“To be a poet is a condition, not a profession.”
Robert Graves
समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने निम्न कवियों की कविताएं पढ़ीं और जाना कि वे कविताएं क्यों लिखते हैं.
आशुतोष दुबे, अनिरुद्ध उमट, रुस्तम, कृष्ण कल्पित, अम्बर पाण्डेय, संजय कुंदन, तेजी ग्रोवर, लवली गोस्वामी. इस क्रम में अब अनुराधा सिंह
अनुराधा सिंह ने अपने वक्तव्य में लिखा है कि कवियों को ग़ैर ज़रूरी होना आना चाहिए. कविता भी जिसे हमें जरूरी नहीं समझते, भूल चुके हैं जो लगभग अदृश्य सा है वहां जाती है, उसके पास चुप्पे की तरह बैठती है और जो मद्धिम स्वर में लगभग अस्पष्ट सा है उसे सुनती है. इन कविताओं को पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है. ‘रेलवे के प्रतीक्षालय में बेसुध सो रही औरत’ के भी कितने मायने हो सकते हैं. वह अपने बेसुध होने में भी चुनौती बन जाती है. तो कहीं ट्रेन खुलने के भी कई अर्थ खुलते जाते हैं.
प्रस्तुत है अनुराधा सिंह की कविताएं और ‘मैं कविता क्यों लिखती हूँ.’
मैं कविता क्यों लिखती हूँ ?
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पाँच शब्दों का सरल सा लगता यह प्रश्न इतना दुष्कर है कि मैं पिछले पूरे साल इसकी आँखों में देखने से बचती रही हूँ. बार-बार इस ज़रूरी प्रश्न को टालकर दूसरे ग़ैरज़रूरी काम करती रही हूँ.
इधर मुझे और शिद्दत से लगने लगा है कि कवियों को अटेंशन डेफिसिट डिसऑर्डर से ग्रस्त होना चाहिए वरना वे दुनियादार लोगों की बातें ध्यान से सुनने और मानने में, लंबे-लंबे अनुवाद पूरे करने में, किताबों की धूल रहित कतारें सजाने में, उनका एक-एक शब्द पढ़ने में (जबकि कुछ काम इंट्यूशन के ज़िम्मे छोड़ना चाहिए), घर साफ़ व व्यवस्थित रखने में, दोषरहित प्रसाधन करने में ही चुक जायेंगे. कवियों को ग़ैर ज़रूरी होना आना चाहिए.
खाल की अलग-अलग रंगत हो तो भी हर घाव से लाल रक्त और माँस ही झाँकता है. दुनिया के सब तथाकथित ज़रूरी कामों के बीच से बहुत ज़रूरी कविताएँ झाँकती रहती हैं, खून सी गाढ़ी, ज़िंदा माँस सी गर्म और चटख. कवि का काम घावों पर टाँके लगाना नहीं, उन्हें सलीके से कागज़ पर सजा देना है.
मैं कविता इसलिए लिखती हूँ कि मुझे इस शोर और भीड़ भरे शहर की धुएँदार हवा में अपने लिए जंगल, झरने, तितलियाँ बना लेना अच्छा लगता है, मुझे उदास शामों को एक खो कर मिले प्रेमपत्र में तब्दील कर देने का शग़ल है, मुझे ऐसे आदमी गढ़ लेना बहुत अच्छा लगता है जो कई सदियों तक ग़लतियाँ करने के बाद कम से कम अब सामने बैठ कर अपनी सज़ाएँ सुनें, मुझे रोज़ अख़बार में बलात्कार और नरसंहार की खबरों से न चौंकने वालों को दो पंक्ति की कविता से झिंझोड़ना अच्छा लगता है.
मैं कवि न होती तो भला कैसे कह पाती कि –
‘कबसे उसे ही ढूँढ़ रही हूँ मैं
जिसने पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था’
कविता में विमर्श वैसे ही आना चाहिए जैसे सर्दी खाँसी ग्रस्त बालक को एक ढक्कन भर ब्रांडी पिला दी जाये. मुझे ढक्कन भर ब्रांडी जैसी कविताएँ लिखना अच्छा लगता है.
