आधिपत्य और अधीन के समीकरणों की कविताएँ |
रेलवे वेटिंग रूम में निढाल सोई हुई स्त्री सिर्फ एक दृश्य- चित्र नहीं. वह एक चुनाव है, एक हस्तक्षेप, एक खामोश और अर्थ गर्भित ‘क्लोज अप’ है. सूरज चढ़ आया है. प्रतीक्षालय में बेखबर, बेसुध सोयी स्त्री के आसपास बैठी हुई दूसरी औरतें इस औरत का एक ‘अन्य’ संसार हैं जो उसके जीने के ढब रचा करता है, उसके मानक निर्धारित किया करता है. लेकिन बेसुध सोई हुई औरत सारे यथास्थितिवाद का एक प्रतिपक्ष है. उसके बारे में तरह-तरह के अंदाज लगाये जा सकते हैं पर वह स्त्री फिलहाल बेफिक्र है, मुक्त है. वह सारे ढाँचों, अवधारणाओं, परकोटों, अनुमानों, सुरक्षा घेराबंदियों से बाहर है. उसके भीतर कोई तनाव नहीं, उसकी कोई दिनचर्या नहीं, कोई तयशुदा गंतव्य नहीं. वह एक हाशिया है, फिर भी सम्पूर्ण है. उस स्त्री के भीतर जो समय है उसे कोई नहीं जानता. सिर्फ उसकी एक कल्पना की जा सकती है और यह कहा जा सकता है कि भीतर वह संचित समय बाहर के सारे संसार के मानकों, प्रतिमानों के लिए एक चुनौती है. कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं-
वह औरतों के
अकारण रात भर घर से बाहर रह सकने
की अपील पर
पहला हस्ताक्षर है
और यह निष्कर्षात्मक अंत कविता पर बाहर से आरोपित नहीं है. वह एक समूची दृश्यावली की तहों और सोच- प्रक्रिया के एक चरम बिन्दु की तरह से उभरा है.
यह रचनाकार की गहन जीवन दृष्टि और सम्वेदनशीलता है कि उसने अपनी कविताओं में जगह-जगह चित्रों और स्थितियों के ऐसे केन्द्र-स्थल चुने हैं जो बाहर के सच में सेंध लगाते हुए भीतर की किसी अर्थवत्ता को रचते हैं और यहाँ यह बहस कोई अधिक अर्थ नहीं रखती कि ये चित्र स्वैर-कल्पना हैं या ज़मीनी हकीकत- जहाँ आकर तमाम भिन्नताएँ, अरूपताएँ, विरोधाभास एक जगह संकेन्द्रित से हो जाते हैं.
बेकली, बेसुधी, मृत्यु, स्मृति और स्थान के अंदरूनी सच को रूपायित करने वाली अनुराधा सिंह की यह कविता एक ऐसे आंतरिक जीवन का ‘नरेटिव’ हैं जहां कोई आश्वासन नहीं, कुछ भी पूर्व निर्धारण नहीं, कोई शरणस्थली नहीं.
वह विकलताओं, अस्थिरताओं और निर्वासन के अनेक ज्ञात- अज्ञात रूपों की प्रस्तुति हैं. वहाँ जैसे कि यह ‘आत्म’ बिखर गया हो- तमाम मनुष्यों, घटनाओं और स्थितियों, सन्दर्भों में. इनमें रैटारिक, मद्धिम स्वर, सांकेतिकता, तर्कशीलता, बेसाख्ता उड़ान या नामालूम से कंपन के विविधरंगी स्वर दिखाई पड़ सकते हैं.
नींद के सन्दर्भ अपनी व्यंजना के साथ अनुराधा सिंह के पिछले संग्रह में भी उभरे थे लेकिन पिछले संग्रह के बाद इस संग्रह तक आते रचनाकार ने लम्बी दूरी तय की है.
