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समालोचन

Home » मैला आँचल: लोकवृत्त  का कथा-आख्यान: कमलानंद झा

मैला आँचल: लोकवृत्त  का कथा-आख्यान: कमलानंद झा

कालजयी कृतियों के समय के साथ नए आयाम सामने आते रहते हैं. जो संकेत लेखक ने छोड़े थे वे घटित होने लगते हैं. 2021 फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मशताब्दी वर्ष था, इस आयोजन में हिंदी की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाएँ शामिल हुईं थीं. ‘आलोचना’ ने महत्वपूर्ण कथाकार रणेन्द्र का 'मैला आंचल' पर एक लेख प्रकाशित किया था जिसके कुछ निष्कर्षों से आलोचक कमलानंद झा की असहमति है. प्रस्तुत आलेख इसके साथ ही ‘मैला आँचल’ को देखने की नवीन दृष्टि भी प्रस्तावित करता है.

by arun dev
October 21, 2022
in आलोचना
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मैला आँचल: लोकवृत्त  का कथा-आख्यान:  कमलानंद झा
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मैला आँचल: लोकवृत्त का कथा-आख्यान

कमलानंद झा

मैला आँचल का रणेन्द्र पाठ

इसे विडंबना कह लीजिये या पत्रिका की व्यापक और निरपेक्ष उदार दृष्टि कह लीजिये कि जिस ‘आलोचना’ के आरंभिक 15वें अंक ने कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु को मैला आँचल के वैशिष्ट्य के कारण आकाश चढ़ा दिया उसी ‘आलोचना’ के 64 वें अंक (जनवरी-मार्च 2021) ने मैला आँचल के लेखक रेणु को वर्णवादी, आदिवासी ग्रंथि से ग्रस्त, जमींदारों का पक्षधर उपन्यासकार सिद्ध किया है. मैला आँचल की पहली समीक्षा नलिनविलोचन शर्मा ने की थी और उन्होंने इस उपन्यास को गोदान के बाद का सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास कहा था. इस समीक्षा ने ‘रातों रात’ रेणु को प्रसिद्ध उपन्यासकार बना दिया. यह समीक्षा आलोचना के 15वें अंक में प्रकाशित हुई थी.

आलोचना के चौंसठवें (जनवरी-मार्च 2021) अंक में उपन्यासकार रणेंद्र का ‘रेणु के कथा गायन का सौंदर्य और सीमाएँ’ नाम से एक विस्तृत और विवादास्पद आलेख प्रकाशित हुआ है. इस आलेख में रणेंद्र ने रेणु के उपन्यास विशेषकर मैला आँचल पर कई आपत्तियाँ दर्ज की हैं. इन आपत्तियों को देखकर यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे बिलकुल निराधार हैं. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि किसी उपन्यास का ‘पाठ’ इस कदर नहीं किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए मैला आँचल में संथाल आदिवासियों की सचेत उपस्थिति है. उनका संघर्ष, उनकी संस्कृति और ग्रामीणों से उनके जीवन-संबंध उपन्यास का संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण हिस्सा है. लेकिन रणेंद्र को रेणु का आदिवासी चित्रण सर्वथा अनुचित और विडम्बनापूर्ण लगता है. आदिवासियों के प्रति रेणु के पूर्वाग्रह को दर्शाते हुए वे लिखते हैं,

“मैला आँचल के काव्य और कथानक को गत्यात्मकता प्रदान करने में लगभग हर टोले का कोई न कोई पात्र अपनी व्यक्तित्व की सम्पूर्णता; उसकी अछाई बुराई, सुख-दुख, ईर्ष्या-द्वेष, कामुकता-सामुदायिकता के साथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वहीं गाँव का सन्ताल टोला बस अपनी मांदर की मादक आवाज़, संतालियों के बीच नाच और हँसी, महुआ रस और तीर के लिए याद किया जा रहा है. संताल टोले का एक भी मुकम्मल पात्र नहीं है जिसके व्यक्तित्व की सम्पूर्णता की झलक पाठक पा सके.”[i]

संथाल आदिवासियों का बटाईदारी आन्दोलन मैला आँचल का महत्त्वपूर्ण आकर्षण है. संथाल पूरी आक्रामकता और पराक्रम के साथ लड़ते हैं, किन्तु जमींदारों ने शातिराना ढंग से उन्हें पराजित कर दिया. उपन्यास में चित्रित इस लड़ाई के बाबत रणेंद्र लिखते हैं,

“मैला आँचल में भी इस बाबत उनकी लेखनी सकुचाती और परदेदारी करती दिखती है.[ii]

संथालियों के बटाईदारी आन्दोलन के स्वर्णिम इतिहास को दर्ज करते हुए वे रेणु पर सवालिया निशान लगाते हैं. उनके अनुसार रेणु ने आदिवासियों के बटाईदारी आंदोलन का उदारतापूर्वक रेखांकन तो नहीं ही किया बल्कि इसके विपरीत उस पर पर्दा डाल दिया. इसके आगे वे यह भी लिखते हैं कि

“सिरमौर कथाकार के दिमाग के किसी कोने में जमीन मालिक होने का अहं भाव छुपा बैठा था जो बटाईदारों पर शाश्वत अविश्वास की ग्रंथी से ग्रस्त था .”[iii]

रेणु पर आरोपों की झड़ी लगाते हुए रणेंद्र लिखते हैं,

“जन्मना जातिप्रथा की तलाश संताल आदिवासी समाज में भी करता हमारा सिरमौर कथाकार उक्त समाज से अपने अजनबीपन को अजाने ही रेखांकित कर जाता है.”

यह आरोप लगाते हुए रणेन्द्र उदाहरणस्वरुप मैला आँचल की इन पंक्तियों को उद्धृत करते हैं,

“संताल लोग गाँव के नहीं बाहरी आदमी हैं?… लेकिन संथाल में भी कमार हैं, माझी हैं. वे लोग अपने को यहाँ के कमार और माझी में कभी खपा सके? नहीं….”[iv]

रणेंद्र ने जिस परिप्रेक्ष्य में इसे उद्धृत किया है वह हास्यास्पद है. इसे इस तरह उद्धृत किया गया है मानो यह रेणु के अपने विचार हों. जबकि यह वक्तव्य आदिवासी समाज के शत्रु तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के हैं जो ग्रामीणों को आदिवासियों के विरुद्ध भड़का रहे हैं. प्रतिपक्ष के ‘भड़काऊ भाषण’ को इस तरह उपस्थित करना जैसे वह रेणु का पक्ष हो, आलोचना के गाम्भीर्य को क्षति पहुँचाता है. इस तरह तो डॉक्टर प्रशांत भी निहायत घटिया किस्म का आदमी सिद्ध किया जा सकता है. क्योंकि उपन्यास में कहा गया है कि

“देखने में कैसा बमभोला था. मालूम होता था देवता है, भीतर ही भीतर इतना बड़ा मारखू आदमी था सो कौन जाने? जोतखी काका ठीक ही कहते थे.”

संथाल आदिवासियों के प्रति सहानुभूति के कारण डॉक्टर को गिरफ़्तार कर लिया जाता है. पुलिस ने जो दुष्प्रचार किया था यहाँ ग्रामीण उसी को दोहरा रहे होते हैं. अब कोई आलोचक इस कथन के आधार पर डॉक्टर प्रशांत के चरित्र का विश्लेषण करने लगे तो कहना ही क्या?

रणेंद्र के आरोपों की फेहरिस्त लंबी है. इस फेहरिश्त में वे रेणु को वर्णवादी (यद्दपि रेणु स्वयं अति पिछड़े समाज से आते हैं) और जमींदारों का पक्षधर उपन्यासकार भी कह जाते हैं,

“श्रेष्ठताबोध से भरे वर्णवादी सामान्य हिन्दुस्तानी की तरह वह भी आदिवासियों के सांस्कृतिक-सामाजिक-धार्मिक-ऐतिहासिक वैशिष्ट्य के प्रति जागरूक और जिज्ञासु नहीं हो पाया.”

रणेन्द्र यह भूल जाते हैं कि रेणु आदिवासी केन्द्रित उपन्यास नहीं लिख रहे थे. कोई भी जाति मैला आँचल के केंद्र में नहीं है. रेणु की तारीफ इसलिए की जानी चाहिए और की भी जाती है कि उन्होंने सन् 1954 में ही हिंदी उपन्यास को आदिवासी समाज से जोड़ दिया. कदाचित मैला आँचल हिंदी का पहला उपन्यास है जिसमें आदिवासी संघर्ष मुखरता से व्यक्त हुआ है. इसमें दो राय नहीं कि रणेंद्र अत्यंत उन्नत किस्म के आदिवासी केंद्रित उपन्यासकार हैं. लेकिन रेणु के समय में उपन्यास विधा मजबूती प्राप्त कर ही रही थी. रेणु अपने शिल्प और विषयवस्तु को लेकर हिंदी उपन्यास को एक ऊँचाई प्रदान करने की कोशिश कर रहे थे. उनके उपन्यासों में आदिवासी संघर्ष की अतिरिक्त आशा लगाना उचित नहीं. दूसरी ओर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि मैला आँचल का फॉर्म किसी एक विषय को केन्द्रीयता देने की इजाजत ही नहीं देता है. केन्द्रीयता के बरक्स गैर केन्द्रीयता मैला आँचल के स्थापत्य की विशेषता है. प्रमुख, प्रधान और गैरमामूली के स्थान पर मामूली चीजों, बातों, घटनाओं को तरजीह देना, उसमें रस लेना मैला आँचल का क्राफ्ट है. गौर से मैला आँचल को पढ़ने से पता चलता है कि यह भांति-भांति के ‘मामूली चीजों का देवता’ नहीं मामूली चीजों, घटनाओं, व्यवहारों का कोलाज है. रणेन्द्र अपने उक्त आलेख में विस्तार से आदिवासियों के स्वर्णिम इतिहास और उनके तत्कालीन (रेणुकालीन) शानदार संघर्ष को याद करते हैं. रणेन्द्र का दुःख यह है कि आदिवासियों के इस सघर्षगाथा से भलीभांति परिचित होते हुए भी रेणु ने उसका उचित रेखांकन नहीं किया.

