न लिखे को उद्घाटित करती यात्रा
|
किसी बीहड़, बेहद ठण्डे, उजाड़ रेगिस्तान में कुहासे भरी रात को कोई चला जा रहा है, लेकिन किसी उम्मीद के उजले धवल बिन्दु से वह यात्रा प्रदीप्त है. कुछ भी नज़र नहीं आता लेकिन कहीं दूर उजला-सा कुछ सामने दिखाई देता रहता है जिस तक पहुँचने के लिये वह चला जा रहा है. चलते-चलते दौड़ने लगता है, चेहरा पसीने से लथपथ लेकिन थकावट का दूर तक कोई नामोनिशान नहीं. एक टीबे से दूसरे तक, ऊँचाइयों – ढलानों से होते हुए वह चला जा रहा है. हर उठते कदम से पीछे रेत पर पदचिह्न बनते हैं लेकिन अगले ही पल वे रेत के ग़ुबार से ढक जाते हैं. ऐसा लगता है कि यह सफ़र यहीं कहीं बीहड़ के बीचोबीच शुरू हुआ है. विगत जैसे कही विलय होता जाता है और भविष्य धुँधली-सी उजास लिये सामने-सा दिखता है. यही तो मार्ग मादरजाद है जिस पर ना कहीं कोई चिह्न ढूँढ पाता है और ना ही कोई गन्तव्य! बस चलना है और चलते जाना है. स्वयं से प्रश्न करता हुआ वह— जवाब कभी अपने परिवेश से या अपनी अनुभव की गठरी से पाता— लेकिन तत्काल फिर कोई नया प्रश्न सामने पाकर वापिस उसी जद्दोजहद में जुट जाता यात्री, कहाँ तक अपने जवाब ढूँढ पायेगा!
बीहड़ में कोई साथ नहीं लेकिन कुहासा यह अकेलापन इस तरह ढाँप देता है कि उसे लगता है कुहासे के कारण वह कुछ देख नहीं पा रहा लेकिन सब तरफ़ कोई-न-कोई है, जो भले ही अपने-अपने सफ़र पर हैं लेकिन फिर भी उसके साथ चले जा रहे हैं. इसी उम्मीद में वह उन के बिम्ब देखता चला जा रहा है लेकिन वास्तव में वह अकेला उस बियाबान में है जहाँ दुनिया या तो पीछे छूट गयी है या वह उस राह पर आ चला है जिस पर कोई होता ही नहीं. आभासी बिम्बों के सहारे वह चला ही जा रहा है, लेकिन जाने कहाँ! एक अन्तहीन विस्तार की संभावना लिये जीवन के सफ़र को— जो अन्ततः सीमित हो कर ख़त्म हो जाता है, हम कैसे तय करते हैं, इसी का रेखाचित्र पीयूष दईया ने अपनी चिर-परिचित अमूर्तन शैली में उकेरा है. एकबारगी यह आख्यान-रहित काव्य-कथा दिखती है लेकिन जब इसमें डूब कर बाहर आएँ तो आप महसूस करेंगे कि यह दरअसल स्मृति की परतों में दबे-कुचले अनेक आख्यानों का अन्तर्जाल है जिसके सिरे आपस में जुड़े -न-जुड़े लेकिन जाल मज़बूती से बुना गया है. दरअसल बहुविध आख्यानों किन्तु एक सहज अन्तर्कथा समेटे यह काव्य-कथा, कविता और कथा रूपी दो द्वीपों के मध्य किसी स्वतंत्र टापू की तरह अपने आकार को पाती है जिससे कविता और कथा, दोनों के स्वरूपों को देखा तो जा सकता है लेकिन यह एक अलग अस्तित्व की रचना है जो ज्ञात परिधियों को धूमिल करते हुए उन्हें एक नयी शक्ल में हमारे सामने प्रस्तुत करती है. अपनी बनावट में विशिष्ट इस काव्य-कथा को दरअसल किसी आख्यान के सहारे की ज़रूरत ही नहीं है.
