उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और किराना घरानापंकज पराशर |
संगीत की मशहूर कंपनी ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ के इन तीन शब्दों के साथ ग्रामोफोन में मुँह लगाए एक कुत्ते को संगीत सुनते हुए आपने देखा होगा, पर इस तस्वीर को देखकर आपके ज़ेहन में यह सवाल भी आया होगा कि संगीत कंपनी के ‘लोगो’ में इस कुत्ते का आख़िर क्या मतलब है? एच.एम.वी. ने आख़िर यह ‘लोगो‘ क्यों बनाया और ऐसा ‘लोगो‘ बनाने के पीछे मकसद क्या था? इस सवाल का जब आप जवाब ढूँढने की कोशिश करेंगें, तो यह जान कर यक़ीनन बहुत हैरत होगी कि एच.एम.वी. के इस ‘लोगो‘ के पीछे वाकई एक बड़ा मतलब छिपा हुआ है! संगीत सुनते हुए इस कुत्ते की तस्वीर के पीछे छिपी हुई है एक दिलचस्प कहानी! अब तक मैं यही जानता था कि ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ के इस कुत्ते का नाम निपर है, जिसका मालिक मशहूर अँगरेज चित्रकार फ्रांसिस बैरड का भाई मार्क था. मार्क का जब आकस्मिक निधन हो गया, तो फ्रांसिस ने मार्क से जुड़ी हुई चीज़ों को इकट्ठा किया. जिनमें एक फोनोग्राफ प्लेयर, मार्क की आवाज़ की रिकार्डिंग्स और पालतू कुत्ता निपर था.
फ्रांसिस ने एक दिन इस बात पर ग़ौर किया कि वे जब भी फोनोग्राफ प्लेयर पर कुछ बजाते हैं, तो निपर आकर हैरत से सुनने लगता है. उसे शायद यह सुनकर हैरानी होती होगी कि ये आवाज़ कहाँ से आ रही है? फ्रांसिस बैरड के लिए यह दृश्य बेहद मनोरंजक होता. कुछ समय के बाद निपर चल बसा, लेकिन निपर की यह हरकत फ्रांसिस के ज़ेहन में हमेशा के लिए क़ैद हो गई. निपर के मरने के बाद इस दृश्य को चित्रित करते हुए फ्रांसिस ने एक पेंटिंग बनाई और उसका शीर्षक दिया, ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘. फ्रांसिस ने यह पेटिंग म्यूजिक कंपनियों को बेचने की कोशिश की, पर म्यूजिक कंपनियों का कहना था कि ग्रामोफोन सुनते हुए एक भ्रमित कुत्ते और संगीत के बीच में कोई तारतम्य नहीं है. फ्रांसिस को तब कहाँ पता था कि एक दिन उसकी यही तस्वीर एक संगीत कंपनी का लोकप्रिय प्रतीक बन जाएगा! अंततः ग्रामोफोन कंपनी ने सौ पौंड में फ्रांसिस बैरड से ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ नाम की पेंटिंग ख़रीद कर उसका व्यवसायिक इस्तेमाल करना शुरू किया. जब इसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी, तो तकरीबन आठ साल बाद ग्रामोफोन कंपनी ने अपना नाम बदलकर ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ यानी एच.एम.वी.कर लिया. आज एक शताब्दी से अधिक समय बीत जाने के बाद ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ ने निपर नामक कुत्ते को अमर कर दिया![1]
अभी तक मैं ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ यानी एच.एम.वी. की यही कहानी जानता था, लेकिन इस संदर्भ में इधर एक और कहानी मैंने सुनी. अब यह राम ही जाने कि इस कहानी में कितना यथार्थ है और कितनी कहानी, पर इस फोटो की जो कहानी कही गई है, वह हमें इसलिए भी जानना चाहिए, क्योंकि इसका संदर्भ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ‘किराना घराना’ के संस्थापक कहे जाने वाले मशहूर गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ से जुड़ता है. कहानी यह है कि ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ नामक तस्वीर का कुत्ता दरअसल उस्ताद अब्दुल क़रीम ख़ाँ का पालतू कुत्ता है![2] इस कुत्ते और मौसिकी के बीच बेहद दिलचस्प और अज़ीब रिश्ता है और इस रिश्ते की अज़ीब दास्तां है! उस्ताद अब्दुल करीम ख़ाँ को यह कुत्ता बहुत अज़ीज़ था. अपने घर में उस्ताद साहब जैसे ही गाने का रियाज़ शुरू करते, कुत्ता आलाप सुनते ही दौड़ा चला आता और तब तक नहीं हिलता, जब तक खाँ साहब गाते रहते. ‘हिज़ मास्टर्स वॉयस‘ का कुत्ता मशहूर अँगरेज चित्रकार फ्रांसिस बैरड के भाई मार्क का था कि उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का, यह जानना मेरे लिए उतना मायने नहीं रखता, जितना यह कि उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के गायन में आख़िर ऐसी क्या विशिष्टता थी कि किराना घराना के महान् गायक भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी अब्दुल करीम खाँ की तरह गाना गाने की हसरत पाले हुए गुरू की खोज में ग्यारह साल की उम्र में घर से भाग गए थे! कहते हैं कि भीमसेन जोशी अपने कस्बे की एक दुकान में उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का गाना ‘पिय बिन नहीं आवत चैन’ जब सड़क पर खड़े होकर सुनते, तो मंत्रमुग्ध होकर सुनते ही रह जाते! पंडित जोशी ने एक साक्षात्कार में कहा,
‘गदग में हमारे घर के पास एक दुकान थी, जहाँ अब्दुल करीम खाँ साहब का एक रिकॉर्ड अक्सर बजता था. एक तरफ शुद्ध कल्याण की बंदिश थी, ‘मंदर बाजो‘ और दूसरी तरफ राग झिंझोटी में ठुमरी थी, ‘पिया बिन नहीं आवत चैन.‘ मैं आते-जाते वहाँ खड़ा हो जाता और मंत्रमुग्ध उस आवाज़ को सुनता रहता. बस, मैंने तय किया कि ऐसा ही गाना सीखना हैऔर घर से निकल गया.’
