उपन्यास और सांस्कृतिक प्रतिरोध
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‘गूँगी रुलाई का कोरस’ रणेन्द्र का तीसरा उपन्यास है, जो उनके पिछले दोनों उपन्यासों- ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ और ‘गायब होता देश’ के बाद, अपने कथ्य की दृष्टि से नए अनुभव-प्रदेश की उनकी चिन्ताओं से हमारा साक्षात्कार कराता है. लेखक के पिछले दोनों उपन्यासों को पढ़ चुकने पर यह तो कहा ही जा सकता है कि उनकी कथा-दृष्टि नितांत मौलिक और स्वतन्त्र है तथा कथा-शिल्प-संवेदना व्याकुल और परिवर्तनकामी. सभ्यता के विकास, उसकी मानव विरोधी यात्रा, नयी उड़ान लेता वर्चस्ववादी बाज़ारवाद और जड़ें फैलाता एकाधिकारवाद- ख़ासतौर से आदिम जनजातियों की भोली-भाली आबादियों को उनकी अपनी ही जमीनों से क्रूरतापूर्वक बेदखल कर उनके आस-पास की प्राकृतिक संपदाओं का नृशंस दोहन और उसके आड़े आने वाले जुझारू व्यक्तित्वों को अपने रास्ते से हटाकर उन्हें सभ्यता के कूड़ेदान में डाल देने की उसकी रणनीतियों और षड़यंत्रों का बेख़ौफ़ बयान करते हुए कथाकार रणेन्द्र की कलम न तो कभी हिलती है और न शब्द कभी भयाक्रान्त ही होते हैं. यह रणेन्द्र का निर्द्वन्द्व साहस-बोध ही कहा जायेगा कि वे अपने अनुभवों के सत्य को अपने लेखन का पहला और अन्तिम धर्म मानते हैं और उसके लिए किसी भी खतरे तक जाने को तैयार मिलते हैं.
जिन भी लोगों ने लेखक का ‘गायब होता देश’ पढ़ा होगा वे इस बात से सहमत होने में कोई हिचक महसूस नहीं करेंगे कि ऐसा लेखन करते हुए लेखक ने कितने और किस कोटि के साहस से काम लिया है.
मुक्तिबोध ऐसे ही लेखन को कभी ‘अभिव्यक्ति का खतरा’ उठाने वाला लेखन कहते थे. एक ऐसा लेखन जिसमें लेखक को चेतना विभ्रन्ति को उस खतरनाक यहाँ तक कि असुविधाजनक सच को कहने का साहस पूर्ण जोखिम उठा सके. प्रेमचन्द ने ऐसा ही साहस कभी ‘सोज़ेवतन’ की कहानियाँ लिखकर किया था. बाद के कभी कई लेखकों-कवियों ने इस परम्परा को जीते हुए ऐसा किया और तरह-तरह से प्रताड़ित और दण्डित भी किए गए.
अपने तीसरे उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ में वे फिर एक ऐसे ही अनुभव-बोध को लेकर आते हैं जो इस देश के रक्त में इन दिनों किसी जहर-सा प्रवाहित हो रहा है और सामाजिक जीवन की सामूहिकता और सांस्कृतिक बहुलता और भाई-चारे के विरूद्ध तमाम तरह की हिंसक योजनाएँ और रणनीतियाँ बनाकर उस राष्ट्रीय जीवनधारा के हौसले को तोड़ डालने पर आमादा है, जिनसे कोई राष्ट्र अपनी संजीवनी प्राप्त करता है. इन दिनों यह समझाने या बताने की भी जरूरत नहीं बची कि यह देश पिछले दो-तीन दशकों से कैसी भयावह हवाओं की चपेट में है जो इसके सघन और गाढ़े ताने-बाने को कैसे तार-तार कर रहा है.