कविता— बल्कि कला का कोई भी रूप— मानव-मन की चेतना की अभिव्यक्ति है. इसलिये यह अपने परिवेश से बहुत कुछ ग्राह्य करती है. दरअसल अनुभवों को शब्द और भावों को रूप देकर ही कविता अपना आकार पाती है. इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि अनुभूतियों के द्वन्द्व से जो भाव उपजते हैं, वे अन्ततः कविता में बस जाते हैं. पीयूष दईया के काव्य-संग्रहों में हम देखते हैं कि उनका अनुभव सामान्य कविता-शिल्प के रूप में सामने नहीं आता बल्कि वह चेतना और वाह्य-जगत के गूढ़ सम्बन्धों से उपजे भावों की टीस को बयान करने का उपक्रम हो जाता है. यहाँ संस्कृत-काव्य की तरह शब्द चयन भी हमारी वर्तमान कविता परम्परा से भिन्न है. पीयूष के कविता-संसार में शब्दों का जो भाव-जाल बुना जाता है वह एक ओर उन्हें अपने समय की परम्परा से अलग तो ज़रूर खड़ा करता है, पर पाठकों के लिए दुश्वारियाँ भी पैदा करता है. उनके पूर्व के संग्रहों में भी कविता का शिल्प और भाषा में शब्दों को बरतने के बहुत प्रयोग है और यह काव्य-कथा भी इससे अछूती नहीं है. एक बहुत ही गंभीर और भावपूर्ण कविता को मार्ग मादरज़ाद के पहले पन्ने पर पाकर आश्चर्य ज़रूर हुआ लेकिन अन्ततः वह एक चक्रव्यूह ही निकला, यह इस कविता के तुरन्त बाद समझ आ गया!
अचानक से एक बच्चा
रखता है तीन पत्थर
और कहता है—
यह मेरा घर है.”मैं नहीं चाहता
मेरे बच्चे भी कभी रखें
(तीन पत्थर)
यहाँ से पीयूष अपने चिर-परिचित मार्ग पर तत्काल लौटते हुए कहते हैं:
वह विद्यमान है. विधाता. उसके रास्ते से गुज़रो.
पूरी तरह से भुला दिये गये.रिक्त स्थल हैं.
वहाँ.भींचे हुए जिन्हें नुकीले काँच-सा खुबता है शून्य.
लकीरें उसकी हथेली की.क्या मार्ग है मकड़ीले?
शुरुआत में वह कहते हैं कि “कुएँ की छाया जैसे कुएँ से बाहर नहीं जाती” लेकिन क्यों नहीं जाती वह खुलता है अन्तिम के पृष्ठों पर, जब वह कहते हैं कि “जैसे साया. कभी ऊपर नहीं आता.” अमूर्तन की शैली में रचे-बसे कवि से यह कदाचित अपेक्षित नहीं कि वह सपाट बयानी करे— वह कविता होगी भी नहीं, लेकिन पाठक ग्राह्यता के लिए ज़रूरी होता है कि कविता अपने भीतर घुसने का रास्ता इतना सँकरा भी न बनाएँ कि उसमें प्रवेश करना ही मुश्किलें खड़ी करने लगे! हालाँकि कहीं-कहीं उन्होंने कुछ मुश्किल ही सही, पर कुछ रास्ते रखे हैं जिनसे आप उनके काव्य-संसार में दाखिल हो सकते हैं:
बाँस की ख़ाली पोंगरी-सा शरीर
न कोयला हो पाता
न राख.ख़ून जला कर गलेपड़ी अधजली लकड़ी-सा
धुआँता रहता.न जलना जान पाता
न बुझ पाता.मसानी तासीरतपा इन्तज़ार में रहता.
पीयूष के पूर्ववर्ती संग्रहों में भी उनकी अपनी तलाश साफ़-साफ नज़र आती है. यहाँ भी वे अपनी जड़ों से बिछड़ने का दु:ख कुछ इस तरह बयाँ करते हैं:
अपने को बरजता रहता.
बदलने से
या फिर से वही सब पाने को
जो उसने खो दिया होता.सकल जड़ों संग.