ऐसी थी उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की गायकी! ‘खाँ साहब के स्वरों में जैसी मिठास, जैसा विस्तार और जैसी शुद्धता थी वैसी और किसी गायक को नसीब नहीं हुई. वे अस्थिगत ख़याल में लयकारी और बोल-तान की अपेक्षा आलाप पर अधिक ध्यान रखते थे. उनके गायन में वीणा की मींड़, सारंगी के कण और गमक का मधुर स्पर्श होता था. रचना के स्थायी और एक अंतरे में ही ख़याल गायन के सभी गुणों का प्रदर्शन कर देते थे. अपने गायन की प्रस्तुति के समय करीम खाँ अपने तानपूरे में पंचम के स्थान पर निषाद स्वर में मिला कर गायन करते थे. ख़याल गायकी के साथ ठुमरी, दादरा, भजन और मराठी नाट्य संगीत-गायन में वे भी निपुण थे. वर्ष 1925-26 में उनकी गायी राग झिंझोटी की ठुमरी- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ काफी लोकप्रिय हुई थी.’[3]
‘किराना घराना’ से तआल्लुक रखने वाले उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का जन्म 11 नवंबर, 1872 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चर्चित कस्बा कैराना में हुआ था. मुस्लिम बहुसंख्या वाले शामली जिले का कस्बा कैराना वह इलाका है, जिसके बारे में वहाँ के तत्कालीन सांसद हुकुम सिंह ने कैराना से हिंदुओं के पलायन की सूची जारी करते हुए उसे ‘एक और कश्मीर‘ करार दिया था. जिसके बाद मीडिया के ‘न्यूज़ रूम’ से लेकर सियासत की ज़मीन पर घमासान शुरू हो गया था, लेकिन सियासी रस्साकशी के बीच इस तथ्य को किसी ‘वीर बालक’ ने उजागर करने का प्रयास नहीं किया कि कैराना का संबंध हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक बहुत बड़ी हस्ती उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और उनकी विशिष्ट गायन शैली की एक महान् परंपरा से भी है.
उस महान् परंपरा का नाम है ‘किराना घराना’, जिसका उद्गम स्थल है यही कैराना ! उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के पिता काले खाँ और चाचा अब्दुल्ला खाँ स्वयं बहुत अच्छे संगीतज्ञ थे, जिनसे उनको बचपन से ही मौसिकी की तालीम मिलने लगी थी. अपने एक और चाचा नन्हे खाँ से भी उन्होंने संगीत की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया था. गायन के अलावा खाँ साहब सारंगी, वीणा, सितार और तबला बजाना भी जानते थे. बचपन से ही बेहद सुरीले अब्दुल करीम खाँ साहब के सीखने की गति इतनी तेज़ थी कि महज छह साल की छोटी-सी उम्र से वे मौसिकी के जलसों में अपना गायन पेश करने लगे थे. शुरुआती सालों में खाँ साहब अपने भाई अब्दुल हक के साथ गाते थे,[4] लेकिन उसके बाद एकल गायन पेश करने लगे. जब पंद्रह साल के हुए, तो उन्हें रियासत बड़ौदा के दरबार गायक के रूप में नियुक्त कर लिया गया. जहाँ वे बतौर दरबारी गायक महज़ तीन ही साल तक रह पाये.
जिन दिनों वे महाराजा बड़ौदा की सेवा में बतौर दरबारी गायक रह रहे थे, उसी दौरान उनकी मुलाकात ताराबाई माने से हुई, जो रियासत बड़ौदा की राजमाता मराठा गोमांतक सरदार मारुति राव माने की बेटी थीं. युवा संगीतज्ञ अब्दुल करीम खाँ संगीत प्रेमी ताराबाई माने को संगीत सिखाते, सुनाते कब बेहद करीब आ गए, यह दोनों को पता ही नहीं चला. दोनों में नेह-प्रेम बढ़ता चला गया. जब अब्दुल करीम खाँ और ताराबाई माने ने शादी करने का फैसला किया, तो बड़ौदा रियासत में जैसे भूचाल आ गया. मराठा सरदार मारुति राव माने की बेटी एक मुसलमान ‘गवैये’ से शादी करे, यह उन दिनों के समाज में एक अकल्पनीय अपराध था! राज और समाज दोनों के क्रोध से बचने के लिए अब्दुल करीम खाँ, उनके भाई अब्दुल वहीद खाँ और ताराबाई माने को बड़ौदा छोड़ कर भागना पड़ा. कुछ वक़्त तक अब्दुल करीम खाँ और ताराबाई माने कोल्हापुर और मिरज में रहे, उसके बाद बंबई (अब मुंबई) चले गए. बंबई में लगभग बीस साल तक अब्दुल करीम खाँ और ताराबाई माने का दांपत्य जीवन चला.
खाँ साहब ने तीन शादियाँ की थी. पहली शादी चचेरी बहन गफ़ूरन से हुई थी, जो उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ की बहन थी और दूसरी शादी बड़ौदा की ताराबाई माने से. तीसरी शादी अपनी शिष्या सरस्वती बाई मिरजकर से, जिनसे शादी की कहानी हम आपको ताराबाई माने के साथ साथ हुई शादी का क़िस्सा सुना लेने के बाद सुनाएँगे. पहली शादी से कोई औलाद नहीं हुई थी, लेकिन दूसरी शादी से पाँच औलादें हुईं- अब्दुल रहमान, कृष्णा, चंपा कली, गुलाब और सक़ीना. दूसरी शादी में भी दुर्भाग्य ने खाँ साहब का पीछा नहीं छोड़ा. सन् 1922 में ताराबाई माने से अलगाव हो गया तकरीबन बीस वर्ष साथ रहने के बाद ताराबाई माने और उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की राहें ज़ुदा हो गईं. इसके बाद ताराबाई माने ने पाँचों बच्चों का नाम बदल दिया! नाम बदलने के बाद अब्दुल रहमान हो गए सुरेश बाबू माने, कृष्णा हो गई हीराबाई बड़ोदकर, चंपा कली हो गई कृष्णा राव माने, गुलाब हो गई कमला बाई बड़ोदकर और सक़ीना हो गई सरस्वती राणे. अपनी आवाज़ के कारण हीराबाई बड़ोदकर इतनी लोकप्रिय हुईं कि सरोजिनी नायडू उन्हें ‘गान कोकिला’ कहा करती थीं. जबकि सरस्वती राणे ने अपने ज़माने में पार्श्व गायन के क्षेत्र में धूम मचा दी थी.
