सौरभ राय की कविताएँ |
टकराना
चलते हुए आदमी से टकराया तो माफ़ी मांगी
लिफ्ट में टकराया स्त्री से तो आँखें बचाईं शरमाकर माफ़ी मांगी
साइकिल से टकराई साइकिल तो वह बूढ़ा मुझे उठाने दौड़ा चेन लगाई हैंडिल सीधी की
उस शाम उसका खून सना टखना मैं करता रहा याद
जब टकराईं मोटरसाइकिलें मैंने मरोड़े कॉलर हगवाए पैसे
भिड़ा दी कार तो दोनों उतरे अलग-अलग भाषाओं में गरियाते
और कितने पास से देखी मृत्यु जब वो लौटा पलटकर
डिक्की से स्पैनर निकाल
जैसे तैसे बचा स्टीयरिंग मोड़ी
फिर मैंने पैदल चलतों पर हॉर्न मारा
जाहिल ! गँवार !
नाभि में तेल
“प्याज का पूरा झाँझ ऊपर उसके जड़ में होता है
ककड़ी की सारी कड़वाहट डंठल के पास
गोभी की तमाम गांठें मूठ में
आम भी देखना सड़ना शुरू करता है वहीं से मुहाना खोल
और अगर कहीं और से पिलपिलाने लगे आम
तो समझ लेना कुछ गड़बड़ है
ये सब छोड़ो नाभि में तेल लगाया करो
तुम्हें भी सारा नमक दूध और तेल
मिलता था मेरी नाभि से
नाल तोड़कर अलग किया था
गर्भ से निकाल”
“शर्ट गन्दा करोगी !”
मैं कटोरी सरकाता हूँ
“नाभि में तेल डालने से कुछ नहीं होता माँ
इसका कहीं किसी किताब में कोई उल्लेख नहीं
जन्म के बाद नाभि का क्या काम
केवल एक अवशेष है यह पोखरिया खदान
जिसका सारा कोयला निकाला जा चुका ।”
देर तक झुककर नारियल कूरति माँ
मेरी बात नहीं सुनती –
“तुम्हें लगता है दिमाग ही सब कुछ है
अपनी नाभि संभालो उसी में केंद्रित है संसार ।”
मैं पानी पी सकता हूँ
मगर पीता हूँ सिगरेट.
टीवी और भूत
1.
सचमुच डरा हुआ था डब्बे पर बने चेहरे से
ओनिडा का मशहूर ब्रैंड आइकन
जिसके सींग थे और खड़े कान
मैं जितना डरता वो उतनी ज़ोर से हँसने लगता
‘हाँ, वही बैठा है उस बक्स में’
ढोकर लाए थे तीन-चार लोग
और रख गए थे वहीं जहाँ मैं सोता था
फिर अंटीना फिट करने वाला नहीं आया दिनों तक
लेकिन अड़ोसी-पड़ोसी आते रहते फिर भी
और डब्बा देखकर लौट जाते
भूत थे हम कॉलोनी के
पड़ोसियों को डरा रहे थे
मुझे लगा मैं डब्बे में बैठा हूँ
और मेरे सींग रबड़ के हैं.
२.
आखरी बार टीवी खराब हुई
कबाड़ में दे आया
और रख दी कुछ कुर्सियाँ
एक-दूसरे की ओर मुड़ी हुईं
जब अड़ोसी पड़ोसी दोस्त कवि आए
उन्हें बिठाया चाय चढ़ाई
और शुरू हो गए अपन
फिर एक गोरैया आ बैठी खिड़की पर
हमारे हँसी-ठट्ठों को अपनी चहचहाहट से भरती हुई
मुझे लगा हमारे चाय के कप भी चहचहा रहे थे.
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बेंगलुरु निवासी सौरभ राय कवि, अनुवादक और पत्रकार हैं. अध्यापन और स्वतंत्र लेखन के अलावा ऑनलाइन पत्रिका ‘बेंगलुरु रिव्यू’ का संपादन करते हैं. प्रमुख कृतियाँ : यायावर (कविता-संग्रह), कर्णकविता – बैंगलोर वासियों की कविताएँ (संपादन), तीन नाटक- अभिषेक मजुमदार (संपादन), सोहो में मार्क्स और अन्य नाटक- हॉवार्ड ज़िन (अनुवाद), ओस की पृथ्वी- तीन जापानी हाइकु कवि (संकलन व अनुवाद). |
कुछ अलग मिज़ाज की कविताएँ।समकालीन कविता के मुहावरे को और विस्तार देती।बहुत ही साधारण या छोटी-छोटी तुच्छ बातें भी जीवन को देखने-समझने की एक दृष्टि देती हैं। सौरभ जी एवं समालोचन को बधाई !