अपनी शर्मनाक चुप्पियों, सहिष्णुताओं और सड़ाँध मारती कथित सफलताओं के मुगालतों में जीते हुए ऐसे लोगों के बीच जब कोई एक लेखक अपने समय की ऐसी नंगी सच्चाइयों से आँखें मिलाने पर आमादा हो उठता है तब एक ऐसी शब्द-संस्कृति जन्म लेती है, जो अपने समय के तमाम चालू फैशनों, साहित्यिक मुहावरों और सफलताकामी लेखनों को बगैर कुछ कहे कटघरे में खड़ी कर देती है. ऐसा किन्तु तभी संभव हो पाता है जब लेखक का इतिहास-बोध ही नहीं, दायित्व-बोध भी दुविधा मुक्त और समर्पण शील हो. लेखक अपने समय के तमाम अवसरवाद से स्वयं को मुक्त रख उस विरल साहस का परिचय दे सके, जो सत्य का पक्षधर और लोक-संचारी हो.
रणेन्द्र हमारे समय के ऐसे ही एक कथाकार हैं जिनके शब्दों को अपने समय के त्रास और आतंक युक्त अँधेरों से आँखें मिलाना आता है. ऐसा वे किस बल पर कर पाते हैं, कोई अगर यह पूछे तो कहना चाहूँगा की अपनी उस अनन्य लोकभक्ति के बल पर जो किसी भी लेखक को वह दृष्टि देती है जिसकी रोशनी में जमाने की नंगी हकीकतों का चेहरा साफ-साफ दिखता है. ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ शीर्षक अपने नये उपन्यास में वे हमें न केवल सचेत करते हैं बल्कि हमारी मूर्छित होती जाती संवेदनाओं और डगमगाती आस्थाओं को होश में लाने और राह दिखाने की पहल भी करते हैं, जिससे लोक जीवन की मर्यादाओं की रक्षा और उसका संरक्षण भी संभव की जा सके.
‘गूँगी रुलाई का कोरस’ यों तो अपनी रूपकात्मकता में त्रासकारी वेदनानुभूति का करुण-संगीत लिए हुए आता है किन्तु कथाकार ने समूचे कथानक को जिस भावनात्मक ताप में तपाकर रचा और परोसा है उसमें हिंसक समय और संकल्पधर्मी रचनात्मक जीवन की आवाजाही, भयावह मुठभेड़ों से होकर गुजरती है. समय यहाँ अपनी समूची नृशंस क्रूरता और अमानवीय चेहरे के साथ यदि मौजूद है तो जीवन अनेक प्रकार के घातों-प्रतिघातों से लहूलुहान और क्षत-विक्षत होता हुआ भी अपनी दुर्गम अपराजेयता का जयगान कर रहा है. संभवतः यही इस उपन्यास का सार वक्तव्य है. तभी तो यह शुरू होता है कमोल कबीर की हत्या से शोकाकुल शब्बो भाभी की अम्मीजान की करूण रुलाई से और समाप्त होता है इन शब्दों और संकल्पों से-
“दंश तो शब्बो भाभी ने भी कम नहीं सहा था. किन्तु उन्होंने सारे विष को पचाना सीख लिया था. समझ लिया था कि पहचान की राजनीति केवल घृणा और घृणा को ही जन्म देती है जिसकी हिंसा की आग हर कहीं, हर किसी को झुलसा रही थी. लेकिन…….. दिन के चौथे पहर मांमोनी की तीसरी मंजिल की कोठरियाँ तानपूरे की झंकार से गूँजने लगीं. ‘शिउड़ी-जुटान’ के लिए रियाज़ जरूरी था.”
