विनोद पदरज की कविताएँ |
पिता
बुढ़ापा अपने आप में बीमारी होता है
फिर पिता तो बीमार रहने भी लगे थे
और एक बात जाने कैसे बैठ गई थी उनके दिमाग में
कि घर में कोई भी चीज बंद हो जाएगी तो उनकी मृत्यु हो जाएगी
विशेषकर घड़ी
जो उनके बिस्तर के ठीक सामने दीवार पर टँगी थी
कई बार उन्होंने मुझसे कहा
देख शायद टी वी नहीं चल रहा
हमारे कमरे के टेप में कुछ गड़बड़ हो गई लगती है
घड़ी के सैल बदल दे चल नहीं रही है
जबकि टी वी बिल्कुल ठीक था
टेप दुरुस्त
और घड़ी सही समय बताती हुई
जिसके सैल मैं हर महीने बदल देता था
उनकी तसल्ली के लिए
जिस दिन वे गुजरे
उन्होंने मां को जगाया तीसरे पहर रात में
कहा-देखो घड़ी बंद हो गई लगती है
मां ने कहा- चल तो रही है सो जाओ
पिता ने दो तीन बार यही कहा
मां ने यही जवाब दिया हर बार
और सो गई
सुबह पिता नहीं उठे
घड़ी में तीन बज रहे थे.
आसोज
आसोज की धूप झुलसा देती है देह को
यह बिलकुल भिन्न है बैसाख जेठ की धूप से
फिर बैसाख जेठ में काम नहीं होता किसानी का
पर आसोज में दिन भर निनाणी करनी पड़ती है झुके झुके
पीठ पर गर्म गर्म राख झरती रहती है अदृश्य
और त्वचा झुलस जाती है
वह युवक जुटा है लावणी में
पास ही माँ है और उसकी नई गौणावली
दुपहरी हो गई है धूप प्रखर है
वह युवक माँ से बार बार कहता है
थोड़ी देर आराम कर ल
देख थारो डील कतरो काळो पड़ग्यो
काल सूं तो बेगा ई आ जावंगा
अर फेर तीसरा पैर की
दुपहरी टाळंगा
अब घर चली जा
थाकगी होगी
काल देखंगा
माँ गर्दन झुकाये मंद मंद मुस्काती है
और खड़ी हो जाती है
उसे देखकर नई गौणावली भी खड़ी हो
जाती है
उसका मुंह घूंघट में है
पर माथे पर धरे हाथ का हँसिया
आसोज की धूप में चमकता है.
माँ का स्नान
माँ की गहरी साध थी उस नदी में नहाने की
वहां से जल भर कर लाने की
वह नदी अब एक रुका हुआ नाला थी
गंधाता हुआ
उसमें मरी हुई मछलियां थीं
सड़ते हुए जल पाँखी थे
पर माँ को समझाना बहुत मुश्किल था
कि वह उसमें न नहाये
उसने गदगद भाव से उसी में डुबकी लगाई
और उसी गंदे जल को एक शीशी में भर लाई
तृप्त और विभोर
यह भी आश्चर्य था कि वह अकेली नहीं थी
हुजूम उमड़ा पड़ा था नहाने वालों का
दरअसल यह नदी
निर्मल पवित्र स्वच्छ सतत बहती थी
हमारी स्मृतियों में
शताब्दियों से
माँ उसी नदी में नहाई थी
सब उसी में नहाते थे.
मैं एक आदमी को याद करता हूँ
मैं एक आदमी को याद करता हूँ
वह कुएं पर मड़ैया में रहता
वहीं नहाता धोता खाना कलेवा करता
वहीं सोता चालीस साल से
सुबह गांव में आता बैलों को नोहरे से खोलकर
खेतों पर ले जाता
कोई उसके लिए कलेवा ले जाता
कोई दुपहर का खाना
दिन भर वह काम करता खेतों में खटता
शाम को बैलों को लिए लौटता
उनकी सानी पानी करता
फिर चौंतरे पर बैठकर ब्याळू करता
और वापस रवाना हो जाता
बहुत कम बोलता था वह
केवल काम की बातें क्रिया पदों से भरी
एक जोड़ा धोती दो कमीज़ें
एक जोड़ी जूतियां एक गमछा
यही चाहिए था उसे
घर में जो भी बनता
प्रसन्नता से ग्रहण करता
कभी कोई शिकायत नहीं
जीवन के आख़िर में ज़रूर
पौळ में अर्धचेतन देखा उसे
नहीं तो कभी उसे घर के भीतर नहीं देखा
घर में पत्नी थी बेटा था बहू थी पोता था
एक विधवा भावज थी निस्संतान
चालीस बरस पहले विधवा हो गई थी वह दुर्योग से
तब से इसी घर में थी
वही चौंतरे पर रोटी परोसती थी
वही घर बाहर की अच्छे बुरे की ख़बर देती थी चालीस साल से
क्या था उस आदमी में
कि मैं उसे याद करता हूँ.
