूफी सम्प्रदाय पर प्रमाण मानते थे.’’ (पृष्ठ 51)
लगभग दस वर्षों तक- 1647 से 1657 तक दारा ने ‘यहूदी और ईसाई धर्म का अध्ययन करते हुए इन धर्मों में इस्लामी एकेश्वरवाद से समानता की खोज’ की. इस खोज से संतुष्ट न होने के बाद ही वे हिन्दू धर्म के अध्ययन की अइोर मुखातिब हुए. उन्होंने केवल उपनिषदों का ही नहीं, श्रीमद्भगवद् गीता का भी फारसी में अनुवाद किया.
‘‘उसकी प्रेरणा, प्रोत्साहन और मदद से प्रबोध चन्द्रोदय (कृष्ण मिश्र का संस्कृत नाटक) तथा ‘योग वशिष्ठ’ (अद्वैत वेदान्त का विशाल संस्कृत ग्रंथ) नामक ग्रंथ का अनुवाद हुआ.’’ (पुष्ठ 91)
कालिका रंजन कानूनगो ने उनके चिन्तन और लेखन को दो कालों में विभाजित किया है- पहला काल 1647 ई. तक है और दूसरा उसके बाद. पहले काल में उन्होंने सूफी संतों और साधकों से सत्संग किया, सूफी साधना और सहृस्यवाद को समझा. इसी समय उन्होंने 1640 से 1646 तक सूफी मत से जुड़ी पाँच पुस्तकें लिखीं. पाँचवीं पुस्तक ‘रिसाल: – ए – हक़नुमा’ कादिरी सिलसिले में शामिल होने के बाद लिखी गयी है.
दारा शुकोह का अपने समय के सभी बड़े सूफियों से सम्पर्क था. वे जिस कादिरी सम्प्रदाय से जुड़े, उसकी स्थापना बगदाद के अब्दुल कादिर जिलानी (23.3.1078-21.2.1166) ने की थी. मियाँ मीर इस सम्प्रदाय के प्रमुख सूफी संत थे.
सूफियों का इतिहास पुराना है. मध्यकालीन रहस्यवादी जामी (7.11.1414-9.11.1492) के अनुसार अबु हाशिम (497-578) पहला सूफी हैं, बाद में सूफियों के कई सम्प्रदाय बने, जिनमें से दारा शुकोह और उनकी बहन जहाँ आरा का कादरिया सम्प्रदाय से संबंध रहा. उन्होंने 1640 ईसवी में लिखी अपनी पहली किताब ‘सफीनतुल औलिया’ में ‘‘शेख अब्दुल कादिर, शेख अबु अब्दुल्लाह मगरिबी, शेख जुन्नून मिस् री, इब्राहिम कस्सार आदि की सूक्तियाँ भी दी हैं’’. (पृष्ठ 88)
सूफी मत की अपनी पाँचवीं पुस्तक ‘रिसाल: -ए-हक़नुमा’ में दारा ने साधक की आध्यात्मिक यात्रा और उसमें आने वाले – ‘आलमे नासूत’, ‘आलमे-मलकूत’, ‘आलमे-जबरूत’ और ‘आलमे-लाहूत’ की चर्चा की है, जिसकी खूबियाँ पाण्डेय जी ने समझायी हैं. बाद में दारा ने मज्म ‘उल् बहरैन’ लिखा और उसका संस्कृत अनुवाद ‘समुद्र-संगम’ नाम से किया.
दारा इन दो पुस्तकों के कारण ही विशेष चर्चित और लोकप्रिय हुए. उन्हें इस्लाम का विरोधी समझना गलत है. अपने गंभीर अध्ययन और सत्संग से उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया और सूफी सिद्धान्त और हिन्दू-धर्म-दर्शन का ज्ञान विशेषज्ञों से. दोनों धर्मों की ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन दोनों के बीच तात्विक दृष्टि से कोई अंतर नहीं है. मात्र ‘परिभाषा-भेद’ है. मज्म ‘उल् बह्रैन’ में उन्होंने कहा है
‘‘इस किताब में सत्य को जानने वाले दो समुदायों के सत्य के ज्ञान और विवेक की अभिव्यक्ति है.’’ (पुष्ठ 93) मैनेजर पाण्डेय ने ‘उल् बह्रैन’ के सभी 22 खंडों का नामोल्लेख किया है और लिखा है
‘‘इन सभी तत्वों की व्याख्या के दौरान दारा शुकोह ने इस्लाम धर्म, खास तौर से सूफी मत और हिन्दू-धर्म-दर्शन के बीच समानता और एकता की खोज तथा स्थापना की ताकि मुसलमान और हिन्दू-धर्म-दर्शन के बीच समानता और एकता की खोज तथा स्थापना की ताकि मुसलमान और हिन्दू धर्म के समुदायों के बीच एकता, आत्मीयता और सद्भाव का विकास हो.’’ (पृष्ठ 94)
आज के भारत में हिन्दू और मुसलमान के बीच ‘एकता, आत्मीयता और सद्भाव के विकास’ के लिये लिखी गयी पुस्तक है – ‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’.
‘मुगल बादशाहों की हिन्दी कविता’ (2016) की भूमिका की पहली पंक्ति है- ‘‘भारतीय मुगल राजवंश के बादशाहों और उनके परिवार के सदस्यों के जीवन में कविता हमेशा मौजूद रही है.’’ (पृष्ठ 11) उन्होंने ए. के क्राइनिकी (समाजशास्त्र, स्त्री-अध्ययनादि की लेखिका) की पुस्तक ‘कैप्टिव प्रिंसेस’ की चर्चा की है और उनका यह कथन प्रस्तुत किया है कि
‘‘कविता शाहजहाँ के दरबार की भाषा बन गई थी. बादशाह दरबार में कविता में बातें करता था, आम जनता से और अपने दरबारियों से भी और दूसरे लोग भी कविता में जवाब देते थे.’’ (वही पृष्ठ 12-13)
क्राइनिकी की पुस्तक है- ‘‘कैप्टिव प्रिंसेस : जेबुन्निसा डॉटर ऑफ एम्पेरर औरंगजेब’. यह पुस्तक फ्रेंच में लिखी गयी थी, जिसका अंग्रेजी में अनुवाद (ओयूपी, 2005) एंजुम हामिद ने किया है.
जेबुन्निसा (15.2.1638-26.5.1702) औरंगजेब की बेटी थीं. कहा जाता है की उसने तीन वर्ष में क़ुरआन याद कर लिया था और सात वर्ष में वह ‘हाफ़िज’ बनी थीं. ‘दारा शुकोह’ पुस्तक में पृष्ठ 32 से 34 तक पाण्डेय जी ने उस पर विस्तार से लिखा है. औरंगजेब ने उसका पालन-पोषण शाहजादे की तरह किया था और उसे सब विषयों की शिक्षा दिलाई थी. दारा ने उसे उसके बचपन में सुलेख में मदद की थी. जेबुन्निसा दारा की तरह सूफी थी. वह म ‘मख्फ़ी’ नाम से शायरी करती थीं. पॉल स्मिथ ने दारा शुकोह और उस पर एक किताब लिखी है- ‘‘प्रिंस दारा शुकोह एंड हिज नीस प्रिंसेस जैबुन्निसा (मख्फ़ी) : टू सूफी पोएट-मार्टयेर्स अंडर द फंडामेंटलिस्ट मुगल एम्पेरर ऑफ इिंडया, औरंगजेब’. (2018) इसके पहले पाल स्मिथ ने स्वतंत्र रूप से जेबुन्निसा (मख्फ़ी) पर एक पुस्तक 2015 में लिखी थी – ‘द बुक ऑफ जेबुन्निसा : द प्रिंसेस सूफी पोएट मख्फ़ी’’. 1724 ईसवी में उसकी शायरी का संग्रह आया – ‘‘मख्फ़ी का दीवान’. औरंगजेब ने अपने प्रति अपने बेटे मुहम्मद अकबर (11.9.1657- 31.3.1706) के विद्रोह में उस पर शक करते हुए 1681 में उसे सलीमगढ़ के किले में २० वर्ष तक कैद में रखा गया, जहाँ वह चल बसी.
पाँच |
मैनेजर पाण्डेय ने अपनी एक अनूठी पुस्तक ‘मुगल बादशाहों की हिन्दी कविता’ में अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब की कविताओं से लेकर बाद के कई मुगल बादशाहों की कविताएँ प्रस्तुत की हैं. उन्होंने न्यूयॉर्क के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में हिन्दी और भारतीय साहित्य की सहायक प्रोफ़ेसर एलीसन बुश की पुस्तक ‘पोएट्री ऑफ किंग्स’ (पुस्तक का पूरा नाम है – ‘पोएट्री ऑफ किंग्स : द क्लासिकल हिन्दी लिटरेचर ऑफ मुगल इंडिया, 2011) के हवाले मुगल बादशाहों की कविता की चर्चा की है. ‘शायर दारा शुकोह’ पर लेखन के क्रम में उन्होंने अकबर द्वारा ‘मुगल शाहजादों और शाहजादियों को चार भाषाएँ पढ़ाने (तुर्की, अरबी, फारसी और ब्रजभाषा) की परम्परा स्थापित करने का उल्लेख किया है. दारा शुकोह ने दो भाषाओं-फारसी और ब्रजभाषा में कविताएँ लिखी थीं. ब्रजभाषा में लिखित ‘दोहास्तव’ का उल्लेख मिलता है, पर काफी खोज के बाद भी यह पुस्तक पाण्डेय जी को प्राप्त न हो सकी. मुगल बादशाहों की ‘हिन्दी कविता’ (2016) में उन्होंने दारा की एक और हिन्दी कविता की किताब ‘सार संग्रह’ का उल्लेख किया है, जो अनुपलब्ध है. ‘‘ऐसे में शायर के रूप में दारा की प्रतिष्ठा उसकी फारसी कविताओं पर निर्भर है.’’ (पृष्ठ 103)
फारसी में दारा ने शायरी ‘कादरी’ तखल्लुस उपनाम से की. दारा के इस कथन का कि उसने 1200 गजलें कही हैं, पर ‘किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया’. वे विक्रम जीत हसरत के जरिये यह बताते हैं कि ‘‘ख़जीनात-उल-आसफिया का लेखक उसकी कविता को अद्वैत (तौहीद) का समुद्र और अद्वैत का सूर्य कहता है.’’ (पृष्ठ 103) ‘ख़जीनात-उल-आसफिया’ चार खण्डों में फारसी में प्रकाशित पुस्तक है, जिसके लेखक इस्लामी विद्वान, इतिहासकार, धर्म विज्ञानी, रिसर्चर मुफ्ती गुलाम सरवर लाहौरी (1837-14.8.1890) हैं.
