प्रोतिमा बेदी
उसने लास्य चुना और चुना प्रेम
रंजना मिश्र
कलाकार मानवता और सोच की परिधियों को हमेशा ही विस्तृत करते आए हैं. वे उस दुनिया के बाशिंदें हैं जो उनकी आत्मा में बसता है. उसी दुनिया को ज़मीन पर उतार लाने की कोशिश उनकी कला और जीवन को अर्थ देती है. तमाम आलोचनाओं, उपहास और तिरस्कार के बावजूद वे ऐसा करते आए हैं और करते रहेंगे. विद्रोह और यथास्थिति से इनकार कला की पहली शर्त है, हर रचनात्मक व्यक्ति के व्यक्तित्व का एक बड़ा हिस्सा दृश्य या अदृश्य रूप से, जाने या अनजाने उसके सीमित दुनियावी अस्तित्व से निरंतर संघर्ष की स्थिति में रहता है, और यही संघर्ष उसके भीतर की कला को मांजता निखारता है . यही संघर्ष हर कलाकार अपने जीवन और कला में जीता है.
१२ अक्टूबर १९४९ को हरियाणा में जन्मीं प्रतिमा बेदी या प्रतिमा गौरी हरियाणवी पिता और बंगाली माँ की दूसरी बेटी इस दृष्टि से उन विरले भारतीय कलाकारों और शास्त्रीय नृत्यांगनाओं में शुमार रखती हैं, जिन्हें ओड़िसी नृत्य ने और जिन्होंने ओडिसी नृत्य को हमेशा के लिए बदल दिया. उन्होंने अपने जीवन में कई मुखौटे पहने पर इन मुखौटों के भीतर जो असली चेहरा था वह सिर्फ और सिर्फ विद्रोही कलाकार का था जिसने हर सीमा को चुनौती दी, जिसने समाज के बनाए ढाँचे में समाने से इनकार किया, जिसने कई रूपों में जीते हुए अपने भीतर के कलाकार को ही जिया और इसके कई अँधेरे विवादित पहलुओं को समाज के सामने खोलकर रख दिया. यह समाज का निर्णय है कि वह काले और सफ़ेद में ही कलाकार के जीवन और मन की जांच परख करे, उन धूसर कोनों और निरंतर चलने वाली हलचल की ओर भी अपनी दृष्टि डाले, न कि उसपर फतवे जारी करे जिसकी प्रतिमा बेदी को न परवाह थी न उसपर ध्यान देने का समय क्योंकि जो छोटा सा जीवन वह लेकर आईं थी वह नृत्य के लिए था, लोगों और समाज की मान्यताओं पर खरा उतरने के लिए नहीं और वे निरंतर यही करती रहीं.
केलुचरण महापात्र |
ख्यातिप्राप्त ओडिसी नृत्य गुरु केलुचरण महापात्र कहाँ जानते थे मुंबई के भूलाभाई हॉल में उस रविवार की शाम छात्राओं का नृत्य प्रदर्शन ख़त्म होते ही भीड़ को चीरकर लम्बी छरहरी अत्याधुनिक पाश्चात्य वेशभूषा और बालों को सुनहरे रंग से रंगे जो युवती नेपथ्य में उनके सामने आ खड़ी हुई है वह फैशन पत्रिकाओं की मॉडल, एक फ़िल्मी हस्ती की पत्नी और दो बच्चों की माँ है. जो अपनी आज़ाद निजी ज़िन्दगी और अनेकानेक प्रेम प्रसंगों के कारण अक्सर चर्चा में रहती है और जिसका नृत्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं. वह सिर्फ बारिश से बचने के लिए इस हाल में घुस आई है और मंच पर उसने जो देखा उसे देखकर स्तब्ध है. इस नृत्य के सम्मोहन और जादू से जिसका साबिका अपने जीवन पहली बार पड़ा है. उसने महसूस किया है वही मंच पर नृत्य कर रही थी, वही उस नृत्य में मेनका थी, अभी-अभी उसी ने विश्वामित्र की तपस्या भंग की. जो अपनी उम्र और सफलता, सुख और ऐश्वर्य के इस पड़ाव पर जिंदगी के मायने ढूंढ रही है, जो बेहद कुंठित और लगभग अवसाद ग्रस्त है. अपनी उँगलियों में फंसी सिगरेट छुपाती वह हाथ जोड़े गुरु के सामने नतमस्तक है कि वे उसे शिष्य की तरह स्वीकार करें,
उसे अभी ही अपने जीवन का ध्येय मिला है, पर गुरु जिसे पहली ही नज़र में ऊपर से नीचे देखकर नकार चुके है और मुसकुराते हुए कह रहे हैं –
“मुझे माफ़ करो माँ, मुझे ओड़िसा वापस जाने की ट्रेन पकड़नी है. नृत्य साधना बहुत मेहनत और समर्पण की मांग करती है, सबकुछ छोड़ना होता है.”
“मैं सबकुछ छोड़ सकती हूँ”, प्रतिमा ने कहा.
उस दिन वे नहीं जानती थीं वे क्या कह रही हैं !
तौलती हुई नज़रों से उस युवती को देखकर गुरु ने फरमान जारी किया-
“तो अभी इसी ट्रेन से मेरे साथ ओड़िसा चलो”.
“पर मेरे दो छोटे बच्चे हैं, पति है, एक घर है, मुझे थोडा समय दीजिये ताकि मैं उन्हें अपने निर्णय के लिए तैयार कर पाऊँ.”
“अभी तो तुमने कहा तुम सबकुछ छोड़ सकती हो, तो छोड़ दो !”
यहाँ संभावित शिष्य की पात्रता जांचता एक गुरु था जिसने २००० वर्ष प्राचीन ओडिसी नृत्य शैली को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसने स्वयं नृत्य के लिए सबकुछ छोड़ा था, नृत्य जिसके जीवन का ध्येय था और इसे भविष्य तक ले जाने वाले सही पात्र की तलाश में था.
“अगर तुम अभी ही मेरे साथ चल सको तो मैं तुम्हें सिखाऊंगा. वरना भूल जाओ”
७० के दशक की मुंबई की चकाचौंध भरी फ़िल्म और फैशन मॉडलिंग की सबसे बिंदास, आज़ाद और खूबसूरत मॉडल प्रतिमा की उपस्थिति और यौवन को नगण्य मानकर इनकार का शायद यह पहला अवसर था. अपमान और गुस्से का घूँट पीकर वे गुरु के सामने लगभग आंसुओं में थीं. कौन है यह ग्रामीण खल्वाट धोतीधारी वृद्ध जिसे रूपगर्विता प्रतिमा के यौवन और सफलता ने रत्ती भर न छुआ, जिसे आस पास के सभी लोग बेहद आदर से संबोधित कर रहे हैं, जो ठीक से अंग्रेजी भी नहीं बोल सकता, जो ओडिया में अपनी छात्राओं को जल्दी सामान बाँधने का आदेश देता प्रतिमा की उपस्थिति तक से बेखबर हो गया !
बहुत इसरार करने पर साफ़ शब्दों में नकारे बिना गुरु ने कहा–
“तीन दिन और दो रातों में मैं अपने गाँव कटक पहुंचूंगा अगर तुम मुझसे पहले वहां पहुँच गई तो मैं तुम्हें नृत्य सिखाऊंगा. और हाँ, अपने बालों में नारियल तेल चुपड़ उन्हें बांधकर आना, मैं ‘राक्षसियों’ को नृत्य नहीं सिखाता.”
