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समालोचन

Home » आग के पास आलिस है यह: गोपाल माथुर

आग के पास आलिस है यह: गोपाल माथुर

2023 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित यून फुस्से के उपन्यास ‘Aliss at the Fire’ का हिंदी अनुवाद ‘आग के पास आलिस है यह’ शीर्षक से वाणी से प्रकाशित हुआ है. यह अनुवाद डेमियन सर्ल्ज़ के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है जिसे मूल से मिलाकर तेजी ग्रोवर ने तैयार किया है. ज़ाहिर है इधर हिंदी पाठकों की भी रुचि यून फुस्से के लेखन को लेकर बढ़ी है. ऐसे में यह उपन्यास इस जरूरत को पूरा करता है. इसकी चर्चा कर रहें हैं गोपाल माथुर.

by arun dev
December 11, 2023
in समीक्षा
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आग के पास आलिस है यह: गोपाल माथुर
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आग के पास आलिस है यह
अतीत के प्रेतों का कलात्मक कोलाज

गोपाल माथुर

उपन्यास खुलता है नायिका सिग्ने के साथ, जो खिड़की पर खड़ी अपने पति आस्ले के घर लौटने की अन्तहीन प्रतीक्षा कर रही है. नवम्बर की एक शाम, जब मौसम खराब था, बारिश हो रही थी, हवा चल रही थी, काला अँधेरा छाया हुआ था और ठंड भी थी, तब वह अपनी छोटी सी नाव पर फ्योर्ड (सुमद्र को जोड़ने वाली खाड़ी) की ओर मछली पकड़ने गया था और फिर कभी लौट कर नहीं आया.

ओस्ले के जाने का दृश्य उसने खिड़की से देखा था और वह उसकी स्मृति में फ्रीज हो गया था. वह बार-बार स्वयं को उस दृश्य को देखते हुए देखती है और एक कालखण्ड से दूसरे और फिर तीसरे में पहुँच जाती है. यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसी एक सपने में अन्य सपनों को घटित होते हुए देखना, जब समय गड्डमड्ड होकर अपना प्रचलित अर्थ खो देता है.

इसे लिखा है वर्ष 2023 के नोबेल पुरस्कार विजेता नोर्वेयिअन उपन्यासकार यून फुस्से ने अपने उपन्यास “आग के पास आलिस है” में, जिसमें वे कलात्मक अनुभूतियों का कोलाज रचते हैं.

यदि आप अनूठी रचनाएँ पढ़ना पसंद करते हैं, तो सच मानिए, यह उपन्यास आप के लिए पर्याप्त खुराक लिए हुए है. ऐसा उपन्यास विश्व साहित्य के इतिहास में पहली बार लिखा गया है. परम्परागत लेखन के बिल्कुल इतर इसके लेखक यून फुस्से पाठक को एक ऐसे विस्मय लोक में ले जाते हैं, जो उसकी सोच से परे होता है और वह यह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि क्या लेखन का यह स्वरूप भी संभव है ! इतनी परतें कि एक पूरी तरह हट भी नहीं पाती कि दूसरी उसकी जगह ले लेती है.

क्या संवेदनाएँ इतनी अधिक सघन हो सकती हैं कि छूने मात्र के लहू रिसने की आशंका होने लगे?  और क्या प्रेम, प्रतीक्षा और पीड़ा इतने अधिक यन्त्रणादायक हो सकते हैं, कि वे समय के बीतने तक का अहसास खो दें ? एक ऐसी स्थिति, जब आज बीता हुआ कल बन जाए और बीता हुआ कल आज ?

उपन्यास के पात्र स्वयं को विभिन्न क्रियाएँ करते हुए देखते हैं, जैसे वे एक ऐसे नाटक के दर्शक हों, जिसके पात्र भी वे ही हैं. नायिका सिग्ने के मन मस्तिष्क में फ्रीज दृश्य बार-बार स्मृति बन कर उभरते हैं, अनेक रूपों में, अनेक स्तरों पर और अनेक संवेदनाओं के साथ. एक ही दृश्य की पुनरावृत्ति विचारों के अतिरेक और भीतर चल रहे अन्तरद्वंद्व के प्रतीक हैं. पति आस्ले की अनवरत प्रतीक्षा, जिसे अब लौटना भी नहीं है, पत्नी सिग्ने को पति की पड़-पड़दादी तक ले जाती है. अपनी स्मृति में वह पाँच पीढ़ियों की यात्रा करते हुए अपने पति को याद करती है.

