गुप्तकाल में केशविन्यासतरुण भटनागर |
केशविन्यास ऐतिहासिक रूप से एक अत्यंत प्राचीन चीज है. वालपर्ग (Walpurga) नाम के एक पुरातत्ववेदता द्वारा वीनस आफ विल्नडोर्फ़ (Venus of willendorf) नाम से चर्चित आस्ट्रिया में मिली एक मातृ देवी (Mother goddess) की मूर्ति के केश विन्यास पर किए गए काम बताते हैं कि मानव इतिहास में केशविन्यास का सबसे पुराना साक्ष्य कम से कम 25000 साल पुराना तो है ही.
हमारे यहाँ आज के बलूचिस्तान स्थित मेहरगढ़ से मिली एक ऐसी ही मातृ देवी की मूर्ति जिसका काल 4000 से 2700 BC बताया गया है में केशविन्यास के साक्ष्य मिलते हैं. इस मूर्ति में बालों को ऊपर की ओर बांधने और बालों को संभालने के लिए सिर के चारों ओर एक बैंड का प्रयोग किया गया है. हड़प्पा सभ्यता के दौर में कालिबंगा से मिले कंघी और दर्पण बताते हैं कि हज़ारों साल पहले से केशविन्यास का सौंदर्यबोध हमारे यहाँ था. मोहनजोदडो की नर्तकी और पुरोहित की मूर्तियों में मिले केशविन्यास पर काफ़ी अध्ययन हुए हैं.
यहाँ यह भी है कि जब केश विन्यास की बात होती है तो यह सिर्फ़ ख़ुद को सजाने-सँवारने या सौन्दर्य के लिए की जाने वाली सज्जा भर नहीं है. दरअसल केशविन्यास की ज़रूरत और उसके लिए किए जाने वाले हज़ारों सालों से चले आ रहे कामों ने इसका प्रयोग सिर्फ़ केशविन्यास के बजाय और भी कई तरह से करने की वजहों को विकसित किया जिसने आज के हमारे समय को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी .
वैदिक काल के ग्रंथों ‘शतपथ ब्राह्मण’और ‘आश्वलायन ग्रह्यसूत्र’ में उल्लेखित है कि शोकग्रस्त स्त्री और पुरुषों को अपने बाल सिर के बीच ऊपर को ढीले जूडे की शक्ल में बांधना चाहिए. यह इस बात को बताता है कि केशविन्यास किसी समय की परम्परा को भी दर्शाता है जैसे इन दोनों ग्रंथों में शोक को प्रदर्शित करने की परम्परा. फिर यह भी है कि परम्पराओं के भी तमाम प्रकार हैं जिनसे प्रभावित होकर केशविन्यास बदलते रहे हैं. केशविन्यास को सौंदर्यबोध और फ़ैशन के रूप में देखना ज़्यादा अच्छा लग सकता है, पर हमारा इतिहास बताता है कि केश विन्यासों के विकास में सौंदर्य के साथ-साथ कई दूसरे कारक भी अहम रहे हैं.
ज़्यादातर इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि आदिकाल में बढ़ते बालों से होने वाली दिक्कत, गंदगी और बीमारियों से निजात पाने की कोशिशों ने केशविन्यास की शुरुआत की. केशों को काटे जाने से लोगों का दिखावा यानी appearance बदल जाता था, इससे इस बात की चेतना विकसित हुई कि किस तरह के केश काटे जाएँ या संवारे जाएँ कि किसी विशिष्ट प्रकार का appearance दिख सके. केशविन्यास ने हमारे समाज में जेंडर को भी गढ़ा और स्त्री पुरुष के बीच अलग-अलग केश विन्यासों की बाध्यता इसका एक प्रमाण है ही.
वैदिक काल के ग्रंथ ‘बौद्धायन गृह्य सूत्र’ में उल्लिखित है कि घर की परम्परा के अनुसार बालकों को एक, तीन या पाँच शिखायें बनानी चाहिए. वैदिक ग्रन्थ कापर्द, पुलस्ति, स्तुक, शिखंड …आदि नामों से उल्लिखित कई प्रकार के केशविन्यासों को बताते हैं और ‘शिखा’ भी इनमें से एक है, जिसे धार्मिक परम्परा के रूप में विकसित होता हुआ देखा जा सकता है. स्त्री पुरुष के लिए एक से केश विन्यासों के स्थान पर स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग केश विन्यासों का विकास जेंडर को बनाने वाले कारक की स्वीकार्यता और स्त्री-पुरुष में भेदभाव का परिचायक है.
‘बौद्धायन गृह्यसूत्र’ का यह विवरण कि बालकों को घर की परम्परा के अनुसार एक, तीन या पाँच शिखाएँ रखनी चाहिए, लड़कों के लिए अलग से केश विन्यास की बात करता ही है . ‘आश्वलायन गृह्य सूत्र’ लड़कियों के लिए सर के दोनों तरफ़ दो चोटियाँ बनाने की बात कहता है. इसमें यह भी उल्लिखित है कि विवाह के समय वर को वधु की इन दो चोटियों को खोल देना चाहिए.
‘हेयर स्टाइल इन एंशियंट इण्डियन आर्ट’ के लेखक के. कृष्ण मूर्ति का मानना है कि इसी परम्परा से अविवाहित लड़कियों में दो चोटियाँ बनाने और विवाह के बाद इनकी जगह एक चोटी या अन्य तरह के केश विन्यास को अपनाने की परम्परा विकसित हुई होगी. आज भी कुछ परम्परागत समाजों में अविवाहित कन्याएँ ही दो चोटियाँ बनाती हैं जो विवाह के बाद इस तरह का केश विन्यास छोड़ देती हैं. स्त्री और पुरुषों के केश विन्यास में यह भेद अत्यंत प्राचीन है और यहाँ तक कि सिंधुघाटी सभ्यता में भी इन केश विन्यासों में अंतर दीखता है. जेंडर आधारित ये केशविन्यास इतने परम्परागत हुए कि लम्बे केशों से मुक्ति स्त्रियों के लिए आसान नहीं रह गया, जबकि पुरुष आज से सैंकड़ों साल पहले ही यह सहूलियत प्राप्त कर पाए. आज भी यह सब है ही.
संस्कृत के व्याकरणविद विद्वान पाणिनि ‘अष्टाध्यायी’ में ‘प्रवीण नागरिक’ शब्द का प्रयोग संस्कारी नागरिकों के अर्थ में करते हैं और सलीकेदार ‘केश वेष’ यानी केश विन्यास को आवश्यक बताते हैं. वैदिक काल से लेकर पूर्व गुप्त काल तक सुंदर दिखने और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसकी सामाजिक प्रतिष्ठा हो और ऐसे भी जो लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करने की इच्छा रखते हों केश विन्यास का अपना महत्व रहा है. बौद्ध ग्रंथ ‘चुल्लवग्ग’ में केशों को विन्यस्त करने की प्रक्रिया का उल्लेख विस्तार से दिया गया है. इसमें केशों को मुलायम करने के लिए ‘ओसन्नहिति’ शब्द आया है जो कि ‘कोच्च’, ‘फन्नक’ तथा ‘हट्थ फन्नक’ नाम से उल्लेखित कंघों से किया जाता था. इसमें बालों में चमक और ख़ुशबू लाने के लिए जिसे ‘सिट्थ तेल’ कहा गया है मधु के मोम का प्रयोग किया जाता था जिसके लिए ‘उदक तेल’ शब्द का प्रयोग किया गया है. कहने का तात्पर्य यह है कि गुप्तकाल के केशविन्यास की बात दरअसल इतिहास के उस दौर से शुरू होती है जो गुप्तकाल से सैंकड़ों वर्ष पूर्व का समय है और जब केशों को सँवारने और उनके देखभाल के तौर-तरीक़े विकसित हो रहे थे.