मैला आँचल का एक पूरा (19वाँ ) अध्याय संथाल आदिवासियों के बटाईदारी आंदोलन को समर्पित है, जिसकी नोटिस रणेन्द्र ने भी अपने आलेख में ली है.. इस अध्याय के अतिरिक्त उपन्यास के बीच-बीच में आदिवासियों का शौर्य और पराक्रम निखरकर सामने आया है-

“कोठी के जंगल में संथालिनें लकड़ी काट रही हैं और गा रही हैं. कुछ दिन पहले इसी जंगल में संथालिनों ने एक चीते को कुल्हाड़ी और दाब से मार दिया था. शोरगुल सुनकर गाँव के लोग जमा हो गए थे. मरे हुए बाघ को देखकर भी लोगों के रोंगटे खड़े हो गए थे और बहुत तो भाग खड़े हुए थे, किंतु संथालिनें हमेशा की तरह मुस्करा रही थीं.”[v]

आदिवासियों पर जमींदारों के जुल्म को अत्यंत बेबाकी से रेणु मैला आँचल में रख रहे हैं-

“यही कारण है कि आज जमीन के मालिको ने, जमीन के व्यवस्थापकों ने और धरती के न्याय ने धरती पर इनकी किसी किस्म का हक नहीं जमने दिया. इस जमीन पर उनके झोपड़े है वह भी उनकी नहीं.”[vi]

इतनी स्पष्टता के साथ रेणु आदिवासियों की हकमारी की बात कह रहे हैं. इससे पहले के हिस्से में वे यह कह चुके थे कि आदिवासियों ने ही पथरीले जमीन को खून पसीना से उपजाऊ बनाया था. आज यहाँ सैकड़ों बीघे जमीन में मोती के दाने से भरी हुई गेहूं की बालियाँ पुरवैया हवा में झूम रही है, वह इन्हीं आदिवासियों की बदौलत. रेणु आदिवासी विरुद्ध सिस्टम को न सिर्फ़ रेखांकित करते हैं बल्कि उस सिस्टम की आलोचना भी करते हैं. इस सिस्टम में आदिवासियों से सहानुभूति रखनेवाला गैर आदिवासी भी बख्शा नहीं जाता है. ‘कांग्रेस संदेश’ के संपादकीय में संथालों के प्रति थोड़ी संवेदना प्रकट की गई थी-

“बेचारे विद्यालंकार संपादक को उसी दिन मालूम हुआ था कि विद्या का अलंकार कितना बेमानी है. जिला मंत्री ने आंखें लाल करके कहा था विद्यापीठ का शास्त्र यहाँ काम नहीं देगा.”

डॉक्टर प्रशांत की भी सहानुभूति संथालों के प्रति थी. इसी सहानुभूति के एवज में वह सलाखों के भीतर रहा.

रणेंद्र इस आलेख में रेणुके स्त्री पात्रों के सृजन पर भी उंगलियाँ उठाते हैं. बकौल रणेंद्र-

“कुछ अपवादों को छोड़ दें तो उनकी अधिकांश स्त्री पात्र यथास्थिति को स्वीकार करके चलते हैं. मैला आँचल में लछमी दासिन का मठ में छोटी उम्र से यौन शोषण होता रहता है किंतु समूचे गाँव ने मानो कान में तेल डाल लिया है. लछमी दासिन ने भी मानो इस नियति को स्वीकार कर लिया हो. हालांकि इसी उपन्यास में फूलिया जैसे स्त्री चरित्र के विकास में रेणु थोड़ा साहस दिखाते हैं. वह अपनी इच्छा से सहदेव मिसिर, खलासी जी और फिर पैटमैनजी का चयन करती है. किंतु फिर एकाएक रचनाकार का आर्यसमाजी संस्कार जाग उठता है और फुलिया की देह में पापस्वरूप गर्मी का रोग लग जाता है. इस उपन्यास के दोनों प्रमुख महिला चरित्र कमली और ममता मानो केवल डॉक्टर प्रशांत के चरित्र को उभारने के लिए पेंटिंग के बैकग्राउंड का धूसर रंग बनकर रह गए हैं.”[vii]

इस तरह के आरोप मैला आँचल को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं रख कर देखने का परिणाम है. रणेंद्र के बारे में यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे मैला आँचल को समझने में भूल कर रहे हैं. कथमपि नहीं. लेकिन कुछ आग्रह अवश्य प्रतीत होते हैं. लछमी दासिन जैसा सशक्त स्त्री चरित्र का गढ़न मैला आंचल को गरिमाशाली बनाता है. लछमी क्रांतिकारी स्त्री नहीं है, वह हो भी नहीं सकती. अगर उसे क्रांतिकारी स्त्री बना दिया जाए तो उपन्यास की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जाएगी. अनाथ हो जाने के कारण वह बचपन से मठ में रही है. तथाकथित परंपरावादी धार्मिक माहौल में उसका लालन-पालन हुआ. दुनिया में उसका कोई अपना नहीं है. इसलिए मठ को अपनी नियति मानना उसकी विवशता है. लेकिन इस विवश वातावरण में वह जिस तरह से अपने व्यक्तित्व की गरिमा को बचाती है और अपने व्यक्तित्व को विस्तार देती है, वह अद्भुत और विलक्षण है. महंथ सेवादास के पास वह तब से रह रही है जब से वह अबोध थी. युवा होने पर सेवादास ने उसे अपना दासिन बना लिया. वह सेवादास को ही सब कुछ समझती थी- गुरु, पिता, स्वामी, सब कुछ. मठ के नियमानुसार महंथ की मृत्यु के बाद उसका शिष्य महंथ बनता है. जो भी महंथ बनेगा दासिन को उसका स्वामित्व स्वीकार करना पड़ेगा. सेवादास की मृत्यु के बाद वह एक बड़ी लड़ाई लड़कर रामदास को महंथ बनवाती है. वही रामदास उस पर अपना हक ज़माना चाहता है-

“एक रात जब लक्ष्मी अस्तव्यस्त सोई हुई है तो रामदास ने सारी हदें पार कर लीं-
“कौन?”
“रामदास!”
“रामदास! हाथ छोड़ो! आखिर तुम चित्त को नहीं संभाल सके. माया ने तुम्हें भी अंधा बना दिया.”
“माया से कोई परे नहीं.”…
“मैं तुम्हारी गुरुमाय हूँ रामदास!”
“कैसी गुरुमाय तुम मठ की दासिन हो. महंथ के मरने के बाद नए महंथ की दासी बनकर रहना होगा. तू मेरी दासिन है.”

“चुप कुत्ता!” लछमी हाथ छुड़ाकर रामदास के मुँह पर ज़ोर से थप्पड़ लगाती है. दोनों पांवों को जरा मोड़कर पूरी ताकत लगाकर रामदास की छाती पर मारती है. रामदास उलट कर गिर पड़ता है. …सतगुरु हो.” “… महंथ साहब कराह रहे हैं, सतगुरु हो, अब नहीं बचेंगे, हमको काशी ही भेज दो कोठारिन. हम अपने पाप का प्राच्छित करेंगे. …हमको जान से क्यों न मार दिया? हाय रे? सतगुरु हो.”

सेवादास की मृत्यु के बाद मठ पर अधिकार को लेकर भारी हंगामा होता है. सभी मठों के सरदार ‘आचारजजी’ किसी लड़सिंह दास को मठ का महंथ बनाना चाहते हैं. वे अपने साथ अत्यंत क्रोधी और धाराप्रवाह गाली बकने वाले नागा बाबा को लेकर मठ में पधारे हुए हैं. वह नागा बाबा लछमी को अश्लीलतम गालियाँ देता है और उसकी देह पर नजर भी गड़ाए हुए है. लछमी की जान सांसत में. आचार्य जी ने साफ कह दिया-

“तू मठ पर नहीं रह सकती. सेवादास ने तुझे रखेलिन बनाया था. सेवादास नहीं है, अब तू अपना रास्ता देख.”