ऐसा हमेशा नहीं होता कि उन कविताओं से हमारा सामना हो जो बंधी बंधायी व्याख्याओं या अमूमन ढर्रेदार टिप्पणियों के लिए एक चुनौती पेश करें. ये किसी आइडियावाद से जन्मी सरल रैखिक वृतांत की कविताएँ नहीं.
हमारे समय की उस असाधारण कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का ने कहा था कि कवि के लिए ‘पहला वाक्य लिखना सबसे कठिन होता है’
सच है कि हमारे समय में कवि अपने कहन को लेकर बहुधा अनेक संशयों से भरे हुए हैं. वे सारे संशय जो बाहर के एक शोरगुल के समय से गुजरते हुए भीतर के किन्हीं अंधेरों से उठते हैं. अपनी इस नई उड़ान का निर्वाह यहाँ रचनाकार ने जिस सघनता से किया है, वहाँ उन स्थितियों, संदर्भों, मनोभावों, कथनों-उपकथनों के बीच फैले एक सतत तनाव को देखना महत्वपूर्ण है जो कभी दृश्य और कभी अदृश्य तरीके से कविता-दर-कविता बुना गया है.
इस कथन में क्रमभंगताएँ, अंतराल, ओवर लैपिंग और व्यतिक्रम के रचाव हैं या दिखाई पड़ती स्थितियों के समानांतर संकेतित स्थितियों के जो सघन रूप उभर कर आये हैं, उन्हें पढ़ना एक अनुभव है. संदर्भ, जगहें, मनोभावों, प्रतिक्रियाओं के ये वृतांत सृजन की जमीन पर किसी अप्रकट, किसी अनचीह्ने को उभारने में लगे हुए हैं. ये ‘कोलाज’ जिस तरह से कविता-दर-कविता यहाँ उभरते जाते हैं, महसूस होता है कि वह अभिव्यक्ति भाषा की किसी पूर्णता की कामना से भी चलित नहीं है क्योंकि वह एक अधूरेपन, एक औचक संदर्भ में प्रवेश करने के तरीकों को जानती है.
एक विकल, ऊपरी तौर पर सहज और शांत, इतना फैला हुआ, किसी अप्रत्याशित को रचता हुआ, मित कथनों और मार्मिकताओं से भरा हुआ, यह संसार- वह किसी काम्य जीवन, किसी अपरिभाषित विराटता के इलाकों में विचारता भटकता हुआ हम तक आता है और कहता है कि एक कविता इस तरह से संभव है.
क्या इन्हें केवल एक ‘स्त्री मन’ की कविताएँ कहकर किसी खास ‘बस्ते’ में डाला जा सकता है? वहाँ आधिपत्य और अधीन के बीच चल रही सतत तनाव की असंख्य की स्थितियाँ हैं. उनके ‘क्रिस्टल’ रूप हैं. नींव हिल रही हैं, एक दोलायमान जमीन है, स्थापत्य की दीवारों में दरारें हैं, जिये जा रहे जीवन स्थितियों के तमाम नेपथ्य उजागर हो रहे हैं.
बहुत सी नवीन भूमियों को स्पर्श करती हुईं, उन अनेक बिंदुओं को सहलाती हुईं, संवाद में बहुत सारे कथन और उप-कथनों को रचती जाती कविताएँ, अभाव और शून्यताओं की कुछ अन्तर-ध्वनियाँ, व्यवहारों और आचरणों के साँचों का अध्ययन, एक ‘कॉमनसेंस टैरिटरी’ का परित्याग , घटित और मनोगत के अप्रत्याशित उद्घाटन–भावक अपने भीतर उन कविताओं की देर तक घुमड़न और अनुगूंजों की उपस्थिति को अनुभव करता है. कविताएँ जिनमें जीवन जीने की अस्थिर लय, अस्त-व्यस्तता का एक ‘पैटर्न’ छिपा हुआ है.