वे शायद प्रतिमा की आवाज़ की तरलता से द्रवित हो गए और उनकी आँखों ने प्रतिमा को पहचान लिया था. उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह युवती जो उनके सामने खड़ी है उसने अपने जीवन में कभी नृत्य नहीं सीखा पर जिसकी देह में लय, पैरों में गति और देहयष्टि और आँखों में एक नर्तकी छुपी है. जो अपने जीवन के उस सोपान पर है जहाँ से उसकी अद्भुत कला यात्रा शुरू होने वाली है, जिसे संसार और नृत्य की दुनिया अचंभित होकर देखेगी.
(दो)
पर शायद सिर्फ एक नृत्य प्रदर्शन, निजी जीवन की कुंठा और उनका विद्रोही स्वभाव ही नहीं था जिसने उन्हें गुरु केलुचरण महापात्र के सामने ला खड़ा किया था. इसके सूत्र कहीं गहरे उनके बचपन से जुड़ते थे. पांच वर्ष की उम्र में बच्चों के खेल में बाहें फैलाए उड़ने का अभिनय कर चट्टान पर औंधे मुंह गिरती वह सांवली और अकेलेपन का शिकार बच्ची क्या अनजाने ही नृत्य में मुक्ति का पूर्वाभ्यास कर रही थी? क्या बाहें फैलाएं उड़ने की कल्पना और अभिनय में खुद को भूलकर नृत्य करने की अव्यक्त आकांक्षा थी जिससे वे अनजान थीं? यह एक कलाकार का जटिल मानस था, उसके जटिल पर कलात्मक जीवन की शुरुआत थी, जिसे आने वाले समय में अनेक विवादों में घिरना था, कई सीमाएं तोडनी थीं और नृत्य को नई ऊंचाइयों तक ले जाना था. क्या ही आश्चर्य कि वे सामान्य दुनियावी समझ से परे, प्रयोग धर्मी और विवादास्पद रहीं.
पिता के व्यापार में घाटे के कारण उन्हें कुछ समय के लिए उस छोटे से पैतृक गाँव में भेज दिया गया जहाँ वे १० वर्ष की उम्र में वे परिवार में ही यौन शोषण का शिकार हुई और किसी को न बता पाने के कारण अपनी ही दुनिया में रहा करतीं. उन दिनों वे अक्सर किसी पेड़ पर चढ़कर बैठ जातीं और वहां लोगों से छिपकर गाँव के रोज़मर्रा का जीवन देखा करती. जुओं से भरा सर और पैर में घाव लिए वे गाँव की पाठशाला में भी अलग-थलग ही रहतीं, आखिर वह शहर में पैदा हुई एक लड़की थीं जिनके पिता उस दकियानूस माहौल और परिवार में एक काली बंगालन ब्याह लाए थे, जो गाँव और शहर के बीच कहीं अपनी जगह न ढूंढ पाती थीं.
गाँव में ही बुआ का एक मंदिर था जिसमें लोग किसी विशेष दिन को कीर्तन के लिए जमा होते और ढोल मंजीरे बजाकर कीर्तन किया करते. ऐसी ही किसी भीड़ में ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ और ढोल मंजीरे के संगीत के बीच भीड़ में बैठी एक औरत, संभवतः गाँव की कोई विधवा अचानक उठकर खड़ी हो गई और अपनी दोनों बाहें फैलाए गोल-गोल घूम सूफी दरवेशों की तरह नाचने लगी. उसकी बाहें फैली हुई थीं, आँखें बंद और उनसे लगातार आंसू बह रहे थे. वह तन्द्रावस्था की सी अवस्था थी. वह किसी और ही दुनिया में थी और प्रतिमा को भी अपने साथ उसी दुनिया में लिए जा रही थी. यह ज्ञात रूप से नृत्य के प्रति उनका पहला अलौकिक अनुभव था.
पिता की आर्थिक स्थिति बेहतर होने पर उन्हें बोर्डिंग स्कूल भेजा गया पर यहाँ भी समवयस्क बच्चों से मेलजोल उनके लिए सहज नहीं था. नींद में बिस्तर भिगोने की आदत उन्हें लम्बे समय तक रही और इस आदत की सजा उन्हें अपने बिस्तर को धूप में सुखाने के लिए लम्बे गलियारे से होकर जाने के रूप में मिला करती. अपने कमरे से निकलकर गलियारे से होकर जाना उनके लिए मजाक और अपमान का सबब बनता. लडकियां उनपर हंसती और नन और वार्डन की कठोर ठंडी दृष्टि उस ठन्डे गलियारे में उनका पीछा करती. अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं –
“इस तरह मैं धीरे-धीरे अपमान और मज़ाक की अभ्यस्त होती गई. मेरी आगे की ज़िन्दगी में इस अभ्यास ने हरदम मेरा साथ दिया. मैंने लोगों द्वारा किये जाने वाले अपमान और उपहास की परवाह करनी बंद कर दी और वही करती जो मुझे सही लगता.”
बोर्डिंग से वापस आने के बाद कॉलेज का जीवन उन्होंने मुख्यतः मौज मस्ती और अराजकता में ही व्यतीत किया. पार्टियां, ड्रग, डिस्को और घरवालों से छिपकर मॉडलिंग की शुरुआत इसी समय हुई. इन्हीं दिनो कबीर बेदी उनकी ज़िन्दगी में प्रेमी की तरह आए और वे साथ रहने लगे. कबीर फिल्मों में आ चुके थे और पहले बच्चे का जन्म हो चुका था. पर अस्थिरता और अत्यधिक ऊर्जा, साथ ही कबीर का अधिकाधिक व्यस्त हो जाना प्रतिमा को अनेक प्रेम संबंधों की और ले गया. दूसरे बच्चे का जन्म प्रतिमा और कबीर के रिश्तों में अधिक दूरी बनकर आया क्योंकि दूसरा बच्चा संभवतः उनके फ्रेंच प्रेमी का था, जिसे वे अपनी आत्मकथा में स्वीकार करती हैं. ये वही दिन थे जब ओडिसी का उनके जीवन में प्रवेश हुआ.
कबीर अपनी व्यावसायिक सफलता और व्यक्तिगत जीवन के उस मुकाम पर थे जहाँ उनकी और परवीन बाबी की नजदीकियां प्रेस और फिल्मों की दुनिया में चर्चित हो चली थीं पर इसे फ़िल्मी दुनिया का हिस्सा मानकर प्रतिमा इससे कोई ख़ास प्रभावित न थीं. हाँ, वे ‘फिल्म स्टार की पत्नी’ के तमगे से भीतर ही भीतर ज़रूर क्षुब्ध थीं और इसका प्रतिकार अनेक प्रेम प्रसंगों में मुब्तिला रहकर किया करतीं. उन्हें चर्चा पसंद थी, वे सनसनीखेज होने में कोई बुराई न समझतीं और अराजक होने की सीमा तक अपनी ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठातीं. वह हिप्पी संस्कृति के प्रभाव का समय था और प्रतिमा, कबीर और उनके मित्र इस संस्कृति के पुरोधा. उनके जीवन में एक समय में एक से अधिक पुरुषों की उपस्थिति भी शायद उनके जटिल विद्रोही स्वभाव का हिस्सा थी, ये वे अपनी आत्मकथा में खुद स्वीकारती हैं.