बंबई आने के बाद खाँ साहब को मैसूर राज दरबार में आने का निमंत्रण मिला. मैसूर के राजा ने उनकी गायकी कहीं सुनी थी और वे उन्हें पसंद करते थे. वे मैसूर गए और अपनी गायकी से वहाँ सबको अपना मुरीद बना लिया. फिर तो मैसूर दरबार से उन्हें नियमित तौर पर गायन के लिए बुलावा आने लगा. स्वभाव से शांत और कम बोलने वाले खाँ साहब इकहरे बदन के इंसान थे. बंद गले का कोट और सिर पर बड़ा साफा बाँधते थे और हाथ में हमेशा एक छड़ी रहती थी. यही वह दौर है जब खाँ साहब ने अपने आपको कुछ चुनिंदा और व्यापक रूप से गाये जाने वाले राग-जैसे पुरिया, मारवा, कल्याण, मालकौंस, ललित, तोड़ी, असावरी पर केंद्रित किया. तानपुरों की ट्यूनिंग और मैचिंग उनकी एक और विशेषता थी, जिसे उन्होंने ख़ुद विकसित किया था. एक तानपुरे को पंचम स्वर-प और दूसरे तानपुरे को सप्तम स्वर-नी में ट्यून करके बजाते थे, जिससे पूरे मंच पर और सभागार में ऐसा साऊंडस्केप निर्मित होता था, जिसके प्रभाव से श्रोता बँधे रह जाते थे. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मंचीय कार्यक्रम में इस तरह का प्रयोग करने वाले वे अग्रदूत थे. आगे चलकर उनकी यह विशेषताएँ ‘किराना घराना’ की विशिष्टता के नाम से जानी गई और वे इसके प्रमुख प्रसारकर्ता.[5] खाँ साहब से रिश्ते तोड़ लेने के बाद भी ताराबाई माने बच्चों को संगीत सीखने के लिए प्रोत्साहित करती थीं. उनके पाँच में से चार बच्चों ने क्लासिकल मौसिकी की ख़िदमत की और किराना घराने की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाया.
ताराबाई माने से अलगाव के बाद अब्दुल करीम खाँ साहब की गायकी में संगीत रसिकों ने एक बदलाव लक्षित किया. परिवार टूटने और बच्चों से अलग होने कारण उनकी आवाज़ में एक गहरी उदासी, एक तरह अवसाद झलकता था. इस बड़ी घटना के बाद वे कर्नाटक संगीत की बारीकियों में और गहराई तक उतरे. बंबई से कोल्हापुर, धारवाड़ और मैसूर आने-जाने के क्रम में में वे दक्षिणी महाराष्ट्र के साँगली जिले में स्थित ऐतिहासिक शहर मिरज में बस गए. मिरज को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परंपरा और धार्मिक सौहार्द के लिए जाना जाता है. भाई के मार्ग का अनुसरण करते हुए उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ भी कैराना से महराष्ट्र चले गए. चूँकि उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब मिरज में पहले से रह रहे थे और बाद में अब्दुल वहीद खाँ भी महाराष्ट्र चले गए, तो पूरे इलाके में किराना घराना की धाक जम गई. उनके अधिकांश शिष्य कोल्हापुर, सांगली, बेलगाम, धारवाड़, हुबली के निकटवर्ती जिलों से थे. उनके शिष्यों ने पूरे इलाके में किराना घराने की गायकी की धूम मचा दी. यह अकारण नहीं है कि वर्तमान कर्नाटक और महाराष्ट्र के इस सीमावर्ती क्षेत्र को ‘क्रैडल ऑफ किराना गायकी’ यानी किराना घराना के विकास के उद्गम स्थल के नाम से जाना गया.[6]”
ताराबाई माने से संबंध-विच्छेद के बाद सन् 1905 में गोवा में जन्मी अपनी शिष्या सरस्वतीबाई मिरजकर से उन्होंने तीसरी शादी की, जो उनके आर्य संगीत विद्यालय में उनसे संगीत की तालीम लेने के लिए आती थी. खाँ साहब से शादी के बाद सरस्वतीबाई मिरजकर ने अपना नाम बदलकर बानूबाई लत्कर रख लिया. खाँ साहब जब तक ज़िंदा रहे, बानूबाई लत्कर की गाने की कोई रिकॉर्डिंग रिलीज नहीं हुई. बानूबाई के गाने की पहली रिकॉर्डिंग सन् 1937 में रिलीज हुई, जब उस्ताद अब्दुल करीम खाँ ग़ुजर गए. लेकिन न जान के क्यों उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के इंतकाल के बाद सरस्वतीबाई मिरजकर उर्फ बानूबाई लत्कर का मन गाने में नहीं लगा. वे अपने आप में सिमटती चली गईं और धीरे-धीरे उन्होंने गाना-बजाना ही बंद कर दिया. चूँकि कोई औलाद भी नहीं थी, इसलिए वे एकाकी जीवन जीने लगीं. सन् 1970 में बेहद तन्हाई और दुःखद अवस्था में बानूबाई लत्कर का मिरज में इंतकाल हो गया और उन्हें वहीं उस्ताद की कब्र के बगल में दफना दिया गया.
लेकिन बानूबाई लत्कर को दफ़्न कर देने से वे सवाल दफ़्न नहीं हुए, जो अब भी रह-रह कर मेरे ज़ेहन में उठ रहे हैं. मसलन आख़िर वह क्या बात थी जिसकी वज़ह से शादी-शुदा ज़िंदगी के तकरीबन ढाई दशक बीत जाने के बाद ताराबाई माने ने अलग होकर परिवार तोड़ने फैसला किया? क्योंकि दोनों के बीच जब अलगाव हुआ तो उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और ताराबाई माने के बड़े बेटे की उम्र बीस साल की थी और सबसे छोटी बेटी उस वक़्त तकरीबन नौ साल की थी. दूसरी बात, आख़िर वह क्या बात थी कि तारबाई माने, उस्ताद अब्दुल करीम खाँ से न केवल अलग हुईं, बल्कि अपने तमाम बच्चों का उन्होंने दोबारा नामकरण किया! कहीं ऐसा तो नहीं गोवा की शिष्या सरस्वतीबाई मिरजकर से उनके प्रणय-संबंध प्रगाढ़ हो गए थे और इस विवाहेतर संबंध की पुख़्ता जानकारी ताराबाई माने को मिल गई हो? इस प्रसंग में दिलचस्प यह है कि बेटे को तो तालीम बाप ने दी, लेकिन बड़ी बेटी को उसके चचा उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ाँ ने.