बौद्ध भिक्खु नागसेन और ग्रीक राजा मिनांडर जिसे मिलिन्द कहा जाता के बीच प्रश्नोतरों पर आधारित बौद्ध ग्रंथ ‘मिलिंद पन्हा’ में बालों की देखभाल करने के कुछ तरीक़ों का उल्लेख है. लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व के इस ग्रंथ में बालों को काटने की क्रिया के लिए ‘काप्पक’ शब्द आया है और इसके बाद ‘धोवन’ यानी शैम्पू करने और फिर ‘कोच्च’ यानी कंघी करने और फिर ‘बंधान’ यानी बालों को बांधने का उल्लेख है. बालों को सँवारने के लिए एकदम सही क़िस्म का दर्पण कैसा हो इसका भी विवरण इस ग्रंथ में है और इस उपयुक्त दर्पण को ‘आदर्श मण्डल’ कहा गया है. कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में ‘कल्पकों’ का उल्लेख किया है जो कि बाल काटने वाले लोग होते थे. अर्थशास्त्र में साधुओं और भिक्कुओं द्वारा किस तरह के बाल रखे जाते थे इसका उल्लेख है. मौर्य काल के ये उद्धरण इस दौर में बाल काटने वाले लोगों यानी कल्पकों के महत्व को भी दर्शाते हैं जो मुख्यरूप से केशसज्जा में उनकी भूमिका के बखान की तरह से हैं. इस तरह एक पुरातन केशविन्यास की परम्परा को हम इतिहास में देखते हैं जिसने गुप्तकाल के आते तक एक उन्नत परम्परा का रूप ले लिया था.
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गुप्तकाल में जितने प्रकार के केशविन्यास देखने और पढ़ने को मिलते हैं वे इससे पहले इतनी तादाद में नहीं हैं. गुप्तकाल के मंदिरों जैसे देवगढ़ का दशावतार मंदिर, नचना कुठार, गान्धार और मथुरा की मूर्तियाँ, अमरावती, नागार्जुनकोण्डा तथा अन्य स्थानों पर तथा अजन्ता सरीखे स्थानों से मिले चित्रों में इन केशविन्यासों का वैविध्य देखने को मिलते हैं. दरअसल ये इतने प्रकार के हैं कि इन सबका विवरण किया जाना किसी एक आलेख में सम्भव ही नहीं. इस दौर में केशविन्यास की उन्नत परम्परा का विकास परम्परागत तरीकों का दबाव, सौंदर्य के आधार पर आकर्षण के आधार तत्व के रूप में केश विन्यास की अहमियत, विदेशी प्रभाव और यहाँ तक कि नागरिक सामाजिक कर्तव्यबोध की अहमियत जैसे कई कारणों से हुआ.
गुप्तकाल के आते-आते न सिर्फ़ केशविन्यास के कई तरीक़े विकसित हुए बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों के केशविन्यास को उस क्षेत्र विशेष के केश विन्यासों के रूप में मान्यता भी मिली. यानी किस क्षेत्र के लोग किस तरह के केश रखते हैं इसकी क्षेत्रीय परंपरा भी व्यापक रूप से विकसित हुई. जैसे भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ के विकास का यही काल है और यह क्षेत्र विशेष के केशविन्यास का उस क्षेत्र की विशेषता के रूप में उल्लेख करता है.
नाट्यशास्त्र में उल्लेखित है कि मालवा की स्त्रियाँ घुंघराली लटों वाले बाल यानी ‘शिरहसालक कुंतलम’ बनाती हैं वहीं गौड़ राज्य यानी आधुनिक बँगाल क्षेत्र की स्त्रियाँ ‘शिखा’ यानी सिर के शीर्ष पर बंधे बालों वाला जूड़ा बनाती हैं. गौड़ क्षेत्र की स्त्रियों के केशविन्यास का ज़िक्र करते हुए इस ग्रंथ में उनके द्वारा बनाए जाने वाले पट्टीदार बालों की वलयाकार लटकन का ज़िक्र भी है जिसे ‘पाशः वेणिकम’ कहा गया है.
इसमें बताया गया है कि उत्तर-पूर्व की स्त्रियाँ बालों के गुच्छों को बेहद सधे हुए तरीक़े से ऊपर तक बांधती हैं और आभिर क्षेत्र की स्त्रियाँ ‘द्वि-वेणि धर्म’ यानी दो चोटियाँ बनाती हैं और कभी-कभी उन्हें अपने सिर पर या सिर के पीछे गोलाई में इन चोटियों को बाँधती हैं.
नाट्यशास्त्र में दक्षिण की स्त्रियों के केश विन्यास पर कुछ विवरण हैं जिनके लिए एक जगह ‘आवर्त ललातिकम’ शब्द आया है. लिखा है कि जिस तरह किसी झरने में पानी की लटें ऊपर से नीचे तक लटकती हैं उसी तरह इन स्त्रियों के केश उनके सर से पीछे पीठ पर होते हैं और दाएँ और बाएँ से कान के ठीक ऊपर से बालों की दो लम्बी लटें लेकर पीछे को बाँधी जाती हैं जिससे पीछे लटकते बाल इस बंधान से एक सीमा में बने रहते हैं.
दक्षिण के संगम साहित्य में भी तमिल स्त्रियों के इस तरह के केश विन्यास का ज़िक्र है. यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि नाट्यशास्त्र उस दौर में अलग-अलग क्षेत्रों में जिस तरह के केशविन्यास को देख रहा था सैंकड़ों साल बाद भी परम्परागत रूप से इनमें से कई केशविन्यास आज भी इन क्षेत्रों में देखने को मिलते हैं.
दरअसल जिस तरह के केशविन्यास आज हैं उनमें से कई का विकास इतिहास के किसी समय में हुआ है और यह मान लेना कि यह तो एकदम नया और नए फ़ैशन का केशविन्यास है त्रुटिपूर्ण हो सकता है. पर यह सब यह भी बताता है कि स्त्रियों को उनके केशविन्यास बदलने की वैसी छूट हासिल न थी जो कि उस दौर में पुरुषों को रही होगी. इस समय और उसके पहले तक काफ़ी तादाद में पुरुषों के ऐसे केशविन्यासों का उल्लेख है जो अब नहीं पाए जाते हैं. किसी दौर में ‘शिखा’ और ‘शिखंड’ या ‘शिखंद’ नाम के केशविन्यास पुरुषों में प्रचलन में थे और लम्बी शिखाओं वाले और कपडे की पट्टी से सिर पर शिखंड बांधे जाने के साथ सामान्य रूप से लम्बे रखे जाने वाले बालों के कई उदाहरण मिलते हैं पर पुरुषों के ये केशविन्यास गुप्तकाल से ही कम प्रचलित होते हुए भी दिखते हैं.
गुप्तकाल और उससे पहले के समयों से बाहरी प्रभाव में केशविन्यासों में जो परिवर्तन आए वे पुरुषों के केशविन्यासों में ज़्यादा हैं जो अपनी तरह के केशविन्यास चुन सकने की उनकी मजबूत स्थिती को बताता है और इस बात को स्पष्ट करता है कि उनको केशविन्यास बदलने और चुनने में स्त्रियों की तुलना में ज़्यादा सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त थी. टोपीदार घुंघराले बालों, छोटे और चारों ओर से बराबर कटे बालों और या तो सर के दोनों तरफ़ या पीछे की ओर काढ़े जाने वाले अपेक्षाकृत लम्बे बाल यवनों तथा दूसरे विदेशियों के प्रभाव से पुरुषों द्वारा अपनाए गए. बहुतायत में अजन्ता के चित्रों, गाँधार और मथुरा की मूर्तियों तथा इस समय के ग्रंथों में इनके विवरण मिलते हैं. दरअसल केशविन्यास इस दौर में स्त्रियों की स्थिति में आयी गिरावट को भी बताते हैं और इसमें सिर्फ़ अजन्ता के चित्रों और कालिदास के विवरणों जैसी चीजों से सौंदर्य की तलाश करना एकतरफ़ा नज़रिया ही होगा.