यह पुस्तक प्रसिद्ध सूफी संतों की जीवनियों का संग्रह है, जिसमें एक हजार से अधिक जीवनियाँ हैं. पहले खण्ड में सहबा, अहल-ए-बैत, आरंभिक सूफियों और कादरी सम्प्रदाय के सूफियों की जीवनी है, दूसरे खण्ड में चिश्ती सम्प्रदाय, तीसरे खण्ड में नक्शबन्दी सम्प्रदाय और चौथे खण्ड में सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सूफी संतों की जीवनियाँ हैं. दारा की किताब ‘सकीनतुल औलिया’ में कादिरी सम्प्रदाय के सूफी संतों की जीवनियाँ हैं. मुल्ला शाह बदख्शी दारा के गुरु थे और उन्होंने दारा की कविताओं की तारीफ की है. ‘दारा शुकोह’ पुस्तक में दारा शुकोह की फारसी शायरी के लिए विक्रमजीत हसरत की पुस्तक ‘दारा शिकूह : लाइफ एंड वर्क्स’ के सातवें अध्याय से यह कहा गया है – ‘‘दारा की फारसी कविताओं के दीवान और रूबाइयों का व्यवस्थित अध्ययन, समुचित विश्लेषण और सम्यक मूल्यांकन… है.’’ एक लम्बे समय तक दारा का दीवान ‘इक्सिर-ए-आजम’ खोया हुआ जाना जाता था. हसरत ने इसकी दो पाण्डुलिपियों का जिक्र किया है – खान बहादुर जफर हसन के पास उपलब्ध और बहादुर सिंह सिंधी के पास उपलब्ध. (पृष्ठ 104)
दारा शुकोह की शायरी पर ‘‘रूमी, जामी, सोनाई, निजामी, अत्तार, अबू सईद, खुसरू, इब्न-अल-अरबी, हाफिज आदि की शायरी का प्रभाव है.’’ (पृष्ठ 104) यहाँ संक्षेप में फारसी के इन नौ शायरों का उल्लेख जरूरी लग रहा है.
जलालुद्दीन रूमी (30.9.1207-17.12.1273) प्रसिद्ध शायर थे, जिनकी प्रसिद्धि अब भी कायम है और इसी महीने के अंत में उनपर एक बड़ा आयोजन खुदा बख्श लाइब्रेरी, पटना में हो रहा है. जमी (17.11.1414-9.11.1492) ईरान के अंतिम महान रहस्यवादी कवि थे. सनाई का समय ग्यरहवीं-बारहवीं सदी (1080-1131) है. इन्हें फारसी का पहला महान रहस्यवादी कवि कहा जाता है. निजामी गंजवी (1141-1209) ‘लैला मजनूँ’ तथा ‘सात सुन्दरियाँ’ जैसी पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध हैं. रूमी और खुसरो इनसे प्रभावित थे. अत्तर (मार्च 1145-1221) का पूरा नाम ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तर है. सूफीवाद के सिद्धान्तकार इस ईरानी कवि ने फारसी कविता और सूफीवाद दोनों को प्रभावित किया. अबू सईद (7.12.967-12.1.1049) प्रसिद्ध फारसी सूफी कवि हैं, जिन्हें अबू सईद अबुल-खैर भी कहा जाता है. सूफी परम्परा के विकास में इनका महत्वपूर्ण योगदान है.
खुसरो (1253-1325) से हम सब परिचित हैं. इब्न-अल अरबी (28.7.1165-16.11.1240) और हाफिज (1315-1390) की शायरी से दारा न केवल परिचित थे, उनसे प्रभावित भी थे. फारसी के शायरों से दारा का प्रभावित होना लाजिमी था क्योंकि वे फारसी में शायरी करते थे, पर मैनेजर पाण्डेय ने उन पर हिन्दुस्तान के शायर चन्द्र भान ब्राह्मण की शायरी का भी प्रभाव (पृष्ठ 104) देखा है. चन्द्रभान ब्राह्मण (1614-1663) दारा के समकालीन थे. इन्होंने फारसी में शायरी ही नहीं की गद्य भी लिखा. वे लाहौर के निवासी थे. उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि वे पंजाब के एक ब्राह्मण लड़के हैं, उनके पिता धर्मदास राजा के ऑफिसरों में थे. चन्द्रभान के भाई उदयभान अकील खान से जुड़े और अकील खान के द्वारा उनका शाहजहाँ से परिचय हुआ. शेर खान लोदी के अनुसार चन्द्रभान ब्राह्मण ने दारा शुकोह के मुंशी के रूप में कार्य किया था. दारा का उन पर अधिक विश्वास था. 9 अप्रैल 1656 को शाहजहाँ ने उन्हें ‘राय’ की उपाधि दी थी.
दारा शुकोह की शायरी में दर्शन-पक्ष अधिक है.
‘‘उनकी शायरी के मुख्य विषय दो थे. सूफीवाद और कादिरीवाद. वह खुद कादिरी मत से जुड़ा हुआ था, इसलिए कादिरी मत के सिद्धान्तों का असर उसकी शायरी पर था. उसकी शायरी में उपदेश की प्रवृत्ति अधिक है, कल्पना की मौलिकता कम. दारा शुकोह की शायरी मुख्यतः दार्शनिक है. उसमें मुख्यतः तौहीद की अभिव्यक्ति है.’’ (पृष्ठ 104)
दारा शुकोह ने तौहीद (अद्वैतवाद) को जैसे अपने भीतर हमेशा के लिए बसा लिया था. उसने तौहीद का स्वरूप भी रखा. माना जाता है कि रहस्यमय प्रेम के आवेश में वह पाँच वर्ष तक रहा था – 1645 से 1650 तक. उसकी फारसी कविताओं का संग्रह है ‘इक्सिर-ए-आजम’ है, जिसमें 216 गजलें और 180 रुबाइयाँ हैं. पाण्डेय जी ने लिखा है – ‘‘उसकी शायरी का दीवान भारत में अभी भी अप्रकाशित है.’’ (वही) जेएनयू के प्रोफ़ेसर अखलाक आहन ने उनकी सूफी मत से संबंधित फारसी रूबाइयों का उर्दू में अनुवाद किया है – ‘रूबायाते दारा शुकोह’ (2022) ‘दारा शुकोह’ पुस्तक में जो 94 रूबाइयों के अनुवाद हैं, वे पहली बार प्रोफ़ेसर आहन ने किये हैं.
भूमिका में पाण्डेय जी ने प्रोफ़ेसर आहन के साथ ही जामिया के प्रो. सरवरूल हुदा के प्रति आभार प्रकट किया है. उन्होंने यह लिखा है कि दारा की सभी रूबाइयों का हिन्दी रूपान्तर ‘‘दारा शुकोह’ की रूबाइयाँ’ शीर्षक से प्रकाश्य है’, पर अभी तक इसका प्रकाशन नहीं हुआ है. अखलाक मित्र हैं, इसलिए एक सप्ताह पहले मैंने उनसे आग्रह किया है कि वे इसे शीघ्र प्रकाशित करें. पॉल स्मिथ ने दारा के जीवन, परिचय और गद्य अनुवाद के साथ उनकी कविताओं पर भी विचार किया है (‘द बुक ऑफ द्वारा शुकोह : लाइफ, पोएम्स, एंड प्रोज ट्रांसलेशन एंड इंट्रोडक्शन, 2015) उन्होंने दारा को चार परवर्ती क्लासिक प्रमुख सूफी कवियों में रखा है (‘फोर ग्रेट लैटर क्लासिक सूफी मास्टर पोएटस : सेलेक्टेड पोएम्स, शाह निमातु-ल्लाह, जमी, दारा शुकोह, जेबुन्निसा मख्फ़ी’, 2013) पॉल स्मिथ 2017 में प्रकाशित अपनी एक पुस्तक में दिल्ली के दस बड़े सूफी कवियों – अमीर खुसरो हसन देहली, दारा शुकोह, सरमद, मख्फ़ी, बेदिल, मीर, दर्द, जफर और गालिब में दारा शुकोह को शामिल करते हैं. भारत के पाँच बड़े सूफी कवियों पर जिनमें एक दारा शुकोह भी हैं, उनकी 2017 की एक पुस्तक है ‘‘रूबाइयताज ऑफ फाइव ग्रेट सूफी पोएट्स ऑफ इंडिया : सरमद, दारा शुकोह, बेदिल, हाली, इकबाल.’’
दारा की 94 रूबाइयों के हिन्दी अनुवाद में दारा के विचार अधिक हैं. इन रूबाइयों में वह यह बताते हैं कि सभी नाम या वजूद खुदा ही के नाम हैं (रूबाई 1) और कतरे को समुद्र से अलग कर नहीं देखा जा सकता (रूबाई 2). वे खुद का खुदा का हिस्सा बताते हैं और पूरी सृष्टि को एक अस्तित्व में समाहित देखते हैं (रुबाई 5 और 6). अभी तक हिन्दी में उनकी रूबाइयों पर विचार नहीं हुआ है. पहली बार प्रो. आहन द्वारा रूबाइयों का हिन्दी अनुवाद ‘दारा शुकोह’ पुस्तक में प्रकाशित है.