जगह
बहुत सी जगहें हैं जहाँ मैं नहीं रहा
जिन्हें मैं याद करता हूँ
जैसे एक छोटा शहर है गंगापुर
जहां मैं कभी नहीं रहा
मां से बात करते वक़्त नानी
कई बार कहती थी
तेरे पापा जब गंगापुर थे तब तू पैदा हुई थी
एक बंगाली डॉक्टरनी थी उस समय रेलवे अस्पताल में
बड़ी अच्छी थी सांवली सी
तुझे तो कहां से याद होगा
तू तीन साल की थी तभी वहां से रतलाम बदली हो गई थी
फिर वह रतलाम की बातें करने लगती
जहां की बातें मां को भी याद थीं
अब यह तो सामान्य सी बात है
मैं तो कभी नहीं रहा गंगापुर या रतलाम
मेरी तो कोई स्मृति नहीं वहां की
पर गंगापुर से साल में एकाध बार गुजरना होता है
जब जब भी वहां से गुजरता हूँ
उस जगह को आँख भर भर देखता हूँ
कल्पना में नाना के क्वार्टर को देखता हूँ
युवा नाना को
रेलवे अस्पताल को
सद्यजात मां को
और उस डॉक्टरनी को जो बड़ी अच्छी थी सांवली सी
अगर कोई परिचित साथ में होता है
तो बिना प्रसंग उससे कहता हूँ
मेरे नाना यहाँ रेलवे में थे
मेरी माँ का जनम यहीं का है.
गिद्ध
आज मैंने एक गिद्ध देखा
बहुत सालों से नहीं देखा था किसी गिद्ध को
सब कहते थे – विलुप्त हो गए वे धरती से
ऐसे में मैंने गिद्ध देखा
बहुत थका हुआ
कहीं से सुंदर नहीं था वह पहले की तरह ही
ऊँट की सी गर्दन हाथी के कानों जैसे डैने
कर्कश आवाज़
मटर के दाने जैसी आँखें मगर घुच्ची
नुकीली तीक्ष्ण आगे से मुड़ी हुई चोंच
और खुरदरे पाँव
फिर भी समानुपातिक, कुछ भी अजीब नहीं
उसे देखकर मुझे
लहूलुहान जटायु याद आया
झुलसा हुआ संपाती
फिर अप्रतिम उड़ान याद आई
अनवरत उद्यम तीव्र बेधक दृष्टि
दृढ़ संकल्प
जैसे मेरे सामने ही उड़ता हुआ वह सूर्य तक चला जायेगा
मैंने देखा, धरती उसे देखकर बहुत ख़ुश थी
बहुत लाड से देखती थी उसे, वत्सल निगाहों से
उसकी आँखें चमक रही थीं
जिनमें लुप्त ग्लेशियर झलक रहे थे
निष्प्राण पयस्विनियाँ कलकल बह रही थीं निर्मल
क्षत विक्षत जर्जर पर्वत साबुत लहराते थे हरे भरे
स्वच्छ हवा बह रही थी पारदर्शी
धुली हुई धोती सा तना हुआ था आसमान
उसके खेत उर्वर हो उठे थे.