लछमी ने सोच-विचारकर सोसलिस्ट पार्टी के अगुआ कालीचरण से संपर्क किया और कालीचरण की टीम ने देखते-देखते भरी सभा में-

“नागा बाबा दाढ़ी छुड़ाते हैं जटा छुड़ाते हैं. थप्पड़ों की मार से आँखों के आगे जुगनू उड़ते नजर आ रहे हैं. गांजे का नशा उतर गया है.”

और इस तरह ‘आचारजजी’ रामदास को महंथी की टीका देते हैं. लछमी का अस्तित्व बच जाता है.

लक्ष्मी भले ही मठ की दासिन हो, कोठारिन हो, उसके व्यक्तित्व की गंभीरता और व्यापकता से गाँव के सभी प्रमुख व्यक्ति प्रभावित हैं, उसका सम्मान करते हैं- डॉक्टर प्रशांत से लेकर महान गांधीवादी संत बावनदास तक. पुराने कांग्रेसी बालदेव को तो लक्ष्मी की शांत, सरल स्निग्ध छवि में भारतमाता की छवि दिखती है. उपन्यासकार रणेंद्र को लक्ष्मी के चरित्र में भले ही कोई विशिष्टता नजर न आयी हो लेकिन उसकी चेतना काफी उन्नत है. इस उन्नत चेतना का दर्शन बावनदास की चिट्ठी प्रकरण में होता है. बावनदास के पास गाँधीजी की हस्तलिखित चिट्ठियाँ थीं, जिसे वह अमूल्य रत्न की तरह सहेजकर रखे हुए था. जिस दिन वह अपनी अंतिम यात्रा पर निकलता है (उसे कदाचित पता था कि आज उसकी हत्या होगी) वह अपनी सारी चिट्ठी बालदेवजी को इस उम्मीद के साथ देता है कि वह उसे गांगुली साहब तक सुरक्षित पहुँचा दें. उस चिट्ठी की अहमियत बावनदास के लिए क्या थी इन पंक्तियों से समझा जा सकता है,

“परम श्रद्धा से सहेजी हुई पवित्र चिट्ठियों को बावनदास एकटक देख रहा है….फिर एक-एक कर अलग-अलग छांटता है… उसे एक अक्षर का बोध नहीं, लेकिन वह प्रत्येक चिट्ठी के एक-एक शब्द पर निगाह डालता है, सचमुच पढ़ रहा है.” [viii]

बालदेव जी जब-जब इन चिट्ठियों को देखते हैं, बावनदास के प्रति ईर्ष्या से भर जाते हैं. वे गांगुली को चिट्ठी पहुँचाने की जगह लछमी से छिपाकर उसे आग के हवाले करने का प्रयास करते हैं- “दुहाई गाँधी बाबा! बाबा रे…! लछमी बिछावन पर से ही झपटती है- “गुंसाई साहब! छिः छिः यह क्या कर रहे हैं! सतगुरु हो, छिमा करो! बालदेव… पापी… हत्यारा….”
धूनी की आग लक्ष्मी के कपड़े में लग जाती है.

“लगने दो आग! मुट्ठी खोलिए! बस्ता दीजिए बलदेव जी. मैं जलकर मर जाऊंगी मगर….”

और गाँधीजी की लिखी चिट्ठियों को लछमी बचा लेती है. बावनदास को तो कोई नहीं बचा पाया, लेकिन उनकी बहुमूल्य चिट्ठियों को लक्ष्मी बचा लेती हैं. यह मात्र चिट्ठियाँ बचाना नहीं है. यह गाँधी के अक्स को बचाना है, उनकी स्मृति को बचाना है. आज की तारीख़ में एक स्त्री है जो गाँधीजी के जन्मदिन पर उनके पुतले को गोली मारती है और एक लछमी है जो उनकी चिट्ठियाँ बचाने के लिए जान की परवाह नहीं करती.

रणेंद्र के आलेख में आपत्तियों की झड़ी लगी हुई है. सारी आपत्तियों पर बात करने से विस्तार का भय है. मैला आँचल उपन्यास को न तो रूढ़ प्रगतिवाद के चश्मे से पढ़ा जा सकता और न ही परंपरावादी चश्मे से और न ही अस्मितावादी चश्मे से. मैला आँचल ठेठ अर्थ में लोकवृत्त का उपन्यास है. लोक की आत्मा में घुस गए हैं रेणु. लोक जिस तरह से सोचता विचारता है. ‘छने-छने’ रुख बदलता है, जो समझा दिया समझ लेता है, चतुराई में भी कम नहीं भोलेपन में भी पीछे नहीं. लोकचित्त की इस महीने बुनावट को कलात्मकता के साथ पकड़ने की चेष्टा रेणु ने की है. रेणु की इसी कलात्मकता पर रीझकर अज्ञेय जी ने लिखा था,

“रेणु के उपन्यासों में गाँवों की समस्त बुराई, कमीनगी और गलाजत के बीच एक अखंड मानवीय विश्वास की चिंगारी सुलगती दिखती है.”[ix]

रेणु उपन्यास को निर्देशित नहीं करते, उपन्यास की कथावस्तु, उसकी संरचना उसका शिल्प ही रेणु को संचालित करता है. अगर रेणु उपन्यास को संचालित करते तो संभव है रणेंद्र की आपत्तियाँ कम होतीं. यही वजह है कि मैला आँचल किसी फ्रेम में फिट नहीं बैठ पाता. वह बार-बार साँचे से निकल जाता है.

रेणु के कथा साहित्य के प्राण सांस्कृतिक स्मृतियों और इन स्मृतियों की प्रस्तुतियों में बसते हैं. वे ठोस इतिहास और भूगोल को भी स्मृति में रूपांतरित कर देते हैं. इन स्मृतियों में इतिहास और भूगोल तो है ही, लोककथाएँ हैं, लोकगीतों का भरापूरा खजाना है, लोक विश्वास और लोक आस्थाएं हैं. इन स्मृतियों को उपन्यास और कहानी में घुलाने की उनकी अद्भुत कला है, जो उन्हें अन्य कथाकारों से अलहदा बनाता है. काल यानी समय इनके यहाँ पारंपरिक तरीके से नहीं आता. औपन्यासिक संरचना में समय और स्थान के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुई इतिहासकार सदन झा लिखते हैं,

“रेणु के गाँव को और उनके शिल्प को यदि समझना है तो आधुनिकता के समय केन्द्रित विमर्श से बाहर आना होगा. देश को देखने की तकनीक से अपने को दूर हटाना होगा. यहाँ साहित्य और गाँव की अन्तःक्रिया को परिभाषित करने के लिए नये सवाल गढ़ने होंगे. समय के बदले केंद्र में जगह और उसकी स्थानिकता को रखना होगा. देश के एबस्ट्रेक्ट स्पेस की जगह प्लेस की बात करनी होगी. रेणु का लेखन हमें ले जाता है राष्ट्र से प्रांत की ओर. एक प्रांत जो आधुनिक के साथ-साथ अपनी विरासत का भी इस्तेमाल कर रहा है. किसी और समय में नहीं अपने समकालीन समय में अपनी शर्तों पर. यह इच्छित समय है जो आधुनिकता भी चाहता है, विकास भी चाहता है. खुला अतीत और उसकी स्मृति भी.”[x]

जब मैला आँचल प्रकाशित हुआ तो इसकी धूम मच गई थी. साहित्य हलके में तूफानी प्रवेश था मैला आँचल का. इस चमत्कारिक लोकप्रियता ने कई विद्वान लेखेकों को असमंजस में डाल दिया. इस असमंजसता में वे मैला आंचल के कटु आलोचक बन गए. उन्हें यह उपन्यास दो कौड़ी का लगने लगा. रणेंद्र की आलोचना उन्हीं दिनों के आलोचकों की याद दिलाती है. उन्हीं आलोचनाओं का नया संस्करण है रणेंद्र की आलोचना. क्योंकि अपने आलेख में जिस तरह रणेंद्र दसियों बार रेणु को ‘सिरमौर लेखक’ से नवाजते हैं, इस उक्ति में वास्तविकता नहीं बल्कि व्यंग्यात्मकता की छौंक ही दिखती है. अलंकार में व्याजनिंदा इसे ही कहते हैं-‘आचार्य भी कहते जाते हो अपमान भी करते जाते हो.’ रेणु ने स्वयं अपने समय की उन आलोचनाओं को एकत्रित कर मैला आँचल का एक विज्ञापन तैयार किया, नकारात्मक विज्ञापन या आत्मालोचन का इतना बेहतर उदाहरण ढूँढना कठिन है. उस विज्ञापन का कुछ अंश प्रस्तुत है-

“मैला आँचल? वही उपन्यास जिसमें हिंदी का एक भी शुद्ध वाक्य नहीं है? जिसे पढ़कर लगता है कि कथानक की भूमि में सती-सावित्री के चरण चिह्नों पर चलने वाली एक भी आदर्श भारतीय नारी नहीं है. मैला आँचल! हैरत है उन पाठकों और समीक्षकों की अक्ल पर जो इसकी तुलना गोदान से करने का साहस कर बैठे. उछालिए साहब, उछालिए! जिसे चाहे प्रेमचंद बना दीजिए, रवीन्द्रनाथ बना दीजिए, गोर्की बना दीजिए. जमाना ही डुग्गी पीटने का है!…तुमने तो पढ़ा है मैला आँचल? कहानी बताओगे!… न कहानी न कोई चरित्र ही पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक छा सका है. सिर्फ ढोल, मृदंग बजाकर ‘इंकिलाब जिंदाबाद’ जरूर किया गया है.[xi]