एक और चीज़ रही है कि इस समय सौंदर्य के पैमाने बदलते रहे हैं जैसे वात्स्यायन ‘मेद’ यानी पेट वाले पुरुषों को आकर्षक बताते हैं और मौर्यकाल तक स्थूल शरीर और मोटे हाथ-पैरों वाली मूर्तियाँ बहुतायत में बनीं. पर बाहरी प्रभाव ख़ासकर ग्रीक लोगों के प्रभाव ने न सिर्फ़ इसके स्थान पर माँसल और चुस्त दीखने वाली मूर्तियाँ को गाँधार और मथुरा कला में प्रचलित किया बल्कि इसका प्रभाव उस समय के केशविन्यास पर भी है जिसमें न सिर्फ़ यवन बल्कि कुषाणों, शकों, पार्थियन, रोमन आदि का प्रभाव भी दिखता है. प्रचुर मात्रा में चित्र, गाँधार-मथुरा स्टाइल की मूर्तियाँ और मंदिरों में मूर्तियों के अंकन गुप्त काल में आ रहे इन बदलावों का संकेत भी देते हैं.
अजन्ता के चित्रों में पुरुषों और स्त्रियों के कई प्रकार के केशविन्यास देखे जा सकते हैं. बाणभट्ट ने बाद के समय में हर्ष के कृपापात्र सेवकों के लम्बे पट्टीनुमा बालों, माथे पर उनकी लटों और सर्पिलाकार बालों के गुच्छों को सम्हालने के लिए पुरुषों द्वारा माथे से सर के चारों ओर पहने जाने वाले पट्टे या बैंड के लिए ‘कर्पट’ शब्द का इस्तेमाल किया है और वाकटक राजाओं से सम्बंधित रहे विष्णु धर्मोत्तर पुराण में इसे ‘अग्रपट्ट’ कहा गया है. पुरुषों के इस केशविन्यास को अजन्ता के एक चित्र में दिखाया गया है. आज भी माथे पर पट्ट बाँधना पुरुषों में प्रचलित है ही. अजन्ता का यह चित्र एक अवदान गाथा ‘सिंहला-अवदान’ में बना हुआ है. अजन्ता में पुरुषों के दो तरह के केशविन्यास विदेशियों के प्रभाव से उपजे केशविन्यास हैं जो क्रमशः ‘महाजनक जातक’ के चित्रण में विग की तरह दिखने वाले घुंघराले बालों के रूप में और गान्धार की मूर्तियों की तरह से सिर के ऊपर बीच में ढीले जूड़े की तरह से बांधे गए बाल जिसमें से बालों की कई लटें कंधे तक झूलती दिखायी गयी हैं, के रूप में दिखते हैं. भारतीय पुरुष पात्रों का विदेशी प्रभाव वाले केशविन्यासों में चित्रित होना इन परिवर्तनों को दिखाता है.
‘शिखंड’ पुरुषों के उन केश विन्यासों को कहते थे जिसमें अलग-अलग तरह की ‘शिखाएँ’ बनायी जाती थीं. अजंता में एक शंख वादक के सर पर अंडाकार शिखंड है और माथे पर एक रत्नजड़ित पट है और इस जैसे पट को इस समय के कुछ ग्रंथों में ‘ललाट पट’ कहा गया है. दरअसल शिखंड केश विन्यास कई तरह का हो सकता था जैसे अजंता के एक चित्र में शंक्वाकार शिखंड है, दो चित्रों में से एक में पुरुष के सर पर सामने की ओर ऊपर को उठा शिखंड है तथा दूसरे में यह सर पर दाहिने ओर को गाँठा गया है. अजन्ता में चित्रित ‘शंखपाल जातक’ की कथा में एक व्यक्ति के सर पर बायीं ओर बालों को ढीले और चपटे शिखंड में गूँथा गया है.
पुरुषों का यह केश विन्यास उस समय की तमाम मूर्तियों में भी दिखता है. इसी तरह से एक प्राचीन परम्परागत केशविन्यास जिसका उल्लेख ‘जटाभार’ नाम से आता है उसका कई चित्रण और मूर्ति शिल्पों में प्रदर्शन देखने को मिलता है. दरअसल शिखंड कई प्रकार की शिखाओं में बालों को बांधने से बनता था और जटाभार एक क़िस्म का जूड़ा होता था जो सर के ठीक ऊपर बीच में और कभी दाहिनी ओर बालों को गाँठकर बनाया जाता था. गुप्तकाल में पुरुषों के इन दोनों केशविन्यासों के कुछ बेहद सुँदर संयुक्त प्रयोग भी दिखते हैं यानी शिखंड और जटाभार दोनों एक साथ. अजन्ता में लोगों को प्रवचन देते बुद्ध का एक केशविन्यास ऐसा ही है जिसमें दाहिनी ओर जटाभार और शिखंड संयुक्त रूप से है और इससे निकलती बालों की कुछ लटकनें उनके माथे और गर्दन पर फैली हैं.
ये सभी मूलतः भारतीय केश विन्यास थे, जिनके कई पुराने उद्धरण भी मिलते हैं. चिकने बाल रहित सर में पीछे एक छोटी लट के बराबर बालों का गुच्छा जिसे आम बोलचाल में चोटी भी कहा जाता उसका भी चित्रण देखने को मिलता है. एक क़िस्म की दो चोटियों वाला चित्रण भी है जिसमें ये दोनों चोटियाँ माथे के ठीक ऊपर हैं और कुछ विद्वानों का मानना है कि यह चीन में बनाए जाने वाले इस तरह के केशविन्यास से मिलता जुलता है. पुरुषों द्वारा लम्बे बाल रखे जाने और उन्हें अलग-अलग तरह के जूड़े में सर पर बांधने के कई उदाहरण हैं. विदेशी सैनिकों के बनिस्बत भारतीय क्षेत्रीय परम्परागत रूप से सर के बीच ऊपर को जूड़ा बनाते थे और कुछ सम्पन्न लोग इस तरह का जूड़ा बनाकर उस पर ‘उष्णीश’ यानी पगड़ी बांधा करते थे. समाज के निर्धन, शिल्पी और कर्मकार समाज के पुरुषों में बालों को पीछे की ओर खोंसकर जूड़ा बनाने की परम्परा भी थी, जैसा कि आजकल औरतें बनाती हैं. सीधे खड़े छोटे बालों को पीछे काढ़ने या इन्हें थोड़ा लिटाकर दाहिने ओर काढ़ने के केशविन्यास भी पुरुषों में प्रचलित थे जो कहीं-कहीं ग्रीक सैनिकों से मिलते जुलते दिखते हैं.
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स्त्रियों और पुरुषों के केश विन्यास से सम्बंधित कुछ शब्द इस समय के ग्रंथों में बहुतायत में आते हैं और ये केशों को सँवारने के गुप्त काल के तरीक़ों के बारे में बताते हैं. खुले लहराते बालों को जिसमें घुँघराले और सीधे दोनों तरह के बाल हैं को ‘ कुन्तल’ कहा जाता था. सर पर दाहिनी ओर लच्छों में गोल-गोल घूमकर घुँघराले हुए बालों को ‘दक्षिणावर्त’ और लहरदार और सर्पिल आकार के बालों को ‘तरंग’ कहा गया है.
पुरुषों में जो कंधे या गर्दन तक के लम्बे बाल रखे जाते थे, जिनका विवरण ऊपर किया गया है उसे ‘सिंह-केसर’ कहा गया है. सिंह-केसर यानी शेर के अयालों की तरह के. बालों को दो या ज़्यादा हिस्सों में बाँटकर अलग-अलग बनाए जाने वाले केशविन्यास के लिए ‘वर्धार’ और उलझे जटा-जूड वाले बालों के लिए ‘जटातासर’ शब्द आए हैं.