अपनी कई रूबाइयों में वे तौहीद (एकेश्वरवाद) के बारे में बताते हैं. एक रूबाई में उन्होंने आत्मा (रूह) का हमेशा ख्याल रखने को कहा है (11) और दूसरी रूबाई में यह कहा है कि ‘वहदते-जात अथवा अद्वैत के बारे में शक नहीं हो सकता’ (19, पृष्ठ 107) में. वे ‘भिखारी के कशकोल (कटोरे) और बादशाह के ताज में’ उसी को, ईश्वर को देखते हैं (26, पृष्ठ 108), ‘दुई’ अथवा ‘द्वैत’ को उन्होंने ‘अद्वैत’ से खत्म करने की बात कही है (35, पृष्ठ 109), ज्ञान को उन्होंने मदिरा की तरह देखा है, अद्वैत को मानने एवं सुलहे-कुल (सहिष्णुता) को पेशे नजर रखने और हठधर्मी को त्यागने की बात कही है (36, पृष्ठ 116) आज के समय में सहिष्णुता को पेशे नजर रखने की बात कहीं अधिक मानीखेज है.
वे केवल मुल्लाओं की प्रकृति का ही नहीं, पुरोहितों की प्रकृति का भी उल्लेख करते हैं – ‘‘छल और बुराई मुल्लाओं और पुरोहितों की प्रकृति है, जिसके कारण औलिया और नबियों को तकलीफ पहुँचती रही’’ (44/111) दारा की नजर में ‘‘सिवाय खुदा के और कुछ न रहा’ है. (64/114) वे ‘मुसलमान, जरतुश्ती (पारसी) और यहूदी सबको उसी का पैदा हुआ मानते हैं. (65/114) और अधिक नमाज़ें पढ़ने से खुदा तक नहीं पहुँचने की बात भी कही है. (68/114) उनके यहाँ ‘अनुभूति’ का महत्व है, तौहीद (अद्वैत) की रट का नहीं. कबीर और उनमें साम्य है. अपनी एक रूबाई में उन्होंने चार प्रकार के दरवेश की बात कही है और दूसरी रूबाई में खुदा और उसके नबी में कोई फर्क नहीं माना है- ‘‘खुदा और उसके नबी में फर्क तो मुल्ला बताता है, मैं तो खुदाए-वाहिद से हजरत अहमद को जुदा नहीं मानता.’’ (79/116)
छह |
‘दारा शुकोह’ पुस्तक के चौथे अध्याय ‘संवाद धर्मी और विचारक’ में दारा की संवादधर्मिता के दो रूपों की चर्चा है. ‘‘एक तो बाबा लालदास से लम्बा वार्तालाप और दूसरे विभिन्न मुस्लिम और हिन्दू विद्वानों से पत्राचार.’’ (पृष्ठ 123) दारा पत्र-लेखक भी थे. बाबा लालदास से वार्तालाप के संबंध में कानूनगो और हसरत के विचार में मुख्य अंतर यह है कि कानूनगो के अनुसार बाबा लालदास और दारा शुकोह के बीच प्रतिदिन दो बैठकें होती थीं और यह वार्तालाप नौ दिन हुआ था, जबकि हसरत के अनुसार सात वार्तालाप हुए थे. कानूनगों के अनुसार यह वार्तालाप उर्दू में हुआ था और हसरत के अनुसार हिन्दी में. उर्दू में हुआ हो या हिन्दी में, इसका फारसी में अनुवाद चन्द्रभान ब्राह्मण ने किया.
पाण्डेय जी ने वार्तालाप और पत्राचार की सामग्री कालिका रंजन कानूनगो की पुस्तक ‘दारा शुकोह’ और डॉ. हर्ष नारायण द्वारा सम्पादित अनुदित पुस्तक ‘सिर्रे अकबर’ से प्राप्त की है. दारा शुकोह का पत्राचार अपने समय के कई प्रमुख सूफी संतों से था, जिनमें उनके प्रशिक्षक और गुरु मियाँ मीर और मुल्ला शाह बदख्शी भी थे. शाह मोहिबुल्लाह इलाहाबादी (1.1.1588-30.7.1648) चिश्ती सिलसिले के महान सूफी थे. उनसे ही नहीं उनके शिष्य शाह दिलरूबा से भी दारा का पत्राचार था. ‘‘ये पत्र ‘सुफियाना खतूत’ में मौजूद हैं.’’ (पृष्ठ 124)
बाबा लालदास मेवात के सूफी संत थे, जिनका जन्म और निधन अलवर (राजस्थान) में हुआ था. उन्हें मेवात में धार्मिक पुनर्जागरण का पुरोधा माना जाता है. कालिका रंजन कानूनगो ने अपनी पुस्तक ‘दारा शुकोह’ में दारा और बाबा लालदास के बीच का अधिकांश वार्तालाप छह पृष्ठों (161-166) में दिया है, जिसे पाण्डेय जी ने उद्धृत किया है. दारा ने नाद तथा वेद में, सृष्टा तथा सृष्टि में, परमात्मा और जीवात्मा में अंतर के साथ ही, हिन्दुओं में मूर्ति-पूजा का सिद्धान्त, वाराणसी में होने वाली मृत्यु, ब्रजभूमि में श्री कृष्ण, ब्रह्म-संयोग में तत्त्व, पाप, स्वतंत्र इच्छा, हृदय और उसकी आकृति, पाँच इन्द्रियाँ, फकीरों की निद्रा, जागरण (बेदारी) और ‘आकाश आदि से जुड़े लगभग बीस सवाल पूछे थे, जिनके उत्तर भी पाण्डेय जी की इस पुस्तक में है. दारा शुकोह की भाव-दशा और विचार-दिशा उनके वार्तालाप और पत्राचार से भी ज्ञात होती है.
पाण्डेय जी ने मुल्ला शाह बदख्शी, शेख मोहिबुल्लाह इलाहाबादी, शाह दिलरूबा, शेख मोहसिन फानी और सरमद के बीच के संवाद और पत्राचार का हवाला दिया है. इन सभी पत्रों में औरंगजेब को लिखा दारा का पत्र महत्वपूर्ण नहीं है. दारा शाहजहाँ का सबसे प्रिय पुत्र था. वह दारा को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था. सितम्बर 1657 में उसके बीमार पड़ने के बाद उसके और दारा दोनों के लिए स्थितियाँ प्रतिकूल और विकट हो गयीं. 18 वर्ष की उम्र में 1633 में शाहजहाँ ने अपने इस बेटे को राजकुमार, बनाया था. उसके बाद दारा को एक ऊँचा, बड़ा मनसब दिया गया. वह 1645 में इलाहाबाद का, 1647 में लाहौर का और 1649 में गुजरात का शासक बना था. 1653 में कांधार में हुई हार के बाद उसकी प्रतिष्ठा घटी थी, फिर भी शाहजहाँ ने उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में ही देखा, जो उसके अन्य बेटों को स्वीकार नहीं था. शाहजहाँ को मूत्र रोग था. उसके बीमार पड़ने के बाद दारा के दो भाइयों- औरंगजेब और मुराद ने उसके ‘काफिर’ होने के खिलाफ एक प्रचार-अभियान चलाया.
औरंगेजब दारा से तीन साल और मुराद नौ साल छोटा था. उस समय किसी राजकुमार को ‘काफिर’ (धर्म द्रोही) घोषित करना सामान्य बात नहीं थी. आज जिस प्रकार सही-सटीक बोलने वालों को ‘राष्ट्र द्रोही’ घोषित कर दिया जाता है, बहुत कुछ उसी तरह दारा को ‘धर्म द्रोही’ घोषित किया गया. भाइयों में युद्ध हुआ. आगरा के समीप सामूगढ़ में 10 मई 1658 को और अजमेर के निकट देवराई में मार्च 1659 में दारा पराजित हुआ. शाहजहाँ और बहन को औरंगजेब ने कैद कर लिया था.
दारा शुकोह को यह पता लगने पर कि औरंगजेब उसकी हत्या करवाना चाहता है, उसने औरंगजेब को पत्र लिखा – ‘‘मेरे भाई और मेरे बादशाह, अब मेरे मन में सत्ता के बारे में कोई चिन्ता नहीं है. मेरी इच्छा है कि सत्ता तुम्हारे और तुम्हारे बेटों के लिए हितकारी हो. तुम्हारे मन में मेरी हत्या का भाव व्यर्थ है. अगर मेरे रहने के लिए एक घर और मेरी देख भाल के लिए एक दासी दे दी जाए तो मैं शान्ति से रहते हुए तुम्हारी सत्ता के लिए प्रार्थना करूँगा.’’ (पृष्ठ 133) औरंगजेब पर इस पत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. ‘‘औरंगजेब ने दारा के पत्र की पीठ पर घृणा के साथ यह लिखा कि तुमने पहले भी अवज्ञा की है और देशद्रोह भी.’’ (वही) उसने मुराद के साथ मिलकर दारा के विरूद्ध षड्यंत्र रचा और दोनों की हत्या कराई मुगल बादशाहों में औरंगजेब सर्वाधिक क्रूर और निर्मम था.