मैला आंचल की पहली समीक्षा हिंदी के मूर्धन्य विद्वान नलिन विलोचन शर्मा ने की थी. उनकी विस्तृत समीक्षा सर्वप्रथम आकाशवाणी से प्रसारित हुईं. इनकी समीक्षा से विद्वान लेखकों का ध्यान मैला आँचल की ओर गया. बाद में इस समीक्षा का सारांश आलोचना के 15 वें अंक में प्रकाशित हुआ. इस समीक्षा की विशेषता यह है कि उसने मैला आँचल की आलोचना के द्वार प्रशस्त कर दिये. मैला आंचल अपनी सारी संभावनाओं और विलक्षणताओं के साथ इस समीक्षा में उपस्थित है. नलिनजी ने अपनी समीक्षा में लिखा-

“मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का प्रथम उपन्यास है. यह ऐसा सौभाग्यशाली उपन्यास है कि लेखक की प्रथम कृति होने पर भी उसे ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा दे कि वह चाहे तो कुछ और न ही लिखें. मैंने इसे ‘गोदान’ के बाद हिंदी का वैसा दूसरा महान उपन्यास माना है….इसके लेखक को चित्रणीय जीवन का आत्मीयतापूर्ण ज्ञान है, व्यापक दृष्टि है, परकाया-प्रवेशवाली उपन्यासकारोचित सामर्थ्य है और सर्वोपरि है चित्रांकन के समय एकांतिक तटस्थता और निर्लिप्तता बनाए रखनेवाली कलाकारोचित प्रतिभा! रेणु ने अपने हृदय की सारी ममता और करुणा उड़ेलकर ही अपने गाँव और वहाँ रहने वालों को जाना होगा…. मैं यहीं यह भी कह दूँ कि अपनी संपूर्णता में काव्य का प्रभाव उत्पन्न करनेवाले इस उपन्यास में यही वह अधिक से अधिक कवितापन है, जिसकी छूट लेखक ने अपने को दी है. …मैला आँचल केवल आंचलिक ही नहीं है….अनगिनत गरीब और धनी, अशिक्षित और उच्च शिक्षित, स्त्री और पुरुष पात्रो से संकुल हुए उपन्यास का चित्रित जीवन किसी स्थल में अविश्वसनीय नहीं होता- वहाँ भी नहीं, जहाँ नाटकीय घटनाएँ घट जाती हैं- क्योंकि लेखक ने उस सत्य का चित्रण अपना लक्ष्य रखा है जो कभी-कभी गल्प में भी सचमुच ही विचित्रतर होता है.”[xii]

मैला आँचल का भारत ‘अतुल्य भारत’ नहीं है और न ही ‘शाइनिंग इंडिया’ है. यह तो भारत के भीतर का वह भारत है जहाँ जिंदगी अपनी सारी विद्रूताओं के बाद भी खूबसूरत है. मैला आँचल की भारतमाता गौरवर्णी, त्रिशूलधारी, श्वेतवसना नहीं है. इसके वस्त्र तो फटे-पुराने मिट्टी में सने हुए हैं. यह भारतमाता अपने बच्चों के साथ है, बच्चों की खुशी में खुश और बच्चों के दुःख में दुखी. इसीलिए तो मैला आँचल की ‘भारथमाता’ जार-बेजार रोती रहती है. इस उपन्यास की भारतमाता विज्ञापनी या उत्सवी भारतमाता नहीं है बल्कि वह खेतों-खलिहानों में बटाईदारी की हकमारी के खिलाफ जमींदारों से लड़नेवाले ग्रामीणों के हीरावल दस्ते में सबसे आगे खड़ी भारतमाता है. कभी-कभी लछमी को देखकर बालदेव को लगता है ‘खुद भारतमाता बोल रही है. यही रूप है. ठीक यही रूप है. जिसके पैर खून से लथपथ हैं. जिनके बाल बिखरे हुए हैं. बावनदास कहता था, भारथमाता जार-बेजार रो रही है. नहीं, माँ रो नहीं रही. अब पंथ बता रही है”. लछमी जैसी स्त्री में भारतमाता की छवि को देखना गहरे सांकेतिक अर्थ रखता है. मैला आँचल का वैशिष्ट्य एक सामानांतर भारतमाता और भारत की अवधारणा को प्रस्तावित करना है. यह ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ नेहरू और गाँधी से मेल खाता हुआ भी उनसे अलग है. यह खुद के पाँव पर खड़े होने की कोशिश में लड़खड़ाता भारत है.

 

पारंपरिक सौन्दर्यबोध में रेणु की सेंधमारी

मैला आँचल की अकूत लोकप्रियता का कारण फणीश्वनाथ रेणु की दुर्लभ सौंदर्य-दृष्टि है. इस सौंदर्य-दृष्टि में सुन्दर तो सुन्दर है ही असुंदर भी सुंदर है. रेणु सुंदरता और असुंदरता की विभाजक रेखा को पाटते नजर आते हैं और तथाकथित सुन्दरता और कुरूपता दोनों को महत्त्व देते हैं. जब सब कुछ प्रकृति प्रदत्त है तो फिर कोई चीज़ असुंदर कैसे हो सकती है? गोरा और काला सुंदरता और असुंदरता के लिए बनाया गया कृत्रिम विभाजन है. इस विभाजन में गोरी नस्ल का पूर्वाग्रह और वर्चस्व की प्रमुखता है. अन्यथा काला भी उतना ही सुंदर होता है जितना गोरा. मैला आँचल के प्रथम संस्करण की संक्षिप्त भूमिका में जब रेणु लिखते हैं

“इसमें फूल भी हैं शूल भी, धूल भी है गुलाब भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरूपता भी-मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया.”

इसका आशय यही है कि फूल का सौंदर्य कांटे के साथ ही है, कांटों से जुदा होकर नहीं. कीचड़ का अपना महत्त्व और सौंदर्य होता है. समाज की कुरूपता भी समाज की ही होती है समाज से इतर नहीं. इसलिए अगर समाज में कुछ बुरा या अप्रत्याशित होता है तो वह भी समाज की समग्रता या संपूर्णता का ही परिचायक है. यही कारण है कि रेणु कुरुपताओं से भी परहेज नहीं करते. उसका वर्णन और विश्लेषण भी पूरी संलिप्तता के साथ करते हैं. इसी विरल सौन्दर्य-दृष्टि पर आधुनिकता बोध से सम्पन्न कथाकार निर्मल वर्मा लहालोट हो जाते हैं. इसी विशिष्ट सौंदर्य-बोध ने निर्मल वर्मा को रेणु का फैन बना दिया. वे रेणु को संत कथाकार मानते हैं,

“हाँ मैं संत शब्द का उसके सबसे मौलिक और प्राथमिक अर्थों में इस्तेमाल कर रहा हूँ. एक ऐसा व्यक्ति जो दुनिया की किसी चीज़ को त्याग और घृणास्पद नहीं मानता- हर जीवित तत्व में पवित्रता और सौंदर्य और चमत्कार खोज लेता- इसलिए नहीं कि वह इस धरती पर उगने वाली कुरूपता, अन्याय, अंधेरे और आंसुओं को नहीं देखता बल्कि इन सब को समेटने वाली अबाध प्राणवत्ता को पहचानता है, दलदल को कमल से अलग नहीं करता, दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है. सौंदर्य का असली मतलब मनोहर चीजों का रसास्वादन नहीं बल्कि गहरे अर्थों में चीजों के पारस्परिक सार्वभौमिक दैवी रिश्ते को पहचानना होता है, इसलिए उसमें एक असीम साहस और विवेक तथा विनम्रता छिपी रहती है.”[xiii]

‘बड़ा सा सेलुलाइड का खिलौना जैसे’ बावनदास की शारीरिक अनगढ़ता उनके विराट व्यक्तित्व में आड़े नहीं आती या ‘फूले हुए पेट बला गणेशी’ की बालसुलभता में वह फूला हुआ पेट बाधा नहीं बनता. रेणु जी के लिए वाह्य सौंदर्य और कुरूपता का कोई मायने ही नहीं है.