सार्वजनिक ‘स्फीयर’ में हिस्सेदारी की तमाम स्थितियों से जुड़ी ये कविताएँ किसी आदिम सच की खोज से जुड़ती हैं. अनायास तरीके से इनमें दैनन्दिन के सूक्ष्म, द्रावक, खुलते और संकुचित होते-होते संसार और अनेक अनुभव संदर्भों के हवाले हैं. इन अंतरालों में विचरना यानी उन शब्दों को पाना है जो दैनंदिन की नामालूम आपदाओं और दरारों के बीच एक रचयिता के पास बचे रह गए हैं और उनमें अब जीवन की एक बिखरी हुई लय को संजोने की कुंजी है
स्त्री ने
भूख को रोटी से और
वासना को प्रेम से ढका
अपने प्रेम को विवाह से ढकने के बाद वह
धूप ओढ़कर कर एक बच्चे को दूध पिलाने लगी पुरुष ने लौट कर देखा कि
स्त्री की आंखें अनावृत थीं
वह निराश हुआ और उसने
ईश्वर के पृथ्वी, आकाश ,समंदर और रात को एक घर से ढक दिया
इतिहास, सभ्यता, मूल्य-सत्ताएँ, संपदा, अर्थ संकुचन, बर्ताव और आचरण की तमाम छटाएँ इन बहुत छोटी-छोटी कविताओं में आकर जिस तरह से खुलती हैं वहाँ कविता का काम कुछ घटित की किसी चरम नाटकीयता को एक एन्द्रिकता के साथ घेरना है- कभी किसी आघात की तरह तो कभी एक हल्की सी रोशनी की तरह और कभी एक अचरज की तरह भी. सच जैसे कि किसी सूक्ति की गहनता और अर्थ-भेद को लेकर उपस्थित हुआ हो, जीने की लय में जहाँ सब कुछ रहस्य बन गया था- निष्पाप और अनैतिकताएँ, विश्वास और छले जाने के पश्चाताप, भोलापन और चतुराईयाँ. यह सब जैसे एक कंपोजिट सच के हिस्से थे, ढके हुए थे और सहसा अनावृत हो गए हों. वह सब जो कवयित्री के शब्दों में कहा जाये कि
‘गलत पते पर पहुंचे पत्रों के कुछ वाक्य जैसे सही पते पर पहुंच गये हों.’
आहत हृदय, स्वाभिमान, समर्पण और किसी मूलभूत आस्था की निरंतरता आती-जाती तरंगों से भरी जलधारा सी इन कविताओं में उभरी है. कभी सीधे से लगते साधारण कथन में किसी असाधारण अभिप्राय की मुद्रा है, तो कहीं एक वक्रोक्ति, कहीं एक रूपक तो कहीं एक बिम्ब बहुत सारी व्याख्याओं के द्वार खोलता दिखाई देता है.
दिलचस्प है कि इस संग्रह की अनेक कविताओं में रेल यात्रा के वृतांत उभरे हैं. रेल का खुलना दृश्य जगत के भीतर अनेक अंतर धाराओं का संयोजन है. मुक्ति, गति अनिश्चितता, भटकन, आकांक्षा, स्मृति, सहभागिता, अकेलापन रोमांच और अवसाद का एक मिलाजुला संसार. कवयित्री ने एक जगह बड़े भावपूर्ण ढंग से लिखा भी है कि
“रेलगाड़ी में रात एक अनुमान है. वह एक पहर भर नहीं जो हमारे बसेरे के बाहर उतरती है रोशनी में लिपि पुती. रेलगाड़ी से रात को निहारना रोमांचक है. कृत्रिम रोशनियों के अंतरालों में फैले हुए निचाट अंधेरों में रात अपनी पूरी विकरालता, विकट स्वाभाविकता और रहस्यों के साथ पसरी है. एक अंधे स्याह महासागर सी अछोर और अथाह. कुछ नहीं दिखता, बस यह अनुमान ही होता है कि यहाँ पानी हो, यहाँ मैदान और यहाँ खाई.