उपन्यास के अन्तिम पृष्ठ पर दर्ज़ इन शब्दों से यह तो जाहिर हो ही जाता है कि हिंसा और घृणा पर पलती-पुसती और जीती पहचान की यह राजनीति ही इस उपन्यास की मूल कथा-वस्तु है जिसे कथाकार ने एक ऐसे कथानक में बाँधा है जो अबतक गंगा-जमुनी आबोहवा को जीता आया है और जिसमें धर्म, जाति और अन्य तमाम सँकरे विभेद और बँटवारे बेमानी साबित होते रहे हैं. आजादी के संघर्ष वाले दिनों में गांधी और उनके संगी-साथियों ने इसे और भी मजबूत करने का उद्यम किया. वहीं प्रेमचन्द जैसे उर्दू-हिन्दी के लेखकों ने इस मुद्दे पर अपनी चिन्ताएँ और समझ को साझा करते हुए अपना भरपूर समर्थन दिया. उन्हें लिखा कि हमारे ख्याल से संस्कृति के दो रूप हैं. एक बाह्य जगत से सम्बन्ध रखने वाली, दूसरी अन्तर्जगत से. बाह्य संस्कृति का सम्बन्ध भाषा, पहनावा, शिष्टाचार, शादी-व्यवहार आदि से है. आन्तरिक सम्बन्ध धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों से. इस कसौटी पर कसें तो हिन्दू और मुस्लिम जनता की जीवन-धारा में कोई खास विभेद नहीं दिखाई देता. प्रेमचन्द लिखते हैं-
‘दोनों धार्मिक हैं, दोनों भाग्यवादी हैं, शांतिप्रिय और संतोषी हैं. अच्छाइयाँ-बुराइयाँ भी दोनों में समान हैं. इसलिए मिल-जुल कर न रहने के पीछे कौन से कारण हो सकते हैं.’
पर हम जानते हैं आजादी पूर्व के ही दिनों में इस देश में पहचान की राजनीति की यह विचारधारा धीरे-धीरे भी यहाँ के लोगों की चेतना में रोपी गई जो विघटनकारी थी. उपन्यासकार मानता है कि गांधी और उनके आन्दोलन के सामने यद्यपि यह विचारधारा तब ज़ोर पकड़ नहीं पाई पर अवसर पाकर इस देश के दुर्भाग्य से वही विचारधारा आज एक छतनार जहरीले पौधे का रूप लेकर समूचे राष्ट्रीय जीवन और उसके भाई-चारे वाले सामूहिक जीवन के विनाश पर उतर पड़ी है.
पहचान की यह राजनीति क्या है, उपन्यास इसकी बखूबी पहचान कराता है. बी.बी. गुप्ता यानी बजरंग बिहारी गुप्ता की सुआर्यन जागरण सेना, भगवान कच्छप रक्षक संघ, सुआर्यन कम्प्यूटर ट्रेनिंग एकेडमी, राष्ट्रवादी छात्र संघ के साथ-साथ इसी धार्मिक उन्माद का हिस्सा बन उठ खड़े हुए मुस्लिम युवकों का संगठन- ’यूथविंग ऑफ पोपुलर फ्रन्ट ऑफ इन्डिया’ उपन्यास में ऐसी ही शक्तियाँ हैं, उपन्यास जिनके चेहरों और लोकविरोधी गतिविधियों का परिचय अपने पाठकों से कराता है. उपन्यास के एक सौ बारहवें पृष्ठ पर शब्बो के अब्बू अपनी परेशानियों और महीनों की खामोशियों को तोड़ते हुए कमोल से शेयर करते हैं- “दरअसल यह संस्थाएँ सुआर्यन के लिए मुखौटे हैं जिनका एक खास नज़रिया है. ख़ास तरह के ख़्याल का सिलसिला, जो एक नस्ल और एक ही मज़हब के नेशन-स्टेट को मुकम्मल शक्ल देना चाहता रहा है. कुछ-कुछ इस्लामिक देशों की तरह जिनके यहाँ साझी तहज़ीब और मिली-जुली विरासत की बात करने वालों को ये अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं. इन्होंने मज़हब और सियासत को फेंटफाट कर एक बड़ा ज़हरीला मिक्सचर तैयार किया है. यह अपनी सुविधा से कभी मज़हबी, कभी सियासी हो जाते हैं. और सारे मज़हबों और अलग फिलासफी-अलग नज़रिये को इज़्ज़त बख़्शने की इस देश की पुरानी तहज़ीब और उसकी रूह़ को ही गलत साबित करने पर तुले हैं.