ग्वालियर घराने की मर्दाना गायकी का महाराष्ट्र में पल्लवन हुआ. वहाँ पर ग्वालियर घराने के गायकों ने अपना श्रोता समाज निर्मित किया. ऐसे समय एक अलग विशिष्ट तथा कारूण्य से परिपूर्ण और मन मोह लेने वाली निराली ढंग की गायकी वाले गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब का महाराष्ट्र में पदार्पण हुआ.[7] खाँ साहब को ख़याल गायकी के साथ-साथ ठुमरी गायन में भी महारत हासिल थी. राग झिंझौटी में निबद्ध ठुमरी ‘पिया बिना नहीं आवत चैन’ में उन्होंने सरगम का बहुत बेहतरीन इस्तेमाल किया है तथा राग भैरवी में गायी उनकी ठुमरी ‘मत जइयो राधा जमुना के तीर’ अपने दौर में बेहद मकबूल हुई थी. दाक्षिणात्य पद्धति से सरगम का प्रयोग उनके गायन की ऐसी विशेषता थी, जिसे साफ लक्षित किया जा सकता है. खाँ साहब को ‘गोबरहारी वाणी’ की गायकी पर विशिष्ट अधिकार प्राप्त था. उनकी गायकी में इस बात को संगीत के अनेक रसिकों ने लक्षित किया है कि मींडयुक्त और कणयुक्त गायकी के प्रसार का पूरा श्रेय उन्हें है. उस दौर में जो राग रात-रात भर जागकर गाये जाते थे, उन रागों को ग्रामोफोन कंपनी की आमद के बाद महज़ साढ़े तीन मिनट में गाने की चुनौती थी. यहीं उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की प्रतिभा का कमाल दिखाई देता है. उन्होंने न केवल वक़्त के साथ अपने आपको बदल लिया, बल्कि नये ज़माने की तकनीक के साथ बेहतर तालमेल भी बिठा लिया. आगे चलकर यही ख़ूबी हमें सुप्रसिद्ध सितारवादक पंडित रविशंकर और उस्ताद विलायत खाँ साहब में दिखाई देता है.
उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब ग्रामोफोन कंपनी के रिकॉर्डिंग्स की अहमियत को फौरन समझ गये थे, लिहाजा 78 आर.पी.एम. के रिकॉर्डों की बंदिश के भीतर महज़ साढ़े तीन मिनट के अंदर बेहतरीन शास्त्रीय गायन पेश करने की हुनरमंदी की मिसाल वे पेश कर चुके थे. यहाँ यह याद रहे कि बड़ी मलका जान की बेटी तवाइफ़ गौहर जान ने ही शास्त्रीय टुकड़ों को तीन से लेकर साढ़े तीन मिनट में पेश करने की सलाहियत पैदा की थी, क्योंकि 78 आर.पी.एम. वाले तवों की बंदिश की वज़ह से ग्रामोफोन कंपनी ने इस पाबंदी पर ज़ोर दिया था यह मानदंड तब तक कायम रहा, जब तक कई दशकों के बाद ‘एक्सटेंडेड प्ले’ और ‘लौंग प्ले रिकार्ड’ नहीं बनने लगे. कल्पना कीजिए कि बाकी नकचढ़े उस्तादों की तरह अग़र वे भी ग्रामोफोन कंपनी के लिए गाने की पेशकश को ठुकरा देते, तो उनकी आवाज़ भी उन्हीं के साथ क़ब्र में दफ़्न हो जाती. जिसे सुनकर आज हम रोमांचित होते हैं.
ठुमरी और ख़याल गायन की पुरानी और बेहतरीन परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए खाँ साहब ने सन् 1913 में पूना (अब पुणे) में ‘आर्य संगीत विद्यालय’ नाम से एक स्कूल की स्थापना की थी. कुछ सालों के बाद इस विद्यालय की शाखा उन्होंने बंबई में भी खोली, लेकिन कुछ ही साल के बाद बंबई का यह विद्यालय बंद करके वे मिरज चले गए. एक बार एक संगीत के कार्यक्रम के सिलसिले में उन्हें मद्रास (अब चेन्नई) जाना पड़ा. फिर वहाँ से दूसरे कार्यक्रम के लिए पांडिचेरी गए. यात्रा की थकान और अशक्त शरीर के कारण उनकी तबीयत ख़राब हो गई. आगे का सफऱ मुल्तवी करके रात में तकरीबन 11 बजे वे सिंगपोयमकालम स्टेशन पर उतर गए. वहीं बिस्तर पर उन्होंने नमाज़ पढ़ी और ख़ुदा की इबादत करने लगे. उसी बिस्तर पर 27 अक्तूबर, 1937 को वे इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए. शागिर्दों ने उस्ताद की मिट्टी (शव) को मिरज ले जाकर ख़्वाजा भिरा साहब की दरगाह के पास दफनाया गया.
अनेक लोग उस्ताद अब्दुल करीम खाँ को किराना घराना का संस्थापक कहते हैं, जबकि कुछ लोग इस घराने का उद्गम गुलाम ज़ाकिर खाँ के बेटे तथा हद्दू खाँ के दामाद उस्ताद बंदे अली खाँ से मानते हैं. जो अपने ज़माने के बेहद लोकप्रिय बीनकार थे. इस घराने को जो असली पहचान मिली, वह उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और उनके शिष्य पंडित सवाई गंधर्व से मिली. इस घराने में संगीत की परंपरा को और अधिक जानने के लिए जब हम इतिहास में जाते हैं, तो पता चलता है कि अब्दुल करीम खाँ साहब की पैदाइश से काफी पहले से कैराना में संगीत की रवायत मौज़ूद थी. तो चलिए पहले ‘घराना’ का मामला साफ करते चलें. घराना दरअसल गाने-बजाने की एक विशेष शैली को कहते हैं और यह शैली जिस कलाकार के द्वारा शुरू की जाती है, उसे ही उस घराना का संस्थापक माना जाता है. उन्हीं के नाम से अथवा उनके निवास-स्थान से उस घराने का नामकरण होता है.
घराने का सूत्रपात असल में तब होता है, जब घराने की शैली में कोई विशिष्टता हो और घराने को स्थिरता तब मिलती है, जब उस घराने की गायन शैली की विशिष्टता को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे ले जाने वाला शिष्यों का समुदाय हो.[8] चूँकि संगीत का प्रमुख साधन इंसानी आवाज़ है, जो हर इंसान की सूरत की तरह अलग-अलग होती है. लेकिन यही आवाज़ किसी योग्य उस्ताद या गुरू के द्वारा जब संस्कारित की जाती है, तो वह अलग और विशिष्ट हो जाती है. क्योंकि बेहतर रियाज, गूँज, लालित्य, तारण और स्निग्धता से योग्य शिष्य अपनी आवाज़ को संस्कारित करता है. यही आवाज़ जब भिन्न-भिन्न अलंकारों द्वारा स्वर बन जाती है, तब घरानों का उदय होता है.