अहिछद्र से मिली टेराकोटा की एक मूर्ति जिसे अहिछद्र की पार्वती कहा जाता है सर के अग्रभाग से पीछे गर्दन तक ‘आलक’ यानी घुँघराले बालों से सुसज्जित है. एक क्रम में बेलनाकार जमे ये घुंघराले बाल पीछे गर्दन के बीच तक हैं और गर्दन के ठीक थोड़ा ऊपर बालों को बटकर एक खूबसूरत गोल जूड़े के आकार में लपेटे दिए गए हैं. माणिकों की एक गोल माला इस जूड़े पर इसकी गोलाई में लिपटी है और कमल के फूल के आकार की पिन जैसी कोई चीज़ इस जूड़े के गोलाकार के ठीक बीच में केंद्र में खुंसी हुई है.
गुप्तकाल में स्त्रियों के केशविन्यास का यह एक ख़ूबसूरत नमूना है. अहिछद्र से मिली कृष्ण, बलराम और दानव की एक मूर्ति में बलराम के केश दो हिस्सों में दाएँ और बाएँ पट्टीदार हैं और शेष बालों का एक समूह सर के ऊपर जूडा बनाया जाकर पट्ट यानी रिबन से बाँधा गया है. दरअसल इस दौर की मूर्तियों में इतनी तरह के केशविन्यास हैं कि इन सब पर बात करने के लिए एक पूरी किताब ही लिखनी होगी. कभी गुप्तकाल के मन्दिर देखें तो मूर्तियों के केशविन्यासों पर गौर करिए, कहीं-कहीं एक ही पैनल में बनी दर्जनों मूर्तियों में सबके केश विन्यास एक दूसरे से अलग दिखते हैं.
गुप्तकाल में लिखे ग्रंथों में केशविन्यासों के कुछ शानदार विवरण मिलते हैं. कालिदास द्वारा रचित रघुवंश में ‘प्रवेनि’ नाम से बताये गये केशविन्यास वाली स्त्री की पीठ पर गुच्छे वाले सर्पिलाकर बालों की क़तारों का विवरण है जिनके आख़िर में ‘पदातदिक् ‘ नाम से बताए गए स्वर्ण और माणिक के अलंकरण हैं. प्रवेनि में पीठ पर उसके विस्तार में स्वर्ण की एक पट्टिका है जिसकी तुलना यमुना नदी में तैरते स्वर्ण हंसों की कतार से की गयी है. कालिदास की ही एक अन्य रचना ऋतुसंहार में एक शोकमग्न स्त्री के केशों को ‘एकवेणि’ यानी लम्बे बिना शृंगार वाले बताया गया है और इसका कारण उसका इस तरह से शोकमग्न होना है कि वह शृंगार से विमुख हो गयी है.
रघुवंश में एक जगह ‘काक पक्ष’ नाम के पुरुषों के केश विन्यास का उल्लेख है जो कि घुमावदार गुच्छे के सदृश्य बालों से बनाया गया है. इसमें सर के दोनों तरफ़ खुले बालों की पट्टियाँ हैं जो चलने पर हिलती-डुलती हैं मानो कौवे के पँख हों. पर कालिदास और कुछ दूसरे ग्रंथों जैसे भट्टनारायण के लिखे ‘वेणिसंहार’ नामक नाटक में केश सज्जा और केशविन्यास में भेद नहीं दिखता है. जैसे रघुवंश और मेघदूत में ‘धम्मिल्ल’ नाम के केश संवरण को उसकी साज सज्जा के आधार पर एक अलग प्रकार का केश विन्यास बताया गया है और इसी तरह से ‘काबरी बँध’ नाम की केश सज्जा को जो कि फूलों की माला से किया जाता था को ‘वेणिसंहार’ में एक अलग तरह का केशविन्यास बताया गया है. यह भी है ही कि केशविन्यास और केशसज्जा एक दूसरे से जुड़े हैं और एक दूसरे के पूरक भी. इस तरह जब हम केशविन्यास की बात कर रहे होते हैं तो अपने अर्थ में केशसज्जा के तमाम आयामों पर भी बात कर ही रहे होते हैं.
कालिदास के बताए कई केशविन्यास अजन्ता के चित्रों में दिखते हैं. यहाँ चित्रित ‘चांपेय जातक’ की एक कथा में एक स्त्री को खुले बाल वाला दिखाया गया है जिसके ढीले बाल उसकी गर्दन के पीछे और कंधे पर लुढ़के लटके हुए हैं. ये ठीक वैसे ही हैं जैसे कि प्रेमी के वियोग में विचरण करती मेघदूत की यक्षिणी के केश जिसके केशविन्यास को कालिदास ने ‘लंबालक’ कहा है. संभवतः बिना सजे लंबालकों के लिए ही ‘एकवेणि’ शब्द कालिदास की कई कृतियों में आता है. पर लम्बे और खुले केशविन्यास शोक के ही प्रतीक हों ऐसा नहीं है. इस दौर के ग्रंथों में बालों की सर्पिलाकर छोटी लटों को ‘भ्रामरक’ और कहीं-कहीं ‘सिकुर’ कहा गया है और इन लम्बे खुले बालों को इन सर्पिलाकार लटों से सुसज्जित दिखाया गया है.
अजन्ता में एक जगह एक अप्सरा ऐसे ही बालों में है और यह कालिदास के वर्णित शोक के प्रतीक एकवेणि और लंबालकों से अलग हैं. यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि स्त्रियों में खुले बाल वियोग के शोक को दर्शित करने के लिए हैं और कुछ उदाहरणों में मृत्यु शोक में पुरुषों में केशों के त्याग का ज़िक्र है. यानी मृत्यु शोक में एक तरह का केशविन्यास सिर्फ़ पुरुषों के लिए परम्परा है और एक तरह का केशविन्यास सिर्फ़ स्त्रियों में उनके वियोग को दर्शाने का एक माध्यम.
अजन्ता के इन चित्रों में कुछ ख़ूबसूरत सर्पिलाकार लटों को माथे के ऊपर या दाहिनी ओर जमा या बिखरा हुआ दिखाया गया है. माथे पर लटों का यह जमाव सबसे पहले गान्धार कला में देखने को मिलता है और कुछ इतिहासकारों के मतानुसार यह मूलतः एक प्रकार के ग्रीक केशविन्यास की सज्जा का हिस्सा है.
अमरसिंह ने अपने ग्रंथ ‘अमरकोश’ में माथे पर घुंघराली लटों के प्रदर्शन और इनकी लटकन का विवरण किया है. अमरकोश गुप्तकाल में लिखा गया था. माथे पर लटकने वाली लटों को अमरकोश में ‘भ्रामरक’ कहा गया है. जो लटें माथे के बीच में न होकर किनारे पर होती थीं उनके लिए ‘शिखंडक’ शब्द आया है. अमरकोश सहित इस समय के अन्य ग्रंथों में अर्ध वृत्ताकार (Semi-Circle) और गोल लटों के लिए अलग-अलग शब्द आए हैं. शब्द ‘अलक’ या ‘आलक’ इन अर्ध वृत्ताकार लटों के लिए है और कहीं-कहीं यह इन लटों के गुच्छों के लिए भी है.
शब्द ‘चूर्ण कुन्तल’ का प्रयोग घुमावदार बालों के गोलाकार लच्छों और कहीं-कहीं बालों के गोल छल्लों ( Curly ringlets) के लिए किया गया है. जैसा कि हम देखते हैं कि गुप्तकाल में पहली बार इतने प्रचुर अंकनों, शब्दों और शिल्पों में बताया गया माथे पर लटों के बिखराव और जमावट का यह तरीक़ा आगे भी सैंकड़ों सालों तक चलता रहा. यहाँ तक कि हमारे यहाँ पुराने दौर कि फ़िल्म अभिनेत्रियों में माथे पर लटों का यह प्रदर्शन बहुत प्रचलित था. आज भी कर्ली हेयर के नाम से गुप्तकाल में वर्णित भ्रामरक, शिखण्डक, आलक और चूर्ण कुन्तल बनाने की परम्परा है ही, इतनी लोकप्रिय कि सम्पन्न वर्ग इस पर ख़ासे पैसे भी खर्च करता है.