विडम्बना यह कि ऐसी उदार और मानवीय दृष्टि वालों को ये स्वदेशी मानने को तैयार नहीं दिखते. उल्टे ये इसे सेकुलर और विदेशों से उधार माँगी विचारधारा मानते हैं. जबकि, बरखुदार, उल्टे इनके पुरखों में से एक ने 1931-32 में रोम की यात्रा की थी और इटली से नेशन और जर्मनी से नस्ल के मिथ को उधार माँग कर लाया था. वही यूरोप की ख़ास नेशन-स्टेट का फलसफा, जिसकी बुनियाद एक नस्ल, एक भाषा और एक मज़हब पर खड़ी थी और जिसके लिए एक स्थायी दुश्मन होना जरूरी शर्त था. यानी जो हमारे मज़हब और नस्ल का न होकर ‘अन्य’ है.”
यह खुलासा कर चुकने पर भी उपन्यास यहीं रूक नहीं जाता. वह हमारे अपने इस समय में भी लौटता है-
“अब्बू ने बात आगे बढ़ाई…… दिक्कत है कि इस देश में आज़ादी की लड़ाई और आज़ादी मिलने के बाद उसके गढ़ने के जुनून में इस नज़रिये को कुछ खास तवज्जोह नहीं मिली. विदेशी पौधा इस देश की मिट्टी पकड़ नहीं पा रहा था. किन्तु अब वक्त बदल गया है. वह जहरीला पौधा छतनार गाछ में तबदील हो गया है.”
समूचा उपन्यास अपनी अप्रतिहत जिजीविषा के बावजूद इसी गहरी राष्ट्रीय चिन्ता में डूबा हुआ है. प्रकारान्तर से वह अपने पाठकों को उन तमाम आसन्न खतरों से आगाह भी कर रहा है जो इस देश के आसमान पर विकराल मेघों की तरह छाते जा रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं कि पहले भी ऐसी विनाशकारी-सत्ता-राजनीति यहाँ हुई है और देश के सघन ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की गई है. सच यह भी है कि इस देश ने ऐसी शक्तियों को झेला और भुगता भी खूब है. उपन्यास में यथास्थान इसके हवाले भी हैं. किन्तु हम जानते हैं इस देश ने न तो कभी हार स्वीकार की न किसी प्रकार का कोई गर्हित और अपमानजनक समझौता ही कभी स्वीकार किया. हम जानते हैं मनुष्य और मनुष्यता से ऊपर और बढ़कर यहाँ किसी अन्य दृष्टि को ऐसी स्वीकृति कभी मिल नहीं पाई. ऐसा भी नहीं कि यह देश सदैव किसी एक ही विचारधारा को जीता रहा तथापि अन्यान्य विचारधाराओं और परस्पर असहमत जीवन-दृष्टियों के बीच इसने अपने जीने की जो कला सतत विकसित की, वही इसकी आधारभूत पहचान बनी. याद करें तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसकी इसी कालजयी पहचान की याद दिलाते हुए गीतांजलि के अपने एक गीत में इसे महामानवों का सागर तीर कहते हुए इस सांस्कृतिक विविधता की महत्ता को रेखांकित किया. अनेक धर्मों और जातियों, पूजा-पद्धतियों और सम्प्रदायों की ऐतिहासिकता की याद करते हुए उन्होंने उसी गीत में एक यह अमर पंक्ति भी लिखी- ‘एक देह होलो लीन’. सब के सब एक देह और एक प्राण होते चले गए.
उपन्यास और उपन्यासकार की मंशा अगर कुछ है तो यही है. किन्तु इस मंशा को अपनी संकीर्ण राजनीति के लिए स्थायी चुनौती मानने वाली, ‘अपने’ से ‘अन्य’ के प्रति घृणा और हिंसा को लेकर पनपी ‘पहचान की राजनीति’ ने जो करतब नस्लवाद और राष्ट्रवाद के बैनर तले अब दिखाना शुरू किया है, उपन्यास उसकी कठोर आलोचना करता है.