यह प्रेम और उससे उपजी पीड़ा का अद्भुत आख्यान है. एक प्रतीक्षारत नायिका के अतीत के प्रेत त्रासद मनःस्थिति बनकर हर कहीं बिखरे पड़े हैं. आपको उन्हें ढूँढना नहीं पड़ता, वे खुद ही आपको पकड़ लेते हैं, उन अनजान क्षणों में, जब आपने उनके बारे में सोचा भी नहीं था. मृत्यु आस्ले की होती है, लेकिन उसके लिए ताबूत उसके दादा क्रिस्टोफर लाते हैं. आप चकित से सोचने लगते हैं कि यह हो क्या रहा है, जब तक कि उपन्यास के निहितार्थ आपकी पकड़ में नहीं आ जाते.

इस उपन्यास में समय कोई विशेष अर्थ नहीं रखता. वक्त गुजर रहा है, पर नहीं गुजर रहा. पड़-पड़दादी और ब्रीचा से सिग्ने के संवाद हों या दादा क्रिस्टोफर का आस्ले में रूपान्तरण, सब कुछ सहज जान पड़ता है. सिग्ने पाँचों पीढ़ियों से संवाद करती है. दादा क्रिस्टोफर भी आस्ले की तरह छोटी सड़क पर चलना शुरू कर देते हैं. जो दृश्य सिग्ने ने आस्ले के लिए देखे थे, वही दृश्य वह क्रिस्टोफर के साथ भी देखती है. इतना ही नहीं, अंत में सिग्ने एक लड़के को आस्ले के रूप में देखती है. इसे मनुष्य की अलग-अलग कालखण्डों में आवाजाही होने के रूप में भी देखा जा सकता है. आत्मा के पुनर्जन्म की तरह नहीं, बल्कि एक ही जन्म में अनेक जन्मों के अनुभवों को जीने की तरह. एक सौ आठ वर्ष के विस्तृत कैनवास पर लिखा यह आख्यान समय और काल से परे है.

सारा उपन्यास जैसे 103 डिग्री बुखार में तपते व्यक्ति के प्रलाप सा है. सभवतः यह पहला उपन्यास है, जिसे कथानक के स्थान पर मनःस्थिति को केन्द्र बनाकर लिखा गया है. एक त्रासद स्थिति का विस्तार है यह उपन्यास. विस्तार भी केवल ग्रे शेड में नहीं, अलग-अलग शेड्स में, जहाँ पात्रों के चरित्र अपना जीवन रचते हैं.

यून फुस्से

लेखक अपनी बात कहने के लिए बहुत सारे बिम्ब प्रयोग में लेते हैं. बारिश, हवा, काला अँधेरा, दरवाजा, खिड़की, रोशनी, लहरें, नन्ही नाव, सीढ़ियाँ, हॉल, आँगन, पुराना मकान, जो पात्रों की मनःस्थितियाँ उजागर करने में सहायक होते हैं. बीस साल पहले जिस पुराने मकान में वे रहा करते थे, लेखक ने उसका बहुत प्रभावी चित्रण प्रस्तुत किया है. ये बिम्ब बार-बार आते हैं और पाठक के हृदय पर अंकित हो जाते हैं. पाठक इनसे जूझता नहीं है, वरन् इनके कलात्मक सौन्दर्य से अभिभूत हो जाता है.

कहना न होगा कि अनेक स्थितियों की पुनरावृत्ति एक अद्भुत किस्म की रिपीटीशन ब्यूटी उत्पन्न करती है. लगता है, जैसे हम एक लम्बी कविता पढ़ रहे हों. यह काव्यात्मकता इस उपन्यास का वह गुण है, जो इसे अन्य उपन्यासों से अलग खड़ा करता है. बड़ी बात यह है कि काव्यात्मकता का यह फैक्टर थोपा हुआ नहीं लगता, बल्कि सहज रूप से अभिव्यक्त किया महसूस होता है.

सिग्ने की अन्तहीन प्रतीक्षा यह इंगित करती है कि वह विश्वास नहीं कर पा रही है कि आस्ले की मृत्यु हो चुकी है. एक शाम वह घर लौटेगा, अपनी पड़-पड़दादी की तरह काले घने बालों सहित, वह घर के हॉल में उसका स्वागत करेगी, स्टोव में आग होगी और फिर सब कुछ पहले की तरह हो जाएगा. भले ही यह भ्रम सही, लेकिन आशा का प्रतीक तो है ही.