बालों को सज्जित करने के लिए जाली या नेट के प्रयोग के साक्ष्य भी अजन्ता से मिलते हैं. मरती हुई राजकुमारी का एक जातक कथा का चित्रण है जिसमें बालों में उस ‘जालक’ या जालीदार नेट का प्रयोग दिखता है जिसे ग्रंथों में ‘मुक्ताजालक’ यानी मोतियों का बना जालक कहा गया है. बाणभट्ट ने ऐसे जालक के प्रयोग से तैयार किए जाने वाले केशविन्यास की सजावट के लिए ‘झुतिकाभरन’ शब्द का प्रयोग किया है, जिससे पता चलता है कि गुप्तकाल के बाद जालक के साथ केशविन्यास का यह रूप काफ़ी प्रचलन में रहा होगा. जूड़े में जालक लगाने से बालों की सजावट यथावत बनी रहती थी और बाल सुंदर दिखने के साथ-साथ बिखरते भी नहीं थे. यह वजह है कि इस काल में केशविन्यास को टिकाए रखने और उसे ज़्यादा खूबसूरत दिखाने के लिए जालकों का प्रयोग होता था. जूड़े में नेट का जो आजकल प्रयोग है वह इसी प्राचीन केशविन्यास के तरीक़े से निकला और आज भी प्रयुक्त होता ही है.
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गुप्तकाल में बालों को धोवन और तेल से मुलायम करने के बाद उन्हें सर्पिलाकर बनाने के तरीक़ों के कई विवरण मिलते हैं. इस समय की मूर्तियों और चित्रों में कंधे, गर्दन के पीछे और कमर तक लटकते सर्पिलाकार बालों वाले केशविन्यास बहुतायत में दिखते हैं. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ये केश विन्यास पहली से दूसरी सदी के बीच विकसित हुए होंगे क्योंकि वाकाटक और गुप्तकाल से पहले मौर्यों और शुंगों के समय की मूर्तियों में ये नहीं दिखते हैं. गाँधार के बाद से और मथुरा और अमरावती में ये विन्यास प्रचुर मात्रा में देखने को मिलते हैं. लकड़ी के कंघे से मुलायम बालों को दबाकर मरोड़ कर और थोड़ा बल लगाकर कँघी को वक्राकार ट्विस्ट कर ये सर्पिलाकार मोड़ बनाए जाते थे. बालों में इस तरह के सर्पिलाकार मोड़ बनाने की यह पद्धति गुप्तकाल के समय से प्रचलित हुई और धीरे-धीरे बाल सँवारने के तमाम तरीक़ों में रच बस गयी. आज भी घरों में कंघों से बालों को दबाकर इन्हें सर्पिलाकार करने का यह तरीक़ा बेहद प्रचलित है.
अमरकोश में गुच्छेदार लटों वाले बालों को सुलझाने के लिए ‘कैशिक’ और ‘कैश्य’ जैसे शब्द आए हैं. कुछ ग्रंथों में बहुत से दाँतों वाले कंघों से यह काम किए जाने का ज़िक्र है. मुख्यतः लकड़ी के बने कंघे उनमें दातों की मोटायी और दातों के बीच दूरियों के आधार पर केशविन्यास के अलग-अलग कामों में प्रयुक्त होते थे. एक ऐसे समाज में जहाँ केशविन्यास का ख़ासा महत्व हो वहाँ उलझे और लटाकार बालों को इस तरह से सुलझाना जिससे वे टूटें नहीं और आराम से सुलझ जाएँ इसकी पद्धति के विकास की वजहों को समझा जा सकता है.
ग्रंथों में कुछ जगह ‘कवापि’ या ‘केशवेश’ स्त्रियों द्वारा बनाए जाने वाले जूड़े (Chignon) के लिए प्रयुक्त हुआ है. अमरकोश सहित कुछ अन्य ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है. यह भी लगता है कि स्त्रियों में जूड़े वाला केशविन्यास शायद सबसे ज़्यादा प्रचलित था. अजन्ता के चित्रों और तमाम जगहों से मिली मूर्तियों में सर के ठीक पीछे गर्दन के ऊपरी हिस्से में या कभी ढीले जूड़े की तरह थोड़ा नीचे जूड़े बनाए जाते थे. जूड़ों की गाँठ सर की ओर होती थी और इन्हें फूलों के हार, कमल के फूल और सादे कपडे के या माणिकों वाले पट्टों से सजाया जाता था. अजन्ता के एक चित्र में बालों को बीच से बाँटकर दोनों तरफ़ जूड़े बनाने का भी एक चित्र है जिसमें तमाम तरह के फूलों से जूड़े को सजाया गया है. पीछे इस तरह से जूड़े भी बनाए जाते थे कि उसमें से कुछ लहरदार बालों के हिस्से जूड़े से निकलते लटकते रहते थे.
बालों को बेलनाकार गाँठ की शक्ल में सामने की ओर बांधने का तरीक़ा भी था. ये बेलनाकार गाँठ आजकल के बन (Bun) की तरह की होती थीं. अजन्ता में एक नगाड़ा बजाने वाली स्त्री के सर के दाहिने हिस्से पर ऐसा केशविन्यास है. अजन्ता की प्रसिद्ध ‘चामर धारिणी’ के चित्र में इसी से मिलते जुलती बालों की दो गाँठे सर के ऊपर और बाएँ ओर हैं और इनमें से लटें निकली हुई हैं. एक अवदान कथा के चित्रांकन में एक दानवी को दिखाया गया है जिसने सर के बायीं ओर बालों की एक ऐसी गाँठ बांध रखी है जो शंख के आकार की है. बालों में इस तरह की शंख के आकार की गाँठे बाएँ या दाएँ ओर और यदा कदा आधे खुले बालों और आधे शंख के आकार की इस गाँठ के संयुक्त रूप में भी दिखती हैं. इस तरह के केशविन्यास का उल्लेख बाद में लिखे गए ग्रंथ बाणभट्ट के हर्षचरित में ‘धम्मिल्ला’ नाम से है और यह भी कहा जाता है कि यह दक्षिण की स्त्रियों के केशविन्यास से विकसित हुआ.
बालों को गाँठकर बनाए जाने वाले केशविन्यास में दो तरह की गाँठें और दिखती हैं एक जिसमें ऊपर तक जमी बालों की लड़ियों को नीचे से ऊपर की ओर कम घेरे की होते हुए बनाया जाता था और बीच में इनकी लड़ी के सिरे को खोंसकर गाँठ लगायी जाती थी जैसा कि सेब का फल दिखता है आकार में कुछ वैसा ही और दूसरा जिसमें एकदम गोल आकार में एकदूसरे से सटी बालों की लड़ियाँ एक वलयाकार जूड़ा बनाती हैं जैसा कि डोनट दिखता है कुछ वैसा.
सातवीं सदी में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसॉंग इन केश विन्यासों को देखकर प्रभावित हुआ था. वह लिखता है- सिर के शीर्ष पर गोल कुण्डली के आकार में बाल गूँथे जाते हैं और शेष बचे बाल इस कुण्डली से निकलते नीचे को लटकते हैं. कुछ पुरुष अपनी मूँछों में चिमटियाँ लगाते हैं और कुछ विलक्षण क़िस्म की साज-सज्जा करते (Fashion) करते हैं.
अजन्ता जैसे चित्रकला के नमूनों के साथ-साथ तमाम दूसरे क्षेत्रों में मिले मूर्तिशिल्पों के अध्ययन गुप्त काल के पहले से इस काल तक और इसके ठीक बाद के समय तक बदलते केशविन्यासों और केशविन्यासों के प्रचलित स्वरूप की जानकारी देते हैं. बौद्ध स्थलों में से एक भरहुत की मूर्तियों के अध्ययन पुरुषों और स्त्रियों के अलग-अलग चार प्रकार के प्रचलित केश विन्यासों की जानकारी देते हैं जो शुँग काल से होकर गुप्त काल तक विकसित हुए होंगे. साँची के विकास का काल मौर्यों से लेकर गुप्तकाल तक है और अलग-अलग समयों के केश विन्यासों वाली मूर्तियाँ इनके बदलते स्वरूप को बताती हैं. कम से कम सात-सात प्रकार के पुरुषों और स्त्रियों के ऐसे केशविन्यास यहाँ से मिलते हैं. गुप्तकाल के ग्रंथों में ‘केशवीथि’ और ‘शिखंड’ नाम से प्रचलित केशविन्यासों का एक विकासक्रम भी यहाँ देखा जा सकता है.
