मैनेजर पाण्डेय : दृष्टि और मीमांसा
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आलोचक मैनेजर पाण्डेय की ‘दृष्टि’ (Vision) एक ऐसी दृष्टि है जो अपनी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि के बतौर कृति में गहरे उतर कर उसके निहितार्थों को उजागर करती है, तो दूसरी ओर अपनी व्यापकता के चलते उसे बाहरी दुनिया से संदर्भित भी करती है. ‘मीमांसा’ से अभिप्राय कृति के विश्लेषण में पाण्डेय जी द्वारा प्रयुक्त उस पद्धति से है जिससे वे कृति का वस्तुपरक और तात्विक विश्लेषण करते हुए अपने निष्कर्षों की निष्पत्ति करते हैं.
मैनेजर पाण्डेय आलोचना को दायित्वपूर्ण कर्म मानते हैं और जिन अहर्ताओं को वे इसके लिए प्रस्तावित करते हैं, उ
न्हें अपनी आलोचना में अनुप्रयुक्त कर उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं. हालांकि उनकी व्यावहारिक आलोचना कोई उदाहरण के रूप में किया गया उपक्रम नहीं है बल्कि एक अहर्निश सांस्कृतिक अभियान है जो हिन्दी में सृजनात्मक उत्कृष्टता और विस्तार के निमित्त रहा है.
हिन्दी के समाजशास्त्र के अनुप्रयोग पर उनका जोर निरंतर बना रहा है. इसी भांति साहित्य के इतिहास को भी वे आलोचना के लिए अपरिहार्य मानते रहें हैं. इन्हें स्वयं उनकी दृष्टि-निर्मिति प्रक्रिया के साथ-साथ एक आलोचक के नजरिये के निर्माण में अनिवार्य कारकों के तौर पर भी देखे जाने की जरूरत है. साहित्य की ऐतिहासिक दृष्टि किसी भी कृति की परिप्रेक्ष्य निर्मिति के लिए जरूरी है. इसी भांति समाज के साथ कृति की गत्यात्मकता को समझे बगैर उसे जीवन के साथ संदर्भित करना संभव नहीं है.
पाण्डेय जी आलोचना में मनमानेपन को उसकी विश्वसनीयता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. उनका कहना है कि ‘आलोचना में तर्क-वितर्क, खंडन-मंडन, आरोप-प्रत्यारोप के लिए जगह होती है, पर उतनी ही जितनी विचारशीलता में सत्य-निष्ठा और सच्चाई के लिए जरूरी है. आलोचना सहमति या असहमति के नाम पर मनमाने की बात नहीं है. जब आलोचना में मनमानेपन का विस्तार होता है तो आलोचना गैर-जिम्मेदार हो जाती है. गैर-जिम्मेदार आलोचना से वैचारिक अराजकता पैदा होती है.’[i]
समकालीन आलोचना में अक्सर दिखने वाला सतहीपन इसी यादृच्छिकता के चलते है. कोई कह सकता है कि पाण्डेय जी साहित्यशास्त्र या सौंदर्यशास्त्र की उतनी बात क्यों नहीं कर रहे हैं. मैंने उनकी रचनाओं का जितना अनुशीलन किया है, उसके आधार पर कह सकता हूं कि साहित्य अथवा सौंदर्यशास्त्र को वे जरा भी नहीं भूल रहे बल्कि जब वे साहित्य कहते हैं तो यह मानकर चल रहे हैं कि कृति जब साहित्य के दायरे में दाखिल होती है तो शास्त्र की बुनियादी अनिवार्यताओं को पार करके ही आती है. इसलिए असल मुद्दा उसे ठोस और वस्तुगत आधारों पर आंकने का है और यहां साहित्य-इतिहास और साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका सामने आती है.
वैसे हिंदी में साहित्य सिद्धांत के विकास को लेकर वे संतुष्ट नहीं हैं. इस पर चर्चा करते हुए वे रेमंड विलियम्स को उद्धृत करते हैं, ‘संस्कृति और समाज के बीच संबंधों की समस्या सैद्धांतिक समस्या के रूप में तभी सामने आती है जब संस्कृति और समाज में ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कुछ परिवर्तन घटित होते हैं. समाज से संस्कृति और उसके विभिन्न रूपों के संबंधों पर विचार करने वाले वे ही लेखक महत्वपूर्ण होते हैं जिन्हें ऐसे परिवर्तनों का बोध होता है.’