इसके ठीक विपरीत, शास्त्रीय कलाएं और नृत्य विशेष जीवन पद्धति और अनुशासन की मांग करते हैं. कला इस जीवन पद्धति में मुख्य और कलाकार गौण होता है. एक विशेष मानसिक शारीरिक और आध्यात्मिक जीवन और हर रोज़ के कठिन अभ्यास से गुज़रकर ही सिद्धहस्त कलाकार बनते हैं. गुरु केलुचरण महापात्र के पास तीन महीने की नृत्य साधना ने प्रोतिमा को पूरी तरह बदलने की शुरुआत कर दी. देर रात तक चलने वाली पार्टियां अब स्वप्न थीं, अब सोने से पहले गुरु के पैर दबाने थे, सनसनीखेज चटपटी बातों के बदले अब तालों, मुद्राओं, अभिनय, धर्म, संगीत और मिथकों की समझ पैदा करनी थी, देह को साधना था और गाँव के उस परंपरागत गुरु शिष्य जीवनशैली का स्वीकार था जिससे विद्रोह का अर्थ बोरिया बिस्तर समेट मुंबई की उसी नकली दुनिया और जीवन में वापसी थी जहाँ उनके जीवन का कोई ध्येय नहीं था.
तीन महीनों की कठिन साधना जिसमें गुरु के छोटे से ग्रामीण घर में अन्य छात्राओं के साथ जमीन पर चटाई में सोना, गुरु पत्नी की रसोई में भोजन पकाने में सहायता, कुएँ से पानी खींचना और रोज़मर्रा के घरेलू काम शामिल थे, के बाद जब प्रतिमा मुंबई वापस आई तो वे बदल चुकी थीं, उनकी प्राथमिकता नृत्य थी, उन्होंने विधार्थियों सी जीवन पद्धति अपना ली पर इस बीच पति कबीर बेदी की प्राथमिकता परवीन बाबी हो चुकी थीं और विवाह टूटन की कगार पर था. दोनों बच्चे बेहद छोटे और नासमझ थे. प्रतिमा ने बिना शिकायत पति कबीर को आज़ाद कर दिया. कबीर घर छोड़कर चले गए और प्रतिमा अपनी नृत्य साधना और बच्चों के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गईं पर कुछ समय बाद कटक और मुंबई के बीच की यात्रा ने उन्हें बच्चों को भी बोर्डिंग स्कूल भेजने को मजबूर कर दिया.
प्रतिमा ने नृत्य चुना. नृत्य ने उन्हें पति और बच्चों से दूर कर दिया.
(तीन)
मिथक कहते हैं जिस दिन पुरी में जगन्नाथ की प्रतिष्ठा हुई स्वर्ग से देव्, गन्धर्व और अप्सराएं उतर आईं और जगन्नाथ के सम्मान और आनंद में जो नृत्य किया वह ओडिसी था. मंदिर की देवदासियों ने वह नृत्य उनसे सीखा और जगन्नाथ की सेवा में नृत्य करने लगीं. वे हरिप्रिया, अप्सराएं ओडिसी की प्रथम नृत्यांगनाएं मानी जातीं हैं और मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण भित्तिचित्रों में वे देवदासियां आज भी छुपी बैठी हैं जिनके आधार पर और मदद से जयदेव ने १२ वीं शताब्दी में गीत गोविन्द की रचना की. कहते हैं, गीत गोविन्द के पदों को नृत्य में उतारने में मंदिर की इन देवदासियों ने महती भूमिका निभाई, हालांकि भरत के नाट्य शास्त्र में ‘ओद्रा मागधी‘ शैली को इसकी उत्पत्ति का श्रोत माना जाता है. पुरी, कटक, भुबनेश्वर और कोणार्क के क्षेत्र ओडिसी का उद्गम माना जाता है. दूसरी शताब्दी की उदयगिरी और खण्डगिरी की पहाड़ियों में उत्कीर्ण भित्तिचित्र की मुद्राएं ओडिसी की ही मुद्राएं मानी जाती हैं.
शास्त्रीय कलाएं अपने साथ लम्बा इतिहास लेकर चलती हैं. वे सभ्यताओं के उत्थान पतन और मानव मन और प्रकृति के सम्बन्ध की साक्षी रही हैं। कलाओं में आने वाला पतन पूरे समाज के पतन की महागाथा है और ओडिसी भी इससे अछूती नहीं रही इसका भी पतन हुआ. पुरी के राजाओं की मुग़ल और मराठों से हार और राजनीतिक पराभव से ओडिसी का वैभव क्षीण हुआ. देवदासियाँ मंदिरों के साथ ही राजा और पुजारियों की निजी संपत्ति बनीं, उनका शोषण हुआ और देवदासी प्रथा के उन्मूलन के बाद (जो संभवत: ओड़िसा में सबसे आखिर में हुआ) वे गरीबी और भुखमरी की कगार पर पहुंची. पर्दा प्रथा के प्रचलन के बाद छोटे लड़कों को (जिन्हें ‘गोटीपुआ’ कहते हैं) नृत्य नाटिकाओं में स्त्री भूमिकाएं दी जाने लगीं. नृत्य अब सम्मानजनक पेशा नहीं रहा. निर्धन परिवारों के ‘गोटीपुआ’ दशहरे के दिनों में गानों के कार्यक्रमों में नृत्य के साथ ही सैनिकों और धनाढय लोगों के मनोरंजन का साधन बने और यह असंभव नहीं कि उनका देवदासियों की तरह दैहिक शोषण होता रहा होगा.
ओडिसी के अधिकतर गुरु बचपन में गोटिपुआ रहे या ‘गोटीपुआ’ परिवारों से आए पर देवदासियां जिन्हें ‘माहारी’ भी पुकारते थे धीरे-धीरे नृत्य से दूर होती गईं. समाज ने उन्हें ‘गुरु’ की तरह स्वीकार नहीं किया. लम्बे समय बाद अनेक कुरूपताओं और विडम्बनाओं के अपने में समेटे ओडिसी को १९५० के दशक में ओड़िसा के ओडिसी गुरुओं, थियेटर कलाकारों और बुद्धिजीवियों के मिले जुले प्रयास ने पुनर्जीवित किया और इसके मूल स्वरूप में कुछ परिवर्तनों के साथ, आठ भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में शामिल किया गया, जिसे संगीत नाटक अकादमी की स्वीकार्यता के बाद ओडिसा का सांस्कृतिक प्रतीक माना जाने लगा.
ओडिसी का सुनहरा दौर अब वापस आने को था और इसके व्याकरण और इससे जुड़े पक्षों को पुराने गुरुओं, संस्थानों और राज्य सरकार के संरक्षण में शास्त्र का रूप दिया गया. इसके प्रदर्शन आयोजित किये जाने लगे, देश विदेश में इसके प्रदर्शन हुए और दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम में पहली बार ओडिसी की शिक्षा दी जाने लगी.