संदीप
वह अपनी माँ के साथ हमारे यहाँ आता है
तिरछी टोपी लगाए
हाथ में लग्गा लिए
उसकी मां गूंगी बहरी है
पक्के रंग की
पर चेहरे पर पानी है
वह हमारे ऑफिस में और पुलिस चौकी में
झाड़ू पौंछा करती है
शौचालय चमकाती है
जितनी देर वह काम करती है
संदीप लग्गे से पीपल के पत्ते तोड़ता है
बकरियों के लिए
मैं उससे पूछता हूँ- तू स्कूल क्यों नहीं जाता
वह सिर झुकाकर कहता है- वहां मेरे साथ कोई नहीं खेलता कोई नहीं बैठता
मैं तो अपने भाइयों के साथ मच्छी पकड़ने जाता हूँ
क्रिकेट खेलता हूँ
मैं पूछता हूँ- तेरे पिताजी कहाँ हैं
वह कहता है-जैपुर में गटर साफ करते हैं
एक बार तो मरते मरते बचे हैं गैस से
वे यहां नहीं आते क्या
आते हैं महीने दो महीने में
रात दिन दारू पीते हैं और मां को मारते है
बढ़िया हो वे आएं ही नहीं यहां
मैं उसे तकलीफ से देखता हूँ
ग्यारह बारह साल का लड़का वह
सांवला चंचल
मचलकर मुझसे कहता हुआ-
अंकल जी मेरी एक फोटो खींचो न.
आधुनिक बाज़ार
मारने की बहुत सी विधियां हैं
पर सबसे उन्नत नफीस दर्द रहित विधि
आधुनिक बाज़ार है
कातिल मुसकुराता है इस कदर सम्मोहक ढंग से
कि आदमी स्वयं प्रस्तुत हो जाता है सहर्ष
और मारे जाने के बाद
उसकी आत्मा उपकृत महसूस करती है
बाज़ार इतना लुभावना कि
कतार में खड़े रहते हैं लोग
और उन्हें पिछड़ने का भय
निरन्तर सताता रहता है
इसमें वे युवक भी हैं
मणिहारों के रंगरेजों के जुलाहों के बुनकरों के सुनारों के ठठेरों के
कुम्हारों के कारीगरों के काग़ज़ियों के गन्धियों के
जिनकी वीरान बस्तियों में शोक बरसता है
लकदक श्रृंगार से पहले बाज़ार ने
जिनका भख लिया था.
घर
पति के दफ्तर जाने के बाद
लगभग साढ़े नौ बजे
देखता हूँ मैं उस स्त्री को
छत पर कपड़े सुखाते हुए
पुरानी काट के धोती ब्लाउज़
और लहंगे चार पांच कभी कभी इससे भी ज़्यादह
कभी कभी उसके अल्प वयस बेटे बेटी भी
नीचे से कपड़ों को लेकर छत पर आते हैं
माँ का हाथ बंटाते है
इन कपड़ों को देखकर ही मैं जानता हूँ
कि घर में कोई और स्त्री भी है जिसे मैंने नहीं देखा
शायद सास है उसकी
जो अतिशय वृद्ध है और अशक्त और बीमार भी
जो रात में तीन चार बार कपड़े ख़राब करती है
जिन्हें दोनों पति पत्नी बदलवाते हैं
या अकेली बहू ही
मैंने उस कपड़े सुखाती स्त्री को
कभी चिड़चिड़ाते बड़बड़ाते खिन्न मन भृकुटि चढ़ाए हैरान परेशान नहीं देखा
सदैव ख़ुश और प्रसन्न देखा है
और उस घर से काट कटाकट आवाज़ें भी नहीं सुनी कभी
मैंने उस वृद्धा को नहीं देखा
पर कल्पना में लगता है
खाट पर लेटी एक जर्जर काया
हाथ उठाकर बहू को आशीर्वाद दे रही है.