पाण्डेय जी बड़े क्षोभ के साथ कहते हैं, ‘लेकिन इन परिवर्तनों को पहचानने और उनके बारे में सैद्धांतिक सोच विकसित करने के प्रयत्न हिन्दी में दिखाई नहीं देते. स्वतंत्र भारत के हिन्दी के बुद्धिजीवी इस दृष्टि से असफल बुद्धिजीवी ही माने जायेंगे.’
बहरहाल, इस क्रम में पाण्डेय जी हिन्दी में साहित्य-सिद्धांतों के विकास की टोह लेते हैं. भारतेन्दु युग और आचार्य शुक्ल जी के इतिहास पर संक्षिप्त दृष्टिपात के बाद वे उनके निबंध कविता क्या है? पर ठहर जाते हैं जिसे शुक्ल जी १९०९ से १९३० तक विकसित-परिष्कृत करते रहे. नामवर जी ने इस संदर्भ में लिखा है:
“१९०९ से १९३० तक लगभग इक्कीस वर्षों में कविता क्या है नामक निबंध का पूर्णतः कायाकल्प हो गया. कविता व्यक्ति ह्रदय से निकल कर लोक ह्रदय तक पहुंची और बद्धावस्था से मुक्तावस्था तक. भावों का व्यापार भाव-योग हुआ- ज्ञान योग और कर्म योग के समकक्ष, किन्तु ज्ञान और कर्म से संयुक्त भी. हिन्दी आलोचना के इतिहास में यह अन्तर्यात्रा जितनी रोमांचकारी है, उतनी ही महत्वपूर्ण भी”
मुझे ख्याल आ रहा है कि कविता के प्रतिमानों को लेकर नामवरजी की दशकों तक चलने वाली अन्तर्यात्रा भी क्या कुछ ऐसी ही नहीं रही. और क्या खुद मैनेजर पाण्डेय कुछ इसी तर्ज पर साहित्य के समाजशास्त्र को उपन्यास और संस्कृति जैसी विधाओं व प्रवृत्तियों तक विस्तार देते शास्त्र-निर्माण की ऐसी ही प्रक्रिया से सन्नद्ध नहीं रहे हैं.
यह अलग बात है कि साहित्य-शास्त्र के संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय नामवर जी के प्रतिमानों को भी बहुत गंभीरता से नहीं लेते. उनके अनुसार, कविता के नये प्रतिमानों की खोज की दिशा में जो प्रयत्न हुए उनमें भी अमेरिकी नयी समीक्षा की शब्दावली और धारणाओं का हिन्दीकरण ही हुआ दिखाई देता है.
साहित्य-शास्त्र की हिन्दी में निर्मित होती परंपरा पर उनकी टिप्पणी है, ’रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के बीच परंपरा पर विवाद हुआ है, लेकिन वह भी सास-बहू का झगड़ा ही अधिक लगता है, परंपरा पर कोई गंभीर सैद्धांतिक बहस नहीं.’
अपने आकलन में पाण्डेय जी मुक्तिबोध पर आकर ठहरते हैं :
‘हिन्दी के मार्क्सवादियों में मुक्तिबोध अकेले ऐसे लेखक-विचारक हैं जिन्होंने सैद्धांतिक सोच की दिशा में मौलिक और महत्वपूर्ण प्रयत्न किया है.’
‘वे हिन्दी में अकेले ऐसे मार्क्सवादी आलोचक हैं जिन्होंने यथार्थवादी दृष्टि और यथार्थवादी शिल्प में अन्तर किया है. यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा है कि यथार्थवादी दृष्टि की अभिव्यक्ति गैर-यथार्थवादी शिल्प में हो सकती है और यथार्थवादी शिल्प के भीतर गैर-यथार्थवादी दृष्टि व्यक्त हो सकती है.’
वे आगे कहते हैं कि मुक्तिबोध ने हिन्दी आलोचना को रामचन्द्र शुक्ल के बाद सबसे अधिक बीज-शब्द दिये हैं.