ओडिसी बेहद कठिन नृत्य शैली है. अपनी मोहक, कमनीय शारीरिक भंगिमाओं और भक्ति भावमय लयात्मकता के लिए जाने वाले इस नृत्य में मंगलाचरण, स्थाई, पल्लवी, अभिनय और मोक्ष ये पांच भाग हैं जो पांच से पंद्रह मिनट के खण्डों में विभाजित होते हैं. इस जटिल पर बेहद सुकोमल नृत्य शैली में प्राचीन मंदिरों की पाषाण प्रतिमाओं को मानक की तरह साधकर नृत्य में उतारना होता है जिसके दो पक्ष होते हैं, एक स्त्री भंगिमा दूसरी पुरुष भंगिमा. स्त्री भंगिमा में तीन स्थानों-गले, कमर और घुटनों के कोण का विपरीत दिशा में भंग, शरीर के हर मोड़ का त्रिकोण, इसे ‘त्रिभंगी’ कहते हैं. इस भंगिमा में शरीर का भार अधिकतर एक पैर पर होने के साथ ही पैरों की मंथर गति और भाव प्रवण अभिनय एक साथ साधना नि:संदेह कठिन और एकाग्र अभ्यास और समर्पण की मांग करता है. इसी तरह पुरुष भंगिमा की अपनी मुद्राएं हैं यथा कंधे की सीध में बाहें कुहनी से तथा घुटने के मुड़े हुए कोण जैसे भगवान् जगन्नाथ की प्रतिमाओं में नज़र आती है. इसे ‘चौक’ कहते हैं. पंकज चरण दास (जिन्हें ओडिसी का आदि गुरु मानते हैं), रीता देवी, रत्ना रॉय, प्रियम्बदा देवी, गुरु केलुचरण महापात्र, संजुक्ता पाणिग्रही सरीखे लोगों ने ओडिसी को वह स्वरुप प्रदान किया जिसे हम आज देखते हैं. पर इन सभी कलाकारों में गुरु केलुचरण महापात्र शायद ऐसे गुरु थे जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह करते हुए कई नामचीन कलाकारों को संवारा निखारा.
शुरूआती दिनों में प्रतिमा अक्सर अल्लसुबह लोगों के आने से पहले समुद्र के किनारे रेत पर नृत्य का अभ्यास किया करतीं क्योंकि घर पर नींद में खोए दो छोटे बच्चे और नीचे रहने वाले पडोसी असरानी थे जो प्रतिमा के घुंघरुओं की आवाज़ से परेशान अक्सर अपनी पत्नी के सरदर्द की शिकायत लेकर उनके घर नाराज़ होकर आ पहुँचते. खब्ती प्रतिमा का नया शौक न पड़ोसियों के गले उतरता न उनके मित्रों के, जो कबीर की अनुपस्थिति में प्रतिमा के मित्र न रहे थे. रेत पर नृत्य अभ्यास ने प्रतिमा के पैरों में वह लय, लोच और त्वरा दी जिसके लिए वे बाद के वर्षों में जानी जाती रहीं. इन तीन वर्षों में प्रतिमा निजी जीवन में बिलकुल एकाकी हो गई थीं. कटक और मुंबई के बीच की यात्रा, नृत्य अभ्यास, बच्चे, संयमित जीवन और अकेलापन ही उनके साथी थे. पर संगीत और नृत्य की दुनिया ने बाहें फैलाए उनका स्वागत किया. गिरिजा देवी उनकी नजदीकी मित्र थीं, हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित जसराज, बिरजू महाराज, पंडित शिवकुमार शर्मा जैसे कलाकारों की मंडली की वे सम्मानित सदस्य थीं और पंडित जसराज के प्रेम ने उन्हें भीतर से बदलना शुरू कर दिया था.
यह उनके लिए बेहद कठिन साधना और पीड़ा का दौर था जिसमें अपने बच्चों की परवरिश के सिवा (कबीर से मिलने वाले पैसे नाकाफी थे पर उन्हें और पैसों की मांग अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगती थी) उन्हें अपने वादक कलाकारों का भुगतान, नृत्य की महँगी वेशभूषा और मेकअप की खरीद और रखरखाव में काफी खर्च करना पड़ता और उनके पुराने जीवन के कारण आलोचकों की राय उनके बारे कोई ख़ास अच्छी न थी. पर अपने पहले सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद (जिसके लिए उन्हें महज ७०० रूपये मिले थे) ही आलोचकों ने उन्हें गंभीरता से लेना शुरू कर दिया हालांकि दक्षिण के आलोचक अब भी उनकी छवि को लेकर पूर्वाग्रह ग्रसित थे. मशहूर भरतनाट्यम और ओडिसी नृत्यांगना सोनल मानसिंह भी अपनी विवादित जीवन शैली के कारण दक्षिण के पंडितों की आलोचना का शिकार यदा कदा होती रहती थीं. यह शास्त्रीय कलाओं की पारंपरिक पितृसत्तात्मक दुनिया थी जहाँ कलाकार के व्यक्तिगत जीवन की तथाकथित शुचिता भी उतनी ही आवश्यक मानी जाती है जितना कला के प्रति उसका समर्पण और इसमें कोई दो राय नहीं की यह दुनिया स्त्री कलाकारों के लिए और संकीर्ण हो जाती है.
यह दुनिया देवताओं के पैरों के करीब बैठाई गई उन स्त्रियों की दुनिया थी जिन्हें कला ने पतित किया था. ये पदच्युत देवियाँ थीं, अप्सराएं– कला से प्रेम का शाप जीतीं और इंसानी प्रेम के कारण इंद्र के दरबार से निष्कासित…पर इसी दुनिया के एक सिरे पर थे गुरु केलुचरण महापात्र जिन्होंने प्रतिमा में नृत्य की समझ विकसित की, जिनके सानिध्य ने प्रतिमा के विद्रोही तेवर को मुलायम किया, दिशाहीन ऊर्जा को दिशा दी और नृत्य के प्रति समर्पण सिखाया. गुरु केलुचरण महापात्र अभिनय और लास्य के अप्रतिम गुरु माने जाते थे. गुरु को याद करते हुए अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं –
“मुझे याद है एक बार वे गीत गोविन्द के किसी पद की नृत्य रचना में लीन थे. उस १० x १० के छोटे से कमरे में एक छोटा लकड़ी का दीवान जिसपर पूरे घर के बिस्तर रखे थे, दीवार से लगी एक अलगनी थी जिसपर घर भर के कपडे लदे थे, जिसपर घर का कोई व्यक्ति और कुछ कपडे रखने आया और चला गया, दो छोटे बच्चे आँगन से चीखते हुए कमरे में आए और दौड़ते हुए बाहर निकल गए, बगल के कमरे में चीखता टेलीफोन था जो लगातार बज रहा था. मैं चार अन्य लड़कियों के साथ किसी तरह एक छोटे से टेबल पर टिककर खडी पुराने टेप रेकार्डर पर बजते गीत के साथ उन्हें नृत्य के भाव में लीन देख रही थी. आस पास की दुनिया से वे जैसे कटे हुए थे, वह उनके लिए अस्तित्व हीन थी, वे राधा थे और कृष्ण के प्रेम में उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे, ये विशुद्ध रचनात्मकता के क्षण थे. वह दृश्य मुझे कभी नहीं भूलता”
ऐसे ही अनेक घंटों दिनों महीनों और सालों ने प्रतिमा के भीतर छिपे कलाकार को संवारा और वे तीन बरसों में ही देश की सबसे उत्कृष्ट ओडिसी नृत्यांगनाओं में गिनी जाने लगीं. अगले करीब १० वर्ष उनकी व्यावसायिक और कलात्मक सफलता की ऊंचाइयों के दिन थे, वे अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि पा चुकी थीं और ओडिसी और प्रोतिमा बेदी एक दुसरे का पर्याय बन चुके थे. इन दिनों ने नृत्य का हर आमंत्रण स्वीकार करतीं, पूरे देश घूमती रहीं. इन्हीं दिनों पहली बार उन्होंने १२ छात्राओं के साथ उन्होंने पृथ्वी थियेटर में अपना नृत्य स्कूल खोला. यह मुंबई में ओडिसी नृत्य का पहला स्कूल था. यह समय उनके लिए अनगिनत प्रेम प्रसंगों का भी था. कला और राजनीति के कई कद्दावर व्यक्तित्व उनके प्रेम में रहे और वे भी प्रेम तलाशती रहीं जो शायद उन्हें टुकड़ों में मिला. एक समय ऐसा भी था जब वे समर्पित पत्नी होना चाहती थीं पर वे जानती थीं एकनिष्ठता उनका स्वभाव नहीं, अप्सराएं एकनिष्ठ नहीं होती, प्रतिमा तो वैसे भी नृत्य को समर्पित हो चुकी थीं.