कउ
(प्रिय प्रभात और चरण सिंह पथिक के लिए)
अकेले कब तक ताप सकता है आदमी
इधर उधर से घासफूस खेयी फरड़े इकट्ठा करके
आग जलाता है
और बैठा रहता है तापता हुआ
पर किसी को नहीं आता देख
जल्दी ही उठ जाता है पछेवड़ा सम्भालता हुआ
और घर चला जाता है
दरअसल तापना सामूहिक क्रिया है
करोड़ों वर्ष पहले जब चिनगियां फूटी होंगी पत्थरों से
और कोई शुष्क पात जल उठा होगा
उस समय
और पत्ते इकट्ठा करके जलाए होंगे आदमी ने
पर खाना पकाने की थोड़ी सोची होगी
कठिन क्रूर शीत में सबने मिल कर तापा होगा
अंधेरे में चमकती सबकी शक्लें देखकर कितना ख़ुश हुए होंगे नाचे गाये होंगे
खाना तो बहुत बाद में पकाया होगा
तब से अब तक तापने का सिलसिला चला आता है
जैसे ही कोई आग लहकाता है
घर से निकलकर पहले एक आता है फिर दूसरा फिर तीसरा फिर कउ के च्यारूं मेर ठसाठस
फिर पछेवड़े उतरते हैं पैर फैलाये जाते हैं बातें चलती हैं बीड़ियाँ सुलगती हैं
कोई धक्का देता है किसी को -सरक पैलियाँ सरक ठौर दे बैठने को
फिर हँसी ठट्ठा थोड़ी देर
कि अचानक कोई गीत उठाता है
समवेत स्वर अंधेरे में दूर दूर तक फैल जाता है
कउ मंद पड़ने से पहले कोई उठता है
थोड़ी खेयी थोड़े फरड़े और लाता है
फिर से लहकाता है
जब काफी देर हो जाती है
आंखें बोझिल होने लगती हैं
पहले एक उठता है फिर दूसरा फिर तीसरा
फिर सब घरों को चले जाते हैं
कउ मंद पड़ जाती है
जिसके पास नन्नूड़ी कुतिया
अपने पिल्लों संग आकर सो जाती है.
देह का ग्रीष्म राग
साल में तीन बार
जब ऋतु परिवर्तन का समय होता है
मेरी देह बेकल हो उठती है
बार बार आगामी ऋतु को पुकारती है
सर्दियां नहीं पड़तीं तो रोम रोम सर्दियों को पुकारता है
जैसे फलियों में बंद दाना हो
बारिशें नहीं आतीं तो देह के भीतर
मोर कोंकाते हैं
पेड़ सलेटी हो जाते हैं
मेघों को पुकारते
पर सबसे ज़्यादा बेकली गर्मियों को लेकर होती है
बैसाख तक गर्मियां नहीं पड़तीं तो मेरी देह
बेचैन होने लगती है
काली पीली आँधियाँ उठने लगती हैं भीतर
धूप चिलचिलाती है लू सन्नाती है
कोयल कूकती है भभूत्ये उड़ते हैं
पसेव बहता है चोटी से एड़ी तक
रात के एक बजे तक बीजणी डुलाना
हवा चला रामजी थोड़ी तो हवा चला
उनींदे बड़बड़ाना
घुमड़ता है मेरे भीतर
शायद मेरी कृषक देह को पता है
कि रोहिणी तपेगी भीषण
धधकेगा नौतपा
तभी बारिशें आएंगी
बारिशें आएंगी तो सर्दियां आएंगी
सर्दियां आएंगी तो बसंत आएगा
बसंत आएगा तो तुम खूब खिलोगी खुलोगी खिलखिलाओगी
फसलों को देखकर
और मेरी देह मरोड़े लेगी
चौथी ऋतु बसंत में.
नाच
कहीं भागवत हो रही हो
वह नाचती है
शोभा यात्रा निकल रही हो
वह नाचती है
मेले ठेले में, हर समूह में शामिल होकर नाचती है
गांव में किसी के परोजन हो
वह नाचती है
औरतें खेतों को जा रही हों
गीत गाने को ललकारती है वह
और नाचती है
जान पहचान न्योते निमंत्रण की दरकार नहीं उसे
बारात निकल रही हो सड़क पर
डी जे बज रहा हो
घुस जाती है वह और विभोर होकर नाचती है
और जो ब्याह सगाई लगन मुकलावा हो घर में रिश्तेदारी में
तो छोरी छापरियों को थका देती है
तड़काव तक नाचती है
बुरी तरह थक जाती है पर मानती नहीं
कहती है -मोसूँ डट्यो नहीं जावे
अर नाचां गांवा नईं तो कांईं ज़िंदगी
म्हारे अर आदमी क याही लड़ाई ही
मैने ऊँ सूँ बी कहदी ही
चोखी तरां सुण ल तोकूँ छोड़ सकूँ हूँ
पण नाचबो न्ह छोडूँ.