स्त्रीवाद और दलित-विमर्श को मैनेजर पाण्डेय साहित्य-सैद्धांतिकी की प्रक्रिया से सम्बद्ध करते हैं. उनके अनुसार, स्त्रीवाद और दलित विमर्श के रचनाकार एक ओर साहित्य के इतिहास और आलोचना में अपनी खोई हुई, दबायी गयी और उपेक्षित परंपराओं तथा कृतियों की खोज और मूल्यांकन का काम कर रहे हैं तो दूसरी ओर हिन्दी की मुख्यधारा में जिन लेखकों और कृतियों को मानदंड मान लिया गया है उनके बारे में तरह- तरह के सवाल पूछ रहे हैं, उनकी महानता को अपनी आकांक्षा की कसौटी पर कसकर परख रहे हैं. कहना न होगा कि पाण्डेय जी की यही सोच थोडा बाद में उभरे आदिवासी विमर्श को लेकर भी है.
वंचना से उभरी सांस्कृतिक अस्मिताओं से जुड़े सृजन को भी मैनेजर पाण्डेय कोई सैद्धांतिक छूट देने में यकीन नहीं रखते. वे मानते हैं कि आलोचना को केवल सहृदयता, सुरुचि, संवेदनशीलता, समझदारी, साहित्यिक दक्षता, परिष्कृत मानस और भाषिक कुशलता के भरोसे छोड़ना उसे रहस्यमय बनाने और मनमानी करने की सुविधा देना है; क्योंकि इन गुणों का दावा कौन नहीं करता.
यहीं दृष्टि उनके लिए अहम हो जाती है और उनके समूचे चिंतन में उसकी केन्द्रीय जगह है. उनके किसी अध्येता ने मुक्ति को उनके यहां सर्वाधिक लक्षित किया है, असल में यह दृष्टि का ही प्रतिफल है कि वे वंचना व अधीनस्थता के प्रत्यक्ष-परोक्ष रूपों को चीन्ह कर संदर्भित मुक्ति के एजेन्डे का निर्धारण करते हैं. पाण्डेय जी का बड़ा साफ मत है कि जो लोग दृष्टिहीनता को ही मुक्त दृष्टि और खाली दिमाग को ही खुला दिमाग समझते हैं वे ही प्रायः सिद्धांत की आवश्यकता को अस्वीकार करते हैं.
कैथरिन वेल्से का यह कथन मूलतः मैनेजर पाण्डेय की एप्रोच का समर्थन करता है :
‘साहित्य-सिद्धान्त का प्रश्न मुख्यतः अर्थ मीमांसा का प्रश्न है.’ आगे पाण्डेय जी लिखते हैं-‘अर्थ मीमांसा के लिए पाठ और उसकी दुनिया (भीतरी और बाहरी) के संबंध की खोज और पहचान जरूरी है जिसमें सिद्धान्त हमारी मदद करता है. अगर आलोचना का लक्ष्य पाठ की व्याख्या है तो व्याख्या के भी अनेक सिद्धान्त हैं, भारत में और पश्चिम में भी. व्याख्या का एक लक्ष्य पाठ में व्यक्त अर्थ के सच की खोज है और ऐसी खोज सिद्धान्तहीन नहीं होती. रचना के अर्थ की चिंता एक स्तर पर भाषा, मनुष्य की चेतना और संसार के संबंध की चिंता है और इस संबंध को सिद्धान्त के सहारे समझा जा सकता है केवल सहजबोध से नहीं’.[ii]
मैनेजर पाण्डेय सिद्धांत की गतिमयता में यकीन करते हैं, उनकी जकड़न को तोड़ने के लिए वे निरंतर इन्हें अन्य सिद्धांतों और अवधारणाओं की समानांतरता और अन्तर-क्रिया में देखते हैं. जैसे कि उपन्यास पर विचार करते हुए वे कार्पेन्तियर के प्रसंग से कहते हैं :
‘उपन्यास जब उपन्यास की सीमाओं को तोड़कर आगे बढ़ता है, तभी वह महान होता है, जैसे कि प्रूस्त, काफ्का और ज्वायस के यहां दिखाई देता है. ऐसा उपन्यास जिस परंपरा में पैदा होता है उसको अपनी विकास प्रक्रिया में तोड़ता है और नयी परंपरा बनाता है.\’ [iii]