मैं उत्तरप्रदेश के एक उद्दण्ड शहर की लड़की, पितृसत्ता का ऐसा कौन सा भयावह स्वरूप है जिसे मैंने देखा या सुना नहीं. उस पर, लिखना जल्दी शुरू किया. जीवन का एक भी सुंदर पल या चोट ऐसी नहीं जिसके निशान मेरे लिखे की देह पर न नक़्श हों. कविता इसलिए भी लिखती हूँ कि भाषा के बाहर सिर्फ़ निशान जायें चोट नहीं, सिर्फ़ सुगंध जाये प्रेम नहीं, सिर्फ़ कविताएँ जायें मैं स्वयं नहीं. प्रेम और घृणा पर एक सपाट सार्वजनिक वक्तव्य देना मेरे लिए असंभव है. राजनीति पर भी.
मेरे लिए कवि होने का निजी अर्थ यह है कि मैं दुनिया से घटती चीजों से आतंकित होऊँ. आज कोविड के प्रकोप से लाखों श्रमिकों, पत्रकारों, किसानों, साधारण नौकरीपेशा, छोटी दुकान, रेहड़ी रखनेवालों के रोज़गार समाप्त हो रहे हैं. समीप से देखने पर मुझे यह दृश्य रोग और मृत्यु से भी भयावह दिख रहा है.
जीवन से सम्मान और मृत्यु से गरिमा घटाई जा रही है. इन दोनों कामों को यूँ अंजाम देने के लिए हमारा कायर होना आवश्यक था. मैं कविता इसलिए लिखती हूँ बहुत साधारण जीवन को भाषा की चमक और ताप दे सकूँ, मृत्यु को प्रतिशोध का उत्सव न बनाऊँ.
एक दिन सपने में देखा कि दुनिया ने अपनी नाज़ुक लंबी उंगलियाँ मेरी गुदाज़ छोटी से हथेली में रख दी हैं, मैं थरथरा कर उठ बैठी, यह अगर उसका प्रेम-निवेदन है तो मैं नहीं कर सकती. अभी तो तुम्हें मुझे देखना सीखना है दुनिया! मुझे चलते देखना, सोते देखना, खाते देखना, पढ़ते देखना. प्रेम भूल जाओ अभी तुम्हें औरतों को सार्वजनिक जगहों पर बहुसंख्य होते देखने की आदत डालनी है. और यह शुरुआत है, अभी तुम्हें नये-नये कान मिले हैं. मुझे सुनना सीखो.
और मैं फिर कहूँगी कि मुझे कुछ देर के लिए स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होना पड़ेगा. आप इसे अभिधा में पढ़ सकते हैं पर मैं एक बार में एक ही औरत की बात कर पाऊँगी. इतना भी हो सके तो ठीक है, हमारे फ़ोटोकॉपियर तैयार हैं.
अनुराधा सिंह की कविताएँ |
१.
दुनिया क्यों चाहिए तुम्हें गुलमोहर
लकड़ी के लिए शीशम काफी था
रंग के लिए आग
पत्ते बहुत तो थे खिड़की के पर्दों पर
दुनिया, क्यों चाहिए था तुम्हें गुलमोहर
वार्निश लकड़ी के साथ उसके
पेड़ को भी छिपा लेती है
लोग अंतिम यात्रा पर जाने से पहले तक
अपने ताबूत की लकड़ी नहीं चुनते
मेजों के लिए भी काफी थे शीशम, चीड़, सागौन
दुनिया, क्यों चाहिए था तुम्हें गुलमोहर
यह पेड़ जो अप्रैल में आग लगा देता है आसमान के सीने में
यह पेड़ जो मीलों दूर से दिप्-दिप् जलता है दावानल सा
यह पेड़ जो बगावत है हरे की एकरसता के ख़िलाफ़
कहो, यह पेड़ तुम्हें इसलिए तो नहीं चाहिए था कि
तुम इसे कुर्सी बना दो और
बैठ जाओ इसके ग़रूर पर अपनी भारी मग़रूर
पुश्त रखकर.
२.