नीम
पिता के लगाये नीम के नीचे बैठा हूँ
पिता को याद करता
पिता के सामने पड़ने से बचता था मैं
कन्नी काटता था
क्या करता ,उनके बोल सदा ही कड़े कड़वे होते थे
मुझे याद नहीं पड़ता
कि मेरी नौकरी, शादी के बाद भी
उन्होने मुझ से प्रेम का एक भी शब्द बोला हो
सदैव कटु तिक्त कषाय वचन
मैं जो भी कहता था माँ से कहता था वह भी अकेले में
यह तो बाद में पता चला कि वे
अपने साथियों के बीच
मुझे लेकर गर्व महसूस करते थे
उन्हीं पिता के लगाये नीम के नीचे बैठा हूँ
बाहर भीषण झकर चल रही है ,अप्रेल में ही
पर मैं सजल पत्तियों की छांह में सुकून से बैठा हूँ
मेरे ऊपर फूल खिल रहे हैं झर रहे हैं
गंध से मुझे विभोर कर रहे हैं
ऊपर मोमाखियों का छत्ता है
जिसके लिये माँ कहती है
नीम का शहद बहुत मीठा बहुत गुणकारी होता है
विनोद पदरज कोई तो रंग है (कविता संग्रह), अगन जल (कविता संग्रह), देस (कविता संग्रह) और आवाज़ अलग अलग है (कविता संग्रह) सम्पर्क |
पिता
मैं भी यही कहना चाहता हूँ कि बुढ़ापा अपने आप में बीमारी होती है । इस आयु में व्यक्ति अनहोनी की आशंका करता है । घड़ी का सेल कभी भी काम करना बंद कर देता है । क्या कोई बता सकता है कि सेल कब ख़त्म हो जायेगा । हमारे घर में तीन घड़ियाँ हैं । जब कोई घड़ी चलना बंद कर देती है तब मुझे चिंता होने लगती है । कहीं घड़ीसाज़ घड़ी का ख़राब होना न बता दे ।
मैंने तीनों घड़ियाँ दिल्ली से ख़रीदी थी । यहाँ नहीं मिलती थी । दिल्ली हमारे घर से 150 किलोमीटर दूर है । कभी दिल्ली नज़दीक हुआ करती थी । अब ‘दिल्ली सचमुच दूर हो गयी है’ । विनोद जी ने कविता में तीन बजे पिता ‘नहीं रहे’ लिखा है । ऐसा मेरी माँ (हमारी बोली में भाभी) के न रहने के दिन की घटना है ।
माँ अपनी मृत्यु से पहले साढ़े तीन महीने पहले बेसुध अवस्था में रही थी । चाचा जी और मैं दो महीने तक रात भर जागते रहे । हिन्दुओं में विश्वास है कि व्यक्ति की मौत बिस्तर पर न हो । हाँसी में हमारे पारिवारिक जीवन में मित्र और MB,BS MD (Medicine) डॉक्टर हर रात ग्यारह बजे के बाद माँ को सँभालने आते । क्योंकि देर रात तक वे एक चैरिटेबल अस्पताल में राउंड करते । उसके बाद हमारे घर से होकर अपने घर रात का भोजन करते थे । एक दिन डॉक्टर साहब बारह बजे तक नहीं आये ।
चाचा जी ने कहा कि अस्पताल में जाकर पता कर आ । परंतु मुझे डॉक्टर साहब पर भरोसा था कि वे माँ का हाल-चाल जानकर ही घर जाएँगे । मेरी दुविधा बढ़ गयी । चाचा जी की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता था । साइकिल चलाकर अस्पताल गया । डॉक्टर साहब पहली मंज़िल पर रोगियों को जाँच रहे थे । वे तल्लीन होकर कार्य करते हैं । मैं चुपके से सीढ़ियों पर चढ़ा और डॉक्टर साहब को राउंड करते हुए पाया । घर लौटकर झूठ बोलते हुए चाचा जी को कहा कि डॉक्टर साहब आ जाएँगे ।
थोड़ी देर के बाद डॉक्टर साहब घर में आ गये ।
मैंने बैंक से दो महीने की छुट्टी ली हुई थी । डॉक्टर साहब ने मुझे कहा कि बैंक में जाना आरंभ कर दो । बहरहाल, बैंक में जाने लगा । 10 अक्तूबर 1994 की सायंकाल बैंक में काम करते हुए मुझे बेचैनी होने लगी । अनहोनी की आशंका थी । बैंक से लगभग पौने छह बजे घर पहुँचा । भाभी की नब्ज़ टटोली । धीरे-धीरे कम हो रही थी । किसी कवि ने लिखा था-एक दिन में नहीं गयी माँ, धीरे-धीरे रोज़ गयी; जैसे जाती है आँख से रोशनी ।