घरानों का विधिवत इतिहास 18 या 19 सदी के आसपास से मिलने लगता है. 18वीं सदी में गुरु-शिष्य परंपरा के साथ ही ‘घराना’ शब्द प्रचलित हो गया था. हालाँकि कुछ इसका सूत्र ढूँढ़ते हुए अकबर के नवरत्नों में से एक मियाँ तानसेन तक पहुँच जाते हैं. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में आज दिल्ली, आगरा, ग्वालियर, लखनऊ, अतरौली, अमता, किराना, मुरादाबाद इत्यादि स्थानों के नाम से घराने हैं, जो अपनी शिष्य परंपरा के कारण अनवरत चल रहा है. जिस ‘किराना घराना’ का प्रवर्तक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ को कहा जाता है, उस घराने में अब्दुल करीम खाँ से बहुत पहले नायक घोंडू और नायक भोनू नाम के दो भाई रहते थे, जो असल में इस घराने के संस्थापक थे. यह सच है कि वे तनुवर वंश के राजमन (ईस्वी 1486 से 1526) के दरबार में थे.[9]
इस नायक घोंडू के बारे में एक दिलचस्प दंतकथा प्रचलित है. कहते हैं वृंदावन के कृष्ण मंदिर के द्वार पर रोज़ खड़े रहने और भगवान कृष्ण की प्रशंसा में गायन करना उनका रोज़ का नियम-सा बन गया था. इस अटूट कृष्ण भक्ति के कारण उन्हें खाने-पीने तक की सुध-बुध नहीं रहती थी. जैसा कि दंतकथाओं में प्रायः एक चमत्कार-कथा भी सन्निहित होती है, इस कथा में भी एक चमत्कार कथा है. नायक घोंडू के गायन से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण ने उन्हें वरदान माँगने को कहा. वरदान माँगते हुए नायक घोंडू ने उनसे बाँसुरी बजाने का अनुरोध किया और उनसे बाँसुरी का स्वर माँगा, जो उन्हें मिल गया. उसके बाद उनकी गायकी के लोग तो लोग, पशु-पक्षी भी दीवाने हो गए. यह तो हुई नायक घोंडू के बारे में प्रचलित दंतकथा या जनश्रुति, लेकिन इस कथा में यदि सार तत्व ढूँढ़ें, तो वह यह है कि इस घराने की गायकी में जादुई असर पैदा करने वाली विशिष्टता थी. इस विशिष्टता ने ही ‘किराना’ को मधुरतम संगीत का प्रतीक बना दिया. इसी उस्ताद नायक घोंडू के दो बेटे थे-धन्ना और दरेश. धन्ना के पोते रहीम अली और हुसैन खाँ. सदारंग उर्फ नियामत खाँ और अदारंग उर्फ फिरोज खाँ के समकालीन थे. ये चारों गायक मोहम्मद अली खाँ (सन् 1719-1748) के दिल्ली दरबार में थे. रहीम अली के दो बेटे थे-साहब खाँ एवं वाज़िद अली. साहब खाँ एवं उनके बेटे नन्हे खाँ बीदर राज्य के राजा चंदूलाल (सन् 1850) के दरबार में संगीतज्ञ थे.
बाद में इस दरबार में नन्हें खाँ के बेटे और शागिर्द जयपुर के अब्दुल रहमान खाँ रहे. इन्हीं अब्दुल रहमान खाँ के शागिर्द हुए अब्दुल करीम खाँ.[10] मैसूर और कोल्हापुर में दरबारी संगीतज्ञ रह चुके विख्यात सारंगी वादक हैदरबख़्श नन्हे खाँ के दामाद थे. उनके भतीजे अब्दुल वहीद खाँ, देवास के रजब अली खाँ और गुलाब बाई, हैदरबख़्श खाँ के शागिर्द थे. जबकि हीराबाई बडोदेकर, अब्दुल वहीद खाँ की शागिर्दा थीं.
नायक घोंडू के वंशज वाज़िद अली खाँ के तीन बेटे थे-अब्दुल्ला खाँ, शेंडे खाँ और काले खाँ. काले खाँ के भी तीन बेटे थे-अब्दुल करीम खाँ, अब्दुल लतीफ और अब्दुल हक. उस्ताद नन्हे खाँ साहब से अब्दुल करीम खाँ ने मौसिकी की तालीम हासिल की थी.[11] ‘किराना घराना’ के संस्थापक के रूप में अब्दुल करीम खाँ का नाम दरअसल इसलिए अधिक प्रचारित हो गया, क्योंकि इस घराने में उनसे पहले जो उस्ताद-ए-मौसिकी हुए उनका उतना ज़्यादा नाम नहीं हो पाया, जबकि उन लोगों के मुकाबले अब्दुल करीम खाँ को अपनी बेमिसाल गायकी और सुयोग्य शिष्यों के कारण अपार ख्याति मिली. उनके बहुचर्चित शागिर्दों में पंडित रामभाऊ कुंडगोलकर उर्फ सवाई गंधर्व, दशरथ बुवा मुले, सुरेश बाबू माने, अनंतराव गाडगिल, गोपाल राव आप्टे, बालकृष्ण बुवा, शंकर राव, हरिश्चंद्र, गणपत राव बहरे, विश्वनाथ बुवा जाधव, रामकृष्ण शिरोडकर, बलवंत राव रूकडीकर, तबला वादक नवाज़ शम्शुद्दीन खाँ, शंकरराव सरनाईक, सरस्वती बाई मिरजकर, रोशनआरा बेगम तथा इसके अलावा और कई शागिर्द थे. अब्दुल करीम खाँ के इन शागिर्दों ने अपने प्रशिक्षण और मेहनत से ‘किराना घराना’ की विशिष्ट शैली की गायन परंपरा को आगे बढ़ाया. इन शागिर्दों ने जब गायकी में बहुत नाम कमा लिया, तो उसके बाद इन लोगों ने अपने उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब की विशिष्ट गायन शैली की परंपरा को अपने शिष्यों के माध्यम से बढ़ाना शुरू किया.
खाँ साहब के सबसे योग्य शिष्यों में से एक पंडित सवाई गंधर्व ने गंगूबाई हंगल, पंडित भीमसेन जोशी और फिरोज दस्तूर को ‘किराना घराना’ की विशिष्ट गायन शैली में प्रशिक्षित किया, तो पंचाक्षरी बुवा, सिद्धरमय्या अप्पा कोमकाली (सुप्रसिद्ध गायक कुमार गंधर्व के पिता), गणपतराव मुख, सुरेश बाबू माने, यशवंत राव पुरोहित, एन.एल. रानाडे, हैदराबाद की मेनका और गंगूबाई गुलेदकर को तालीम देने का श्रेय बालकृष्ण बुवा कपिलेश्वरी को है. बाद में फिरोज दस्तूर भी कपिलेश्वरी के शागिर्द हुए. सुरेश बाबू माने के प्रतिष्ठित शागिर्दों के नाम हैं-मणिक वर्मा, प्रभा अत्रे, वासराज, सरस्वती बाई राणे, मेनका बाई शिरोडकर (पुणे) इत्यादि. इन तमाम शिष्यों की परंपरा से पता चलता है कि नायक घोंडू से कैराना में शास्त्रीय संगीत गायन की एक विशिष्ट शैली की जो परंपरा शुरू हुई, वह वटवृक्ष के रूप में ‘किराना घराना’ के रूप में विख्यात हुई.