साहित्य को संस्कृति की परिधि में देखने-समझने की कोशिशें हुई हैं. साहित्य ही नहीं, बल्कि हर कलात्मक उत्पाद को सृजनात्मक संस्कृति रूप की तरह देखने की मान्यता रही है. मैनेजर पाण्डेय के लिए दृष्टि और मीमांसा कोई स्थिर ढांचे नहीं हैं. वे निरंतर अपनी दृष्टि को और निर्मल करने और मीमांसा को अधिक सटीक बनाने के लिए रचनाकार की तरह आत्मसंघर्ष से गुजरते रहे हैं. कृति के मूल्यांकन में सांस्कृतिक सैद्धांतिकी के प्रयोग के संदर्भ में भी वे संस्कृति को समाजशास्त्र से जोड़ने का प्रस्ताव करते हैं. संस्कृति से जुड़ी चुनौतियों को रेखांकित करते हुए वे इसकी मूल प्रकृति में निहित विरलता और लचीलेपन को मूल्यांकन के संदर्भ में एक बड़ी समस्या के रूप में सामने रखते हैं. पाण्डेय जी मानते हैं कि साहित्य पहले से ही संस्कृति के केन्द्र में रहा है लेकिन अब उसकी आलोचना सांस्कृतिक हो गयी है. साथ ही, भारत की संस्कृति का कोई समाजशास्त्र निर्मित करने में चुनौती यह है कि इसमें अनेक जातीयताओं के लोग और अनेक भाषाएं हैं.
संस्कृति और साहित्य से उसके रिश्ते को समझने के लिए पाण्डेय जी आचार्य नरेन्द्र देव के कथन को याद करते हैं, ‘संस्कृति चित्त-भूमि की खेती है’. तदनंतर रेमंड विलियम्स के सांस्कृतिक चिंतन की मदद लेते हैं, जिनके अनुसार ‘संस्कृति के स्वरूप को समझने के लिए उसकी विकासशील प्रक्रिया, पद्धति और संस्कृति के प्रभाव को ध्यान में रखना जरूरी है. संस्कृति का बुनियादी अर्थ है मानस के परिष्कार की विशिष्ट अवस्था. इस परिष्कार की प्रक्रियाएं भी संस्कृति के अंतर्गत आती हैं. उन प्रक्रियाओं को जिन वस्तुओं से मदद मिलती है उन्हें सांस्कृतिक रूप या साधन कहा जा सकता है. ऐसे साधनों में मुख्य हैं- मनुष्य की बौद्धिक क्रियाएँ और विभिन्न कलाएं. इसी बात को ध्यान में रखकर लुसिए गोल्डमान ने विभिन्न कलाओं को सांस्कृतिक सर्जनाएँ कहा है’.
समाज में संस्कृति वैसा ही आधारभूत व्यवहार है जैसा आर्थिक या राजनीतिक व्यवहार. रेमंड विलियम्स साहित्य को संस्कृति का प्रमुख रूप मानते हैं.
हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में आलोचक की भूमिका को समझने के लिए पहले पाण्डेय जी लगभग एक व्यंग्य-चित्र उपस्थित करते हैं :
‘हिन्दी में आलोचक को साहित्य का दरोगा, साहित्य का दरबान, साहित्य का मध्यस्थ आदि कहा गया है. उसे साहित्य के बाजार का ऐसा बिचौलिया भी कहा जाता है जो रचनाकारों, प्रकाशकों और पुस्तक खरीदने वाले पाठकों के बीच सक्रिय रहता है’. इसे किंचित विस्तार देते हुए वे आलोचक की अकादमिक भूमिका को स्थिर करते हैं. सी. जे. वान रीस के हवाले से वे कहते हैं कि ‘आलोचना एक पाठ को साहित्यिक पाठ के रूप में वैध बनाती है, उसको विशिष्टता प्रदान करती है और साहित्य-संसार में जगह दिलाती है.’