मैंने भाभी को अपनी बाँहों में उठाया और फ़र्श पर लिटा दिया । तुरंत प्राण पखेरू उड़ गये ।
आज जबकि महानगरीय हिंदी में और कई बार अंग्रेज़ी से सीधे-सीधे प्रभावित शब्दावली तथा वाक्य विन्यास में रचित कविताओं की वजह से हिंदी भाषा का जातीय स्वभाव ख़तरे में है,प्रिय विनोद जी की कविताएं हमें आश्वस्त करती हैं। इनको पढ़ते हुए हम महसूस करते हैं कि ये ठेठ भारतीय कविताएं हैं जिनमें लोकल के बजाए ग्लोबल दिखाई देने की कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं है।इन कविताओं की जान सहजता है जिसमे कवि की निजी जीवनानुभूति और पास-पड़ोस कविजनोचित भद्रता और विनम्रता से व्यक्त हो रहा है।
साधुवाद।
खूबसूरत, प्रभावी और बार-बार पढ़ी जाने वाली कविताएं। लोक जीवन का संगीत और जानी पहचानी मार्मिक ध्वनियों की इतनी सहज अभिव्यक्ति कोई कोई कवि सिद्ध कर पाता है।
सारी कविताएं पढ़कर मन भावुक हो गया। कितनी सादगी भरी भाषा से सूक्ष्म संवेदना की सृष्टि की है। कविताएं पढ़कर उनको फोन लगाने से खुद को रोक नहीं पाया। बातचीत करके बहुत खुशी हुई। प्रेरणा और प्रोत्साहन एक वरिष्ठ कवि से मिलना खुश नसीबी है मेरी। शुक्रिया समालोचन इतनी आत्मीय कविताओं की प्रस्तुति के लिए।
किसान, खेतिहर मज़दूर और पूरे कमेरे वर्ग के लिये साल का हर मौसम दुख लिये हुए आता है ।
एक से एक बढ़कर कविताएं ! विनोद जी की कविता निरंतर उस भावनात्मक समृद्धि की खोज में संलग्न है और निस्संदेह आगे से आगे बढ़ रही है जिसकी हमारे समय में अनेकानेक कारणों से कमी होती जा रही है । मनुष्यता कभी कवियों के बिना काम नहीं चला पाएगी ।
माँ का स्नान
हम सनातन धर्मावलंबी तथा अन्य पंथों के अनुयायी परंपराओं में रचे-पगे व्यक्ति हैं । अनीश्वरवादी कितना भी चाहें वे ईश्वर को मानने वालों की संख्या कम नहीं कर सकते । बिना बुलाये करोड़ों हिन्दुओं को हिन्दू अर्ध कुंभ और पूर्ण कुंभ मेले में भाग लेने से नहीं रोक पायेंगे । यही आस्था माँ को स्नान करने के लिये नदी पर ले जाती है । किन्तु दूसरा पहलू भी है ।
अभी तक केंद्र में कम्युनिस्ट सरकार नहीं बनी । वे भी श्रद्धा पूर्वक नदी में स्नान करने के लिये नहीं रोक सकेंगे । लेकिन आज कल मोदी सरकार के बड़े चर्चे हैं । विवादास्पद अधिक हैं । नमामी गंगे नाम से गंगा को स्वच्छ बनाने का अभियान उमा भारती ने चलाया था । करोड़ों रुपयों का आवंटन किया गया । फ़िल्मी संवाद के अनुसार रिज़ल्ट निल बटा सन्नाटा है । राजनेताओें तथा प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों की साँठगाँठ से पैसा इनकी जेबों में चला गया ।
हरियाणा के तानाशाह और क्रूर पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला को उसके ग़ैरक़ानूनी कामों के लिये सज़ा हुई और दूसरा लालू यादव को चारा घोटाले में । लालू की सज़ा का विवरण मालूम नहीं है । ओमप्रकाश ने जेबीटी शिक्षकों की भर्ती का दुष्ट तरीक़ा अपनाया । जिन्होंने परीक्षा पास की उनकी बजाय नये अध्यापकों और अध्यापिकाओं की भर्ती कर दी । हरियाणा सरकार के केंद्रीय सचिवालय में एक प्रशासनिक अधिकारी मीनाक्षी आनंद थीं । उन्होंने अपनी अलमारी में नीति पूर्वक चयनित उम्मीदवारों की सूची को चौटाला के हाथ नहीं लगने दिया ।