वेटिंग रूम में सोती स्त्री
हरे मखमली पत्तों पर
सहेजा
चम्पा का शीलवान फूल नहीं
अज्ञात रेगिस्तान में
जहाँ तहाँ भटकता
ख़ुदमुख़्तार रेत का बगूला है
रेलवे के प्रतीक्षालय में
बेसुध सो रही औरत
मानो, अगली किसी ट्रेन का टिकट
उसके बस्ते में नहीं
मानो, इस शहर में कहीं जाना ही नहीं उसे
किसी घर में उसके दूर देस से लौट आने की
प्रतीक्षा नहीं हो रही
मानो, करवटें नहीं बदल रहा
कोई प्रेयस
कहीं उदास सफेद सिलवटों पर
चूल्हे पर खदबदाती दाल कहीं विकल नहीं कि
कोई आये
चमचा ही घुमा जाए
मानो, नहीं है किसी दफ्तर के
बेचैन आँकड़ों को
उसके एक सही का इंतज़ार
ऐसे सो रही है वह निश्चिन्त
सूरज भी चढ़ आया है आज इस तेज़ी से
कि आस पास बैठी औरतें
दिन चढ़े तक सोती इस औरत के
चाल चलन को लेकर हलकान होने लगी हैं
ऐसे तो यह
किसी रात प्रेम भी कर लेगी घर से बाहर
कैसी औरत है
इसे अपने थान पर पहुंचने की जल्दी नहीं
इसका कोई खूँटा है भी या नहीं
बिना नाथ पगहा सोती है क्या कोई औरत
ऐसे चित्त, ठीक पृथ्वी की छाती पर.
रेलवे के वेटिंग रूम में सोती हुई अकेली स्त्री
जवाबदेह नहीं
चाय की असमय पुकार की
वह औरतों के
अकारण रात भर घर से बाहर रह सकने
की अपील पर
पहला हस्ताक्षर है.
३.
मटर का कीड़ा
मटर की बंद फली
उस एक तिहाई इंच के हरे कीड़े की
पूरी दुनिया है
पांच दाने हैं
अकूत सम्पदा जीवन के लिए
दस रुपये पाव, तुम्हारे और दुकानदार के
बीच का विनिमय है
मटर के कीड़े का अनुबंध तो ईश्वर से है
जिसने दाने के गर्भ में
आरोपित किया है उसे
तुम्हारे फली खोलते ही
उसे मजबूरन शामिल होना पड़ा है
तुम्हारे विपणन संसार में
वरना फली में
वह अपनी दुनिया का बाहक़ बाशिंदा था
उसकी औकात एक कीड़े से कहीं ज़्यादा थी.
४.
क़ुर्ब
एक आदमी बंदूक उठाता है
अपनी रक्षा में रह रही स्त्री को
भून देता है
एक औरत पहनाती है पुष्पहार
करते हुए चरणवंदन, अपनी देह में लगा
बटन दबा देती है
परखच्चे उड़ जाते हैं जीवन के
शेष रह जाता है सफ़ेद लोट्टो जूता
तुम मेरे पास हो इतने
कि मैं हवाओं की सहज गंध भूल गयी हूँ
इतने कि मेरे होंठ काँपते हैं
तुम्हारी दृष्टि की हलचल से भी
इतने कि हमारे मध्य
अब स्पर्श का स्वप्न भी शेष नहीं
इतने कि
नहीं देख पा रही
तुम्हारा हाथ बन्दूक के घोड़े पर है
या धमाके के बटन पर.
५.
गुम चोट
मरहम ने कहा
खून से नहीं, गुम चोट से डरना
फिर मरहम ने
गुम चोट की
प्रेम ने कहा विरह से नहीं
अपमान से डरना
और विरह
अघोषित अपमान था
प्रेम का
वह आदमी जिसे कहना चाहिए था
मोह और विराग साफ़-साफ़
चुप रहा
मौन, जो सहमति हो सकता था प्रेम में
छल में हिंसा हो गया.
६.