इस प्रक्रिया के दायित्व को रेखांकित करने के लिए पाण्डेय जी ग्राम्शी का उद्धरण देते हैं : ‘आलोचना का एक दायित्व नयी संस्कृति के लिए संघर्ष भी है. वह नयी संस्कृति साहित्य की भी होगी और समाज की भी. इस प्रक्रिया में आलोचना नये समाज के निर्माण के लिए वैचारिक संघर्ष भी है.’
संस्कृति में परंपरा सक्रिय होती है और परंपरा निरन्तर चयन और पुनर्चयन के रूप में सामने आती है. इस संदर्भ में आलोचना महत्वपूर्ण हो जाती है. वर्चस्व और अधीनस्थता के अन्तर्विरोध इसी परंपरा में अन्तर्निहित होते हैं. रेमण्ड विलियम्स ने ग्राम्शी की वर्चस्व की अवधारणा के सहारे समाज, साहित्य और संस्कृति में परंपरा की राजनीतिक भूमिकाओं का विवेचन किया है. वर्चस्व या आधिपत्य ऐसी प्रक्रिया है जो प्रत्यक्ष और प्रकट नहीं होती. इसमें अधीनस्थ वर्ग, समूह और समुदाय के विरुद्ध सीधे बल का प्रयोग नहीं होता, बल्कि उनकी ऐसी सहमति और स्वीकृति प्राप्त की जाती है जिसके बारे में वे अनजान होते हैं.
रेमण्ड विलियम्स ने लिखा है कि ‘प्रत्येक समाज में प्रभुत्वशाली परंपरा के समानांतर प्रतिरोध और विकल्प की चिंता, चेतना और गतिविधियां भी होती हैं जो दूसरी परंपराओं का निर्माण करती हैं’.
ग्राम्शी ने संस्कृति से भाषा के रिश्ते को लेकर कहा है, ‘भाषाएँ सांस्कृतिक उपज हैं और जनजीवन की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी.
पाश्चात्य सांस्कृतिक चिंतन के क्रम में मैनेजर पाण्डेय लुई अल्थुसर, अडोर्नों और पियरे बोर्दिए के विचारों को भी भारतीय संदर्भों में प्रासंगिक मानते हैं.
मैनेजर पाण्डेय भारतीय संस्कृति को विभिन्न संस्कृतियों का समुच्चय कहते है. प्रत्येक समाज में अन्तर-विरोध होते हैं और उस समाज की संस्कृति में उनका प्रतिबिम्बन होता है. पाण्डेय जी वाल्टर बेंयामिन का बहुत महत्वपूर्ण वक्तव्य प्रस्तुत करते हैं :
‘संस्कृति पर ध्यान दीजिये तो संत्रास का बोध भी होगा, क्योंकि उसके निर्माण में केवल महान प्रतिभाओं का ही योगदान नहीं होता, उनके समकालीन अनाम लोगों का श्रम भी लगा होता है. सभ्यता का कोई ऐसा दस्तावेज नहीं है जो बर्बरता का भी दस्तावेज न हो. जैसे दस्तावेज बर्बरता से मुक्त नहीं होता वैसे ही उसके हस्तांतरण में भी बर्बरता होती है.’
इस प्रसंग में पहले तो पाण्डेय जी एक थेरी-कविता को उद्धृत करते हैं, फिर भारत के आदिवासी समुदायों पर टिप्पणी करते हैं :
‘आदिवासी भारतीय होते हुए भी भारतीय समाज के अंग नहीं समझे जाते, वे हाशिये पर रहकर जीने-मरने के लिए मजबूर हैं, वैसे ही उनकी संस्कृति भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है. आदिवासी-समाज और उनकी संस्कृति उपनिवेशवाद के समय से ही विनाश और पुनर्वास की प्रक्रिया की शिकार है.’