मेरे बचपन की धुंधली स्मृतियों में बेहद सुन्दर स्मृति प्रतिमा के नृत्य की भी है. शहर में दुर्गापूजा के दस दिनों में शास्त्रीय संगीत और नृत्य के कार्यक्रम हुआ करते जो पूरी रात चला करते. सात आठ बरस की उम्र में उन समारोहों का आकर्षण पहले वहां मिलने वाले वेजिटबल कटलेट की वजह से बना पर जल्द ही समझ आया मंच पर कुछ जादू सा होता है जो समझ तो नहीं आता पर कई दिनों तक याद रह जाता है.
इसी तरह के किसी समारोह में जब मुझे अंतराल के बाद मुझे सोते से जगाया गया तो मंच पर कई रंगों की रौशनी थी और एक उद्दात सी आवाज़ कुछ गाना शुरू कर रही थी जिसके बोल संस्कृत में थे (बाद में जाना वे गीत गोविन्द के पद थे). थोड़े समय बाद मंच पर बेहद लम्बी, सुगढ़, सुन्दर कोई आकृति नज़र आई जो सीधे माइक तक चली आई और बेहद परिष्कृत अंग्रेजी में दशावतार के अलग-अलग अवतारों से जुड़े नृत्य मुद्राओं के बारे बताने लगीं. (यह प्रयोग प्रतिमा बेदी ने ही पहली बार शुरू किया था जो काफी सफल रहा. अब अधिकतर ओडिसी कलाकार नृत्य से पहले नृत्य के विषय में बताते हैं) पार्श्व का संगीत धीमा था, रौशनी प्रोतिमा पर केंद्रित थी, हॉल में सन्नाटा था, और वे गूंजती हुई सी आवाज़ में कुछ कह रही थीं.
पहली बार मैंने सौन्दर्य का आतंकित करने वाला वह रूप देखा जो उनके व्यक्तित्व के हर पहलू से झर रहा था. बाद में मैंने जाना उन वर्षों में वे अपनी ज़िन्दगी के सबसे कठिन आर्थिक, भावात्मक और मानसिक दौर से गुज़र रही थीं. पर यही वर्ष थे जो उन्हें प्रसिद्धि और गौरव के शिखर तक लिए जा रहे थे जहाँ पहुंचकर उन्हें ओडिसी नृत्य की दुनिया को बहुत कुछ देना था और अचानक एक दिन कपूर के धुंए की तरह बादलों में छिपकर प्रकृति से एकाकार हो जाना था, अपना कोई भी चिन्ह पीछे छोड़े बिना.
(चार)
क्या कलाओं की साधना में कलाकार के निजी जीवन की पीड़ा का भी उतना ही योगदान नहीं रहता जितना कला की साधना का ? क्या कलाओं के माध्यम से कलाकार अपना और अपने दर्शकों श्रोताओं का हाथ थामकर उन्हें संकुचित दुनियावी सुख दुःख की परिभाषा से परे एक प्रति संसार में नहीं ले जाते? एक नई दृष्टि से जीवन को देखने की तमीज कौन दे सकता है भला !
प्रतिमा सफल नृत्यांगना बन चुकी थीं और नृत्य ने उन्हें वह ऊंचाई दी थी जहाँ वे अपनी आगे की ज़िन्दगी अपनी सफलता और प्रसिद्धि के शिखर पर रहते हुए गुज़ार सकती थीं पर उन्हें और बहुत कुछ चाहिए था पर सिर्फ खुद के लिए नहीं. अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं-
“मुझे नृत्य सीखने के दिनों में ही यह अनुभव हो गया था कि नृत्य सीखना और उसे प्रोफेशन की तरह अपनाना कितना कठिन है. मेरे पास साधन थे तो मैं यह कर पाई पर ऐसे कई छात्र होंगे जो साधनों के अभाव में यह नहीं कर सकते और कितनी प्रतिभाएं असमय नृत्य से दूर चली जाती हैं. क्या ही अच्छा हो अगर उन्हें साधनों का अभाव न हो और वे निश्चिंत होकर सिर्फ नृत्य साधना में ध्यान लगा सकें. नृत्य को ही अपने जीवन का ध्येय बना सकें.”
स्वप्नदर्शी प्रोतिमा नृत्य के प्रति अपने दाय से पूरी तरह अवगत थीं और ओडिसी के प्रसार को लेकर गंभीर.
इसी दाय और स्वप्न को उन्होंने नृत्यग्राम का रूप दिया जो शास्त्रीय नृत्य में गुरु शिष्य परंपरा और आधुनिकता का अनूठा और सफल प्रयोग है. आज नृत्यग्राम शास्त्रीय नृत्य के सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों में से एक है. पर इसकी शुरुआत बेहद कठिन और दिलचस्प है.
१९८२ के बाद का दौर प्रतिमा के लिए बेहद अकेलेपन उदासी और इसके स्वीकार का था. मशहूर राजनीतिक व्यक्तित्व और देश के चोटी के अधिवक्ता रजनी पटेल जो उनके प्रेम में थे, की कैंसर से मृत्यु हो चुकी थी, पंडित जसराज पहले ही दूर थे. तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री वसंत साठे के साथ उनकी अंतरंगता को कोई आधार नहीं मिल सका और कमोबेश अवसाद की सी अवस्था में वे नृत्य के प्रति भी उदासीन हो चली थीं. कबीर बेदी के जाने के बाद के लम्बे समय तक अकेले किया गया संघर्ष, टुकड़ों और प्रेमियों की सुविधानुसार मिला प्रेम उनपर हावी हो रहा था. इन सभी रिश्तों में अपनी स्वार्थपरता और अस्थिरता भी वे जानने लगीं थीं. वे समझने लगीं थीं कि मानवीय प्रेम की सीमाएं हैं और सिर्फ प्रेम की तलाश जीवन को कोई ऊंचा अर्थ नहीं दे सकती. यह उनके लिए आत्म परीक्षण का समय था, अब वे स्थिर होना चाहती थीं.