उसने अपने सभी भाइयों- दारा, शुजा और मुराद की हत्या कराई. बहन रोशन आरा की भी हत्या कराई. भाई और बहन के अलावा उसने अपनी संतानों को भी नहीं बख्शा. ‘‘एक बेटे मोहम्मद को जेल में रख कर मार डाला दूसरा विद्रोही बेटा अकबर ईरान जाकर वहीं मर गया. यही नहीं, विद्रोह में अकबर का साथ देने के लिए औरंगजेब ने मशहूर शाबरा अपनी बेटी जेबुन्निसा को कैद किया और वह कैद में ही मर गई.’’ (पृष्ठ 31)
सात |
‘दारा शुकोह’ पुस्तक में पहली बार ‘बाबा लालदास और दारा शुकोह का वार्तालाप’ के साथ ‘दारा शुकोह का संस्कृत में लिखा एक पत्र’ भी है. गोस्वामी नृसिंह सरस्वती को संस्कृत में दारा द्वारा लिखा गया यह एक प्रशस्ति-पत्र है, जिसका अनुवाद डॉ. हर्ष नारायण ने अपनी पुस्तक ‘सिर्रे अकबर’ की भूमिका में किया है. ‘‘डॉ. हर्ष नारायण ने उसी भूमिका में दारा के संस्कृत में प्रशस्ति-पत्र की प्राप्ति का पूरा ब्योरा दिया है.’’ (पृष्ठ 133)
गोस्वामी नृसिंह सरस्वती बनारस के बड़े विद्वान और संत थे, शाहजहाँ के समकालीन. चेन्नई के ‘अडयार लाइब्रेरी और रिसर्च सेंटर’ की स्थापना 1886 में हुई थी. इसमें कई दुर्लभ पांडुलिपियाँ हैं. दारा शुकोह के संस्कृत पत्र की पांडुलिपि इस लाइब्रेरी में 1928 में आई थी, जो अडयार लाइब्रेरी की बुलेटिन ‘ब्रह्म विद्या’ में सर्वप्रथम तीन किस्तों में प्रकाशित हुई थी. बाद में इसे स्वतंत्र रूप से एक पैम्फलेट के रूप में प्रकाशित किया गया. इस पत्र की एक प्रति रायल एशियाटिक सोसाइटी बंगाल और दूसरी यू के की इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में है. इस पर 1748 की तारीख है, जो गलत है क्योंकि दारा की हत्या लगभग नब्बे वर्ष पहले हो चुकी थी. संस्कृत के विद्वान और वर्षों तक अडयार लाइब्रेरी के संग्रहाध्यक्ष (क्यूरेटर) रहे कुन्हन राजा ने इस पैम्फलेट का परिचय लिखा था. उनके अनुसार इस पत्र की तारीख 1648 हो सकती है.
मैनेजर पाण्डेय ने लगभग पाँच पृष्ठों का यह मूल पत्र अनुवाद सहित दिया है. इस पत्र से दारा शिकोह का संस्कृत-ज्ञान ज्ञात होता है. उन्होंने संस्कृत में मज्म ‘उल् बहरैन’ का अनुवाद किया और इसी भाषा में एक लम्बा पत्र भी लिखा. मैनेजर पाण्डेय ने यह ‘दुर्लभ सामग्री’ पुस्तक में दी है.
दारा शुकोह पर अब तक जितनी भी पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं, उनमें से किसी में भी विविध भाषाओं में उन पर प्रकाशित गंभीर अध्ययन कर विचार विमर्श नहीं किया है. दारा पर अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तकें सर्वाधिक हैं, जिनमें जीवनियाँ अधिक हैं. कुछ वर्ष पहले अंग्रेजी में उन पर डॉ पुस्तकें आई – अविक चन्दा की ‘दारा शुकोह : द मैन हू वुड बी किंग’ (हार्पर कॉलिन्स, 2019) और सुप्रिया गांधी की पुस्तक ‘द एम्पेरर हू नेवर वाज : दारा शुकोह इन मुगल इंडिया’ (हार्वर्ड यूनिवसिर्टी प्रेस, 2020) इन दोनों पुस्तकों की समीक्षा हरीश त्रिवेदी ने बिब्लिओ (जुलाई-सितम्बर 2020) में ‘द ‘गुड’ मुगल एंड द बैड’ मुगल’ शीर्षक से की है.
ये दोनों जीवनियाँ कुछ महीनों के अंदर ही प्रकशित हुईं. हरीश त्रिवेदी को आश्चर्य है कि इन दोनों पुस्तकों में न तो कालिकारंजन कानूनगो की पुस्तक ‘दारा शिकोह’ (1735) का उल्लेख है और न विक्रमजीत हसरत की पुस्तक ‘दारा शिकोह : लाइफ एंड वर्क्स’ (1953) का. गोपाल कृष्ण गांधी के ‘दारा शुकोह’ (1993) की भी चर्चा नहीं है. आज भी अंग्रेजी में दारा शिकोह पर लिखी गयी सभी पुस्तकों में कानूनगो और हसरत की पुस्तकें ही शोध पूर्ण और प्रामाणिक हैं.
अंग्रेजी में दारा शिकोह पर लेखन थमा नहीं है. उनपर नयी-नयी किताबें आ रही हैं, पर किसी ने भी अंग्रेजी में उन पर प्रकाशित सभी पुस्तकों की एक व्यवस्थित सूची तैयार नहीं की है. भारतीय भाषाओं में, विशेषतः हिन्दी में दारा शिकोह पर जितना साहित्य-सृजन हुआ है, वह कम विस्मयकारी नहीं है.
मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘दारा शुकोह : संगम संस्कृति का साधक’ का अंतिम अध्याय (पाँचवाँ) है – ‘हिन्दी साहित्य में दारा शुकोह’, जिसका विशेष महत्व है. हिन्दी के अतिरिक्त दारा शुकोह के जीवन, व्यक्तित्व और लेखन पर उर्दू, फारसी, अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जो लेखन हुआ है, उनमें से पाण्डेय जी ने हिन्दी साहित्य में हुए लेखन पर पहली बार विस्तार से विचार किया हैं.
‘‘हिन्दी में दारा के बारे में कविताएँ हैं, निबन्ध हैं, इतिहास की पुसतकें हैं, कहानी है और अनेक उपन्यास हैं.’’ (पृष्ठ 149) दारा पर हिन्दी में छह, बांग्ला में एक और उर्दू में एक उपन्यास लिखा गया है. पाण्डेय जी ने इन सभी आठ उपन्यासों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन कर उनपर विचार किया है. दारा पर अंग्रेजी में नाटक और काव्य नाटक भी है – गोपाल गाँधी का ‘दारा शिकोह : ए प्ले’ (2010) और अकबर हामद का ‘द ट्रायल ऑफ दारा शिकोह : ए प्ले इन थ्री एक्स’ (2008). पाण्डेय जी ने गोपाल गाँधी के काव्य-नाटक ‘दारा शिकोह’ का प्रेरणा स्रोत जॉन ड्राईगन (19.8.1631-12.5.1700) के छंदोबद्ध नाटक ‘औरंग-जेब’ को माना है और यह लिखा है की ‘बहुत तैयारी के साथ इस काव्य नाटक की रचना की गई है.
1913 से लेकर 2015 तक दारा शिकोह पर लिखे गये हिन्दी उपन्यास अलग से गंभीर विवेचन की माँग करते हैं कि क्यों हिन्दी उपन्यासों में दारा की ऐसी उपस्थिति है. संभवतः इसका एक मुख्य कारण हिन्दी समाज में हिन्दू-मुस्लिम-संबंधों में आज भी मुल्लाओं और पंडितों का (अब राजनीतिक दल का भी) दखल है. दारा पर हिन्दी का पहला उपन्यास किशोरी लाल गोस्वामी (1865-1932) का ‘तारा व क्षत्रकुल-कमलिनी’ (1902) है. इसके बाद देवकीनन्दन खत्री (18.6.1861-1.8.1913) का उपन्यास ‘गुप्त गोदना’ (1913) है.
संभवतः अब तक का अंतिम उपन्यास शत्रुघ्न प्रसाद (12.2.1932-1.7.2020) का ‘दहशत का दंश’ (2015) है. इन उपन्यासों के अतिरिक्त अवध प्रसाद वाजपेयी का ‘दारा शुकोह’ (1962), भोला शंकर व्यास (19.10.1923-23.10.2005) का ‘समुद्र-संगम’ और मेवा राम का ‘दारा शिकोह’ है. ‘‘हिन्दी उपन्यास के इतिहास में दारा शुकोह पर उपन्यास लिखने की परम्परा पुरानी है और लम्बी भी.’’ (पृष्ठ 171) क्या हिन्दी में अन्य किसी ऐतिहासिक पात्र पर उपन्यास लिखने की परम्परा ऐसी ही पुरानी और लम्बी है? ‘गुप्त गोदना’ का प्रकाशन अपूर्ण रूप में ही 1913 में हुआ था.