\’मुख्यधारा के प्रतिनिधि अधिकांश समाजशास्त्री आदिवासियों की संस्कृति के संस्कृतिकरण की वकालत करते रहे, जिसका अर्थ है प्रभुत्वशाली संस्कृति का आदिवासियों की संस्कृति पर कब्जा.\’[iv]
अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं :
‘अभी भी बड़ी संख्या में आदिवासी स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत के वैसे नागरिक नहीं हैं जैसे मुख्यधारा के लोग नागरिक हैं. जरूरत इस बात की है कि उनके अस्तित्व, उनकी सांस्कृतिक पहचान, उनके भावात्मक और नैतिक स्वभाव को जाना और पहचाना जाये ताकि विकास के नाम पर उनकी अपनी पहचान और संस्कृति का नाश न हो.’[v]
आदिवासी प्रतिरोध की संस्कृति की पक्षधरता के पीछे उनकी यही दृष्टि है. पाण्डेय जी की दीर्घकालिक आलोचना-साधना में इसीलिए सातत्य के बावजूद संगति है और अपने अन्य समकालीनों की भांति विचलन नहीं है.
मैनेजर पाण्डेय मौजूदा साम्प्रदायिकता की जडें भारतीय इतिहास के मध्यकाल में पाते हैं जिसमें दो सभ्यताओं, संस्कृतियों और धर्मों का टकराव था तो दोनों के मेल से एक प्रकार का सांस्कृतिक संगम भी निर्मित हो रहा था, जिसकी अभिव्यक्ति कविता, संगीत, चित्रकला और स्थापत्य में हो रही थी. पाण्डेय जी ने इस सांस्कृतिक नवाचार और इस क्रम में विकसित साझी परंपरा को साम्प्रदायिकता के प्रतिकार के रूप में रेखांकित किया है. दारा शिकोह और शाद अजीमाबादी के उपन्यास पीर अली पर उनके लेख ऐसे उपक्रम का उज्ज्वल उदाहरण हैं. इसी भांति अन्वेषण उनकी दृष्टि का एक स्वाभाविक प्रतिफल है. अन्वेषण की प्रक्रिया में वे विस्मृत किन्तु प्रासंगिक कृतियों की एक ओर पुनर्प्रतिष्ठा करते हैं तो दूसरी ओर मूल्यांकन में अन्वेषीदृष्टि के चलते अलक्षित रहे अहम पहलुओं को आलोकित करते हैं. देशेर कथा और वज्रसूची पर निबंधों जैसा उनका लेखन इसी धारा में आता है.
मैनेजर पाण्डेय की विश्लेषण-पद्धति को समझने के लिए उनके लिखे महादेवी वर्मा पर लेख- ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ : मुक्ति की राहें’ – को थोडा तफसील से देखते हैं. पाण्डेय जी हिन्दी नवजागरण को एक प्रस्थान-बिन्दु के रूप में देखते हैं लेकिन उसके प्रति भी वे आलोचनात्मक हैं. वे मानते हैं कि स्त्री-प्रश्न के संदर्भ में नवजागरण सुधारवाद तक सीमित था. हिन्दी नवजागरण की चिन्ता और उस पर बहस के केन्द्र में स्त्री की पराधीनता और स्वाधीनता का प्रश्न कभी नहीं रहा है. ऐसा क्यों हुआ, इस पर विचार करते हुए वे कहते हैं कि साम्राज्य- विरोधी संघर्ष ने स्त्रियों की स्वाधीनता के प्रश्न को निगल लिया. इसके बाद वे महादेवी वर्मा की कविता की व्याख्याओं के प्रति असहमति जाहिर करते उनमें व्यक्त पराधीनता की पीड़ा और स्वाधीनता की आकांक्षा की अनदेखी की शिकायत करते हैं. इसके बाद वे विवेच्य कृति का आरंभिक महत्व प्रतिपादित करते हैं :
भारतीय स्त्री-जीवन की जटिल समस्याओं, उसकी दासता की दारुण स्थितियों और उसकी मुक्ति की दिशाओं का मूलगामी दृष्टि से जैसा विवेचन महादेवी वर्मा की पुस्तक श्रृंखला की कड़ियाँ में है, वैसा हिन्दी में अन्यत्र कहीं नहीं है. श्रृंखला की कड़ियाँ का उद्देश्य उस भारतीय नारी की स्थिति का विश्लेषण है जो महादेवी वर्मा के शब्दों में जन्म से अभिशप्त और जीवन से संतप्त है.