रेणु ने जिस आत्मीयता और समग्रता में भारतीय गाँव को देखने का प्रयास किया है वह अद्भुत है. रेणु से पहले भी हिंदी उपन्यास में गाँव आए थे लेकिन वे गाँव आदर्शवादी गाँव थे. ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ वाला गाँव. वहाँ बुरे और अच्छे आदमी का स्पष्ट विभाजन था. पूरी लड़ाई बुरे आदमी के बरक्स अच्छे आदमी की थी. बुरे आदमी के समाप्त होते ही एक सुंदर और खूबसूरत गाँव की परिकल्पना सामने आने की संभावना उन उपन्यासों में निहित है. रेणु के मेरीगंज में ऐसा कुछ नहीं. बुरे-अच्छे सब गाँव के अभिन्न हिस्सा हैं. जो कहीं और कभी बुरे हैं, दूसरे स्थान पर अच्छे और जो कहीं पर अच्छे हैं वे अन्यत्र बुरे. एक ही व्यक्ति के अंदर व्यक्तित्व का जो वैविध्य और कंट्रास्ट है, वह पूरी संभावनाओं के साथ मैला आँचल में दर्ज होता है. प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने रेणु के उपन्यासों को समाजशास्त्रियों के लिए पहली पुस्तक माना है. डॉ दुबे ने एक साक्षात्कार में कहा है

“बहुत लेखक हैं जिन्होंने परमानुभूति से गाँव को देखा है और अच्छा वर्णन भी किया है लेकिन उनमें रेणु वाली आत्मीयता नहीं है.”[xiv]

 

छाहेब बोले गिटिल-पिटिल, खिलखिल हंछे मेम!

मैला आँचल उपन्यास की आंचलिकता के ‘शोरगुल’ में उसका प्रेमपक्ष अनसुना रह गया. कहानियों के सन्दर्भ में तो हुई भी है, उपन्यास के परिप्रेक्ष्य में रेणुजी की प्रेम-दृष्टि पर कम बात हुई है. मैला आँचल में चार प्रेमकथाएँ हैं, एक दूसरे से अलग लेकिन अपने निजी वैशिष्ट्य के साथ. सहदेव मिसिर और फुलिया, कालीचरण और मंगला, लछमी दासिन और बालदेव तथा कमली और डॉक्टर प्रशांत का प्रेमप्रसंग. प्रेम-प्रसंग की उद्भावना में रेणु जी को महारत हासिल है. उनकी कहानियों में प्रेम का जितना विविध, खूबसूरत और भिन्न रूप से हमारा साक्षात्कार होता है उसे लिपिबद्ध करना कठिन है. सहदेव और फुलिया का प्रेम तो समझौते के तहत होता है किंतु धीरे-धीरे यह समझौतापरक प्रेम आदत बन जाती है. जिस खलासीजी से फुलिया की शादी हुई है, फुलिया का चित्त खलासीजी पर बिल्कुल नहीं जाता. एक रात अचानक गाँव के कुछ लड़कों ने जब उच्च जाति के सहदेव को फुलिया के घर में दबोच लिया तो पंचायत में बातें साफ हो जाती हैं. सहदेव मिसिर के ऋण से फुलिया का पिता महँगू दबा हुआ है. उसकी ‘टीक’ (शिखा) सहदेव के हाथ में है, तो फुलिया बेचारी करे तो क्या करे? उधर पति खलासी पर उसका मन तो नहीं जाता लेकिन पैटमैन पर फुलिया का दिल आ जाता है और खलासी को छोड़कर वह पैटमैन के घर बस जाती है. लेकिन जब फुलिया मेरीगंज आती है तो सहदेव को याद करना नहीं भूलती. अब तो वह पूरी दबंगता और ठसक के साथ सहदेव को अपने घर बुलाती है, पैसेवाली जो हो गई है.. फुलिया में लेखक ने वह साहस दिया है कि वह अपनी पसंद से पुरुषों का चुनाव करती है. पति के रूप में जैसे-तैसे पुरुष को ‘सांठ’ देना और उसे ही ‘भला है बुरा है मेरा पति मेरा देवेता है’ फुलिया को स्वीकार नहीं. फुलिया स्वतंत्र हे नहीं स्वच्छंद मिज़ाज की स्त्री है और देह को ही प्रेम का पर्याय समझती है. कई पुरुषों से दैहिक संबंध के कारण उसे गंभीर बिमारी भी हो जाती है. इससे स्पष्ट है कि रेणु इस तरह के प्रेम के पक्षधर नहीं हैं.

दूसरा प्रेम-प्रसंग है- कालीचरण और मंगला देवी का. कालीचरण मैला आँचल का सर्वाधिक सशक्त चरित्रों में एक है. वह सोशलिस्ट पार्टी का निहायत ईमानदार और क्रांतिकारी व्यक्ति है. कसरती व्यक्ति होने के कारण ‘औरतों से पाँच हाथ की दूरी’ बनाकर रहता है. उसके व्यक्तित्व में मनुष्यता कूट-कूटकर भरी हुई है. परिस्थितिजन्य संवेदनशीलता उसे मंगलादेवी के निकट ला देता है. मंगलादेवी चरखा कैंप की मास्टरनी है और महामारी में पूरे गाँव की मदद करते-करते खुद बीमार पड़ जाती है. वह अनाथ और विधवा स्त्री है. जब कोई उसकी मदद में सामने नहीं आता तो कालीचरन उसे कीर्तन घर में लेकर आ जाता है. कीर्तन घर सोशलिस्ट पार्टी के कार्यालय का नाम है. बिमारी के अंतराल में रोगी का सारा नखरा कालीचरण हंसते-हंसते झेलता है. वह कभी बार्ली नहीं पीती तो कभी दवा नहीं खाती. कालीचरण घंटों उसे मनाता है. एक दिन वह कहती है-

“आप मुझे मास्टरनीजी मत कहिए.”
“तब क्या कहूं?”
“क्यों मेरा नाम नहीं है?”
“मंगला देवी?”
“नहीं, सिर्फ मंगला.”
“दवा पी लीजिए.”
“मंगला कहिये?”
“मंगला”[xv]

इस तरह से कालीचरण और मंगला खूबसूरत प्रेमपाश में बिंध जाते हैं. ऐसे मजबूत प्रेम के डोर में कि “रेलभाड़ा बचाकर कालीचरण ने एक पैकेट बिस्कुट खरीद लिया है. डाक्टर ने मंगला को बिस्कुट खाने के लिए कहा है…. कालीचरण ने कभी बिस्कुट नहीं खाया है. शायद इसमें मुर्गी का अंडा रहता है….कालीचरण इतने जोड़- तोड़ से बिस्कुट खरीदता है वह भी मंगला खाने को तैयार नहीं- ‘पहले तुम एक बिस्कुट खाओ.’ बिस्कुट मीठा, कुरकुरा और इतना सुआदवाला होता है? इसमें दूध, चीनी और माखन रहता है अंडा नहीं?”[xvi]

मैला आँचल हिंदी का कदाचित पहला उपन्यास है जिसमें रेणु लिवइन रिलेशनशिप को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं. आज यह ‘लवइन’ साधारण बात लगती है किन्तु 1954 में एस तरह के संबंधों की वकालत बड़ी बात थी. कालीचरण और मंगला तथा लछमी दासिन और बालदेव पति-पत्नी रूप से गाँव में रहते हैं. मंगला अब कालीचरण के आंगन में रहती है. मंगला की मीठी बोली सुनकर कालीचरण की माँ की आंखें सजल हो उठती हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि गाँव में किसी औरत को घर में बैठा लेने (लिविंग रिलेशनशिप) पर कानाफूसी तो खूब होती है किंतु सीधे-सीधे कोई कालीचरण या बालदेव को कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. इसका कारण यह है कि दोनों का नैतिक बल किसी भी ग्रामीण से कम नहीं है.

लछमी दासिन और बालदेव के प्रेम में गहराई और ठहराव दोनों अत्यधिक है अर्थात प्रेम तक पहुंचने में लेखक ने बहुत धैर्य का परिचय दिया है. यद्यपि प्रथम दृष्टि में ही दोनों की हृदय की धड़कनें तेज होती हैं किंतु इन दोनों की पोज़ीशन ऐसी है कि इस बारे में वे हठात सोच भी नहीं सकते. लक्ष्मी मठ की दासिन है और बालदेव जी पुराने कांग्रेसी सुराजी. पार्टी के लिए शादी भी नहीं की. गाँधीजी के परम भक्त, सत्यवादी और अहिंसा के पुजारी. ऐसा व्यक्ति भला किसी मठ के दासिन से नज़रें चार कैसे कर सकता है? नज़रें मिलाने की बात तो दूर लछमी की मानें तो “बालदेव जी इतने लाजुक हैं कि कभी एकांत में बात करना चाहो तो थर-थर कांपने लगे. चेहरा लाल हो जाए. लाज से या डर से?”

लंबे समय से बालदेव मठ पर आते-जाते रहे हैं, इसी आवाजाही में दोनों एक दूसरे को समझने की कोशिश करते हैं.

“लछमी का मन चंचल है पर चोर नहीं. बालदेवजी चोरी से उसके मन में नहीं आते हैं मन के लक्ष दुआर हैं, बलदेवजी एक ही साथ लक्ष द्वार से उसके मन में बैठ जाते हैं.” [xvii]

एक दूसरे के मन में सेंध तो बहुत बाद में लगती है किन्तु महन्त सेवादास की मृत्यु पर बालदेव लछमी को सांत्वना के जितने बोल याद कर आए थे, लक्ष्मी को देखते ही भूल जाते हैं.

“लछमी ने बालदेवजी को नियमित पाठ के लिए बीजक तो दिया लेकिन बीजक में भी लछमी की देह की सुगंध निकलती है. इस सुगंध में एक नशा है. इस पोथी के हर एक पन्ने को लछमी की अँगुलियों ने परस किया है. लक्ष्मी को देखने से ही मन पवित्र हो जाता है.”