एक अन्य रूप में यह उपन्यास एक गम्भीर राष्ट्रीय विमर्श भी है कि इस देश और समाज के लिए क्या सचमुच सेहतकारी है. इसके लिए लेखक ने जो कथानक चुना और निर्मित किया है, वह अपने मूल चरित्र में सांस्कृतिक है. ‘मौसीकी मंजिल’ और ‘शिवड़ी जुटान’ के वे सारे चरित्र- उस्ताद महताबुद्दीन खान, नानू उस्ताद अय्यूब खान, सुर सरस्वती रागेश्वरी देवी (अम्मू), उनके पति उस्ताद ख़ुर्शीद शाह जोगी, बेटी शबनम के. खान (शब्बो) और उसके बाउल पति कमोल कबीर दोनों की बेटी बुलबुल है जिन्हें यहाँ केन्द्रीयता मिली हुई है. यह भारतीय संगीत का वह घराना है, जो इस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को जीता हुआ, साथ ही उसकी सुखद और मनोहारी पहचान कराता हुआ, उस जीवन-प्रवाह की याद दिलाता है जिसे यह देश सहस्राब्दियों से जीता आया है.
पर इसी कथानक का एक वह दूसरा चेहरा भी है जो सुआर्यन जागरण सेना, भगवान कच्छप रक्षक संघ, राष्ट्रवादी छात्र संघ और हरे झंडे वाले यूथ विंग ऑफ पोपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के बी.बी. गुप्ता ‘डेली एक्सप्रेस’ के सम्पादक श्रीवास्तव आदि का है. हम इसे कथानक का चाहें असद् पक्ष तो कह सकते हैं.
कथानक की एक खास घटना गुप्ता की पत्नी कालिन्दी का उनसे तलाक लेकर मौसिकी-मंजिल की शब्बो के साथ आ खड़ा होना है. जो उन्हें तलाक देकर इस तरह वह उनकी विचारधारा के प्रति न केवल अपना प्रतिवाद दर्ज़ करती है बल्कि इससे भी आगे बढ़कर ‘शिउड़ी जुटान’ की तैयारियों में जुटी ‘शब्बो’ के साथ आ खड़ी होती है, अपनी समूची संकल्पधर्मिता के साथ. इसे कथानक का एक खूबसूरत नाटकीय मोड़ ही कहना होगा. समूचा कथानक अपनी अघोषित नाटकीयता के बावजूद जिस विषादपूर्ण तनाव को लिए हुए आगे बढ़ता है, वह हमारे पुराने और पारंपरिक मिथकीय महाकाव्यों की याद दिलाता है, जिनमें सद्-असद्, धर्म और अधर्म, जैसे प्रतिद्वन्द्वी पक्षों के रूप में आमने-सामने हैं. कथाकार ने इसे अपने समय के सवालों से जिस तरह गूँथकर रचा है, उससे यह समसामयिक जीवन यथार्थ का दस्तावेजी चेहरा भी बन गया है. एक ऐसा चेहरा जिसे यह समय शायद ही देखना चाहे. हाँ! इसकी विरूपता पर एकजुट होकर सोचना वह जरूर चाहेगा. लेखक ने पाठकों को यहाँ जो हिन्दुस्तानी संगीत का सांस्कृतिक मंच मुहैया कराया है, वहाँ जाति, धर्म, गोत्र और वर्ण ही नहीं, तमाम तरह की सांप्रदायिकताएँ और राजनीतिक संकीर्णताएँ बेमानी हो उठती हैं.
साझी-संस्कृति की रचनाधर्मिता और सौन्दर्य लिए यह रचना राष्ट्रीय जीवन में एक सनातन मूल्य की तरह हमारे सामने आती है. कथानक जब-तब जरूरत से ज्यादा मुखर जरूर हो गया है और कई पृष्ठों से गुजरते हुए लगता है जैसे हम पुराने अखबारों की कतरनें पढ़ रहे हों पर यह सब अप्रासंगिक तो फिर भी नहीं हैं. शायद यह लेखक की अति संवेदनशीलता के चलते हो, जो प्रायः ऐसी स्थितियों में अनचाहे भी घटित हो जाती है.
बावजूद इस सबके मुझे यह कहना जरूरी लग रहा है कि हमारे अपने इस समय में यह उन तमाम लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण किताब है जिनका भरोसा इस देश की साझी संस्कृति में है और जो इस अटूट जीवन धारा को समय के तमाम झंझावातों के बावजूद बचाना और जीते रहना चाहते हैं.