विमर्श की परिप्रेक्ष्य निर्मित के लिए वे बताते हैं, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ का प्रकाशन १९४२ में हुआ, इसके लेख और भी पहले छपे थे जबकि सिमोन द बोउआ की पुस्तक ‘द सेकेन्ड सेक्स’ का फ्रेंच संस्करण १९४९ और अंग्रेजी अनुवाद १९५३ में आया. हिन्दी में स्त्री-उपेक्षिता शीर्षक से अनुवाद इसके दशकों बाद आ पाया. पाण्डेय जी तंज करते हैं कि सिमोन को तो पढा जाता है लेकिन महादेवी को नहीं पढ़ते. ग्राम्शी के बुद्धिजीवियों के पेशेवर और आवयविक प्रकारों का अर्थ स्पष्ट करते हुए वे महादेवी वर्मा को आवयविक बुद्धिजीवी ठहराते हुए कहते हैं :
उनमें भारतीय स्त्री की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पराधीनता से मुक्ति की गहरी चिन्ता है… और यह ऐसे समय में है जब स्त्रियों की स्वाधीनता नवजागरण के एजेन्डे में नहीं थी. हालांकि तब तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बाला बोधिनी पत्रिका निकाल चुके थे.
इस लिहाज से १८८२ के वर्ष को महत्वपूर्ण बताते हुए वे वुमेन राइटिंग इन इंडिया के संदर्भ से बंगाल की मोक्षदायिनी मुखोपाध्याय के कविता संकलन बनप्रसून का उल्लेख करते हैं जिसकी रचना-दृष्टि में स्त्री की स्वाधीनता और आलोचनात्मक चेतना का प्रमाण था. इसी वर्ष महाराष्ट्र की एक क्रांतिकारी महिला ताराबाई शिन्दे की पुस्तक स्त्री-पुरुष तुलना छपी थी जिसमें स्त्री दृष्टि से महाराष्ट्र की पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था, संस्कृति और पुरुषों की मानसिकता की तीखी आलोचना है. इसके बाद वे हिन्दी में इसी साल छपी सीमन्तनी उपदेश का उल्लेख करते हैं जिसे डॉ॰ धर्मवीर ने खोजकर १९८८ में पुनर्प्रकाशित कराया था. यह तत्कालीन हिन्दू समाज में स्त्री की गुलामी और यातना के विभिन्न रूपों के व्यापक ज्ञान और अनुभवों पर लिखी गयी किताब है. पाण्डेय जी के अनुसार सीमंतनी उपदेश के प्रत्येक पन्ने से हिन्दू स्त्री की गुलामी की पीड़ा से पैदा हुई चीख सुनाई पड़ती है और आजादी की दूर तक गूंजने वाली पुकार भी.
बीसवीं सदी के दूसरे दशक से हिन्दी क्षेत्र से स्त्री-दर्पण, आर्य महिला, महिला सर्वस्व और चांद जैसी उल्लेखनीय पत्रिकाएं निकलती हैं. इन पत्रिकाओं में स्त्री-जीवन की विभिन्न समस्याओं पर बहस होती थी, उनके जीवन-संघर्ष और मुक्ति-संघर्ष की रपटें छपती थीं और स्त्रियों का रचनात्मक साहित्य भी प्रकाशित होता था. नवंबर, १९३४ में चांद का नारी आन्दोलन अंक निकला था. महादेवी वर्मा पहले लेखक के रूप में चांद से जुड़ी हुई थी, फिर उन्होंने संपादक के रूप में भूमिका निभाई. सन् १९३५ में निकले चांद के विदुषी अंक का उन्होंने संपादन किया. तीसरे दशक से महादेवी की पहल पर मीरा जयंती मनाने की शुरूआत हुई. इस तरह, श्रृंखला की कडियाँ तीसरे और चौथे दशक के उस नारी आन्दोलन की देन है जिसमें महादेवी वर्मा सक्रिय रूप से सम्मिलित थीं, इसलिए उसमें उस समय की नारी चेतना के जागरण के अनुगूंजें हैं ; उसकी शक्ति की, सीमाओं की और संभावनाओं की भी.