एक आदिम भय रीढ़ को सुन्न करता है, यदि इस अंधे महासागर के बीचोबीच हम इस रेलगाड़ी के कवच के बिना खड़े कर दिए जाए तो हमारा क्या होगा? क्या डूब नहीं जाएंगे इस अतल अंधेरे में? कभी-कभार एक रेलगाड़ी बगल से धड़ धड़ आती गुजराती है, या इस महासागर के दूसरे सिरे किसी बस्ती का बल्ब टिमटिमाते हैं तो सांस आती है.
लगता है लोग अभी हैं दुनिया में.”
कहना न होगा कि घने अंधेरों के बीच इस इत्मीनान का एक वृहत्तर अर्थ है.
ट्रेन खुलने में
जीवन की तमाम विपदाओं से
बगटुट भाग निकलने का जो भाव है
उसके लोहे के निरंतर बढ़ते शोर में
जीवन की कारा से मुक्त होने का जो उद्घोष है
वह ट्रेन के चल देने में कहाँ
पद्धतियों, प्राप्त ढाँचों, शृंखलाओं के इस टूटने में रचनाकार के उस सामर्थ्य को पढ़ा जा सकता है जहां वह बीतते समय के दृश्य-खंडों के भीतर की किन्हीं टूटी हुई लयों को संजो सकती है, उन्हें परस्पर गूंथ सकती है, सतत निर्वासन के भाव को रचती हुई एक स्थिति से दूसरी स्थिति में सहज प्रवेश कर सकती है, द्वंद्व, आवेग और संयम की गुंथी हुई नई छवियों को रख सकती है या उन बहुत सारे विवरणों में रम सकती है जो कई बार परस्पर असम्बद्ध लगते हैं पर उनसे गुजरते हुए व्यवहार-संरचनाओं के रहस्य खुलते जाते हैं. और भाषा सहज ही अपने सबसे गहरी अर्थ व्यंजना को हासिल करती है.
इन कविताओं को इनके काव्यात्मक उपकरणों, तर्क निर्मिति, पर्यवेक्षण, वर्तुल कल्पनाशीलता, अप्रत्याशित घुमावों और एक शिद्दत के साथ किंचित विरोधाभासी संदर्भों को लेकर एक खोज की विकलता के लिए भी याद किया जाएगा. इनमें कोमल राग, आघात, संशय, दुविधाएँ,एकाकीपन और त्रास का लगभग एक खिलंदड़ा सा अंदाज़ एक आधुनिक संवेदनशील मन के सबसे द्वंदात्मक अनुभवों के संसार से हमारा परिचय कराता है.
अनुराधा सिंह के पास आच्छादित मनोभावों का एक सघन संसार है. और साथ ही उनके पास चीजों से पेश आने और उनका अभ्यांतरीकरण करने की असाधारण सामर्थ्य है. वे अभिव्यक्ति के लिए किसी भी विषय वस्तु को कहीं से सहज उठा सकती हैं और फिर इसकी बाहरी औपचारिकताओं को ध्वस्त करते हुए एक अंदरूनी विकल संसार की यात्रा पर निकल पड़ती हैं.
वहाँ आत्म-निरीक्षण भी है और एक अनिवार्य तटस्थता भी. असंख्य दर्पणों में पूर्व निर्धारित सचों के विखंडित अक्स, अपने से इतर किसी ‘मैं’ की खोज, रोमान, संशय, आवेग, सुस्थिरता और सारे दृश्य-घटित में एक ‘स्वगत’ को रचते हुए भाषातीत हो जाने की यह आकांक्षा.
वह सब जो भाषा में रचा गया एक कोमल संवेदनशील काव्यात्मक विस्तार कहलाता है.
हम शायद इसीलिए ऐसी कविताओं को बार-बार पढ़ना चाहते.