इधर की युवा कविताओं में नब्बे की स्मृतियाँ खूब दर्ज हो रही हैं। बीस-पच्चीस वर्ष में अनेक परिवर्तन हुए हैं। इस परिवर्तन को हम जैसे लोग देखकर सहम जाते हैं। अगली पीढ़ी को लेकर चिन्तित हो जाते हैं। ‘टीवी और भूत” कविता यही सब कुछ कहती कविता है।
सौरभ जी को बधाई!
सौरभ के रचनाकर्म का साक्षी रहा हूँ । कुछ साल पहले उन्होंने अपने तीन कविता संग्रह भेजे थे । उन्हें पढ़कर उनके प्रति सम्भावना बनी थी और आज वह फलित हो रही है । वे अच्छी कविताएं लिख रहे हैं ।
टीवी और भूत
कवि सौरभ राय जी कुछ पुराने ज़माने में चले गये हैं । जिस समय ओनिडा का सामान्य टीवी (Neither LCD nor LED) आता
था तब उसका विज्ञापन ऐसा ही था जैसा वर्णन कवि ने किया है । मोनालीसा की पेंटिंग की तरह जिस ओर हम मुड़ते हैं उसी तरफ़ हमें देखती हुई । मोनालीसा कि रमणीय नयनों की तरह नहीं बल्कि हमें डराती और घूरती हुई । पुरानी क़िस्म के एंटेना की आपको याद होगी । सौरभ जी ने सही लिखा है कि उस बक्से को न खोलें तो अच्छा होगा । माइक्रोसॉफ़्ट विंडो की तरह कहीं स्क्रीन पर घूरता हुआ ओनिडा ही न नज़र आने लग जाये
1. टकराना
अनूठी कविता है । साइकिल पर चलते हुए कवि को चोट लग गयी । वह घायल हो गया है । साइकिल एक महिला से टकरा गयी तो शायद दोनों शर्मसार है । “निगाहें उलझना अजब हादसा है
मेरे होश गुम हैं वो शर्मा रहा है”
कवि अपनी साइकिल का टेढ़ा हो चुका हत्था (हैंडल) सीधा कर रहा है । मैं जब छठी कक्षा में पढ़ता था तब मेरे लाल जी (पिता जी) ने 50 रुपये की पुरानी साइकिल ख़रीदी थी । वे बूढ़े और ग़रीब थे और भाई साहब मस्त ज़िंदगी जीते थे । इसलिए मैं निष्कर्ष निकाल सकता हूँ कि साइकिल मेरे लिए ख़रीदी होगी । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी; पता नहीं कि आपको तजुर्बा है या नहीं । साइकिल बड़ी थी और मेरी आयु कम थी । कैंची (फ़्रेम) में पैर डालकर साइकिल चलानी सीखी । मुझे लाल जी के ज़माने की बात याद आ गयी । उनके ज़माने में साइकिल पुलिंग शब्द होती थी । ‘मैंने साइकिल खड़ा किया’ बहरहाल सीखते हुए अनेकों बार गिरा । हैंडल टेढ़ा हो जाता । फिर अगले पहिये के दोनों ओर टाँगें डालकर हैंडल सीधा करता । कभी चेन उतर जाती । उसे चढ़ाता । चेन पर लगी हुई ग्रीस से हाथ चिकने और काले हो जाते थे । नौकरी में 1980 में नियुक्त हुआ । छह वर्षों तक शहर में पैदल चलकर जाता । कभी-कभी एक ओर का रास्ता चार किलोमीटर होता था । कार रखना/ ख़रीदना सपने की बात है । उसका हैंडल टेढ़ा नहीं होता । अलबत्ता कार सीखते हुए बम्पर किसी कार या दीवार से भिड़ जायेगी ।