मैनेजर पाण्डेय महादेवी की अन्तर्दृष्टि में किन चीजों को लक्षित करते हैं ? स्त्री-अधिकारों के बारे में एक सत्य को महादेवी उद्घाटित करती हैं : वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं और न मिलेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान- प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है. महादेवी स्त्री को देवत्व के छल से वास्तविकता के धरातल पर लाती हैं. पाण्डेय जी इस संदर्भ में रोला बार्थ को उद्धृत करते हैं, मिथक में चीजों की ऐतिहासिक विशेषताएँ नष्ट हो जाती हैं और उनके निर्माण से जुड़ी स्मृतियाँ भी खो जाती हैं. वे आगे कहते हैं, भारतीय मिथक परंपरा में धन की देवी लक्ष्मी है, विद्या की सरस्वती और शक्ति की दुर्गा, लेकिन भारतीय समाज में स्त्री धन, विद्या और शक्ति तीनों से वंचित रही है. दीपशिखा की भूमिका में महादेवी ने लिखा है : भारतीय पुरुष जीवन में नारी का जितना ऋणी है, उतना कृतज्ञ नहीं हो सका. अन्य क्षेत्रों की भाँति साहित्य में उसकी स्वभावगत संकीर्णता का परिचय मिलता रहा है. दूसरे एक लेख में वे कहती हैं, साहित्य यदि स्त्री के सहयोग से शून्य हो तो उसे आधी मानव जाति के प्रतिनिधित्व से शून्य समझना चाहिए.
स्त्री-दृष्टि की मौजूदा बहस का उल्लेख करते हुए पाण्डेय जी साहित्य में स्त्री- दृष्टि की जरूरत पर महादेवी के स्पष्ट अभिमत को उद्धृत करते हैं :
“पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परंतु अधिक सत्य नहीं; विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है, परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं. पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है, परंतु नारी के लिए अनुभव. अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे सके”
यही नहीं, महादेवी वर्मा स्त्री-दृष्टि से ही समाज के इतिहास को देखने की मांग करती हैं. वे मानती हैं कि स्त्री की स्थिति समाज का विकास मापने का मानदंड कही जा सकती है. पाण्डेय जी चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि महादेवी की उपेक्षा अधिक हुई है, चर्चा कम. हंस में १९५६ में अमृतराय का एक लेख छपा था- गद्यकार महादेवी वर्मा और नारी समस्या ; उसके बाद से उनका कोई व्यवस्थित मूल्यांकन नहीं मिलता. यहां तक कि स्त्रीवादी रचनाकार भी श्रृंखला की कडियाँ कृति की महत्ता को लेकर ठीक से परिचित नहीं हैं.[vi]
तथापि किसी हद तक महादेवी वर्मा को हिन्दी के आरंभिक स्त्री-विचारकों में मान लिया गया है, लेकिन उन्हें मुकम्मल मान्यता तभी मिल पायेगी जब उनकी कविता का स्त्रीवादी नजरिये से कुछ उस तरह प्रत्याख्यान होगा जैसा कि पाश्चात्य स्त्री-वादियों ने क्रिस्टीना रोजेटी की कविता का किया है.
आखिर में, मैं इस अनुरोध के साथ मैनेजर पाण्डेय के लूसिये गोल्डमान के बारे में एक कथन को उद्धृत कर रहा हूं कि इसे आप यहां पाण्डेय जी के लिए भी पढें :
“उनके साहित्य के समाजशास्त्र की अधिकांश बुनियादी मान्यताएँ अर्जित हैं. मान्यताएँ दूसरों की हैं लेकिन उनको एक विशेष पद्धति में ढालकर गोल्डमान ने अपना बनाया है. मान्यताएँ पुरानी हैं लेकिन उनसे निर्मित पद्धति नयी है. जो लोग गोल्डमान की धारणाओं के केवल मूल स्रोत खोजते रहते हैं वे यह नहीं देखते कि धारणाएँ तो अलग-अलग पहले भी थीं लेकिन साहित्य का वह समाजशास्त्र पहले न था जो गोल्डमान ने दिया है. उनकी प्रसिद्धि की व्यापकता उनके वैचारिक संघर्ष की दृढ़ता और निरंतरता की देन है.”[vii]
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