गुप्तकाल में ऐसे कई केशविन्यास भी पता चलते हैं जिनके बारे में या तो अनुमान लगाया जा सकता है कि वे कैसे रहे होंगे, या जो अपने अर्थों में और ग्रंथों में आए सन्दर्भों में कोई संक्षिप्त सी जानकारी के अलावा कोई और विशेष जानकारी के स्रोत नहीं बन पाते हैं. वायु पुराण में लम्बकेश, मुक्तकेश, एक-जटा और त्रि-जटा जैसे केश विन्यासों का उल्लेख है जिसे अन्य ग्रंथों में इन शब्दों के प्रयोग और गुप्तकाल के अंकनों और मूर्तियों में इनको पहचानकर इन्हें जाना जा सकता है, पर वहीं ‘कुदाल’और ‘जटामलिन’ जैसे केशविन्यासों को पहचान पाना कठिन है. कुदाल का तात्पर्य सर के बीचों बीच जूड़ा बनाने वाले किसी केशविन्यास से है, पर गुप्तकाल में इस तरह के कई केशविन्यास हैं जिसके कारण किसी एक को इसके रूप में पहचान पाना कठिन है.
जैसा कि है ही किसी दौर से स्त्री पुरुषों के केश विन्यासों में दिखती समानता गुप्तकाल में कम होती हुई दिखती है. जहाँ वैदिक काल के ग्रंथ शतपथ ब्राम्हण और आश्वलायन सूत्र शोक की दशा में स्त्री और पुरुषों द्वारा एक से केश विन्यास धारण करने को कहते हैं वहीं गुप्तकाल में लिखी गयी वराहमिहिर की ‘बृहदसंहिता’ स्त्रियों के लिए छोटे बाल रखने का निषेध करती है. इस ग्रंथ में पुरुष की उपस्थिति में स्त्री द्वारा ‘केश विमोक्षण’ यानी केशों को खुला कर देने को उस पुरुष के प्रति उसके प्रेम के रूप में निरूपित किया गया है. ग्रंथ में यह बात स्पष्ट रूप से कही गयी है कि स्त्रियों को बालों को बाँधकर लम्बा छोड़ देना चाहिए. स्त्रियों पर छोटे बाल रखने का निषेध गुप्तकाल के अंकन और मूर्तियों में भी दिखता है जहाँ कहीं भी छोटे बाल रखी हुई स्त्रियाँ नहीं दिखतीं जबकि पुरुषों में यह प्रचुर मात्रा में दिखता है. दरअसल प्रेमी और सौंदर्य के लिए लम्बे बालों के होने की ज़रूरत इस ग्रंथ में स्त्रियों के लिए छोटे बालों के निषेध की तरह से आया है, फिर भी विधवा स्त्रियों के लिए छोटे बाल की अनिवार्यता जैसा कोई साक्ष्य मेरे देखने में नहीं आया.
बाणभट्ट को पढ़ने से पता चलता है कि पुरुषों में लम्बे बाल रखने की प्राचीन परम्परा हर्षवर्धन के समय भी प्रचलन में थी. हर्षचरित में हर्ष से मिलने आने वाले कुछ प्रमुख लोग अपने सर पर जूड़े में मोरपंख लगाए हुए बताए गए हैं और उज्जयिनी के प्रमुख को सर पर केशों की गाँठों से सुसज्जित बताया गया है. बाण का मित्र सुदृष्टि के सर पर बाल इतने बड़े हैं कि बालों की गाँठ के साथ वह अपने केशविन्यास को फूलों से सजाया हुआ बताया गया है. बाण का एक शिष्य लम्बे जूड़े वाला बताया गया है.
केश सज्जा में कई तरह से कपड़ों का प्रयोग दिखता है. जालक या जालीदार कपड़े का टुकड़ा, विभिन्न प्रकार के पट्ट यानी कपड़े की ख़ूबसूरत कतरने जो बालों को बांधने के काम आती थीं जैसा कि आजकल रिबन का प्रयोग होता है, ‘सक्कोश’ नाम से उल्लेखित एक थैलेनुमा पोटली जिसे जूड़े या गाँठ के चारों ओर लपेटा जाता था, शिरोवस्त्र जो बहुत कम है जैसा कि अजन्ता के एकाद चित्र में और मथुरा से मिली मूर्ति में दिखता है और जो कुछ इतिहासकारों के अनुसार ग्रीक प्रभाव से आधुनिक स्कार्फ़ जैसी चीज़ की शुरुआत माना जा सकता है, कुछ ऐसे पट्ट जो बैंड की तरह से माथे पर बांधे जाते थे आदि.
दरअसल केशविन्यास में कपड़ों के ये प्रयोग इतने प्रचुर और इतने प्रकारों के हैं कि इन सबका वर्णन एक लम्बे काम की माँग करता है. साधारण कपड़ों की कतरनों से लेकर माणिकों से सजे तमाम तरह के पट्ट प्रयुक्त होते थे जो बाँधने, बालों को फँसाने और इन्हें गिरने से रोकने के लिए माथे और सर पर तमाम तरह से पहने जाते थे.
नाट्यशास्त्र में आभिर स्त्री के उस विवरण को कैसे भुलाया जा सकता है जो नीले रंग के कपड़े को अपने केशविन्यास में प्रयुक्त करती है. तमाम विवरण हैं ही. स्त्रियों और पुरुषों द्वारा केशसज्जा के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले आभूषणों के तमाम ग्रंथों में अनगिनत विवरण मिलते हैं. लकड़ी और धातु के पिनों के कई प्रकार प्रयुक्त होते थे. मृछकटिकम में एक ऐसे पिन का विवरण है जो जटिल केशविन्यास को बाँधे रखता है, यानी एक ही पिन से बँधा जटिल केशविन्यास ताकि अपने प्रेमी के सामने इस इकहरे पिन को निकाल देने से सारा केशविन्यास खुल जाए.
अहिछद्र की पार्वती के जूड़े में एक कमल के फ़ूल के आकार का पिन जूड़े के बीचों-बीच खुँसा हुआ है. मथुरा से मिली तमाम मूर्तियों और देवगढ़ के मंदिर से प्राप्त कुछ मूर्तियों में इन पिनों के कुछ बेहद ख़ूबसूरत और नायाब नमूने देखने को मिलते हैं. इस दौर में मंगटिक्का तथा बोरला जैसे परम्परागत केश-आभूषणों की शुरुआत निश्चय ही हो चुकी थी. केशविन्यास को फूलों, लड़ियों और मोरपंख से सजाए जाने के तमाम विवरण और प्रमाण हैं. अजन्ता और मथुरा के चित्र व मूर्तियाँ केशविन्यास में कई प्रकार के फूलों के प्रयोग के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. बालों में खोंसने और लकड़ी या धातु के पिन से दबाकर बालों पर इन्हें टिकाने और फूलों से बनी वेणियों को जूड़ों में गोलायी से या बालों में वलयाकार आकार में ये लगाया जाता था.
अजन्ता में एक अप्सरा के चित्र में उसके केशविन्यास में कई तरह के फूल लगे हुए दिखते हैं. पिरोकर माला की तरह फूलों को लगाने के बजाय इन्हें स्वतंत्र रूप से बालों में खोंस लेने का तरीक़ा ज़्यादा प्रचलित था. जिस तरह आदिम समाजों में पंछियों के पंखों को केशविन्यास को सुंदर बनाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है उसी तरह से रंगीन और ख़ूबसूरत पंखों से केशविन्यास को सुंदर बनाया जाता था. लगता है फूलों में कमल और पंखों में मोरपंख से केशविन्यास को सजाने का दस्तूर ज़्यादा प्रचलित था.