मैनेजर पाण्डेय ने किशोरी लाल गोस्वामी के इस उपन्यास को ‘ऐतिहासिक रोमांस’ कहा है और इसकी ‘संरचना और भाषा पर उर्दू का पूरा प्रभाव’ देखा है. ‘‘उपन्यास के प्रत्येक अध्याय का आरंभ शेरो-शायरी से होता है. उपन्यास के बीच में भी शायरी है. इस उपन्यास में दारा शुकोह के साथ जहान आरा की आत्मीयता दिखाई देती है.’’ (पृष्ठ 173)
‘गुप्त गोदना’ उपन्यास में औरंगजेब द्वारा मुराद को लिखी गयी जो चिट्ठी उद्धृत की गयी है, उसके स्रोत का पता नहीं लगता. औरंगजेब ने इस पत्र में दारा शुकोह और शुजा को बादशाही करने के काबिल नहीं माना है. ये दोनों औरंगजेब के बड़े भाई थे. औरंगजेब ने अपने छोटे भाई मुराद को लिखा –
‘‘दारा शुकोह बादशाही करने लायक नहीं है और उसने अपना मजहब भी छोड़ दिया है. सल्तनत के बड़े-बड़े उमरा लोग भी उससे रंज रहते हैं. इसी तरह शुजा में भी हुकूमत करने की अक्ल नहीं है और अधर्मी होने के साथ ही साथ हिदोस्तान का दुश्मन भी है. ऐसी अवस्था में इतने बड़े हिन्दोस्तान की हुकूमत करने के लायक केवल आप ही हैं.’’ (पृष्ठ 172)
बाद में औरंगजेब ने मुराद की भी हत्या करा दी. उपन्यास के विवेचन में उपन्यास के अंश के चयन से आलोचक की अपनी दृष्टि एवं सोच का भी पता चलता है. 1962 में प्रकाशित अवध प्रसाद वाजपेयी के उपन्यास ‘दारा शिकोह’ की जानकारी पाण्डेय जी को जगन्नाथ पाठक की पुस्तक मज्म ‘उल् बहरैन’ (समुद्र-संगम) की भूमिका से मिली, पर यह उपन्यास प्राप्त न हो सका. आलोचकों की पाठ-विधि और पाठ-प्रक्रिया पर कम ध्यान दिया जाता है. पाण्डेय जी की इस पुस्तक से पुस्तकों की पाठ-प्रक्रिया का भी पता लगता है. भोलाशंकर व्यास का उपन्यास ‘समुद्र-संगम’ पहले 1975 में प्रकाशित हुआ था, फिर उसका दूसरा परिवर्धित संस्करण 29 वर्ष बाद 2004 में आया. पाण्डेय जी पुस्तक के किसी एक संस्करण पर नहीं ठहरते. वे सभी संस्करण देखते हैं. इस उपन्यास के संबंध में उन्होंने लिखा है –
‘‘पहले संस्करण में केवल 36 अध्याय थे, जबकि दूसरे संस्करण में 56 अध्याय हैं.” (पृष्ठ 173) मैनेजर पाण्डेय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भोलाशंकर व्यास (19.10.1923-23.10.2005) के छात्र थे. यह व्यास जी का जन्मशती वर्ष है और अभी तक उन्हें याद नहीं किया गया है. उनका उपन्यास ‘समुद्र-संगम’
‘‘प्रसिद्ध कवि पंडित राज जगन्नाथ की आत्मकथा के रूप में लिखा गया है. वस्तुतः यह उनकी अद्भुत प्रणय-कथा है. इसकी संरचना पर हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाण भट्ट की आत्म कथा’ का प्रभाव है.’’ (वही)
मैनेजर पाण्डेय की सजग आलोचकीय दृष्टि दारा पर लिखे गये प्रत्येक उपन्यास के विवेचन में दिखाई देती है. वे व्यास जी के इस उपन्यास को ‘ऐतिहासिक उपन्यासों की प्रचलित परम्परा से अलग’ मानते हैं और इसे केवल पण्डित राज जगन्नाथ की आत्मकथा के रूप में न देख कर इसे ‘उस युग की कथा’ भी कहते हैं.
‘समूचे युग को वाणी देने के कारण इस उपन्यास में ऐसे चरित्र भी मिल जाएँगे जो उस समय की राजनीति, दार्शनिक क्रान्ति, साहित्यिक अनुदान, संगीत और चित्र कला के क्षेत्र में हुए प्रयोगों के इतिहास से संबंद्ध है.’’ (पृष्ठ 174)
पाण्डेय जी ने इसके पहले अपने एक निबंध ‘इतिहास और ऐतिहासिक उपन्यास’ में इस उपन्यास पर विचार किया था. उस समय उन्होंने उस काल पर भी ध्यान दिलाया था – ‘‘इस काल में सांस्कृतिक स्तर पर एक नये भारत का जन्म हो रहा था. विभिन्न कलाओं में नई प्रवृत्तियाँ पनप रही थीं, धर्मों, दर्शनों, कलाओं पर भाषाओं का संगम हो रहा था. एक ऐसी हिन्दी कविता विकसित हो रही थी, जिसमें सूफी दर्शन की आत्मा का वास था तो एक ऐसी फारसी कविता रची जा रही थी, जिसमें भारतीयता मौजूद थी. ऑक्टोविया पॉज (मैक्सिकन कवि, लेखक, राजनयिक, नोबेल पुरस्कार विजेता, 31.3.1914-19.4.1998) ने ठीक ही लिखा है कि भक्ति-आन्दोलन हिन्दुओं मुसलमानों के बीच एकता और नये भारत को जन्म का आधार बन सकता था.’’ (पृष्ठ 174-75)
आठ |
क्या मैनेजर पाण्डेय ने लगभग पचीस वर्ष की साधना के बाद ‘दारा शिकोह : संगम संस्कृति का साधक’ एक नये भारत के स्वप्न को सामने रखकर नहीं लिखा है? बीसवीं सदी के अंतिम दशक से भारत में मुसलमानों के प्रति जो घृणा और विद्वेष फैला, वह आज चरम पर है. जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई है, वह समय कहीं अधिक विध्वंसक है. जो धर्म का मर्म नहीं जानते, वे ही धर्म-धर्म चिल्ला रहे हैं. जिन्हें भारत माता से कोई मतलब नहीं है, वे ही उनका जयकारा लगा रहे हैं.
दारा कट्टर मुसलमानों के खिलाफ थे. उन्हें इस्लाम और हिन्दू धर्म की वास्तविक एकता पर प्रकाश डाला. क्या मैनेजर पाण्डेय की यह किताब धार्मिक हिन्दू कट्टरता के विरूद्ध एक प्रकार का हस्तक्षेप नहीं है? इतिहास के पात्रों के चयन और उन पर लेखन के पीछे जो दृष्टि काम करती है, वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भोलाशंकर व्यास के उपन्यास ‘समुद्र-संगम’ में उन्होंने उपन्यासकार की दृष्टि पर भी विचार किया है. ‘‘उपन्यासकार ने इस बात पर भी ध्यान दिया है कि धर्म की राजनीति अन्ततः आम जनता के शोषण और दमन की नीति पर चलती है.’’ (पृष्ठ 175)
यह पुस्तक धर्म की राजनीति का खंडन और मेल-मिलाप, सद्भाव की संस्कृति पर बल देती है, संगम-संस्कृति को केन्द्र में रखती है. इस उपन्यास पर सात पृष्ठों में किया गया विचार अधिक महत्व का है. इस उपन्यास के विवेचन में एक बड़ी बात सीमा-संबंधी है –
‘‘प्रायः सत्ताएँ अपनी सुरक्षा के लिए सीमाओं का निर्माण करती हैं और व्यक्ति तथा समाज अपनी स्वतंत्रता के लिए उन सीमाओं को तोड़ते हैं. सीमाएँ तोड़ने और उनके पार जाने की राह खोजने की कोशिश स्वतंत्रता को हासिल करने के लिए जरूरी हो जाती है. सत्ता केवल राजय की ही नहीं होती, संस्कृति, धर्म, जाति और सामाजिक संरचना की भी सत्ताएँ होती हैं. जिनकी सीमाएँ स्वतंत्रता की राह रोकती है. ये सीमाएँ वास्तव में पराधीनता की श्रृंखला की कड़ियाँ है.’’ (वही पृष्ठ 177)
सीमाबद्ध और सीमा मुक्त व्यक्ति में अंतर है. जो सीमाएँ तोड़ते हैं सत्ताएँ उन्हें दण्डित करती हैं. सीमा दारा शिकोह और पंडित राज जगन्नाथ दोनों ने तोड़ीं और उन दोनों को दंडित किया गया. सीमाएँ तोड़ने के कारण दारा शिकोह की हत्या की गयी. भोलाशंकर व्यास के उपन्यास ‘समुद्र संगम’ पर लिखते समय पाण्डेय जी के सामने उनका अपना समय और समाज भी है- ‘‘आज के भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर धार्मिक कट्टरता तथा साम्प्रदायिकता का धर्म निरपेक्षता तथा लोकतांत्रिक चेतना से संघर्ष चल रहा है. समुद्र-संगम में मुगल राजसत्ता के लिए युद्ध में दारा की पराजय और औरंगजेब की विजय कथा है, जो धार्मिक बहुलतावाद पर धार्मिक एकान्तवाद की, उदारता पर कट्टरता की, सहिष्णुता पर संकीर्णता की और अनेकान्तवादी राष्ट्रीय चेतना पर एक राष्ट्र, एक धर्म के आग्रह की विजय है. ऐसे में समुद्र-संगम हमें अतीत से सीखने की सलाह देता है.’’ (पृष्ठ 179)
दारा शुकोह के समय के इतिहास-लेखन में और औरंगजेब के शासनकाल में उनके दरबारी इतिहासकार- मोहम्मद काज़िम ने ‘आलमगीरनामा’ में उनके साथ न्याय नहीं किया था. काज़िम ने लिखा है कि इस्लाम की रक्षा, शरीयत को बनाए रखने और राजनीति को ध्यान में रखकर उसकी हत्या कर दी गयी. दूसरे दरबारी इतिहासकार साकी मुस्ताद खान ने ‘मआसिर-ए-आलमगीर’ में ‘अनेक कारणों से… दारा शुकोह के जीवन की धूलि को सजीव संसार के मैदान से’ हटाने और मिटाने की बात लिखी है.