यह कुछ रचने, सृजन करने के पहले की विश्रांति थी जो उन्हें पहले बेचैन और फिर स्थिर कर रही थी क्योंकि आगे आने वाले वर्ष उनके सबसे कठिन, हलचल से भरे पर संतुष्टि वाले वर्ष सिद्ध होने वाले थे. यह प्रेम का व्यक्तिगत सीमाओं से परे हो जाने का समय था. यह प्रोतिमा बेदी के प्रोतिमा गौरी और फिर गौरी अम्मा हो जाने की आहट थी. इन दिनों की मानसिक स्थिति के बारे वे अपनी आत्मकथा में लिखती हैं-
“ज़िन्दगी हमारे लालच का मज़ाक उडाती है. दस्तरख्वान सजा है और हर कोई आमंत्रित है. आप अपना मनपसंद भोजन चुनने को स्वतंत्र हैं, चाहे आप खीरे का एक छोटा टुकड़ा लें या पूरी प्लेट भर लें – कीमत एक ही है – आपका जीवन. ईश्वर सौ हाथों से देता है पर आपके दो ही हाथ हैं, आप कितना हासिल कर सकते हैं ? यह हमारे ऊपर निर्भर करता है. मेरी दृष्टि बदल रही थी. मैंने जीवन का दस्तरखान अपने सामने बिछा देखा और अपना लालच भी. वह लालच जो दृष्टि धुंधली कर देता है तिरोहित होने लगा है. मैं सिर्फ उतना ही लूंगी जितना मेरे जीवित रहने के लिए ज़रूरी है. मुझे प्रसिद्धि नहीं चाहिए, सफलता, चकाचौंध और ऐश्वर्य के बिना मैं रह सकती हूँ. मैं सिर्फ वही लूंगी जो मुझे अर्थ देता है. मुझे थोड़ी ज़मीन चाहिए जहाँ मैं अपना अन्न खुद उगा सकूं और उसके करीब रह सकूं, जहाँ से सब आते हैं – धरती”.
यह किताबों से उपजा अध्यात्म नहीं था यह ज़िन्दगी की ठोस सच्चाइयों से रूबरू हो उसकी कडवी सच्चाइयों का मुकाबला करते बिना कडवाहट अपने अस्तित्व की तलाश की अनवरत यात्रा से उपजा ज्ञान था. यह जीवन में रहकर, जीवन में डूबकर, जीवन से निःसंग होकर जीने की स्पष्टता थी.
इसी समय सेनृत्यग्राम का सपना भी वे मन मेंपालरहीथीं.उनकेमनमेंस्पष्ट कल्पना थी कि नृत्यग्राम मेंविद्यार्थियों का जीवन कैसा होगा. विद्यार्थी सुबहदोघंटेखेतोंमेंकामकरेंगे, दोपहर के भोजन तक नृत्य साधना, शाम को तीन घंटे के अभ्यास के बाद रात का भोजन बनाना फिर तीन घंटे का नृत्य अभ्यास. शाम को खेतों में एक घंटे का काम और रात का भोजन और नृत्य सिद्धांत, मिथक,नृत्य–इतिहास, धर्म, दर्शन औरसंगीतकीकक्षातथासोनेकेपहलेध्यान.
नृत्यग्राम कोस्वावलम्बी होने के लिए खेती, पशुपालन और सब्जियों की खेती भी करनी थी और ये सब नृत्यग्राम केविद्यार्थी ही करेंगे. अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं –
“इसीसपनेकाखाकाअपनेमनमेंलिए१९८९केएकदिनमैंनेअपनासूटकेस, अपना सफ़ेद संगमरमर का नंदी बैल (जो मुझे उदयपुर के महाराज ने भेंट में दिया था) और २ लाख रूपये का चेक लेकर अपनी लाल मारुती से बम्बई से हैसरघट्टा के लिए रवाना हो गई “
१९८७ मेंहीकर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने उन्हें नृत्यग्राम केलिए१०एकड़ज़मीनदेनेकावादाकियाथाजोबंगलौर से करीब २५–३० किलोमीटर की दूरी पर था. थोड़ीऊंचाईपरइसजगहकेकरीबहीएकझीलथीजोबारिशकेपानीसेभरजाती, आसपासछोटेगाँवथे.परसालकेबाकीदिनोंमेंयहजगहसूखी झाड़ियों औरसांपबिच्छुओं से भरी रहती. ऐसी उजाड़ जगह अपने सपने और कुछ कपड़ों के साथ पहुंचकर यह सोचना कि शुरुआत कहाँ से की जाए, बेहद मजबूत इरादों वाले लोग ही करते है.
ऐसी कोईमुश्किल न थी जो उनके सामने न आई. शुरुआत उन्होंने उस जगह अपना टेंट गाड़ने और रोज़मर्रा की ज़रूरत के बर्तन, एक गद्दा और सोने के लिए चारपाई खरीदने से की. गैस कनेक्शन नहीं मिला जिसके बिना खाना बनना मुश्किल था. पड़ोसकेगाँवकेएककिसाननेपानीलाकरदेनाशुरूकियाऔरसाँपों से बचने के लिए टेंट के चारों और गड्ढे खोदे गए. गैस कनेक्शन के लिए अर्जी देने, लोगों के सामने गिड़गिड़ाने, धमकाने और नाज नखरे दिखाने के बाद भी जब १२ दिनों तक गैस कनेक्शन नहीं मिला तो उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री केबंगलेपरसुबहकानाश्ता करने की ज़िद की और कहना न होगा कि गैस कनेक्शन उन्हें अगले ही दिन मिल गया.
इन्हीं दिनोंजबवेपासकेगाँवसेगुज़ररहीथींतोगाँवकेकुछलड़कोंनेउन्हें देखकर ‘डिस्को डांस‘, ‘ब्रेक डांस‘ की आवाज़ें कसनी शुरू कीं. वे अपनी गाडी से उतर उनके पास चली गईं और पूछा- ‘तुमने भरतनाट्यम का नाम सुना है ?’ उनमें से एक ने किसी कन्नड़ फिल्म में भरतनाट्यम देखा था और कमल हासन के नाम से भी परिचित था पर उन्होंने यामिनी कृष्णमुर्ती याबिरजूमहाराज का नाम नहीं सुना था. स्पष्ट था हमारे देश में कलाएं गाँवों से दूर जा चुकी हैं. उन्होंने गाँव के बीचोबीच ओडिसी नृत्य का कार्यक्रम रखा और मशहूर फिल्म और थियटर अभिनेता शंकर नाग को न्योता भेजा.
शंकर नागआएऔरउन्होंने उस दिन गाँव के लोगों से बातें कर उन्हें प्रोतिमा और नृत्यग्राम के विषय में बताया. समारोह का अंत प्रोतिमा के नृत्य से हुआ. दो घंटे के इस नृत्य में पूरा गाँव स्तब्ध था. नृत्यग्राम केप्रतिगाँवकेलोगोंमें उत्सुकता और विश्वास जाग चुका था. इसी कार्यक्रम में फरवरी केमहीनेसे नएविद्यार्थियों को लेने की घोषणा की गई. तीन फरवरी की सुबह तक ओडिसी गुरुकुल का फर्श पूरी तरह बनकर तैयार भी नहीं हुआ था और ४०० अभिभावकों के साथ ६०० बच्चे बाहर कतार में खड़े थे.
यह एकस्वप्न के फलीभूत होने की ओर पहला कदम था, यह नृत्यग्राम केविद्यार्थियों का पहला समूह था जिसमें अधिकतर गाँव केबच्चेथे, वेअंग्रेजी या हिंदी नहीं जानते थे उनके माता पिता गरीब किसान और मज़दूर थे, वे ही गुरुकुल के पहले विद्यार्थी थे.