‘किराना घराना’ की शाखा में नायक घोंडू के छोटे भाई नायक भोनू की सांगीतिक परंपरा ने भी ‘किराना घराना’ को कई बेहतरीन गायक-वादक दिये. सुरज्ञान खाँ ‘घेलरंग’, गणपत और दो भाई अल्लारक्खा और बरख़ुदा खाँ मशहूर हुए. सई घराने के तीन संगीतज्ञ मीर खाँ, नज़र खाँ और अहमद खाँ बीनकार के रूप में तालीम पाने के लिए ‘किराना घराना’में शामिल हो गए.[12]अपने रिश्ते को मजबूती देने के लिए इस घराने के साथ शादी-ब्याह भी किये. दो भाइयों में अल्लारक्खा कुशल बीनकार हुए, तो बरख़ुदा खाँ उच्च स्तरीय गायक. वे असदउद्दौला से लेकर मुहम्मदउद्दौला यानी सन् 1790 तक लखनऊ ख़ानदान के संगीतज्ञ रहे. बाद में यह परिवार दौलतराव सिंधिया के समय में रियासत ग्वालियर चला गया. अल्लारक्खा के तीन बेटे थे-गुलाम जफर खाँ ‘सबरस’, गुलाम तकी और गुलाम मौला. इसी घराने में मशहूर बीन वादक उस्ताद बंदे अली खाँ साहब थे, जो गुलाम जफर खाँ के बेटे थे. उस्ताद बंदे अली खाँ ग्वालियर दरबार के मशहूर गायक उस्ताद हद्दू खाँ के दामाद थे. बंदे अली खाँ के बीन वादन की विशिष्टता के संबंध में बीन के रसिकों का कहना था, ‘आपके वादन में स्वर गहरे, गोल नुकीले तथा एक-दूसरे को मिला कर चलने वाले होते थे.’[13] बंदे अली खाँ के शागिर्दों में शाही ख़ानदान के भैया राव साहब बलवंत (बीनकार) और उनके छोटे भाई भैया राव साहब गणपत (हारमोनियम वादक), मुराद खाँ, चुन्नाबाई और भावनगर की चंद्रभागा बाई के नाम उल्लेखनीय हैं. इंदौर के बाबू खाँ, मुराद खाँ के शागिर्द थे और महबूब को हसन खाँ से तालीम मिली थी. मशहूर सितार वादक हलीम जाफर खाँ, बाबू खाँ और महबूब खाँ दोनों के शागिर्द रहे. गुलाम कादर, हमीद खाँ, मुहम्मद खाँ और उनके बेटे रईस खाँ को तालीम देने का श्रेय वहीद खाँ को है.
सुप्रसिद्ध ध्रुवपद (ध्रुपद) गायक डागर बंधु-नसीरुद्दीन और रहीमुद्दीन, बंदे अली खाँ की बेटी के ख़ानदान के हैं, लेकिन सांगीतिक रूप से इनका संबंध किराना घराना से नहीं रहा. बंदे अली खाँ का पुणे में 27 जुलाई, 1895 में इंतकाल हुआ और उनका मकबरा शनवार बाड़ा नज़दीक पीर साहब कटले जानजानी चिश्ती की दरगाह में है. ‘किराना घराना कैराना से बाहर बहुत फैला हुआ है. इस घराने की विलक्षण आवाजों में जीवित है. उसे हम उस्ताद मश्कूर अली खाँ (जिनका जन्म कैराना में ही हुआ), डॉ. प्रभा अत्रे, पंडित वेंकटेश कुमार, जयतीर्थ मेवुंडी और भीमसेन जोशी के शिष्यों माधव गुडी, आनंद भाटे, श्रीकांत देशपांडे आदि की आवाज़ में पलता-पनपता हुआ सुन सकते हैं. वह उन विभूतियों की आवाजों में भी सुरक्षित है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं.’[14]भारतीय संगीत का घराना परंपराओं की विलक्षणता और तरह-तरह की कठिनाइयों के कारण संगीतज्ञों का इतिहास संरक्षित कर पाना कठिन होता जा रहा है. हमारे मशहूर गायकों के इतिहास को संरक्षित करने के लिए गहन शोध और पुराने रिकार्डों की जाँच जरूरी है. घरानों के मामलों में वंशावली में बाप-बेटा-पोता ही नहीं आते, बल्कि शागिर्द भी शामिल किये जाते हैं. संगीत की वंश परंपरा में जाति, धर्म और संस्कृति का प्रश्न अहम नहीं होता, क्योंकि संगीत तो सर्वव्यापी होता है.
संगीत में तीन सप्तक होते हैं, मंद्र, मध्य और तार सप्तक. संगीत के जानकारों का मानना है कि खाँ साहब की आवाज़ असाधारण रूप से सुरीली और मीठी थी. उसमें इतना विस्तार था कि वह तीनों सप्तकों के पार चली जाती थी और यदि संगीत में कोई चौथा सप्तक होता, तो उनकी आवाज़ चौथे सप्तक के भी पार चली जाती! वह तो भला हो ग्रामोफोन कंपनी का कि उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की आवाज़ में तीन मिनट की कई रिकार्डिंग आज उपलब्ध हैं. जिसे सुनकर आप स्वयं यह अनुभव कर सकते हैं कि उनकी गायकी और उनकी आवाज़ कैसी थी! इत्तफाक से शुद्ध कल्याण, मुल्तानी, बसंत, गूजरी तोड़ी, झिंझोटी, भैरवी इत्यादि में रागों में गाये हुए तीन मिनटिया गीतों को आज भी सुन पाना मुमकिन है. उन्होंने ख़याल गायकी में विलंबित की भी शुरुआत की थी, लेकिन उसकी कोई रिकार्डिंग कहीं नहीं मिलती. उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब कर्नाटक शैली के संगीत गायन की परंपरा से सरगम की तान जैसी कुछ विशेषताएँ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में शामिल करने वाले प्रयोगधर्मी गायक थे. उनके इस प्रयोग ने कर्नाटक संगीत गायकी से जुड़े लोगों के बीच उत्तर भारतीय हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायन को उचित प्रतिष्ठा दिलवाई. उनका प्रयोग यहीं नहीं रुका, उन्होंने अपनी ठुमरियों को पूरब अंग से अलग करके एक नये शिल्प में ढाला और अपनी गायकी से उसे मान्य और स्वीकार्य बनाया.