मेवाराम के उपन्यास ‘दारा शिकोह’ (2008) में दारा शुकोह और उसके बेटे सुलेमान शुकोह की हत्या के प्रसंग के कारण पाण्डेय जी ‘उपन्यास में समग्रता और सम्पूर्णता’ देखते हैं. उन्होंने हत्या-प्रसंग का भी उल्लेख किया है. इस उपन्यास में दारा की बड़ी बहन जहाँ आरा की चर्चा के साथ उसकी शायरी, सरमद की शहादत का ब्योरा और ‘शाहजहाँ की मौत का मार्मिक चित्रण’ भी है, जिसके कारण उपन्यास में ‘समग्रता और व्यापकता’ आ गयी है. ‘‘उपन्यास को लिखने में मेवाराम ने पर्याप्त शोध किया है और शोध के प्रमाण एवं परिणाम इस उपन्यास में मौजूद हैं.’’ (पृष्ठ 182). शत्रुघ्न प्रसाद के उपन्यास ‘दहशत का दंश’ (2015) में वे आदि से अंत तक दहशत का दंश देखते हैं. पाण्डेय जी ने अपनी पुस्तक के अंतिम अध्याय में प्रेमचन्द की कहानी ‘दारा शिकोह का दरबार’ (1908) के हिन्दी अनुवाद (लमही, जनवरी-मार्च 2009) का जिक्र कर यह लिखा है – ‘‘कहानी से यह जाहिर होता है कि दारा शुकोह बादशाह अकबर की रीति-नीति का अनुयायी था.’’ (पृष्ठ 183)
उर्दू से हिन्दी में काजी अब्दुल सत्तार (8.2.1933-29.10.2018) के उपन्यास का अनुवाद (1983) जानकी प्रसाद शर्मा ने किया है और बांग्ला से श्यामल गंगोपाध्याय (25.3.1933-24.9.2001) के उपन्यास ‘शाहजादा दारा शुकोह’ (1991) का हिन्दी अनुवाद ममता खरे ने किया है. श्यामल गंगोपाध्याय को इस उपन्यास पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था. पाण्डेय जी इन दोनों उपन्यासों की चर्चा करते हैं. काजी अब्दुल सत्तार ने दारा शिकोह द्वारा ‘एक तहजीब, एक इनसानी जीवन-पद्धति, एक संस्कृति को जिन्दा करने’ की बात कही है. यह आज के समय में भी कई लेखकों की चिन्ता है, जिससे ‘दारा शिकोह’ को इक्कीसवीं सदी में भी याद किया जा रहा है. श्यामल गंगोपाध्याय ने अपने उपन्यास की भूमिका में दारा के बारे में जो लिखा है, पाण्डेय जी उससे पाठकों को अवगत करते हैं – ‘‘दारा शिकोह हिन्दू-मुसलमानों के धार्मिक चिन्तन के मध्य मिलन-बिन्दु ढूँढते-ढूँढते अपने दौर से बहुत ज्यादा आगे निकल गए थे… वे आधुनिक हिन्दोस्तान के राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ, विवेकानन्द, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के पथ-प्रदर्शक थे.’’ (पृष्ठ 184) उपन्यास के दूसरे खंड में, जो दारा शिकोह पर केन्द्रित है, उपन्यासकार ने एक बात बिल्कुल सही कही है – ‘‘मुगल साम्राज्य में एक ही कानून चलता है – तख्त या ताबूत.’’ (पृष्ठ 185) आधुनिक युग में हमारे देश मे ‘समर्थन या जेल’ का कानून बढ़ रहा है.
दारा शुकोह पर उनके समय से ही काव्य-रचना आरंभ हो गयी थी. कवीन्द्राचार्य सरस्वती शाहजहाँ के समय के प्रमुख संन्यासी थे. शाहजहाँ ने उनको संरक्षण दिया था. उनका प्रशस्ति-काव्य ‘कवीन्द्र कल्पलता’ पहली पुस्तक है, जिसमें दारा शिकोह की चर्चा है. वे शाहजहाँ के दरबार में लम्बे समय तक रहे थे और शाहजहाँ ने उन्हें ‘सर्व विद्या निधान’ की उपाधि दी थी. ‘कवीन्द्र कल्पलता’ में शाहजहाँ के संबंध में 163 और दारा से संबंधित 29 छन्दों की सूचना डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने दी है. उसमें मिर्जा मुराद के संबंध में भी दो छन्द हैं और दारा की पत्नी नादिरा बेगम का भी उल्लेख है. इन 29 छन्दों में से पाण्डेय जी ने सात छन्द उद्धृत किये हैं, जिनकी कुछ पंक्तियाँ हैं-
‘‘और साहिजादे दूरि पात से उड़े फिरत,
दारा साहि साहि वसंत रितु जानिये.
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सौ है भुम्मि भरतार दारिद को हरतार,
दारा साह करतार अवतार मानिये.
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सुन्दरता सागर है पूरता को आगर है,
नागर उजागर है दारा साहि सोहना.
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देवनि में महादेव काहू अवतारनि में,
साहिनि में तैसे साहि दारसाहि जानिये.
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दारा नादिर यों बने, जैसे सीताराम.
कीरति मूरति मति सुमति, परमानन्द के धाम.
यह प्रशस्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. सत्रहवीं शताब्दी के लाल कवि ने महाराजा छत्रसाल (बुंदेला, 4.5.1659-20.12.1731) की आज्ञा से उन पर ‘छप्र प्रकाश’ नामक काव्य की रचना की, जिसे रामचन्द्र शुक्ल ने ‘इतिहास की दृष्टि से महत्व की पुस्तक’ माना है. मैनेजर पाण्डेय ने उनमें इतिहास-बोध देखा है. छत्र प्रकाश के ‘छठे अध्याय में दारा से औरंगजेब तथा मुराद के युद्ध और दारा की पराजय की कथा भी है.’’ (पृष्ठ 152) इसमें लाल कवि ने लिखा है – ‘‘औरंगसाह समान न दूजा’ और ‘चारि पुत्र ताकै मरदानै /दारा साह साहि मनमानै.’’ बूंदी के हाड़ा शासक महाराव राम सिंह के राज कवि थे सूर्य मल्ल मिसण (मिश्रण!, 19.10.1815-11.10.1868) इनका विशाल ग्रन्थ ‘वंश भास्कर’ एक विशाल चम्पू महाकाव्य है, जिसमें बूंदी के राजवंशों के जिक्र के बाद उत्तर भारत का इतिहास भी है.
मैनेजर पाण्डेय ने दारा शिकोह से जुड़े कुछ प्रसंगों और अंशों को उद्धृत किया है. इतिहास काव्य-ग्रंथों का महत्व काव्य दृष्टि से कम और ऐतिहासिक दृष्टि से कहीं अधिक है. मेवाड़ के महाराणा परिवार के राज कवि कविराज श्यामल दास (5.7. 1836-3.6.1893) का ‘वीर विनोद’ इतिहास-ग्रन्थ है. यह मेवाड़ का पहला लिखित विस्तृत इतिहास है (1930) जिसके तथ्य-संग्रह में बीस वर्ष और लेखन में पाँच वर्ष लगे थे. पाँच खंडों में 2716 पृष्ठों की यह पुस्तक 1886 में कई खंडों में लिखी गई थी. महामहोपाध्याय केसर-ए-हिन्द कवि राज श्यामल दास के शिष्य थे – डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (15.9.1863-17.4.1947). मैनेजर पाण्डेय मुगलों के साथ और राजस्थान के राजपूत राजाओं के इतिहास का इसलिए उल्लेख करते हैं क्योंकि ये ‘‘परस्पर जुड़े हुए थे. इसलिए राजस्थान के राजाओं का इतिहास लिखने वाले मुगलवंश का भी इतिहास लिखते थे. ऐसे दो लेखक प्रमुख हैं- सूर्यमल्ल मीसण और कवि राज श्यामल दास.’’ (पृष्ठ 159) तिथि, घटनादि की दृष्टि से, इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं ये काव्य-ग्रन्थ.’’
बीसवीं शताब्दी में रामविलास शर्मा अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने 1943 में ‘दारा शिकोह’ पर कविता लिखी. पाण्डेय जी ने दारा शिकोह पर लिखने की प्रेरणा में डॉ. शर्मा का नामोल्लेख किया है. रामविलास शर्मा ने केवल कविता ही नहीं लिखी, लगभग साठ-पैंसठ वर्ष बाद ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ (1999) के दूसरे खण्ड में छह-सात पृष्ठों में ‘सत्ता के लिए संघर्ष : दो संस्कृतियों की टक्कर’ उपशीर्षक के अन्तर्गत दारा शिकोह पर विचार भी किया है. रामविलास शर्मा ने ‘दारा शिकोह’ कविता में लिखा है –
‘‘व्यर्थ है पुकार और व्यर्थ है ये कुहराम,
खुदा को पुकारना है व्यर्थ लेना राम-नाम
घूती है लाश अभी नगर में चारों ओर
किन्तु इतिहास में है दारा का अमर नाम.’’
पाण्डेय जी ने ‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’ की भूमिका का आरंभ ही डॉ. रामविलास शर्मा की इस कविता के उल्लेख से किया है. उन्होंने डॉ. शर्मा की कविता में दारा के जीवन, युद्ध, पराजय आदि की पूरी कहानी देखी है. दारा शिकोह पर लिखी गयी कविताओं में यह सर्वोत्तम है. डॉ. शर्मा ने इतिहास में दारा की अमरता की घोषणा की और डॉ. पाण्डेय ने उसकी अमरता के पाँच कारण बताये –
‘‘वह भारतीय समाज में संगम-संस्कृति का विकास करना चाहता था. जिस संगम-संस्कृति में इस्लाम और हिन्दू-धर्म-दर्शन की एकता हो.’’
दूसरा, उसने मुसलमानों को हिन्दू धर्म से परिचित कराने के लिए 52 उपनिषदों का 1657 ई. में फारसी में अनुवाद किया.
तीसरा कारण उसके द्वारा ‘‘सत्रहवीं सदी के मध्य में इस्लाम और हिन्दू-धर्म-दर्शनों के बीच तुलनात्मक अध्ययन की शुरूआत’ थी.
उसकी अमरता का चौथा कारण उसका सूफी साधक होना है. उसने ‘‘सूफी साधना को सर्व ग्राह्य बनाने के लिए पाँच किताबों की रचना की” और
अमरता का पाँचवाँ कारण उसका हिन्दी और फारसी का शायर होना है.