विजय कुमार (जन्म : 11/11/1948: मुम्बई सुप्रसिद्ध कवि आलोचक ‘अदृश्य हो जाएंगी सूखी पत्तियॉं, ‘चाहे जिस शक्ल से’, ‘रात पाली’ (कविता संग्रह) ‘साठोत्तरी कविता की परिवर्तित दिशाएँ’, ‘कविता की संगत’. ‘अंधेरे समय में विचार’ (आलोचना)शमशेर सम्मान, देवी शंकर अवस्थी सम्मान आदि vijay1948ster@gmail.com |
बहुत सुन्दर और सघन लिखा है विजय जी ने।
इस तरह की आलोचना विरल है।इसे रचना के आईनाघर
की तहों को भेदना कहना होगा।स्त्री चेतना का मारवा जो
अनाम अनंत परिक्रमाओं से सम पर लौटता है।जिसे नाभि
और मेरूदंड की सिहरनों की तरह अमूर्त भाव में अनुभत
किया जा सकता है।कविताएं स्त्री चेतना की खंडित विखंडित अमूर्त चित्रावली है ।
अनुराधा सिंह हमारे समय की महत्वपूर्ण कवयित्री हैं। आपने इनकी कविताओं का बहुत बढ़िया विश्लेषण किया है।
स्त्री चेतना की अनेक अर्थ छटाओं को उद्घाटित करती एक बेहतरीन समीक्षा .यदि कविता से कुछ और उद्धरण दिए जाते तो पाठकों को तोष होता -हरिमोहन शर्मा
विजय कुमार सर,बेहतरीन संग्रह की बेहतरीन विवेचना और समीक्षा है । इन कविताओं के मर्म तक पहुंचने का रास्ता बयान करती है । कविताओं की रोशनी के सामने यह समीक्षा एक प्रिज्म की तरह है,जिससे कविताओं में छुपा हुआ स्पेक्ट्रम प्रगट होता है ।
स्त्री होना धरती के शृंगार का पर्यायवाची है । मैंने ‘शब्द’ नहीं लिखा । कल्पनाओं के संसार में ‘’शब्द’ बौना है । किशोरी के बाद लड़की माँ बनती है । तब ख़ूबसूरत घर का निर्माण होता है । वातावरण रूपी साँसों में महक आती है । महक हदों को पार करती है । ज़िंदगी जीना सिखाती है ।
बच्चे की किलकारी से घर गुंजायमान होता है । और सृष्टि चक्र चलता रहता है । स्त्री सूर्य है । सभी ग्रह इसकी परिधि की परिक्रमा करते हैं ।
बहुत ही गहरे उतर कर कवि की कविताओं को पूरी तरह जिया है विजय कुमार जी ने! अनुराधा जी की कविताएँ स्त्री के मन का आईना है और उनकी कविताएँ स्त्री को ही नहीं बल्कि पुरुष को भी बहुत गहराई से स्त्री से परिचय कराने की क्षमता रखती है!
सायास धारण की हुई असाधारणता को अस्वीकार और ध्वस्त करते हुए परम साधारण आसपास दिख जाने वाले मनुष्य और स्थितियों के श्वेत श्याम बिंबों में अपनी गहरी वैचारिक संलिप्तता के जो रंग अनुराधा जी भरती हैं वही उनकी विशिष्टता है। वे किसी पाठक को अपनी बातों से न तो चौंकाने की कोशिश करती हैं न ही सन्नाटे में डालने की पर यह भी सच है कि वे उसको कोई पोस्टर या तमाशा देख कर जेब में हाथ डाल कर निरपेक्ष भाव से चले भी नहीं जाने देती। यही गुण उन्हें भीड़ से अलग ले जाकर खड़ा करती है।सात आठ साल पहले मैंने किसी ब्लॉग पर उनकी कई कविताएं एक साथ पढ़ी थीं तब उनसे उनपर लंबी हुई बात एक रचनात्मक साझेपन में बदल गई। तब से मैं उनकी कविताएं पढ़ता सुनता आ रहा हूं और पहले संकलन से दूसरे संकलन तक आते आते उनमें घुलती प्रौढ़ता को लक्षित करता रहा हूं- विजय जी की बातों से पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ रखता हूं।
अनुराधा जी को सृजन के आगामी पड़ावों के लिए हार्दिक बधाई।
यादवेन्द्र