करो मुझे नज़रंदाज़
नज़रअंदाज़ तो सभी कर रहे हैं इन दिनों
सबको
विडंबना है कि ईर्ष्या से अधिक नज़रअंदाज़
प्रेम में किया जा रहा है
मेह जंगल पर बरसने के लिए
रेगिस्तान की अनदेखी कर रहे हैं
हवाएं राजप्रासादों में बहने के लिए
कर रही हैं मलिन बस्तियों की उपेक्षा
तुम भी करो, कि तिरस्कार
व्यक्ति के विकास का परचम है
लहराता हर समर्थ पुतली में
करो जब तक प्रेम भय आदर किसी हेतु
मैं हूँ तुम्हारी मुँहचितु
करो
जैसे साँस करती है मरती हुई देह का तिरस्कार
राहगीर नहीं देखता सूखी पत्तियों को चरमराते हुए
अघाया आदमी उठ खड़ा होता है जूठे थाल से मन फेर
जैसे मैं अपनी अव्यक्त अपेक्षाओं को
अनसुना करती आई हूँ आज तक
देखो मुझे उस अनभीष्ट दृष्टि से
जो कांच को देखती है आर-पार
लेकिन यह क्या, तुम तो दूर जाते हुए
लौट-लौट आते हो मेरी असार कामनाओं तक
यह क्या कि कनखियों से पढ़ते रहते हो
मेरा वर्तमान, बाँचते हो भविष्य की संभावनाएं
यह क्या कि तुम्हारी कनपटियाँ ललछौहीं हो आती हैं
मेरे न होने की आँच भर से
अबकी यूँ फेरो पीठ मुझ पर
कि चेहरे का रंग न उड़े
आँख में नमी न उतरे
एक हरारत न दौड़ जाये आपादमस्तक
अब से कुछ ऐसे करो नज़रंदाज़
कि मेरे हिस्से
तुम्हारा आशीष
या श्राप कुछ भी न आए .
७.
नीम-कश
गोली जो फँस गयी
पसलियों के बीच
देर तक सुलगती रही
बुझने के बाद भी
जलाती रही
छिप कर
खींच कर खोले गए बाल
रक्तस्नात होकर ही बंधे वेणी में
कोई प्रतिशोध न ले
तो सोचना चाहिए
उसने अपना काम किसे सौंप दिया है
दाब कर घोंट दी गयी चीख
गूंजती रही अट्टालिकाओं से भग्नावशेषों तक
लौटती रही दुनिया में
बनकर
भूकंप और अनिद्रा
सुन लेनी चाहिए बात पूरी
अधूरी बातें हो जातीं हैं कुंद
भोथरे हथियार से नहीं
वार शत्रु पर ही हो
आर-पार होना चाहिए
अधखुबा तीर आत्मा में अटक जाता है
नहीं बंधाना चाहिए
रुंआसे आदमी को ढांढ़स
देर से रुका पानी
धरती का कलेजा चीर कर बाहर आता है.
८.
पानी शऊर है
रेशम जानता है लिपटना
एक सी ही अनंतरता में
पहले ककून से
फिर देह से
रेशम
मृत्यु और उत्सव
हर रंग में है समभाव
रेशम कपड़ों में बुद्ध है
पानी जानता है
बाहर बह जाना
और बचे रहना भीतर भी
शिराओं में आँख में चट्टान में
पानी शऊर है हाथ छोड़कर
मन में बने रहने का
मृत्यु जानती है
झाँकना
जीवन के बीचों बीच
पढ़ते हुए अपने न होने की
आश्वस्ति हमारे चेहरों पर
बांधती रहती है लगातार असबाब
आ धमकने को
अचानक एक दिन .
९.
मेरी भी ट्रेन खुल गयी है
बनारस से दिल्ली आने जाने वाली
किसी- किसी गाड़ी में बैठा हुआ
एक आदमी
फोन करके
बाक़ायदा बताता था कि
ट्रेन खुल गयी है
यह बात वह बड़े ही निष्ठापूर्वक
बताता था हर बार
मेरी बोली में ट्रेन
चल देती है
जिसका समाचार एन उसी वक़्त
किसी अपने को देना
वैसा ज़रूरी नहीं
जैसे ट्रेन खुलने पर देना होता है
ट्रेन खुलने में
जीवन की तमाम विपदाओं से
बगटुट भाग निकलने का जो भाव है
उसके लोहे के निरंतर बढ़ते शोर में
जीवन की कारा से मुक्ति का जो उद्घोष है
वह ट्रेन के चल देने में कहाँ
उसने मुझसे बस इतना कहा कि
माँ के जीवित रहते वह ट्रेन खुलने की
सूचना उसे ही दे दिया करता था
अब दुनिया में ऐसा कोई
बाक़ी नहीं जिसमें यह
जिज्ञासा शेष हो
चीज़ें हमेशा कुछ ऐसे घटीं कि
मैं उस शहर में
हवाई जहाज से गयी और आयी
जहाँ जाने के लिए किसी ट्रेन में
बैठना था मुझे
और किसी से कहना था
देखो मेरी भी ट्रेन खुल ही गयी आख़िर.