अमरता के इन सभी पाँच कारणों पर पाण्डेय जी ने अपनी पुस्तक में विचार किया है. तख्त और ताज से, पद और ओहदे से एक समय के बाद किसी को नहीं जाना जाता. सब या तो धूल में मिल जाते हैं या किताबों में बंद और कैद होकर आलमारियों में पड़े रहते हैं. बड़ी चीज है कलम, जो किसी को भी अमर बनाती है. डॉ. मैनेजर पाण्डेय भी इस मूल्यवान कृति के कारण सदैव अविस्मरणीय रहेंगें. यह कृति न तो केवल साहित्यिक है और न केवल अकादमिक. इसका वास्ता जीवन और संस्कृति से है. वे जिस संगम-संस्कृति के साधक के रूप में दारा शिकोह का सम्मान करते हैं, वह संगम-संस्कृति पहले से भी मौजूद थीं. ‘भूमिका’ में उन्होंने दारा के पहले की उन तीन परम्पराओं का जिक्र किया है, ‘जो संगम-संस्कृति के मूल में मौजूद थीं.’’ संगम-संस्कृति कलाओं में दिखाई देती है.
मुगल बादशाहों में अकबर ने भी यह संस्कृति विकसित की थी. जो हजार वर्ष के गुलाम भारत का बार-बार जिक्र करते हैं, वे न इतिहास जानते हैं, न संस्कृति. उनके लिए उनकी अपनी गढ़ी हुई संस्कृति ही प्रमुख है. ‘‘हिन्दुस्तान में मुगल शासन-काल में हिन्दी और उर्दू कविता में संगम-संस्कृति की अभिव्यक्ति भरपूर दिखाई देती है… उर्दू कविता में मीर, नजीर और गालिब की शायरी में संगम-संस्कृति की अभिव्यक्ति भरपूर है.’’ (पृष्ठ 11) संगम-संस्कृति को पाण्डेय जी ने ‘जन-संस्कृति’ कहा है. यह न अभिजन संस्कृति है और न सत्ता संस्कृति. यह संस्कृति दारा शिकोह के पहले थी और उसके बाद भी है. संगम संस्कृति ‘‘दारा शुकोह के बाद 19वीं सदी में 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम में दिखाई देती है और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता में भी.’’ (पृष्ठ 12) रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह कविता विश्व-प्रसिद्ध है –
‘‘हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे, जागो रे धीरे,
एई भारतेर, महामानवेर, सागर तीरे.
___
तारा मोर माझे, सबाई विराजे, केहो नहे नहे दूर,
अमार शोणिते, रयेछे ध्वनित, तारि विचित्र सूर.
अब कोई नहीं समझता कि सब के सब मेरे भीतर ही विराजमान हैं. मुझसे कोई भी दूर नहीं है. मेरे रक्त में सबका रक्त है और मेरे स्वर में सबका स्वर ध्वनित हो रहा है.’’ (पृष्ठ 13 पर उद्धृत) रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी का नाम – जाप शासक-वर्ग भी करता है, जो यह नहीं जानता कि गांधी ने जिस संस्कृति की बात कही है, वह संगम-संस्कृति ही है. “रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद महात्मा गांधी ने संगम-संस्कृति को अपनाया और उसे स्वाधीनता-आन्दोलन के संचालन का मंत्र बनाया. उनके परम प्रिय भजन – ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ में संगम-संस्कृति की प्रतिध्वनि सुनाई देती है.’’ (पृष्ठ 13)
संगम-संस्कृति पर विचार के साथ इसके ‘अभिप्राय’ को भी समझने की बात इस पुस्तक में कही गयी है. पाण्डेय जी अथर्ववेद के पृथ्वी-सूक्त, तमिल का संगम-काव्य सब का उल्लेख करते हैं और दारा की शहादत के बाद भी इस संस्कृति को समाप्त होते नहीं देखते. ‘‘दारा की हत्या के बाद भी संगम-संस्कृति के सोच-विचार का प्रभाव उर्दू शायरों के लेखन में बाद में भी व्यक्त होता रहा. उर्दू भाषा स्वयं संगम संस्कृति की देन है और उर्दू शायरी में संगम-संस्कृति की अभिव्यक्ति लगातार होती रही है और हो रही है.’’ (पृष्ठ 71) पाण्डेय जी ने नजीर अकबराबादी (1740-1830) को ‘भारत की संगम-संस्कृति का सबसे बड़ा शायर’ कहा है, और गालिब (27.12.1797-15.2.1869) की फारसी में लिखी मसनवी ‘चिराग-ए-दैर’ (मन्दिर का दीया) के दस शेरों का हिन्दी अनुवाद दिया है –
‘‘प्रत्येक रुत में बनारस की फ़ज़ा
‘जन्नत-नजर’
मालूम होती है.’’
__
बनारस
आस्थावानों का
इक पावन
इबादत ख़ाना है.
बेशक
यह हिन्दुस्तान का
काबा है.
वे हरबंस मुखिया के लेख ‘कबीर और तौहीद की पुनर्व्याख्या’ (तद्भव 38, नवम्बर 2018) से कई उदाहरण देकर ईश्वर और अल्लाह को एक दूसरे का पर्याय बताते हैं. दारा शुकोह पर लिखते समय वे यह बताना नहीं भूलते कि संगम-संस्कृति को उर्दू-हिन्दी के अनेक कवियों-लेखकों ने अपनी रचनाओं के द्वारा आगे बढ़ाया है. आधुनिक काल में
‘‘इसकी शुरूआत भारतेन्दु और भारतेन्दु मण्डल के लेखकों से ही दिखाई देती है. साथ ही शिव प्रसाद ‘सितारे-हिन्द’, प्रेमचंद, निराला, शमशेर, दुष्यन्त कुमार, अदम गोंडवी आदि इस परम्परा में आते हैं. उपर्युक्त नाम केवल संकेत भर हैं. इस परम्परा में और भी बहुत सारे कवि-लेखक हैं.’’ (पृष्ठ 79)
नौ |
मैनेजर पाण्डेय का अध्ययन और चिन्तन का दायरा व्यापक है, जो उनकी इस किताब में भी है. दारा शुकोह ने जो भी लिखा और कहा है, उनमें से उनसे कुछ भी छूटा नहीं है. उन्होंने दारा द्वारा फारसी में लिखित कृषि-कला की पुस्तक ‘नुस्खा दर फन्नी फलाहात’ के संबंध में भी लिखा है. कब कौन पुस्तक कहाँ छपी, वे बताना नहीं भूलते. कृषि संबंधी अब ‘‘यह किताब अंग्रेजी अनुवाद सहित 2000 में सिकन्दराबाद से प्रकाशित है.’’ (पृष्ठ 20) इसके अंग्रेजी अनुवाद में शीर्षक के बाद ‘द आर्ट ऑफ एग्रीकल्चर’ है. एशियन एग्रो हिस्ट्री फाउंडेशन ने इसे अंग्रेजी में फारसी पाठ के साथ प्रकाशित किया है.
‘‘इस फारसी पुस्तक में भारत में पैदा होने वाले विभिन्न फलों, सब्जियों और अनाजों के पैदा करने के तरीकों का ब्योरा दिया गया है… एक प्रकार से यह किताब कृषि के इतिहास की किताब है… यह किताब लिखकर उसने यह साबित किया कि वह उत्पादक वर्ग और उसके श्रम-संबंधी कामों को भी ठीक से जानता था और उनकी कृषि-संबंधी गतिविधियों में मदद करना चाहता था.’’ (पृष्ठ 21)
इस पुस्तक के पहले उन्होंने अनेक स्थलों पर ‘दारा शुकोह’ न लिख कर ‘दारा शिकोह’ लिखा है. पुस्तक में वे इस नाम पर विचार करते हैं. ‘शुकोह’ और ‘शिकोह’ में अंतर है. स्वयं दारा ने भी कोई एक नाम नहीं लिखा है – ‘
‘उसने सफ़ीनतुल औलिया में अपना नाम दारा शीकूह लिखा है…. समुद्र-संगम में अपना नाम वीतराग दारा शुकोह लिखा है… राकेश गुप्ता ने ‘जहाँगीर नामा’ के आधार पर दारा का नाम शुकुह लिखा है. अंग्रेजी में दारा पर लिखित किताबों में दारा शुकोह (गोपाल गांधी) दारा शिकूह (हसरत) और दारा शिकोह (कानूनगो) आदि नाम है.’’ (पृष्ठ 41-42)
‘शिकोह’ का अर्थ भय, त्रास या डर’ है और ‘शुकोह’ का शानो-शौकत या रोब-दाब.’’ (पृष्ठ 41) हिन्दी में प्रचलित और लोकप्रिय ‘शिकोह’ है, पर फ़ारसी के अनुसार सही नाम दारा शुकोह है, इसीलिए हमने इस किताब में ‘दारा शुकोह’ नाम का ही प्रयोग किया है (पृष्ठ 42) इस लेख में ‘शिकोह’ और ‘शुकोह’ दोनों नामों का प्रयोग किया गया है. जिसने ‘शिकोह’ लिखा, वहाँ ‘शिकोह’ है और जहाँ ‘शुकोह’ है, वहाँ शुकोह है.
मैनेजर पाण्डेय रामविलास शर्मा के बाद अकेले ऐसे सार्थक और महत्वपूर्ण आलोचक हैं, जिन्होंने कई रूपों में उनके कार्य को आगे बढ़ाया है. दारा शुकोह पर पुस्तक लिखने की प्रेरणा भी उनको डॉ. शर्मा से ही मिली. ‘
‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ (1999) के दूसरे खण्ड में दारा शिकोह पर डॉ. शर्मा ने कई पृष्ठों में विचार किया है. वे दारा और औरंगजेब के बीच के संघर्ष को ‘दो संस्कृतियों की टक्कर’ और दारा पर औरंगजेब की विजय को ‘लोक धर्म पर रूढ़िवादी कर्माण्ड की विजय, पतनशील सामंतवाद की विजय’ कहते हैं. आज भी इन दो संस्कृतियों के बीच टक्कर जारी है. ‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’ पुस्तक केवल अकादमिक दृष्टि से नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण पुस्तक है. इस पुस्तक का उर्दू, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में शीघ्र अनुवाद होना चाहिए.