दरअसल हर कवि अपने नये संग्रह में उत्तरोत्तर निखार पाता है और अपने ही खोल से बाहर आने का प्रयत्न करता दिखता है, पीयूष इस मामले में भी विरले हैं. वे अपनी उसी ज़मीन पर रह कर नये प्रयोग कर रहे हैं जहाँ वर्तमान कविता परम्परा शायद अभी पहुँची नहीं है. स्वभाव से मितभाषी कवि यहाँ भी इशारों में ज़्यादा बात करता है, बिम्बों और प्रतीकों को अपना मुख्य अस्त्र बना कर कविता कहता है. जब कवि किसी सघन चुप्पी में होता है तो उसके भीतर बहुत कोलाहल मचा रहता है! यह सन्नाटा ही कोई कविता बन कर इस चुप्पी को चीरता है. अन्दर जितना सघन सन्नाटा, उतनी ही ज़्यादा कविता की हूक! कवि पीयूष के खोखल में गूँजती हूक नये शब्द-प्रमेय के साथ विस्फोटित होती है, बहुत संभव है कि आप उसकी तीव्रता का अन्दाज़ा तक न लगा सकें.
मार्ग मादरजाद काव्य-कथा पद्य के परम्परागत भाषा-शिल्प और समसामयिक परम्पराओं से बेपरवाह काव्य-शिल्प का यह स्वरूप पाती है जो काव्य और कथा की परिधि पर रहते हुए दोनों विधाओं की सीमाओं में आती-जाती दिखती है. दुख या अवसाद के लम्बे रास्तों से सहजता से गुजरते हुए कवि अपनी जानी-पहचानी ज़मीन तक पहुँच ही जाता है. एक कवि कभी नहीं चाहता कि उसके शब्द भावों पर इतने भारी हो जायें कि भाव अपना स्वरूप खोते दिखें. हालाँकि, पीयूष दईया की चिर-परिचित अमूर्तन काव्य-शैली में यह ख़तरा बराबर बना रहता है लेकिन अपने अनूठे काव्य-शिल्प से वह शब्दों द्वारा भावों को उसी धरातल पर पहुँचाते हैं जहाँ कविता में उन्हें होना चाहिए. असहज, कम प्रचलित लेकिन पारम्परिक शब्दों के प्रयोग के साथ पीयूष अपनी बात के मर्म को उजागर करते हैं. यद्यपि कभी-कभी उनके शब्द, और एकाधिक बार पंक्तियाँ उनके भीतर की छटपटाहट से उलझ भीतर ही रह जाती है, पाठक तक पूरी नहीं खुलती.
मटके पर हाथ फेरते अगर आप उस नर्म, मुलायम, और सुवासित मिट्टी को महसूस कर सकते हैं जिसने आग में तप अपना यौवन न्योछावर कर मटके का रूप पाया है तो आप निश्चित ही पीयूष दईया की इस काव्य-कथा को अन्तस में महसूस कर पायेंगे. मटके पर, मुलायम मिट्टी और पानी के एकमेक होने और पानी सूखने के बाद बने सूक्ष्म रंन्ध्र उसके भीतर-बाहर की दुनिया के द्वार हैं. पीठ पीछे छूट गयी देहरी के प्रलाप को लगभग विस्मृत करते आगे बढ़ते हुए नए आँगन-द्वार पार करना और उनकी स्मृतियों को भी तदनन्तर भुलाते चले जाना, यही तो उसके जीवन का सार है. अक्सर पीयूष की रचनाओं से गुजरते लगता है कि रचनाकार एक सघन लेकिन संभवत: असंभव खोज की तलाश में भटक रहा है. लेकिन उसकी भटकन तयशुदा राजमार्गों की बजाय (नैराश्य की) अचिह्नित पंगडंडियों पर अनवरत जारी है.
उसे पता होता
कि कोरे में काग़ज़ का इल्म नहींपर कौन जाने वह उसी इल्म का कोरा हो
जो काग़ज़ लिखने से उजागर होता तो,
कोरे में.तब न वह कोरा रहता
न काग़ज़
बस उजागर होता चला जाता.