तो इस तरह बालदेवजी का प्रेम पवित्रता के रास्ते परवान चढ़ता है. लक्ष्मी दासिन बालदेव को बहुत ऊँचा स्थान देतीं हैं.

मठ में जब लछमी की स्थिति संकटग्रस्त हो जाती है तो बालदेवजी पूरे साहस के साथ उसे मठ से निकालकर कलमबाग में एक घास-फूस की झोपड़ी बनाकर उसमें रख लेते हैं. यहाँ भी लिवइन रिलेशनशिप की ओर लेखक संकेत करते हैं. मठ की दासिन, जिसे समाज में वेश्या का दर्जा प्राप्त है, ऐसी स्त्री को ‘इसतरी’ बनाकर गाँव में बसा लेना कम साहस की बात नहीं. लछमी भले ही मठ की दासिन रही हो किंतु उसका चरित्र अत्यंत पवित्र और व्यक्तित्व अत्यंत विशाल था. किसी अनाथ बालिका का दासिन बन जाना उसकी विवशता हो सकती है. महंथ सेवादास ने बचपन से उसे अपने पास रखा और मठ में उसको महत्त्व भी दिया. सेवादास के बाद महंत रामदास पूरी कोशिश कर के रह गया किंतु वह उसे अपने पास फटकने नहीं देती है. ‘आचारजजी’ के साथ आए नागा बाबा की जो दुर्गति लछमी करवाती है, वह अद्भुत है.

बालदेव जी की झोपड़ी में लछमी संध्याकाल जब खंजड़ी बजाकर भजन गाने लगती है तो वह कभी साक्षात् देवी की प्रतिमूर्ति लगती है तो कभी भारतमाता की तो कभी हूर की परी. ‘लछमी की देह से जो सुगंधी निकलती है वह आज और तेज हो गई है…. लछमी की आवाज कांप रही है… रो रही है लछमी. ऐ? गला पर लोर लुढ़क रहे हैं…. लक्ष्मी! लछमी लक्ष्मी… रो मत लछमी!. बालदेव जी की बाहों में भी इतना बल है?… लक्ष्मी को बाहों मैं कसे हुए हैं. लक्ष्मी गाती ही जाती है-

गृह आंगन बन भए पराए
कि अहो संतों हो
तुम बिनु कंत बहुत दुख पाए.”

बालदेव जी भी आखिर पुरुष ही निकले. इस ‘सुगंधी’ लछमी पर भी उन्होंने शंका की. उनकी अनुपस्थिति में बनारस से आए विद्यार्थी जी पर. लछमी आरोप सुनकर सन्न रह जाती हैं और क्रोध से थर-थर कांपने लगती है. इस आरोप के जवाब में लक्ष्मी ने जो कहा वह उनकी उदग्र स्त्री-चेतना का परिणाम है. वह सुनकर बालदेवजी का क्रोध एकदम से बिला जाता है-

“बोलिए! क्या समझते हैं?…रंडी समझ लिया है क्या? ठीक ही कहा है, जानवर की मुंडी को पोसने से गले की फांसी छुड़ाता है, मगर आदमी की मुंडी ….”[xviii]

मेरीगंज गाँव की सामंती परिवेश में पली बढ़ी बीमार-बीमार सी कमली और कालाजार जैसी महामारी को जड़ से समाप्त करने की विराट आकांक्षा से लैस डॉक्टर प्रशांत के बीच प्रेम का जाग्रत रूप उपन्यास में देखने को मिलता है. रेणु ने सघन मनोवेग और अथाह संवेदनशीलता के साथ इस प्रेम को बुनने का प्रयास किया है. दोनों के आरंभिक मिज़ाज में रोमैन्टिक भावबोध का नामोनिशान नहीं है. कमली तो सहज ही बीमार प्राणी है. और डॉक्टर प्रशांत के लिए दिल, प्यार प्रेम आदि मिथ्या अवधारणा है. उसने तो प्रेम, प्यार और स्नेह को बायोलोजी के सिद्धांत से ही मापने की कोशिश की है. वह हँसकर कहा करता है

“दिल नाम की कोई चीज़ आदमी के शरीर में है, हमें नहीं मालूम. पता नहीं आदमी ‘लंग्स’ को दिल कहता है या ‘हार्ट’ को. जो भी हो ‘हार्ट’, ‘लंग्स’ या ‘लीवर’ का प्रेम से कोई संबंध नहीं है.”[xix]

इस तरह प्रशांत हार्ट और लंग्स के आस-पास कहीं अदृश्य रूप से अवस्थित दिल के मामले में ऐसा डूबा कि उसके लिए दुनिया के मायने ही बदल गए. प्रशांत जैसा नीरस शोधार्थी ने कमली की बेहोशी क्या दूर की, वह तो उसे ‘जिन’ लगने लगा. प्रशांत को देखने के बाद वह अपने में नहीं रह पाती. जिसकी शादी तक नहीं हो पा रही थी ऐसी ‘अशुभ’ और बीमार कमली पर प्रशांत ने ‘जादू’ कर दिया था. रेणु ने कमली के चरित्रांकन द्वारा नायिका के अतिशय सुंदर, शोख अदावाली छवि को ध्वस्त किया है. प्यार के लिए नायक या नायिका का कोई भी स्टीरियोटाइप छवि रेणु को पसंद नहीं. एक प्रेमिल क्षण में कमली पूछ बैठती है,

“डॉक्टर, तुम जिन तो नहीं?”
जिन! क्या जिन?”
“जिन एक पीर का नाम है. वह कभी-कभी मनमोहने वाला रूप धरकर कुमारी और बेवा लड़कियों को भरमाता है….

नहीं, मुझे डर नहीं लगता. यदि तुम जिन भी रहो तो… मैंने तुमको जीत लिया है.” कमलीं को यूँ ही नहीं लगता कि डॉक्टर जिन है ‘वो डॉक्टर को रोज़ खत लिखती है. लिखकर पाँच-सात बार पढ़ती है फिर फाड़ डालती है. पत्र लिखने और लिखकर फाड़ने के बाद उसको बड़ी शांति मिलती है. जी बड़ा हल्का महसूस होता है, और नींद भी अच्छी आती है.”

प्रेम की गति और मति को समझना आसान नहीं. बारिश होती है तो कमली को नींद इसलिए नहीं आती है कहीं डाक्टर की खिड़की खुली न रह गयी हो. “खिड़की के पास ही डॉक्टर सोता है. बिछावन भींग गया होगा. कल से बुखार है, सर्दी लग गई है…. न जाने डॉक्टर को क्या हो गया है?” डॉक्टर प्रशांत के पास भी कमली की इस बिमारी (प्रेम की बीमारी) का कोई इलाज-दवा नहीं है.

प्रशांत को तो प्रेम करने का ‘लूर’ (तौर-तरीका) भी नहीं ही है. उसे तो होली में रंग खेलने भी नहीं आता. कमली ऐसे ‘भुच्च मानुस’ से प्रेम कर बैठी है. चारों ओर होली की मस्ती छाई हुई है. मदनोत्सव की धूम है-

“ड्योढी पर पैर रखते ही डॉक्टर के मुँह पर गुलाल मल दिया गया. डॉक्टर की आंखें बंद हैं, लेकिन स्पर्श से वह समझ गया है कि गुलाल किसने मला है. कमली!… वसंतोत्सव की कमली! दूसरी तरफ डॉक्टर हाथ में अबीर लेकर खड़ा है. मुँह देख रहा है कहाँ लगावे. “जरा अपना हाथ बढ़ाइये तो?”

“क्यों?”
“हाथ पर गुलाल लगा दूँ?”
“आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं. चुटकी में अबीर लेकर ऐसे खड़े हैं मानो किसी की मांग में सिंदूर देना है! कमली खिलखिलाकर हँसती है. रंगीन हँसी!”[xx]

गाँव की औरतों को तो युवा जोड़ी दिखते ही कौतुक और रोमांच होने लगता है. दूसरे गाँव को जा रही जोड़ियों को भी ये औरतें हसरत भरी निगाहों से देखते हैं. और कानाफूसी का लुत्फ उठाते हैं. यहाँ तो बिन ब्याही जोड़ी है.

“गाँव के पनघट पर स्त्रियों की भीड़ आँखें फाड़कर इन दोनों को देखती हैं. झगड़े बंद हो जाते हैं, पानी भरना रुक जाता है. नजर से ओझल होने के बाद फिर सबों के मुँह से अपनी-अपनी राय निकलती है. कमली अब आराम हो गई. डॉक्टर साहब ने इसको बचा लिया. दोनों की जोड़ी कैसी अच्छी है. क्या जाने बाबा, इलाज करते-करते कहीं….”

एक दिन जब कमली और प्रशांत संध्या में साथ-साथ घूम रहे होते हैं तो मासूम गणेशी को यह जोड़ी इतनी अच्छी लगी कि वह जोर-जोर से बोल उठा -‘छाहेब बोले गिटिल-पिटिल, खिलखिल हंछे मेम!’