विशुद्ध हिंदीभाषी राज्य उत्तर प्रदेश के निवासी होने के बावज़ूद उन्होंने मराठी नाट्य संगीत के लिए भी बहुत कुशलतापूर्वक गाया. उनके गायन को सुनकर एकबारगी तो मराठी संगीत प्रेमियों को यह एहसास ही नहीं हुआ कि वे किसी ग़ैर मराठी भाषी का गायन सुन रहे हैं! एक दिलचस्प प्रसंग यह है कि थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट हालाँकि उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का गायन बहुत पसंद करती थीं, लेकिन न जाने क्यों उन्हें उस्ताद की ख़ुमार भरी नशीली आँखों को देखकर यह वहम रहता था कि खाँ साहब जरूर अफीमचीं हैं. वे अफीम का नशा करते होंगे! एनी बेसेंट का नारी-मन इस भ्रम तक ही सीमित न रहा. उन्होंने खाँ साहब के कुछ शिष्यों से पता किया कि उनके उस्ताद क्या वाकई अफीम का नशा करते हैं? यह बात होते-होते उस्ताद तक भी पहुँच गई. उन्हें एनी बेसेंट की इस मासूमियत और वहम पर गुस्सा आने की जगह एक शरारत सूझी. अपने एक शागिर्द के मार्फ़त उन्होंने कहला भेजा कि हाँ, वे नशा तो करते हैं, पर अफीम का नहीं, विशुद्ध संगीत का!
उस्ताद अब्दुल करीम खाँ को जिस संगीत का ऐसा नशा था, उस ‘किराना घराना’ की विशेषताओं पर थोड़ी बात की जाए. किराना घराना दरअसल सारंगी वादकों का घराना रहा है, जिस वजह से इस घराने को गायकी का बहुत लाभ मिला. स्वर की तरफ़ ज़्यादा झुकाव होने की वज़ह से गायन अत्यधिक सुरीला है. इस घराने की गायकी को सुनकर ऐसा महसूस होता है जैसे कोई कुशल सारंगी वादक अपनी सारंगी पर किसी राग की बारीकी का विश्लेषण कर रहा हो. ‘किराना घराना’ में स्वरों को बहुत मार्मिक तरीके से लगाया जाता है. इस बात को हम इस तरह भी कह सकते हैं कि किराना घराने का स्वर बेहद नाजुक, कोमल प्रकृति का और रेशम-सा मुलायम है. कणों की प्रचुरता किराना घराने में बहुत है और उसी लचक से उनका गायन भावना से परिपूरित हो गया है. स्वरों को सूक्ष्म ढंग से लगाना और उन्हें बारीक, लचीला और चमकदार बनाना ही इस शैली की विशिष्टता है. इसके अलावा स्वरों को विस्तार करना इस घराने की विशेषता है. वादी-संवादी आदि स्वरों को धीरे-धीरे बढ़त करने से गायन में निरंतरता और गंभीरता आ जाती है. इसलिए इस घराने की गायकी आलाप प्रधान मानी जाती है तथा इस गायकी में स्वरों का प्रयोग शांत, करुण रस द्वारा किया जाता है. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत ‘किराना घराना’ ही एकमात्र ऐसा घराना है, जहाँ चीज़ के रूप में घराने की ठुमरी गाने की प्रथा है और उसकी तालीम भी दी जाती है. ठुमरी में तड़क-भड़क नहीं, बल्कि यह ख़याल के ज़्यादा नज़दीक लगती है. आज की तारीख़ में इस घराने के प्रशंसक बहुत हैं. इस घराने के गायन में चमत्कार प्रदर्शन और बोल-तानें नहीं हैं, इसके बाद भी इस घराने को बहुत शोहरत मिली.
अब एक बार फिर से लौटते हैं ‘किराना घराना’ के बेहतरीन उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की गायकी की ओर. उनके गायन में आख़िर ऐसी क्या विशिष्टता थी जिसकी वज़ह से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में किराना घराना को इतनी ख्याति मिली? हिंदी कवि और शास्त्रीय संगीत के रसिक मंगलेश डबराल का मानना है कि भीमसेन जोशी शायद बीसवीं सदी में किराना घराना के सबसे बड़े संगीतकार हुए हैं. हालाँकि गंगूबाई हंगल भी उनसे कमतर नहीं कही जाएँगी. ये दोनों विभूतियाँ अब्दुल करीम खाँ के सबसे योग्य शिष्य रामभाऊ कुंदगोलकर यानी सवाई गंधर्व की शिष्य थीं. भीमसेन जोशी मज़ाक में उनसे कहा करते थे कि ‘बई, असली किराना घराना तो तुम्हारा है, मेरी तो किराने की दुकान है!‘[15]
इस घराने की विशिष्टता और इतिहास के बारे में बताते हुए वे आगे कहते हैं,
‘किराना घराने के दूसरे दिग्गज उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ कैराना में नहीं, बल्कि उसके पास के गाँव लुहारी में पैदा हुए थे. वे संगीत सीखने कोल्हापुर चले गए थे. वे करीम खाँ के ममेरे भाई थे और उनकी बहन गफूरन बीबी से करीम खाँ का पहला निक़ाह हुआ था, जो टूट गया और इस वज़ह से दोनों उस्तादों के बीच मतभेद पैदा हुए. वहीद खाँ अपने गायन की रिकॉर्डिंग नहीं करने देते थे. उनकी सिर्फ तीन रिकॉर्डिंग मिलती हैं और वह भी गुपचुप ढंग से की गई थीं, लेकिन उनसे किराना के गायकों की विलंबित लयकारी का पता चलता है. उस्ताद अमीर खाँ इस गायकी को अति-विलंबित तक ले गए. अब्दुल वहीद खाँ (जो ऊँचा सुनने के कारण बहरे वहीद खाँ भी कहे जाते थे) की दरबारी कान्हड़ा की एक विलंबित रिकॉर्डिंग है: ‘गुमानी जग तज गयो‘. अमीर खाँ पर इसका इतना गहरा असर पड़ा कि वे अंत तक यह बंदिश लगभग उसी अंदाज़ में गाते रहे. अमीर खाँ को इस वज़ह से भी कई लोग इंदौर नहीं, किराना घराने का मानते हैं.’[16]
उस्ताद अमीर खाँ साहब की शैली में एक ऐसा वैराग्य सुनने में आता है, जिससे आसानी से पता चल जाता है कि वे असल में और आख़िर तक सूफ़ी ही थे. उस्ताद अमीर ख़ाँ रूहानी तौर पर अपने आपको अमीर ख़ुसरो के घराने से जोड़ते थे. एक ऐसी परंपरा, जिसमें गाने-बजाने वाले संगीतकार सूफ़ी संतों के आसपास एक अलौकिक झुंड बनाकर बैठे रहते और उनके काउल और वचन गाते. जहाँ मौसिकी को इबादत का एक ज़रिया माना जाता है और जैसे-जैसे उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब अपने वक़्त के कलाकारों को सुनने लगे, उन्होंने अपनी ही सोच से एक ऐसी शैली का निर्माण किया, जो रियासत के फंदों से कोसों दूर भाग चली आई.[17] जहाँ संगीत की परिभाषा ध्यान और इबादत थी.