पीयूष की कविताएँ केवल अतीत का दरवाज़ा नहीं खोलतीं, बल्कि उन में भविष्य की झलक भी दिखती हैं, हालाँकि भविष्य यहाँ अतीत जितना सुघड़ व स्पष्ट न हो कर एक घने धुँधलके में सिमटा है. उनके बिम्ब और प्रतीक, कहन का अन्दाज़, पंक्ति (और कहीं-कहीं शब्दों का) विन्यास, अनुभव जनित भाषा को कहने का ढब तथा शिल्प, पाठक के लिए बहुधा परेशानियाँ पैदा करती हैं. कविताओं से गुजरते हुए पाठक एक बैचेनी-सी महसूस करता है. संभवत: यही वे परेशानियाँ हैं जो अन्तत: हमें रचना के मर्म तक पहुँचने पर आनन्द की अनुभूति करवाती है. अज्ञेय ने अपनी कृति “एक बूंद सहसा उछली” (यूरोप-यात्राओं के वृत्त और संस्मरण) में निवेदन (भूमिका या प्रस्तावना नहीं, निवेदन) में ऐसे पाठक-वर्ग की कामना की है जो संवेदनशील, उदारमना और जीवनानुभव के प्रति खुला हो, जीवन से प्रेम करता हो और जो अनुभव को संपूर्णता में देखने की दृष्टि रखता हो; उन्हें तयशुदा खाँचों में न बाँटे. वैसे तो हर कृतिकार यही चाहेगा कि उसे ऐसे पाठक मिलें लेकिन पीयूष दईया की कृतियाँ उन्हीं पाठकों के लिये बनी हैं जो अज्ञेय द्वारा चाहें गये पाठक-वर्ग का चरित्र वरण करें. साहित्य का हित भी दरअसल ऐसे पाठक-वर्ग से ही होगा जो संवेदना, प्रेम और अनुभव की जटिल परतों को अपने लिये खोल सके. साहित्य का औचित्य भी तो यही है.
यहाँ रीतिकालीन कवि आचार्य चिन्तामणि का स्मरण दो वजहों से कर रहा हूँ: पहला कारण यह कि उन्होंने अपने समय की प्रचलित आलंकारिक परम्परा से अलग हट कर अपेक्षाकृत नवीन रसवादी धारा में खुद को ढाला. दूसरा कारण, शब्द और उससे अर्थ बरामद करने की प्रक्रिया पर उन्होंने महत्वपूर्ण बात कही कि जो सुनाई पड़े वह शब्द है और जो उस ध्वनि से समझ आये वह उसका अर्थ होता है. अर्थात् जो ध्वनि हम सुनते हैं वह शब्द और उस ध्वनि से जो अर्थ हम ग्रहण करते हैं वह उसका आशय या अर्थ होता है. पीयूष अपने समय की काव्य-परम्परा से अलग राह पर तो है ही, उनके शब्द-प्रयोग भी उन्हें विशिष्ट बनाते हैं. पूरे संग्रह में ऐसे अनेक शब्द मिलेंगे जो अपने अर्थ की प्राप्ति सहजता से नहीं करने देते- आपसे बहुत मेहनत माँगते हैं. कवि-कर्म की पहली कसौटी यह है कि कविता कभी भी शब्दों के बोझ तले न दबे. कथ्य-कहन पर शब्द उसी तरह आ कर बस जाये जैसे कोई तितली पुष्प पर आती है. पीयूष की रचनाओं में लेकिन कहीं-कहीं पुष्प झुकते-से दिखाई देते हैं.