नदियाँ और नहरें स्वच्छ बनायी जा सकती हैं । भ्रष्ट आचरण छोड़ना होगा । क्या इस जीवन में हम देख सकेंगे । राजनेताओें और अधिकारियों को नकेल कसनी होगी ।
बेहतरीन कविताएँ। हमारे आसपास का जीवन जो आजकल कविताओं से अदृश्य सा होता जा रहा है, वह अपनी पूरी जीवंतता, पूरी मार्मिकता के साथ इन कविताओं में धड़क रहा है। बहुत गहरे तक स्पर्श करती बेहतरीन कविताएँ। प्रस्तुत करने हेतु समालोचन का आभार।
मैं एक आदमी को याद करता हूँ
उन व्यक्तियों की यादें दुखदायी होती हैं जिन्होंने जीवन में दुख दिये हों या उनकी यादें संवेदनशील होती हैं जिन्होंने नि:संग रहकर अपने होने को सार्थक बनाया हो । आप जिस आदमी को याद कर रहे हैं वह दूसरी श्रेणी का व्यक्ति है ।
कुएँ की मड़ैया पर रहने वाला गाँव का हमदर्द आदमी लोगों के बैलों को चराने ले जाता । और गोधूली के समय लौटता अर्थात् गाँव का अपना आदमी । यूँ सरलता से कोई अपना नहीं बन जाता । स्वार्थ से भरे संसार में अपनत्व का व्यवहार सहजता से नहीं मिलता ।
अपना आदमी घर में दख़लंदाज़ी नहीं करता । भाई कि नि:संतान पत्नी पिछले 40 वर्षों से साथ रह रही है । स्पष्ट है कि आदमी तंगदिल नहीं है ।
आपकी कविता का विस्तार सराहनीय है । जैसे कुमार अंबुज की कविताएँ और कहानियाँ ।
विनोद पदरज की सुंदर भाव प्रवण कविताएँ पढ़ने को मिलती रहती हैं। वे गहरी तल्लीनता के साथ चुपचाप अपना काम करने वालों में से हैं।
विनोद पदरज ने इधर साधारण, रोजमर्रा के दृश्यों को काव्यात्मकता में बदलने की महारत हासिल कर ली है। बधाई।
विनोद जी की कविताओं की ताकत है सादगी जिसमें सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता नगीने की तरह पिरोई गई है. इसी वजह से ये कविताएं सतह के नीचे छुपी व्यंजनाओं का उद्घाटन कर न केवल मार्मिक हो जाती हैं बल्कि जादुई चमत्कार पैदा कर दिल में हूक/ उजास की तरह खुद जाती हैं.
कविता आत्मा की भूख है या कहें कि आत्मा की खुराक है। मलार्मे भी मानते थे कि कविता आत्मा के संकट की भाषा है। विनोद पदरज की कविताएँ पढ़ते हुए एक आत्मीय ताप एवं तृप्ति की अनुभूति होती है।यह तभी संभव है जब कविताएँ सहज और सहृदय हों।वह मानवीय संवेदनाओं के कवि हैं जहाँ हम रिश्तों की गरमाहट महसूस सकते हैं।उन्होंने जानवरों पर भी कई उत्कृष्ट कविताएँ लिखी हैं।उन्हें इस संग्रह के लिए बधाई !
Vinod Padraj जी आत्म प्रचार से दूर रहकर जिस तरह की रचनाएँ करते हैं वह उन्हें विशिष्ट बनाता है। उन्हें पढ़ना मौन में ले जाता है। ये ऐसी कविताएँ हैं जो देर तक संवेदना के द्वार पर दस्तक देती रहती हैं और आहिस्ते आहिस्ते अपनी जगह बनाती हैं। वे जीवन की सुंदरता और विडंबना एक साथ, बिना लाऊड हुए व्यक्त करती हैं। उन्हें और समालोचन को बधाई।
यह संग्रह बहुत महत्वपूर्ण व तरल है।जीवन के छूटे दृश्य,रिश्ते,अहसास इतनी सहजता से महसूस होते हैं कि कविताओं का जीवन में उपस्थित होना सार्थक लगता है।कविताओं के साथ पेटिंग्स का खूब सुंदर समायोजन बन पड़ा है।