ऐसा भी नहीं कि इस मुद्दे पर ऐसा कोई लेखन पहले कभी हुआ ही नहीं है, यह कहना तो तथ्य संगत न होगा पर इस कृति के लेखक ने समूची कथावस्तु को अपनी जिस कल्पना शक्ति और भावभिव्यंजना से रचा और प्राणमय बनाया है, उसमें उत्तर-भारत के विलुप्त होते जाते जोगियों और बंगाल के बाउलों का सम्मिलित जीवन-संगीत ही नहीं, उनका जीना और रहना, उठना-बैठना, बोल-चाल, खान-पान भी अपनी खूबसूरती दर्ज़ करता चला गया है. किसी भी उपन्यासकार का यह विशिष्ट उपहार और योगदान ही माना जाना चाहिए कि उसने एक भाषा-समाज के पाठकों को किसी पड़ोसी भाषा और संस्कृति से लगे हाथ परिचय कराते हुए न केवल नवीनता परोसी हो, बल्कि उनके दिन-प्रतिदिन एकरस और बासी होते जाते जीवन-स्वाद में एक और इजाफा-सा कर दिया हो. इतना ही क्यों, हम पाठक चाहें तो लेखक का यह उपकार भी मान सकते हैं कि उसने हमें अपने उस पारंपरिक जातीय संगीत के बीच भी ला खड़ा किया है, जो हमारी जातीय धरोहर रहा है.
उपन्यास में जिस कथा-भाषा का प्रयोग किया गया है, वह कितनी काव्यमयी है, कितनी संगीतमयी इसका अनुभव तो पाठक करेंगे ही, वे भारतीय संगीत, उसकी राग-रागिनियों, उसे साधने वाले कंठ और इस-सिद्ध गायकों की जीवन-कथा में भी शामिल होने का अवसर यहाँ सहज ही पा लेंगे.
अपने समय के विपदापूर्ण यथार्थ को प्रतिबिम्बित करने के लिए लेखक ने जैसी वस्तु-योजना की है, उसकी सटीकता तो असंदिग्ध है ही, उसकी समूची प्रस्तुति भी निर्दोष और प्रभावकारी है और इस सबसे भी महत्वपूर्ण है अपराजेयता का वह कालजयी संदेश जिसे शायरी की भाषा में- अपना पैगाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुँचे- कह दिया जाता रहा है.
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विजय बहादुर सिंह (जन्म: 1940) कवि-आलोचक हैं, और कई लेखकों की रचनावलियों के संपादक रहें हैं. मौसम की चिट्ठी, पतझर की बाँसुरी, शब्द जिन्हें भूल गई भाषा, भीमबैठका आदि उनके कविता-संग्रह हैं.प्रसाद, निराला और पंत, नागार्जुन का रचना संसार, नागार्जुन संवाद, उपन्यास समय और संवेदना, महादेवी के काव्य का नेपथ्य आदि उनकी चर्चित आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. |
This book presents the content & structure as objectively as possible. And the book was written in relation to prior research on the topic. Warm Regards.
इस सुंदर उपन्यास पर विजय बहादुर सिंह की सुंदर समीक्षा के लिए समालोचन को बधाई
विजय बहादुर सिंह जी की शानदार समीक्षा, उपन्यास को पढ़ने के लिए प्रेरित करती…
बहुत बृहद् विस्तृत समीक्षा…..आज के दौर में ऐतिहासिक महत्वपूर्ण लेखन गूंगी रुलाई का कोरस…
साहसिक लेखन ऐतिहासिक महत्व को समृद्ध करने वाला दस्तावेज गूंगी रुलाई का कोरस 🙏🙏
शानदार समीक्षा है सर!
‘गूंगी रुलाई का कोरस’ वाकई बेहतरीन उपन्यास.
एक शानदार उपन्यास की शानदार समीक्षा
विजयबहादुर सिंह हमारे समय के सबसे सक्रिय आलोचक है । रणेंद्र पर लिखी उनकी समीक्षा इस बात की गवाह है ।
क्या प्रतिरोध की अवधारणा को परिभाषित किया जा सकता है? यदि हाँ तो किस रूप में . कृपया स्पष्ट करें .