कविता को भाषा की न्यूनतम इकाई माना गया है, पीयूष इस न्यूनतम को थोड़ा और न्यून कर देते हैं जिसे हमारी तरफ़ ‘छाँग देना’ कहा जाता है! यह उनकी कविता का अपना शिल्प है कि वह अमूमन जितने शब्दों में कोई बात कह सकते हैं, उसे उससे भी कम में कहने का कौशल अपनी कविताओं में दर्शाते हैं; कहीं-कहीं तो एक शब्द ही पूरा वाक्य होता है. यहाँ अपने आदिम रूप में शब्द बिम्बात्मकता के सहारे ज़्यादा प्रस्फुटित होता दिखता है. जितना कुछ उनके भीतर उमड़ता है उसे वह संपूर्ण रूप में काग़ज़ पर नहीं उतारते. और यही कारण है कि पाठक, बक़ौल अमिताभ राय (फ़्लैप पर), “आत्मा के दायरों में फिसलते मनुष्य की यात्रा” में शामिल होने का प्रयत्न करता है. अमिताभ आगे “उनकी भाषा में संगीत-सा रचाव” देखते हैं. यहाँ यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि उनकी भाषा से उपजा संगीत विलम्बित रूप में ही सामने आता है. यहाँ मैं आशुतोष भारद्वाज के इस कथन से पूर्णतया सहमत हूँ कि उनकी पुस्तक में “ब्लर्ब की जगह ख़ाली भी रखी जा सकती थी. एक लम्बी लकीर जिसके दोनों किनारों पर अव्यक्त आ ठहरा है.…… एक गल्प जो अपनी आकांक्षा में अमूर्तन को धारण करता है.”
जोखिम के साथ एक बात कह सकता हूँ कि यह काव्य-कथा भाषा व शिल्प के नजरिये से किसी नयी परम्परा का आग़ाज़ करें-न-करें, किसी परम्परा का निर्वहन तो यह कदापि नहीं करती. यहाँ कवि अपनी अनुभूतियों के उबड-खाबड़ धरातल पर अपने दु:ख, पीड़ा और उससे भी कहीं ज़्यादा क्षोभ को एक परचम बना आगे बढ़ रहा है. संभव है, वह किसी दिन अपनी मंज़िल पर पताका फहराता मिल जाए!
सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 120 पन्नों की इस छोटे आकार की पुस्तक का आवरण, पीयूष दईया के पिछले संग्रह “त(लाश)” से अलग किन्तु वही चिर-परिचित रहस्यमयी भाव दर्शाता है. कवि के नाम में अक्षरों बीच मौजूद स्पेस अकारण नहीं— वह कवि की मूल प्रवृति का स्वरूप है. वह हर शब्द को पूरा स्पेस देना चाहते हैं, यहाँ तक भी कि पूरा स्पेस किसी एक ही शब्द को समर्पित कर देते हैं!
____________
चन्द्रकुमार निजी सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनी में निदेशक का कार्यभार सँभालने के साथ-साथ साहित्य और सम-सामयिक विषयों पर पठन-लेखन करते हैं. कला, संस्कृति, लोक-जीवन, शिक्षा, खेल, विज्ञान और समकालीन मुद्दों पर उनके आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. विरासत-संरक्षण अभियान के तहत ‘युवायन’ के हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा के हवेली विशेषांकों का सम्पादन भी किया है.
संपर्क: |
बहुत अच्छी संतुलित समीक्षा।पीयूष दइया जी अमूर्तत के कवि हैं इसलिए उनकी कविताएँ भी आधुनिक कलाओ की तरह प्रायः अमूर्त होती हैं।इन्हें समझने से अधिक महसूस किया जा सकता है। कविता में भाषा के विखंडन से व्यंजना की कौंध और उसका प्रभाव अर्थ खुलने के पहले ही कभी-कभी मन के उपर पड़ने लगता है।मेरे विचार में कलावादी दृष्टि से अर्थ कविता का कोई नित्य धर्म नहीं है। पीयूष जी एवं चंद्र कुमार को इस समीक्षा के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ !
पियूष जी के तीनों संग्रह की अंतर्यात्रा करते हुए मैंने यही पाया है कि वह दुरूहता ही है जो उनकी रचनाओं को अमूर्त धारित करने का सुपात्र बनती हैं। यहाँ, शब्द संयोजन अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्रथम इसलिए, चूँकि यह भाव की पीठिका तैयार करता है। दूसरा इसलिए, क्योंकि वाक्यों के बीच में जो शब्दों द्वारा उतपन्न अंतराल है, उसके माध्यम से पाठकों द्वारा विभिन्न अर्थों की निष्पत्ति संभव है। शब्दों के माध्यम से अप्रस्तुत विधान का प्रस्तुतीकरण संभव है। उनकी रचनाएँ जरूरी कोलाहल के मध्य अभीष्ट अभेद और मौन का स्वर लिए हैं।