(नृत्यग्राम) |
नृत्यग्राम का निर्माण एक बेहतरीन सपने की शुरुआत थी और यह सपना सिर्फ नृत्य और प्रोतिमा से सम्बंधित नहीं था. मशहूर वास्तुशिल्पी गेरार्ड ड’कुना ने पूरी संस्था को वास्तुशिल्प का एक अनूठा उदाहरण बनाया जिसमें सीमेंट और लोहे की जगह लकड़ी, मिटटी और बांस के ढाँचे बनाए गए, वास्तुशिल्प की मदद से गुरुकुल का वातावरण तैयार किया गया. यह एक प्रतिसंसार था जहाँ नृत्य की देवी का वास था. गेरार्ड ड’कुना उन दिनों स्वयं निजी जीवन में अपनी पत्नी (उन दिनों) लेखिका अरुंधती राय से अलग हुए थे. उन्होंने अपना पूरा समय और ऊर्जा नृत्यग्राम को दी. नृत्यग्राम इस तरह दो प्रतिभाओं की प्रतिभा और लगन का सुन्दर संगम है. यहाँ तक तो ठीक था पर नृत्य ग्राम को आर्थिक स्वावलंबन की ज़रुरत थी और प्रतिमा अपने निजी साधनों से जितना पैसा लगा सकती थीं, लगा चुकी थीं. उन्हें नृत्य का अनुभव था पर संस्था को स्वावलंबी बनाना और धन की कमी से लगातार जूझना टेढ़ी खीर थी. अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं –
“लोग मेरी वाइन पर २०००/- खर्च करने को तैयार हो जाते पर वे संस्था के लिए धेला भर भी खर्च न करना चाहते”.
स्थानीय कलाकारों द्वारा विरोध, राज्य सरकार की उदासीनता, नए गुरुओं और छात्रों में होने वाले मनमुटाव और सबसे बड़ी विडम्बना गुरु केलुचरण महापात्र का अपने पुत्र मोह से हार जाना बड़ी समस्याएँ थी जिनसे वे रोज़ गुज़रतीं.
गुरु केलुचरण महापात्र ने नृत्य ग्राम में ओडिसी गुरुकुल में महीने में कुछ समय बिताने का निर्णय किया था. अन्य गुरु कुलों यथा मोहिनीअट्टम, कत्थक और भरतनाट्यम के गुरु अपने गुरुकुलों की ज़िम्मेदारी ले रहे थे पर गुरु केलुचरण अपने स्थान पर अपने पुत्र को ओडिसी गुरुकुल का गुरु नियुक्त करना चाहते थे जो प्रोतिमा को गवारा नहीं था. गुरुओं की भी अपनी सीमाएं होती हैं. आधुनिक समय में यह चाहना कि कोई शिक्षित और आधुनिक व्यक्ति सिर्फ भक्ति के आधार पर समर्पण कर गुरुओं को सर्वेसर्वा मान ले, कई छात्रों के गले नहीं उतरता था. यह परंपरा और आधुनिकता की टकराहट के साथ गुरु केलुचरण महापात्र के निजी स्वार्थों और असुरक्षा का समय भी था. इसका अंत गुरु केलुचरण महापात्र और प्रतिमा के संबंधों में खटास के साथ हुआ. गुरु के पुत्र को भारी मन से नृत्य ग्राम से विदा करना पड़ा. प्रोतिमा, जो अपने गुरु की ‘हनुमान‘ थीं उनके आँख की किरकिरी बन गईं. इस पूरी घटना ने उन्हें गुरु शिष्य परंपरा पर नए सिरे से विचार करने पर मजबूर कर दिया और नृत्य ग्राम में कई बदलाव किये गए. यह निश्चित हुआ कि एक ही गुरु नृत्य से जुड़े हर विषय की शिक्षा नहीं देंगे वरन नृत्य के अलग-अलग पक्षों की शिक्षा उस पक्ष के विशेषज्ञ गुरु देंगे. यह कमोबेश यूनिवर्सिटी की शिक्षा प्रणाली जैसा था. आज नृत्य ग्राम इस पद्धति से कार्यरत है.
नृत्यग्राम नेफिरपीछेमुड़करनहींदेखा. छात्रों ने देश और विदेशों में कई बेहतरीन शो प्रतिमा के साथ किये. गुरु केलुचरण महापात्र के बहिष्कार के बाद ओड़िसी नृत्य से जुड़े कई नामचीन लोग प्रोतिमा से दूरी बना चुके थे वे इन सफलताओं के बाद थोडा नरम हुए और नृत्य ग्राम के एक हिस्से ‘कुटीरम’ को ITC समूह के पांच सितारा होटल ने मान्यता दे दी. इससे आर्थिक समस्या एक हद तक सुलझ गई. कई अन्य कॉर्पोरेट समूहों नें अलग अलग नृत्य गुरुकुलों को आर्थिक मदद देनी शुरू की.
प्रोतिमा बेदीनेअपनानामबदलप्रोतिमा गौरी कर लिया, गाँव के लोगों के लिए वे गौरी अम्मा हो गईं.
(पाँच)
जीवन विडम्बनाओं के बिना शायद पूर्ण नहीं होता या कुछ लोग अनवरत यात्रा में रहने को बने होते हैं. यह यात्रा सुख से दुःख और दुःख से सुख की होती है. गुरुकुल और आस पास के गाँवों की गौरी अम्मा ने अपना और कबीर का पुत्र सिद्धार्थ इन्हीं दिनों खोया जो कबीर के पास लॉस एंजेल्स में कंप्यूटर की पढ़ाई के दौरान स्किजोफ्रेनिया का शिकार हो गए. अत्यंत अवसाद और अकेलेपन ने सिद्धार्थ को आत्महत्या की ओर धकेल दिया. प्रोतिमा इससे कभी बाहर नहीं आईं. सिद्धार्थ की अनुपस्थिति और मृत्यु को इतने करीब से अनुभव करना सहज न था. वे एक हद तक इसके लिए खुद को भी दोषी मानने लगी थीं. नृत्य से जुड़ाव, प्रेम और रिश्तों ने उन्हें कई घाव दिए थे पर उनमें सिद्धार्थ की अनुपस्थिति का घाव सबसे गहरा था. कुछ समय पहले ही उन्होंने संन्यास लिया था. अब वे अक्सर अकेले ही तीर्थ को निकल जाया करतीं. वे अब नृत्य ग्राम के लिए भी कोई उत्तराधिकारी चाहती थीं जो नृत्य ग्राम का सपना साझा करे जो उतनी ही शिद्दत से नृत्य को अपना जीवन देने को तैयार हो और यह तलाश उन्हें अपनी दो छात्राओं सुरूपा सेन और बिजयिनी सत्पथी में पूरी होती नज़र आई. ये दोनों नृत्य ग्राम के पहले समूह की छात्राएं थीं. आर्थिक स्वावलंबन के लिए ‘कुटीरम’ को आधार बनाया जा चुका था और ट्रस्ट की स्थापना भी हो गई थी. अब वे कमोबेश मुक्त थीं.