सन् 1954 के उपन्यास में रेणु कमली को कुंवारी माँ का दर्जा देते हैं. ऐसा संयोग होता है कि इधर कमली गर्भवती होती है और उधर संथाल आदिवासियों से सहानुभूति रखने के जुर्म में डॉक्टर जेल में बंद कर दिया जाता है. कमली के माता-पिता की चिंता वाजिब है. माँ झल्लाती भी है और बेटी पर उसे प्यार भी आता है. पिता क्रोधित भी होते हैं और कमली को एक नजर देखना भी चाहते हैं. कमली को गाँव वालों की नजरों से बचाकर रखा जाता है. इस भीषण और त्रासदपूर्ण समय को रेणु ने बड़ी संजीदगी से चित्रित किया है. तहसीलदार साहब का दिल कसक उठता है-

“कमली की माँ! मेरी बेटी अब मेरे सामने नहीं आएगी? क्यों? एक बार उससे बात करना चाहता हूँ. तुम क्या कहती हो?

उफ! कमली के चेहरे पर दिनोंदिन तेज आता जा रहा है. मुखमंडल चमक रहा है, लेकिन आज उसकी निगाह नीची है. चुपचाप आकर पर्दे की आड़ में खड़ी हो जाती है.

“दीदी” (पिता बेटी कमली को दीदी ही संबोधित करते हैं) इधर आओ दीदी, तुम्हारा कोई कसूर नहीं बेटा!
“बाबूजी मेरी सूरत मत देखिए!… मुझे गोदाम घर में बंद कर दीजिए. कमली रो पड़ती है. फफक फफक!”

रेणु इस प्रेम-प्रसंग के बहाने एक समानांतर दुनिया प्रस्तावित करना चाहते हैं. और वह दुनिया है खालिस प्रेम की दुनिया. प्रेम के माध्यम से आने वाले बच्चे के लिए किसी माँ को कुएं तालाब की डगर पकड़ने की आवश्यकता नहीं. नवजात शिशु को कचरे की ‘शोभा’ बनाने की आवश्यकता नहीं. यद्यपि यहाँ भी कमली के माता-पिता में एक संकोच का भाव है, लेकिन यह संकोच हावी नहीं हो पाता और नीलोत्पल आन-बान और शान के साथ इस धरती पर पैदा होता है.

संदर्भ
__________

[i] आलोचना, जनवरी-मार्च 2021, पृष्ठ 67
[ii] आलोचना, जनवरी-मार्च 2021, पृष्ठ 70
[iii] वही पृष्ठ 70
[iv] वही पृष्ठ 68
[v] वही, पृष्ठ 172
[vi] वही पृष्ठ 113
[vii] आलोचना, जनवरी-मार्च 2021, पृष्ठ 72
[viii] मैला आँचल पृष्ठ 331
[ix] फणीश्वरनाथ रेणु : साहित्य चिंतन, रचना विवेक और कथा-दृष्टि – रामनिहाल गुंजन, आलोचना, 64
[x] समय के बदले जगह और राष्ट्र के बदले प्रांत : रेणु और आंचलिक आधुनिकता, देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति का अध्याय, सदन झा, राजकमल प्रकाशन
[xi] फणीश्वरनाथ रेणु व्यक्तित्व और कृतित्व-भारत यायावर, प्रकाशन विभाग-2017, पृष्ठ 73-74
[xii] वही पृष्ठ 72
[xiii] समग्र मानवीय-दृष्टि- निर्मल वर्मा, रेणु : संस्मरण और श्रद्धांजलि, संपादक- प्रोफेसर राम बुझावन सिंह, रामवचन राय, नवनीता प्रकाशन-1978, पृष्ठ 12
[xiv] चंद्रेश्वरकर्ण रचनावली, सम्पादक- श्री धरम, अंतिका प्रकाशन-2012, खंड 3, पृष्ठ 249
[xv] मैला आँचल पृष्ठ, 75
[xvi] वही पृष्ठ 178
[xvii] वही, 168
[xviii] वही पृष्ठ 309
[xix] वही पृष्ठ, 153|
[xx] वही, पृष्ठ 141

कमलानंद झा

जन्म 28 जनवरी 1968, जिला-मधुबनी, बिहार. हिन्दी और मैथिली आलोचना में गहरी अभिरुचि. सौ से अधिक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति एवं निर्देशन. हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार आलोचना-लेखन. तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध (वाणी प्रकाशन), पाठ्यपुस्तक की राजनीति (ग्रन्थशिल्पी), मस्ती की पाठशाला (प्रकाशन विभाग), नागार्जुन: दबी-दूब का रूपक(अन्तिका प्रकाशन) राजाराधिकरमण प्रसाद सिंह की श्रेष्ठ कहानियां, सं0(नेशनल बुक ट्रस्ट), होतीं बस आँखें ही आँखें (यात्री-नागार्जुन का रचना-कर्म, विकल्प प्रकाशन), आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं.

‘मैथिली उपन्यास: समय, सामाज आ सावाल’ तथा नवमल्लिका मैथिली में प्रकाशित. रस्किन बांड की कहानियों का अनुवाद ‘देहरा मे आइयो उगैत अछि हमर गाछ’ नाम से साहित्य अकादमी से प्रकाशित.

सम्प्रति:

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत.
jhakn28@gmail.com

Tags: 2022२०२२ आलोचनाकमलानंद झामैला आँचलरणेंद्र
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Comments 15

  1. वीरेंद्र यादव says:
    3 years ago

    कमलानंद झा ने अपने इस आलेख के माध्यम से जरुरी प्रतिवाद किया है. बधाई.
    रेणु को इरादतन ध्वस्त करने के मंतव्य से लिखा गया रणेन्द्र का लेख उपन्यास आलोचना की वैचारिकी के भी विरुद्ध है. रेणु ने ‘मैला आँचल’ 1954 में लिखा था, आज 2022 की विकास व सामाजिकी की समझ से इस उपन्यास को खारिज करना आज के समय को पीछे ले जाना है. ‘मैला आँचल’ हिंदी का शाहकार उपन्यास है और रेणु हिंदी के बड़े लेखक, उन पर आलोचनात्मक चर्चा की जाती रही है, की जानी चाहिए, लेकिन ध्वंसात्मक इरादे से किया गया लेखन सर्वाधिक अवांछित व निंदनीय है. मैंने रेणु पर बनारस की संगोष्ठी में रणेन्द्र की उपस्थिति में अपनी असहमति इस बाबत दर्ज कराई थी. ‘मैला आँचल’ पर ‘तद्भव-42’ में मैं विस्तार से पहले ही लिख चुका था, इसलिए दुबारा इस पर लिखना मैंने गैर- जरुरी समझा. कमलानंद झा की इस टिप्पणी में काफी बातें आ गई हैं, यद्यपि कुछ विंदु अभी भी बचे हुए हैं. उस पर भी बात होगी ही.

    Reply
  2. डॉ ओम निश्‍चल says:
    3 years ago

    श्री रणेंद्र जी के आलेख के प्रत्याख्यान के साथ प्रो कमलानंद झा ने निज मति से उपन्यास के मूल मर्म को पकड़ने की चेष्टा की है। लोक चित्त को पकड़ पाने की जो कुशलता रेणु और प्रेमचंद के यहां मिलती है वह नायब है। अतुलनीय है।

    प्रो झा को बहुत बहुत बधाई।
    ओम निश्चल

    Reply
  3. हितेंद्र पटेल says:
    3 years ago

    जोरदार आलेख। रेणु पर रणेंद्र जी की आपत्तियां मुझे चकित करती हैं। वे खुद बड़े उपन्यासकार हैं। कैसे रेणु पर इस तरह से सोच पाते हैं!

    Reply
  4. CHANDAN KUMAR says:
    3 years ago

    सर को आत्मिक बधाई

    Reply
  5. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    वस्तुतः जब आप किसी कृति विशेष की समीक्षा/आलोचना पूर्व निश्चित राजनैतिक/ सामाजिक विचारों और मान्यताओं के आधार पर करने बैठते हैं तो वही होता है जो रणेंद्र के लेख में हुआ है। यह पहला अवसर नहीं है जब किसी विशिष्ट रचना के साथ यह घटित हुआ हो । इस जोशीले प्रगतिवाद, जो अब स्वयं एक रूढ़ि में परिवर्तित हो चुका है, ने तुलसी से लेकर प्रेमचंद तक अनेक महान लेखकों की कालजयी रचनाओं को इसी तरह ख़ारिज किया है। कमलानंद झा का हस्तक्षेप निश्चय ही स्वागत योग्य है। समालोचन को इस आलेख के लिए धन्यवाद।