१०.
अरक्षणीय
मैं वह रेखा
जो तुम्हारी ज्यामिति से बाहर निकल गयी है
तुम्हारी खगोल विद्या से बाहर का तारा हूँ
मैंने कमरे के भीतर आना चाहा था बस
तुम्हारी शाला की विद्यार्थी नहीं
कैसे अटूँ तुम्हारे प्रमेय के किसी स्टेप में
जबकि मेरा भी एक हिसाब है
जो पराजयवश नहीं हल किया मैंने
यही दो और दो को पाँच कहने से मना करता है
गणित मेरा प्रिय विषय कभी नहीं रहा
मैं अपनी गढ़न में पृथ्वी की मूल निवासी
लगातार भी सिखाया जाये
कि क्या कहना कितना छिपा लेना है
सीख नहीं पाऊँगी
झूठ लिखते वक़्त भी
सच बोल सकने का साहस होना चाहिए
मिट्टी को उग कर, पानी को डूब कर देखना
अर्वाचीन है
कुछ ऊबड़ खाबड़ लोग ही
दुनिया को रहने लायक समतल बना रहे हैं.
कविता का स्टीरियोटाइप तय करने की
तुम्हारी क़वायद बेकार गयी
मेरा बसंत तो एक उजाड़ की बाहों में खिलता है
डरती हूँ उस आदमी से जो कहेगा
जाओ, एक औरत से क्या लडूँ
जान जाती हूँ, अब वह मुझसे पुरुष की तरह लड़ेगा
आखिरश, तुम्हारे गिलास की तली में बच रहा नशा नहीं
विक्टोरिया प्रपात से छिटक गयी बूँद हूँ
उग रही हूँ हरे रंग में जाम्बिया के जंगल में
नहीं डर रही पानी की विराट सत्ता से .
११.
कितनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ मैं
माँ ने एक साँझ कहा
संभव हुआ
तो अगले जनम मैं भी इंसान बनूँगी
इस पूरे वाक्य में मेरे लिए
बस एक राहत थी कि माँ
इंसान होने का कोई बेहतर अर्थ भी जानती थी
उसने एक के बाद एक चार लड़कियाँ पैदा कीं
यह उस बुनियादी इच्छा के खारिज होने की शुरुआत थी
फिर भी औरतें पूछती ही रहीं
हाय राम, बच्चा एक भी नहीं
और वह अविनय और अविश्वास से
शिशुओं का लार और काजल पोंछ लेती रही
अपने गाल से
माँ की स्त्री में कई परतें हो गयीं थीं
सबसे ऊपर वाली क्लांत और उदास
इच्छाओं की ज़मीन पर खोदती रहती जुगाड़ के कुएँ
चिंता से चूम भी लेती रही बेटियों को यदा कदा
जबकि बीच में दबी स्त्री मान चुकी थी कि
कोई बच्चा नहीं जना उसने अब तक
हर बार अपनी प्रसव पीड़ा को बंध्या मान
चाहती रही वंश कीर्ति
सबसे भीतर वाली स्त्री को फूल पसंद थे
ताँत पान और किताबें भी
यह उसके मनुष्य होने की कामना का विस्तार था
और इतने गहरे दबा था कि बंजर हो चला था
आजन्म माँ की दायीं आँख से एक निपूती औरत
और बायीं आँख से एक इंसान झाँकते रहे
तो सुनो दुनिया बस इतनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ
कि तुम्हारे हलक में उंगलियाँ डाल कर
अपनी माँ के इंसान बनने की अधूरी लालसा खींच निकालूँ.
अनुराधा सिंह प्रमुख पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख, अनुवाद और पुस्तक समीक्षाएँ लगातार प्रकाशित. अश्वेत और तिब्बती कवियों के अनुवादों के अलावा बेनेडिक्ट ऐंडरसन, टेड ह्यूज़ और कैथलीन रूनी के हिंदी अनुवाद विशेषकर उल्लेखनीय. भारतीय ज्ञानपीठ से ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ नामक कविता संग्रह प्रकाशित. वर्ष 2019 का 15वाँ शीला सिद्धान्तकर सम्मान इस कविता संग्रह को दिया गया है. तिब्बती समुदाय के निर्वासन की समस्या और निर्वासित कवियों पर संकलित और अनूदित सामग्री पर आधारित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. सम्प्रति |