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गान्धार से मिली मूर्तियों में पुरुषों के नौ प्रकार के और औरतों के आठ प्रकार के ऐसे केश विन्यास दिखते हैं जो आगे चलकर गुप्तकाल में भी प्रचलित हुए. इनमें ग्रीक हेलेनिस्टिक (Hellenistic) और रोमन प्रभाव वाले कुछ केशविन्यास भी हैं जो मुख्य रूप से पुरुषों के केशविन्यास हैं और गुप्तकाल में प्रचलन में आए. पुरुषों के केशविन्यासों का एक अध्ययन अमरावती से प्राप्त साक्ष्यों का भी है जो दक्खन में परिवर्तित हो रहे और परम्परागत पुरुषों के केशविन्यासों के बारे में जानकारी देता है. शातवाहन शासकों के समय के ये साक्ष्य जिस तरह के केशविन्यासों को बताते हैं इन्हें पुरुषों के कम से कम सात प्रकार के केशविन्यासों के समूहों में बाँटा गया है. इसी तरह से दक्षिण में नागार्जुनकोण्डा से मिले साक्ष्यों पर भी इसी तरह के अध्ययन हुए हैं जिनमें कम से कम पुरुषों के आठ प्रकार के और स्त्रियों के तेरह प्रकार के केशविन्यासों का समूहन है. इनमें से कई केश विन्यास इस तरह के हैं कि गुप्तकाल के होने के बावजूद ये किसी वशिष्ठ स्थल पर ही हैं तथा किसी और जगह पर नहीं हैं, जो भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के उस विवरण को प्रमाणित करते हैं जिसमें भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में वे भिन्न-भिन्न प्रकार के केशविन्यास देख रहे हैं और उसके विवरणों को लिख रहे हैं.
इन केश विन्यासों पर विदेशी प्रभावों के अध्ययन बताते हैं कि स्त्रियों द्वारा बन (Bun) बनाने के प्रमाण गान्धार की मूर्तियों से दिखने शुरू हुए और प्रथम सदी ईसा पूर्व में इसका पहला साक्ष्य साँची में मिलता है. अध्ययन बताते हैं कि इसके बाद इसका प्रसार मथुरा, अमरावती और नागर्जुनकोण्डा में हुआ और गुप्त काल में यह केशविन्यास अपने चरमोत्कर्ष पर दिखता है.
ग्रीक और रोमन स्त्रियों में बन वाले केशविन्यास के प्रयोग बहुत पुराने समय से दिखते हैं. कालिदास जिस केशविन्यास को लंबालक कहते हैं उसका एक स्वरूप जिसमें सीधे लम्बे खुले बाल पीछे लटका दिए जाते हैं दरअसल एक बेहद प्राचीन फ़ारस के क्षेत्रों का केशविन्यास रहा है और सम्भव है गान्धार क्षेत्र से इसका फैलाव उत्तर भारत में हुआ हो. सातवाहनों और इक्ष्वाकु राजाओं के क्षेत्र में रोमन और सिंथियन केश विन्यास का एक बेहद फ़ैशन वाला तरीक़ा फैला जो कि वक्राकार लटों (Curly locks) वाला केशविन्यास था और जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि ग्रीक लोगों के प्रभाव से गान्धार क्षेत्र के मार्फ़त चौथी सदी तक गुप्तकाल के प्रारम्भ में यह उत्तर भारत में बेहद प्रचलित हो गया था.
रोमन सामंतों में प्रचलित वक्राकार लटों वाले सर और पीछे को फैले बाल और ग्रीक प्रभाव वाला तरीक़ा जिसमें माथे पर वक्राकार लटें सजायी जाती थीं दोनों इस दौर में न सिर्फ़ प्रचलन में थे बल्कि सौंदर्य के मानकों के रूप में मान्य हो चले थे. स्पाइरल आकार की लटों का सर पर संयोजन भी ग्रीक प्रचलन का ही परिणाम था जो कि स्त्री और पुरुष दोनों में देखने को मिलता है. कंधे तक के बालों वाले तरीक़े में से सीधे भीतर की ओर हल्के आर्क आकार में दाएँ और बाएँ ओर से जबड़े तक आते बालों वाला केशविन्यास जो माथे के बीच एक सीधी लकीर से दो हिस्सों में बंटे रहते है, इन्हीं प्रभावों का नतीजा थे.दरअसल यह स्टाइल जिसे बॉब्ड हेयरकट के नाम से हम आज जानते हैं गुप्तकाल तक ज्ञात हो चुका था.
केशविन्यास की सजावट में कुछ विशिष्ट आभूषण कुछ विशिष्ट केशविन्यासों के लिए आवश्यक बताए गए हैं. कुछ विन्यासों में सामान्यतः प्रयोग होने वाले कपड़े के पट्ट के स्थान पर धातु के पट्ट प्रयोग किए जाते थे जिन्हें ‘पत्र पाश्य’ कहा जाता था. एक जगह स्वर्ण के बने फूलों के अलंकरण को प्रवेणि नाम के केशविन्यास का हिस्सा बताया गया है. स्टीफ़ेन ऑफ़ ग्रीक जैसे माथे पर बाँधे जाने वाले पट्ट जिन्हें अग्रपट्ट कहा जाता था उसका एक प्रमाण जो साँची से मिला है धातु से बने हुए अलंकृत वेणि के आकार का है माथे पर बाँधे जाने वाले पत्र पाश्य के रूप में देखा जाता है.
सकोश नाम की कपडे की पुटरिया जिसे जूड़े के चारों ओर बाँधा जाता था और सर पर रूमाल के आकार पर कपड़े को बांधना भी ग्रीक लोगों से आया. मोतियों के जालक जिन्हें मुक्ताजाल कहा जाता था उनका एक नया और ज़्यादा नफ़ासत भरे प्रकार का विवरण बाद के दिनों में बाणभट्ट ने किया है. रत्नों से बने इस जालक को वे रत्नजाल कहते हैं. शिरोमाल्य यानी केशविन्यास की सजावट में प्रयुक्त होने वाली फूलों की माला के तमाम प्रकारों में केवड़े वाले शिरोमाल्य का उद्धरण भी मिलता है और जैसा कि हम देखते हैं कि आज भी गुजरात-महाराष्ट्र से लेकर दक्षिण भारत तक शिरोमाल्य केशविन्यास का एक अभिन्न अंग है. गुप्तकाल के कुछ केशविन्यास आगे के समयों में बेहद सीमित हो गए जैसे पुरुषों वाले जटाभार और शिखंड जो साधुओं द्वारा आज भी धारण किए जाते हैं.
दरअसल यह एक अनंत यात्रा है. जिन मुख्य-मुख्य बातों को हम गुप्तकाल के केशविन्यासों में देखते हैं उसके कई विस्तृत फ़लक हैं जिनके साक्ष्य गांधार, अजन्ता, मथुरा, देवगढ़, भितरगाँव,नचना,अमरावती, नागार्जुनकोंडा और न जाने कहाँ-कहाँ मिलते हैं. आज से क़रीब दो दशक पहले जब सतना जिले के भूमरा नाम के स्थान पर गुप्तकालीन एकमुख शिवलिंग देखा था तो उस पर बने शिव के केशविन्यास को देखकर देखता रह गया था. हम सब चकित रह ही जाते हैं इन बेहद प्राचीन चीजों को देखकर.
गुप्तकाल का इतिहास और किसी और दौर का इतिहास भी समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त आदि जैसे राजाओं और कालिदास, राजा शूद्रक, हरिषेण जैसे विद्वानों से कहीं आगे उन बातों का भी इतिहास है जिसने हमारे आज के जीवन को गढ़ा. भले जूड़ा बनाती या बाब्ड स्टाइल के बाल बनवाती किसी स्त्री को या कंधे तक झूलते केश और पीछे काढ़े जाने वाले केशों को अपने सर पर सजाते किसी युवा को या अपने बालों को घुंघराले करवाती या कर्ली हेयर के किसी नए जाने-जाने वाले स्टाइल को अपने सर पर सजाती या अपने जटाजूट को निहारते किसी साधु को पता न चल पाता हो पर गुप्तकाल के उन अनाम लोगों ने कुछ ऐसे पुख़्ता प्रमाण छोड़ दिए जो केशविन्यास के आधुनिक और परम्परागत दोनों तरीक़ों को हमारे समय के पुरखों की बहुत पुरानी परम्परा से जोड़ते हैं और उसकी शुरुआत और प्रचलन का क़िस्सा भी बताते हैं.