जब बात उस्ताद अमीर ख़ाँ की गायकी की चल निकली है, तो उनकी गायकी पर ज़रा-सा विचार करते हुए आगे चलेंगे. अमीर खाँ साहब दरअसल ऐसे आज़ाद पंछी थे, जो घरानों की शैली की क़ैद में बहुत ज़्यादा बँधे रहने वालों में से नहीं थे. उन्होंने अपनी शैली अख़्तियार की थी, जिसमें अब्दुल वाहिद खाँ का विलंबित अंदाज़, रजब अली खाँ के तान और अमन अली खाँ के मेरुखण्ड की झलक मिलती है. इंदौर घराने की इस ख़ास शैली में आध्यात्मिकता, ध्रुपद और ख़याल के मिश्रण मिलते हैं. उस्ताद अमीर खाँ ने अति विलंबित लय में एक प्रकार की बढ़त लाकर सबको चकित कर दिया था. इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है और आख़िर में मध्य लय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया.
उस्ताद अमीर खाँ का यह मानना था कि किसी भी ख़याल के कंपोजिशन में कविता का बहुत बड़ा हाथ होता है. इस ओर उन्होंने ‘सुर रंग’ के नाम से कई कंपोजिशंस ख़ुद लिखे. अमीर ख़ाँ ने तराना को लोकप्रिय बनाया. झुमरा और एकताल का प्रयोग अपने गायन में करते थे और संगत देने वाले तबला वादक से वे आम तौर पर साधारण ठेके की ही माँग करते थे.[18] उनके पास जो जादुई आवाज़ थी, वह किसी भी वाद्य यंत्र में उतर जाती, लेकिन उन्होंने कभी किसी बड़े की नक़ल करना सही नहीं समझा. हमेशा उन्होंने अपनी गायकी शैली का प्रदर्शन किया . इंदौर घराना के नाम से जाना जाने वाला यह अनूठा शैली, खलद के अलंकृत व्यक्तित्व के साथ ध्रुपद के आध्यात्मिक स्वाद और भव्यता को मिलाता है. जिस शैली को उन्होंने विकसित किया, वह तकनीक और स्वभाव, प्रतिभा और कल्पना के बुद्धि और भावना का एक अद्वितीय संगम था. कुमार प्रसाद मुखोपाध्याय की पुस्तक, “द लॉस्ट वर्ल्ड ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक” के मुताबिक, बड़े गुलाम अली खाँ का संगीत बहिर्मुखी, उत्साही और भीड़ खींचने वाला था, जबकि उस्ताद अमीर खाँ की शैली एक अंतर्मुखी, सम्मानित दरबार शैली थीं.
किराना घराना भावना प्रधान था, पर उसमें शक्ति का संचार पंडित भीमसेन जोशी ने किया. पंडितजी के पास एक सधी हुई साफ, खनकदार आवाज़ थी, जिसमें वह एक साँस में पूरी तान गा सकते थे. उनकी मुरकियाँ विभोर कर देती थीं. पंडितजी ने घराने की शुद्धता से कोई समझौता किए बिना उसमें अपनी चीजें जोड़ीं, लेकिन यह परिवर्तन घराने को समृद्ध करने वाला था. संगीत रसिकों का मानना है कि अगर आपको किराना घराना की शैली में गाना है, तो आपका सीधा संबंध उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और पंडित भीमसेन जोशी से होगा. उन्हें अपने सामने रखे बिना इस घराने को कोई गा ही नहीं सकता. घराने की व्यवस्था अब टूट रही है. गुरु-शिष्य परंपरा भी अब बदल रही है और शिष्य, गायक अब बहुआयामी हो रहा है. उस पर घराने की पाबंदियाँ अब नहीं हैं, लेकिन इस आज़ादी से उसे जो नुकसान हो रहा है, वह इन दिनों लोग शायद नहीं देख पा रहे हैं.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में आज भी प्रतिभा की कमी नहीं है, लेकिन आज की पीढ़ी के पास शायद उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और उनके घराने के मशहूर गायक पंडित भीमसेन जोशी जैसी निष्ठा है और समय नहीं है. जबकि उस्ताद अब्दुल करीम खाँ, पंडित सवाई गंधर्व और पंडित भीमसेन जोशी जैसे संत गायकों ने इसे साधना के रूप में गाया था, इसलिए उनके गायन की गहराई और ऊँचाई अप्रतिम हैं.
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संदर्भ
[1] https://medium.com
[2] https://jivanihindi.com/abdul-karim-khan-ki-jivani
[3] वही
[4] वही
[5] https://swarajyamag.com/culture/swara-and-its-purity-the-story-of-the-kirana-gharana
[6] वही
[7] मोबे, गोपाल कृष्णः सात स्वर श्री, पृ. 50 & 64
[8] परांजपे, शरच्चंद्र श्रीधरः संगीत बोध, पृ.81
[9] ‘संगीत’ पत्रिका, जून 1993, पृ. 15
[10] वही
[11] खोट, जयंतः ‘संगीत’ पत्रिका, मार्च 1997, पृ. 32
[12] ‘संगीत’ पत्रिका, जून 1993, पृ. 17
[13] खोट, जयंतः ‘संगीत’ पत्रिका, मार्च 1997, पृ. 32
[14] https://www.bbc.com/hindi/india/2016/06/160620_kairana_related_kirana_music_pk
[15]वही
[16] वही
[17] http://vatankiawaz.in/ustad-amir-khan-was-the-famous-classical-music-singer-of-india
[18] वही
पंकज पराशर |