पुनश्चः |
मैनेजर पाण्डेय का निधन 6 नवम्बर 2022 को हुआ था. उस समय तक ‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’ पुस्तक लगभग तैयार हो चुकी थी, पर उन्होंने अपने जीवन-काल में इसकी पांडुलिपि प्रकाशक को नहीं दी थी. जीवित रहने पर, ऐसा मेरा अनुमान है कि वे एक बार पांडुलिपि अवश्य देखते और अख़लाक आहन को भी शायद दिखा देते. ऐसा न होने से पुस्तक में कुछ गलतियाँ और कमियाँ रह गयी हैं.
फ्रांसीसी लेखिका क्रिनीकी और एलिसन बुश की पुस्तक का पूरा नाम नहीं है और न रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘भारतीय संस्करण और हिन्दी प्रदेश’ के दूसरे खण्ड का उल्लेख है.
कुछ तथ्यात्मक भूल भी है. पुस्तक के पहले अध्याय ‘शहीद शाहज़ादा’ के एक उपशीर्षक ‘काफ़िर कौन था, दारा या औरंगजेब’ (पृष्ठ 36-38) में उन्होंने क़ुरआन की चार आयतों (2-256, 2-117, 10-19 और 14-4) के हिन्दी अनुवादक या लेखक का नामोल्लेख नहीं है. यह अनुवाद डॉ. विश्वम्भर नाथ पाण्डेय की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति’ के पृष्ठ 3, 4, 5 और 6 में है.
इसमें एक तथ्यात्मक भूल आयत 2-256 की है, जो 2-177 सही है. जहाँ तक अनुवाद का प्रश्न है, ये अनुवाद भी बहुत ठीक नहीं हैं. इसके आरंभ में पाण्डेय जी का यह कथन है –
‘‘क़ुरआन शरीफ़ में रोजा और नमाज़ की पाबन्दी नहीं दी गई है’’ (पृष्ठ 37)
अभी तीन-चार दिन पहले इस ओर शमीम उद्दीन अंसारी ने अपने एक पोस्ट से सबका ध्यान दिलाया है. उन्होंने इसे मैनेजर पाण्डेय की ‘स्थापना’ कहा है जो सही नहीं है. शायद पाण्डेय जी ‘पाँच बार’ लिखना चाहते थे, जो असावधानी से उनसे छूट गया. क़ुरआन में नमाज़ पढ़ने का समय– सुबह, दोपहर, शाम, सूरज के ढलने के बाद और रात निर्धारित है पर स्पष्ट रूप से किसी भी संख्या का उल्लेख नहीं है. अगर वे जीवित रह कर यह पांडुलिपि प्रकाशन के लिए देते, तो ऐसी गलती नहीं होती. इस पर शायद ही किसी को यकीन होगा कि वे ‘इस्लाम की बुनियाद और पाँच स्तंभों- तौहीद, नमाज़, रोजा, हज और ज़कात से अपरिचित रहे होंगे.
क़ुरआन शरीफ में ‘सलात’ शब्द कई बार आया है. वहाँ प्रत्येक मुसलमान, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उसे ताकीद के साथ नमाज़ पढ़ने का आदेश है. यह सही है कि कुरआन की कोई एक व्याख्या नहीं है. उसकी कट्टरपंथी व्याख्या के साथ सूफ़ी व्याख्या भी है. दारा शिकोह पर आरोप था कि वह रोजा नहीं रखता था और नमाज़ नहीं पढ़ता था.
कुरआन इस्लाम का पाक ग्रन्थ है. इसमें 14 सजदे, 114 सूरे (सूरह) और 6,666 आयतें और 77,439 वाक्य हैं. सूरहों को आयतों में बाँटा गया है. सबसे बड़ा सूरह अल बक़रा है, जिसमें 286 आयतें हैं और सबसे छोटा अल-कवथर है, जिसमें सिर्फ़ तीन आयतें हैं. प्रत्येक सूरह का विषय अलग है. कुरआन में ‘सलात’ शब्द बार-बार आता है. इस्लाम में नमाज़ पढ़ने को पुण्य और त्याग देने को पाप कहा गया है.
नमाज़ के लिए कुरआन में ‘सलात’ शब्द है. ‘नमाज़’ शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में एक मत यह है कि यह संस्कृत ‘नमस’ से निर्मित है, जिसका प्रथम प्रयोग ऋग्वेद में है और जिसका अर्थ आदर या भक्ति में झुकना है. आवश्यक नहीं है कि यह अर्थ सबको स्वीकार्य ही हो. क़ुरआन में रोजा का कई सूरे और आयतों में जिक्र है.
सूरह 2 में 8 बार, 4 में 3 बार, 5 में 4 बार, 6 में 2 बार, 7 में 1 बार, 8 में 2 बार, 9 में 5 बार, 10 में 1 बार, 11 और 13 में 1-1 बार, 14 में 3 बार, 17 में 1 बार, 19 में 2 बार, 20 में 3 बार, 21 में 1 बार, 22 में 4 बार, 23 में 2 बार, 24 में 2 बार, 27 में 1 बार, 29 में 1 बार, 30 में 1 बार,31 में 2 बार, 33 में 1 बार, 35 में 2 बार, 42 में 1 बार, 58 में 1 बार, 62 में 2 बार, 70 में 2 बार, 73 में 1 बार, 98 में 1 बार और 109 में 2 बार ‘सलात’ (नमाज़) का जिक्र है. संभव है, इसमें गलतियाँ हों क्योंकि यह जानकारी दो-चार दिनों के भीतर इस्लाम को जानने-समझनेवालों और ‘क़ुरआन’ के गंभीर अध्येताओं से प्राप्त की गयी है.
मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘दारा शिकोह’ को जो गुनीजन ‘आधी-अधूरी’ कह रहे हैं, उन्होंने पूरी पुस्तक नहीं पढ़ी है. हिन्दी में बिना पढ़े और सोचे-समझे कुछ भी कह देने और लिख मारने का एक अद्भुत चलन है, जिसकी जगह फेसबूक है. पाण्डेय जी सरमद, मियाँ मीर और उस समय के सूफ़ी संतों पर किताब नहीं लिख रहे थे. कुछ भद्रजन उनमें ‘विद्वता और चिंतन’ का अभाव भी देखते हैं और उन्हें ‘ओवर रेटेड’ कहते हैं. ऐसे लोगों की भीड़ फेसबूक पर अधिक है.
यह किताब केवल पठनीय ही नहीं, ‘संग्रहणीय’ भी है. यह ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के दौर में लिखी गयी पुस्तक है. जो पाठक और आलोचक इसे किनारे कर बातें करेंगे, हम उन्हें किधर खड़ा देखें? गंभीरता से कहने और लिखने के लिए किसी भी किताब को गंभीरता से पढ़ना और समझना जरूरी है. शमीम उद्दीन अंसारी का एक आरोप ‘आख़िरत’ के अर्थ को लेकर है, जो पुस्तक में ‘कर्मों का फल’ है. पाण्डेय जी ने यह अर्थ भी विश्वम्भर नाथ पाण्डेय की पुस्तक से ही लिया है. मद्दाह के शब्द कोश में ‘आख़िरत’ का अर्थ है- ‘परलोक, यमलोक, उक़्व, अंत, अखीर, परिणाम, नतीजा’. सब कुछ तो ‘कर्मों का ही फल’ है.
इस पुस्तक में जिन्हें गलतियाँ दिखाई दें, वे प्रकाशक का इस ओर ध्यान दिलायें, जिससे अगले संस्करण में सभी भूलों को सुधारा जाय. इन कुछ कमियों और भूलों से इस पुस्तक का महत्व नहीं घटता. ‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’ का अकादमिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से अधिक महत्व है.
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17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन. ‘फ़ासीवाद की दस्तक’, ‘बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी’ ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें प्रकाशित. |
गहन अध्ययन के बाद लिखा गया आलेख.
दारा शिकोह के बारे में अच्छी जानकारी मिली.
बहुत महत्वपूर्ण और सुचिंतित निबंध।मैनेजर पांडेय कृत दाराशिकोह पढ़ने की जिज्ञासा जगाती है।रविभूषण जी की आलोचना विविध आयामों को जोड़ते हुए किसी केंद्रीय तत्व की खोज करती है।इस जरूरी निबंध के लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई।
प्रो मैनेजर पांडेय की यह पुस्तक एक ऐतिहासिक अभाव की पूर्ति करती है।आज भारत को दारा शुकोह के संगम दर्शन की सख्त ज़रूरत है।कार्लोस फूयन्ते का यह कथन कि इतिहास जिनकी हत्या करता है कला उनको जीवन देती है, सच होता प्रत्यक्ष दिखता है।आततायी औरजंगजेब इतिहास के नर्क में दर्ज है,जबकि दारा की प्रशस्ति दिन-ब-दिन बढ़ रही है।रविभूषण जी ने जिस मनोयोग और उद्यम से इसे प्रस्तुत किया वे बधाई के पात्र हैं।
मैनेजर पाण्डेय जी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक पर आदरणीय रविभूषण जी ने पूरे मनोयोग से लिखा है.साधुवाद.
संयोग ही है कि इन दिनों दारा शुकोह को पढ़ रही हूं। ‘कितने पाकिस्तान‘ में कमलेश्वर की नजर से दारा शुकोह के देखने के बाद मैनेजर पाण्डेय जी को पढ़ना भारत की सामासिक संस्कृति को जानना और नफरती ताकतों के मनोविज्ञान को समझना है। बारूद के ढेर पर बैठे हमारे आज के समय के लिए दारा की संगम-संस्कृति बेहद जरूरी हो गई है।