    Reply
  6. शिवदयाल says:
    3 years ago

    ऐसा संभव है कि एक काल विशेष की कथा कहने वाली किसी औपन्यासिक कृति में पाठक की दृष्टि में कोई प्रसंग छूट गया हो या उसे पर्याप्त महत्व ना मिल पाया हो जो उसे जरूरी और महत्त्वपूर्ण लगता हो। लेकिन इसके लिए लेखक की क्षमता या इरादे पर संदेह करना कतई उचित नहीं है। यह भी देखना होगा कि सात दशकों के भीतर चीजों के प्रति दृष्टिकोण में आमूलचूल बदलाव आ सकता है।
    मैला आंचल की कथावस्तु के केंद्र में स्वतंत्रता आंदोलन है। कोसी के इस अंचल में स्वतंत्रता आंदोलन और गांधीजी ने जिन-जिन अंशों में विभिन्न समूहों, जातियों, टोलों आदि का स्पर्श किया है, उसका प्रामाणिक विवरण पूरी कलात्मकता एवं संवेदनात्मकता के साथ उपन्यास में मौजूद है। वास्तव में स्वतंत्रता आंदोलन के महान आदर्शों और एक पिछड़े भारतीय गांव की जमीनी सच्चाइयों के बीच के द्वंद्व से मैला आंचल का कथानक निकला है। इस दृष्टि से विचार किया जाए तो मैला आंचल को मात्र आंचलिक उपन्यास के खांचे में फिट करना न्याय संगत नहीं होगा। रेणु की नजर में जातीय विषमताएं और सामाजिक विभाजन तो था, जो उनके कथा साहित्य में पूरे तीखेपन, साथ ही मानवीयता के साथ उजागर हुआ है, लेकिन उनके पास वह अस्मितावादी दृष्टि नहीं थी जो आज के लेखकों के एक वर्ग के लिए मानो अपरिहार्य है।
    जिस तटस्थता और तर्कशीलता के साथ डॉक्टर कमलानंद झा ने रेणु का पक्ष रखा है, उससे उनकी आलोचकीय दृष्टि और आलोचनात्मक विवेक का कायल होना पड़ता है। उन्हें और समालोचन को बहुत बधाई।
    – शिवदयाल

    Reply
  7. दया शंकर सहाय says:
    3 years ago

    रणेन्द्र जी के पुनर्पाठ पर कमलानंद झाँ जी की समीक्षा
    बहुत अच्छी लगी।रणेन्द्र जी की समीक्षा दलित विमर्श को केंद्र में रखकर
    लिखी गई लगती है।यह कहना सही है कि मैला आँचल
    किसी वाद-विमर्श के खाँचे में फिट नहीं बैठता।यह हमारे
    आंचलिक जीवन का महाकाव्य है।

    Reply
  8. Ranendra kumar says:
    3 years ago

    आदरणीय साथियों ! सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरे मन में दूर _ दूर तक कथा गायक रेणु जी को कथित रूप से ध्वस्त करने का कोई भाव नहीं है / न था / न कभी होगा । हिंदी कथा _ साहित्य के शीर्ष पर कथा सम्राट प्रेमचंद के बाद दूसरा स्थान मेरे मन में आ0 रेणु जी का ही है ।
    समीक्ष्य आलेख ( आलोचना _64 , जनवरी _ मार्च 2021 ) में भी मैंने दो _ तिहाई हिस्से में उस महान कथाकार के लेखन के विविध सौंदर्य का ही उल्लेख किया है ।
    प्रो0 कमलानंद झा जी ने मेरे आलेख के बहाने पुनः उस महान कथाकार की काल जयी रचना और उस महान कथाकार को विमर्श के केंद्र में लाया है जो अत्यंत स्वागत योग्य है । संभवत मेरे दोनों आलेखों का उल्लेख भी यही था । ध्यातव्य है दूसरा आलेख ” आलोचना _67 ,अक्टूबर _दिसंबर 2021 में ” सुन्नरी नैका के पुनर्पाठ के बहाने ” शीर्षक से प्रकाशित है।
    अनुरोध बस इतना भर है कि मेरे आलेखों से गुजरने के पश्चात् ही किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचने की कृपा की जाए ।

    Reply
  9. नरेंद्र झा says:
    3 years ago

    कमलानंद जी ने रणेन्द्र जी के रेणु विषयक आलेख पर जो अपना पक्ष समक्ष किया है,वह तर्कसँगत एवं औचित्य – सम्पन्न तो है ही ,साथ ही रेणुजी जैसे रचनाकार के वैशिष्ट्य को आधार बनाकर समय, समाज और परिस्थिति के आइने में उस समय और इस समय के आदिवासियों की जिन्दगी को सामने रखकर और रणेन्द्र जी के दृष्टिकोण को उद्धृत करते हुए अपने विचारों को उपस्थापित करने की भरसक चेष्टा की है।

    Reply
  10. बजरंगबिहारी says:
    3 years ago

    सुविचारित प्रत्याख्यान। रणेन्द्र जी ने अपना पक्ष भी रखा। वह इस बहस का पूरक पक्ष है। इस बहस को आगे बढ़ना है। वीरेन्द्र यादव जी ने संकेत दे दिया है। रेणु इसी अर्थ में सिरमौर लेखक हैं, अपरिहार्य कथाकार हैं ।
    गाँधी चर्चा के प्रसंग में कमलानंद जी की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है-आज की तारीख़ में एक स्त्री है जो गाँधीजी के जन्मदिन पर उनके पुतले को गोली मारती है और एक लछमी है जो उनकी चिट्ठियाँ बचाने के लिए जान की परवाह नहीं करती.
    बहुत समृद्ध हुआ पढ़कर।

    Reply
  11. राजेन्द्र दानी says:
    3 years ago

    किसी कालजई कृति के प्रति ऐसी स्थापनाएं हमारी परंपरा में नई नहीं है । यह एक तरह से सुखद है कि इस आलोचना से उपन्यास की स्मृति का स्तंभ पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है । पिछले वर्षों में “कफन” और “उसने कहा था” जैसी कृतियों से भी यह व्यवहार हुआ है । सारांश यह कि “मैला आंचल” का फिलहाल स्थानापन्न नहीं । खारिज करने के अब नए अर्थ होते हैं ।

    Reply
  12. Anonymous says:
    3 years ago

    रेणु कोई जाति केंद्रित या विमर्श केंद्रित उपन्यास नहीं लिख रहे थे । फिर भी कुछ लोग इसे ढूंढते जाने की जिद किए जाते हैं । उपर्युक्त लेख और वह लेख जिसके विरुद्ध इसे लिखा गया है इसी प्रक्रिया का परिणाम है ।

    Reply
  13. रवि रंजन says:
    3 years ago

    प्रोफेसर कमलानंद झा के इस आलेख में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बिंदु कथाकार रणेंद्र के ‘मैला आँचल’ विषयक मन्तव्य के प्रत्याख्यान के बजाय रेणु की उस मानवीय तरल दृष्टि की शिनाख्त है जिसके तहत वे डॉक्टर प्रशांत और कमली के अलावा तीन अन्य प्रेमी-प्रेमिकाओं की जोड़ी को रेखांकित करते हैं।
    बावजूद इसके कालीचरण-मंगला,सहदेव मिसिर-फुलिया और बालदेव-लछमी के जुड़ाव को आज की पीढ़ी में प्रचलित लिवइन रिलेशन या सहजीवन कहना मेरे ख्याल से रेणुयुगीन समाज की गतिकी से कई मील आगे मशाल जलाकर चलने जैसा प्रतीत होता है।हमारे समय में सहजीवन भले ही अग्रगामी दिखाई देता हो ,पर कुछेक अपवादों को छोड़कर उसमें वह मानवीय सारतत्व लगभग गायब है जो रेणुयुगीन समाज में संभव था।याद आते हैं क्रिस्टोफर कॉडवेल जिन्होंने पूंजीवादी समाज में प्रेम व यौन सम्बन्ध को भी आर्थिक सम्बन्ध से जोड़कर देखने की पेशकश की है।
    दूसरी बात यह कि किसी क्लासिक कृति पर विचार करते हुए उस पर लिखित अधिकाधिक पुस्तको/आलेखों को दृष्टिपथ में रखकर ही कोई बात मुकम्मल हो सकती है ।जाहिर है कि यह श्रमसाध्य और समयसाध्य कार्य है।
    बहरहाल, बन्धु कमलानन्द जी को दो टूक बात कहने के लिए साधुवाद।

    Reply
  14. Narendra Singh says:
    3 years ago

    रणेन्द्र जी ने बड़ी मेहनत से बहुत छोटी बात खोजी ।वे आदिवासियों के अत्यंत करीबी होने के कारण (समझने बूझने)उनको रेणु से अधिक जानते हों ‘लेकिन रेणु का उपन्यास उस कालखंड की पड़ताल है ,न कि आदिवासी समाज की पहचान ।वैसे भी रेणु तो हैं नहीं तो उत्तर कौन दे ।लेकिन आप यह समझिए- रेणु को प्यार करने वाले आज भी लाखों में हैं ,जिन्हें आपका कथन मिथ्या व बेनामी लगा ।
    वैसे मैं व्यक्तिगत रूप से उनकी परती परि कथा सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ ,लेकिन मेरे कहने से जो आकलन सभी विद्वानों किया मैला आँचल कमतर तो हो न जाएगा।अच्छा रहे जितना लिखते हैं सब छप जाय ऐसा न करें ।

    Reply
  15. Ravi says:
    3 years ago

    जब शेर मर गया तो रनेंद्र post mortem कर रहे पर झा ने सबक पढ़ाया कृष्णामोहन निर्मल वर्मा पर और नामवर आदि रामविलास शर्मा पर शवसाधना कर चुके है

    Reply

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