कोई बेचैनी, कोई पुकार थी जिसका जवाब उन्हें देना था. कोई बुलाता था उन्हें और वह संसार नहीं था, न ही नृत्य, वे उनके प्रेमी भी नहीं थे न छात्र, वह एक भरे पूरे समृद्ध जीवन को पुकारने वाली मृत्यु थी जिसका संधान उन्हें करना था, जिसकी खोज अभी शेष थी. वे कहती थीं –
“जन्म आरम्भ नहीं है, न ही मृत्यु अंत है. मृत्यु से भय जीवन का अस्वीकार है”
वे जानती थीं इस अंतिम खोज के लिए उन्हें सारे बंधनों से दूर जाना होगा और उन्होंने जैसे पूरी तैयारी के साथ ऐसा किया. उनकी बेटी पूजा कहती हैं-
“जिस तरह वह सबकुछ कर रही थीं, वे जैसे जानती थीं उन्हें जाना है, इस बार उन्होंने हिमालय की यात्रा से न लौटने का मन बना लिया था. उन्होंने अपनी वसीयत बनाई, अपने सारे गहने मुझे दे दिए, सारे निवेशों और जीवन बीमा पालिसी की जानकारी दी. मेरी बेटी आलिया को दुलराते उसके साथ खेलते घंटे भर का समय बिताया और फिर लिफ्ट के बंद होने की आवाज़ के साथ वे चली गईं. उस दिन मैंने उन्हें अंतिम बार देखा. यह बेहद स्पष्ट था. वे बेहद अध्यात्मिक और शाकाहारी हो गईं थीं. क्या उन्हें कोई पूर्वाभास था ? वे हेमकुंड साहिब, गंगोत्री, ऋषिकेश, और लद्दाख के बाद कैलाश मानसरोवर की ओर चली गईं. इन दिनों उन्होंने उन सभी लोगों को पत्र लिखे जिनकी उन्हें परवाह थीं, यहाँ तक की आठ महीने की आलिया को भी और इन सभी पत्रों में अंतिम विदा के संकेत थे. मुझे लिखे अपने लम्बे पत्र में उन्होंने अपने जीवन का सार लिखा. अपने बचपन और किशोरावस्था, अपनी असुरक्षाओं और ख़ुशी की बाबत, कैसे उन्होंने ये सब कुछ स्वीकार किया. उन्होंने हरीश के बारे भी लिखा कि वे उनके साथ कितनी खुश हैं और कैसे वे दोबारा अपना बचपन जी रहीं हैं. हरीश उनका बच्चों की तरह ख़याल रखते हैं. (हरीश फतनानी उनके साथ यात्रा कर रहे थे और ज्ञात रूप से उनके अंतिम प्रेमी रहे). मैं निश्चित रूप से स्वर्ग में हूँ. कुल्लू का मतलब है ‘देवों की घाटी’, सारे देवों को मेरी कृतज्ञता ज्ञापित हो.”
१७ अगस्त १९९८ की रातकैलाश मानसरोवर के रास्ते उनका समूह मालपा में ठहरा और उसी रात बादलों के फटने से उनकी मृत्यु हुई, ऐसा मानते हैं. प्रोतिमा की उम्र इस समय ४९ बरस थी.
उनका शरीर नहीं मिला सिर्फ पीछे रह गया कुछ सामान था, अंतिम यात्रा के लिए अनावश्यक और बेकार.
यह एक सुन्दर जीवन का तथाकथित अंत था जिसमें साहस था, प्रयोग थे, प्रेम था, संघर्ष, अकेलापन, जिम्मेदारियां, यायावरी और अंत में कृतज्ञता थी. यह सरल से जटिल और फिर सरल हो गए जीवन की गाथा थी जिसे भरपूर जिया गया था, अपने होने में पूर्ण और सार्थक. लम्बे समय बाद मैंने जाना बचपन में सौन्दर्य के जिस रूप ने मुझे आतंकित किया, मुझपर जादू चलाया था वह बाहरी नहीं आंतरिक था जिसकी दमक दिनों दिन बढती गई.
अपनी आत्मकथा में उन्होंने कहा-
“मुझे नहीं लगता अपने पति के लिए मैं सीता थी, और अपने प्रेमियों के लिए राधा. यहाँ तक कि अपने बच्चों के लिए यशोदा भी नहीं बन पाई. दूसरे शब्दों में जहाँ तक दुनियादारी का सवाल है मैं बुरी तरह असफल रही.”
दरअसल वे एक ही समय में पत्नी, प्रेमिका, दोस्त कलाकार और माँ रहीं और अपने हर रूप में उन्होंने उस रिश्ते की सीमाओं को चुनौती दी जिसकी एक ख़ास परिभाषा गढ़ दी गई है और इसे ही अंतिम मान लिया जाता है. पत्नी होते हुए उन्होंने न खुद को बाँधा न पति को, प्रेम किया तो खुद को पूरा समर्पित किया पर एकनिष्ठ रहना उनका स्वभाव नहीं रहा और वे स्वीकार करती रहीं कि एक ही पुरुष से सब कुछ नहीं मिल सकता. अपने प्रेमियों को बांधकर रखना भी उनका स्वभाव नहीं रहा. बच्चों के स्कूल जाकर झूठे बहाने बनाकर उन्हें मौज मस्ती के लिए ले जाने वाली माँ के पास क्या अनूठी जीवन दृष्टि नहीं थी? वे बच्चों से कहती –
“दुनिया उतनी ही नहीं जितना तुम्हारी खिड़की के बाहर दिखाई देता है. यह बेहद विशाल है, बेहद भव्य. हम इस विशाल भव्य संसार के बेहद सूक्ष्म कण और प्रकृति की वृहत्तर योजना का एक बेहद छोटा हिस्सा. कितनी जल्दी हम संकीर्ण घेरेबंदियों, सामाजिक नियम कायदों में फंस जाते हैं– ‘समाज हमसे क्या चाहता है, लोग क्या कहेंगे’ इसे ही अंतिम मान लेते हैं जबकि यह सब बीत जाने वाला है ! हर क्षण का आनंद लो, दुःख का भी. अपने जिन्दा होने का हर क्षण आनंद से गुज़ारो। खुश होना बहुत बहुत आसान है.”
अपनी आत्मकथा में उन्होंने यह भी कहा-
“मैंने वह हर नियम तोडा जो समाज ने बड़ी सावधानी से निर्मित किये हैं. मैंने हर सीमा को चुनौती दी. मैंने वह सब कुछ किया जो मैं सही समझती रही और परिणाम की कभी परवाह नहीं की. मैंने अपने यौवन, यौनिकता और बुद्धिमत्ता का भरपूर बिना झिझक प्रदर्शन किया. मैंने कई लोगों से प्रेम किया और कुछ लोगों ने मुझसे.”
इन दो कथनों में प्रोतिमा के व्यक्तित्व के दो बिलकुल अलग पहलू नज़र आते हैं पर वे कहीं न कहीं जुड़ते हैं. चीजें उनके भीतर अपने मूल में जुड़वाँ हैं. पर असली प्रतिमा शायद इन दोनों के बीच कहीं है, वह प्रोतिमा जो पूर्णिमा की मध्य रात्रि में नृत्य ग्राम की रंगभूमि में खुले आकाश के नीचे अकेली नृत्य करती प्रकृति से एकाकार होने का अनुभव करने के बाद, थक कर बैठ जाती और सिगरेट के कश लगाती यह सोचकर मंद मंद मुस्कुराती–
‘गाँव के लोग और मेरे विद्यार्थी अगर अभी मुझे इस हाल में सिगरेट का कश लगाते देख लें तो समझेंगे अम्मा पागल हो गई है !”
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