गुप्तकाल के केशविन्यासों का इतिहास यह भी बता देता है कि आधुनिक दिखने की ललक का एक मतलब खुली और न्यायसंगत आँखों से अपने अतीत के समयों को देखना भी है जिससे आधुनिकता को सही तरीक़े से देखने समझने का तरीक़ा विकसित हो सके.
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संदर्भ:
1. ए.सी. दास की किताब ‘ऋगवैदिक कल्चर’
2. कमपेयर ब्लूमफील्ड की अमेरिकन जनरल ऑफ़ फ़िलोलॉजी की ‘Hymns of the Atharva Veda.’
3. व्ही. एस. अग्रवाल की किताब ‘India as known to Panini’ ( A study of the cultural material in Ashtadhyayi)
4. ग्रिफ़िथ की किताब ‘paintings in the Buddhist Cave temples of Ajanta’
5. बाणभट्ट कृत ‘हर्षचरित’ और ‘ कादम्बरी’
6. वैदिक ग्रंथ-भाग ‘शथपथ ब्राह्मण’, ‘बौद्धायन गृह्यसूत्र’ और ‘ अश्वलायन गृह्यसूत्र’
7. अजय मित्र शास्त्री की किताब ‘India as seen in the Vrihadsamhita of Varahmihir.’
8. एस. बील की ‘Yuvan Chang travels in India.’
9. शास्त्री की ‘Kautilya’s Arthshastra’
10. डी. आर. पाटिल की किताब ‘ Cultural history from the vayu purana’
11. ASI की 2015 के exhibition का pamphlet, Kesh-Vinyas or hairstyles in Indian art- A photo exhibition by the ASI (2015)
12. के. कृष्ण मूर्ति की किताब ‘ Hair styles in ancient Indian art’.
13. विष्णु धर्मोत्तर पुराण
14. कालिदास कृत ‘रघुवंश’, ‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’
15. मार्शल और फ़ौचर की किताब ‘The monuments of Sanchi’.
16. मार्शल की ‘The Buddhist art of Gandhar’
17. मार्ग्रेट बीबर की किताब ‘The Sculpture of the Hellenistic age.’
18. अमरसिंह कृत ‘अमरकोश’
19. राजा शूद्रक कृत ‘ मृछकटिकम’
20. भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’
21. बौद्ध ग्रंथ ‘मिलिन्द पन्हा’ व उसके प्रयुक्त संदर्भ,
22. बौद्ध थेरवादी ‘विनय पिटक’ के ‘खन्धक’ प्रभाग में ‘चुल्लवग्ग’ और उसके प्रयुक्त संदर्भ.
23. भट्टनारायण कृत नाटक ‘वेणिसंहार’
24. बरुआ की ‘Bharhut : aspects of life and art’
25. कृष्ण मूर्ति की ‘ Nagarjunkonda : A cultural study ‘
26. वी. एस. अग्रवाल की ‘Art evidence in Kalidas’.
27. बहल, बिनॉय, निगम और संगीतिका की लिखी किताब ‘The Ajanta caves : artistic wonder of ancient Buddhist India.’
तरुण भटनागर
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जानकारीपूर्ण आलेख। श्रमसाध्य शोध के पश्चात लिखा गया। प्रस्तुत करने का धन्यवाद।
शोधपूर्ण आलेख ,केश विन्यास पर लिखा गया इस तरह का लेख मैंने नही पढा था । तरूण और समालोचन को साधुवाद
तरुण भटनागर अकेले ऐसे कथा-लेखक हैं जिनकी इतिहास में गहरी रुचि हैं। उनका पुरातत्त्व पर भी अध्ययन है और पुराविद् बनने की ओर हैं।
पुरातन केश विन्यास पर यह लेख उनके खास अध्ययन का परिणाम है। स्त्रियां अपने सौन्दर्य निखार के लिए ही केश विन्यास पर विशेष ध्यान देती थीं। यह लेख और भी चीजों पर संकेत करता है।
विषय वस्तु महत्वपूर्ण है । आपकी भूमिका से प्रकट हो रहा है कि तरुण जी भटनागर अपने आलेख में केश विन्यास वस्त्र, भोजन, केश सज्जा और मूर्तियों पर खोज परक लिखेंगे । “कोई देखे या न देखे अल्लाह देख रहा है’ अर्थात् आप मुझे टैग करते हैं । उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के छात्र की तरह से मुझे होम वर्क मिल जाता है । मेरी जानकारी में वृद्धि होती है । पहली पंक्ति को मैं इस तरह लिख रहा हूँ-केश विन्यास ऐतिहासिक रूप से एक अत्यंत महत्वपूर्ण कला (चीज़ नहीं) है ।
तरुण जी भटनागर ने वालपर्ग द्वारा वीनस ऑफ़ विल्नफोर्ड नाम से चर्चित आस्ट्रिया की देवी (Mother Goddess) के केश विन्यास से आरम्भ की है । विश्व का इतिहास, मनुष्य का जन्म-मरण और पुनर्जन्म एक वृत्त के समान है । वृत्त पर चलने वाला एक
व्यक्ति आगे चल रहा है और उससे पीछे आने वाला व्यक्ति क्या सचमुच पीछे रह गया है । हो सकता है कि पीछे चल चुका व्यक्ति कुछ चक्र अधिक लगा चुका हो । बात पौर्वात्य या पाश्चात्य जगत की नहीं है । मूल रूप से केश सज्जा करना स्त्री का जन्मजात गुण है । तरुण जी का अध्ययन वैदिक काल से आरम्भ होता है । बलूचिस्तान के एक क़िले, शतपथ ब्राह्मण और आश्वलायन ग्रह्यसूत्र का ज़िक्र किया है । कंघी और दर्पण का भी । ग़ज़ब है । शेष बाद में लिखूँगा । आप दोनों को बधाई और शुभकामनाएँ ।
हमारे नगर में सनातन धर्म कन्या वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय है । इस विद्यालय की स्थापना एक संन्यासी की प्रेरणा से हुई थी । इसकी स्थापना का काल पाँचवाँ या छठा दशक होगा । वह संन्यासी वेदों और पुराणों के ज्ञाता थे । कदाचित इस कारण इस विद्यालय की बालिकाएँ बाल गूँथते समय दो चोटियाँ रखती हैं । जैसा कि आलेख कर्ता ने कहा कि विवाह से पूर्व कन्याएँ केशों की दो चोटियाँ बनाती थीं । विवाह के पश्चात वे केश सज्जा के लिए स्वतंत्र हो जाती हैं । वैसे भी महाविद्यालयों में छात्र-छात्राओं के लिए यूनिफ़ॉर्म नहीं होती ।
तरुण जी ने लिखा है कि बालों को न सजाने और सँवारने के कारण महिलाओं के केश अत्याधिक बढ़ जाते थे । केश ख़राब हो जाते । कंघी और दर्पण की ज़रूरत इसलिए महसूस की गयी थी । पाणिनि के ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी’ में केश सज्जा के संदर्भ में ‘प्रवीण-नागरिक’ कहा गया है । बौद्ध ग्रंथ ‘चुल्लवग्ग’ में बालों को विन्यस्त करने का उल्लेख मिलता है ।
बिल्कुल अलग भावभूमि का आलेख। मौलिक और अलहदा। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अनेक नई जानकारी से लैस आलेख। तरुण जी का आभार।
हिन्दी में गहन शोध और अध्ययनशीलता की परम्परा को पुख्ता करने वाला लेख। यह अपने आप में ऐतिहासिक प्रयास की हैसियत रखता है। हिन्दी ऐसे लेखों से समृद्ध हो!