किन्तु यदि आलिस की बात नहीं की जाएगी, तो सब कुछ अधूरा रह जाएगा. आलिस आस्ले की पड़-पड़दादी थी, जिसका बेटा (आस्ले का दादा) क्रिस्टोफर केवल सात वर्ष की अल्पायु में ही मर गया था. वह पुराने घर में रहा करती थी, जहाँ उन सब की साझी स्मृतियाँ निहित थीं. समुद्र से मिलने वाली सँकरी खाड़ी के तट पर वह रात के अँधेरे में आग जलाया करती थी, शायद लाइटहाउस की तरह, जो कभी कम तो कभी ज्यादा होती रहती थी. आग के पास बैठी आलिस अपना अतीत और आने वाला कल देखा करती थी. उसमें इतनी ताकत नहीं थी कि वह जो कुछ घटित हो रहा था, उसे बदल सके, लेकिन वह काले अँधेरे में आग जलाकर सबको आगाह अवश्य करती रहती थी. वह स्मृतियाँ लाँघकर वर्तमान में भी अपना होना सिद्ध करती है. आग तट पर जल रही है और घर में स्टोव में भी. दोनों जगहों पर लपटों को उठते हुए देखा जा सकता है.

तो क्या सिग्ने आलिस का ही प्रतिरूप है ?

चमत्कृत करता है उपन्यास का टैक्सचर. पूरी बुनावट इतनी अलग है कि पाठक उसे पढ़ने के अपने अनुभव से चकित रह जाता है. अनेक स्थानों पर पाँच-पाँच पृष्ठों में कोई पूर्णविराम तक नहीं है. केवल अर्धविराम और प्रश्नवाचक चिन्हों के प्रयोग से लेखक अपनी बात कहते चलते हैं. संवाद बिना इनवर्टेड कोमा के हैं. लम्बे-लम्बे गद्याशों और संवादों के मध्य कोई सटीक सामन्जस्य नजर नहीं आता. ऐसा करना लेखक का उद्देश्य दिखाई भी नहीं देता. वे ऐसी कथा कहते हैं, जो अ-कथा है, कविता है.

इस अद्भुत त्रासद प्रेम कथा का अनुवाद किया है विख्यात अनुवादक तेजी ग्रोवर जी ने. उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में एक बड़ा मुकाम हासिल किया है. नूत हाम्सुन के उपन्यास “भूख” और “पान” के अनुवादों की सभी ने भरपूर प्रशंसा की है. यह उपन्यास भी अनुवाद की दृष्टि से लाजवाब है. प्रवाह ऐसा है कि पाठक को विश्राम नहीं लेने देता. एक अंश देखिए-

“वह सोचती है, और वह हॉल के दरवाजे को देखती है, और वह खुलता है, और फिर वह खुद को भीतर आते हुए देखती है, और अपने पीछे दरवाजे को बंद करते हुए, और फिर वह खुद को कमरे की भीतर आते हुए देखती है, रुकते हुए, और वहां खड़े होकर खिड़की की ओर देखते हुए, और फिर वह खुद को उसे खिड़की के सामने खड़े हुए देखती है, और वह देखती है, कमरे में खड़े हुए, कि वह वहां खड़ा हुआ बाहर के अंधेरे को देख रहा है, वह सोचती है, किसी ऐसी जगह रहना जहां और कोई न रहता हो, जहां वह और वो, सिग्ने और आल्से, उतने ही अकेले होते, जितना मुमकिन था, जहां से सब चले जा चुके हों, ऐसी जगह जहां बसंत बसंत हो, पतझड़ पतझड़, जाड़ा जाड़ा और गर्मियां गर्मियां, वह ऐसी ही जगह रहना चाहती थी, वह सोचती है, लेकिन अब, जबकि देखने को सिर्फ अंधेरा है, वह वहां खड़ा बाहर अंधेरे में क्यों देखता रहता है? क्यों करता है वह ऐसा? वह हर वक्त वहां क्यों खड़ा रहता है, जब देखने को कुछ है ही नहीं? वह सोचती है, अगर यह वसंत का समय होता, वह सोचती है, अगर अब वसंत आ ही जाता, अपनी रोशनी लिए, अपने कुछ अधिक गर्म दिन लिए, मैदान में नन्हे फूलों, दरख्तों के फूटते अंखुओं के साथ, और पत्ते भी, क्योंकि यह अंधेरा, यह हर वक्त का छाया अंतहीन अंधेरा, उससे बर्दाश्त नहीं होता, वह सोचती है, और उसे उससे कुछ तो कहना ही होगा, कुछ तो, वह सोचती है, और फिर ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा था, वह सोचती है,  कमरे में हर तरफ देखती है, और हां, सभी कुछ वैसा ही है, जैसा था, कुछ भी अलग नहीं है.”

कला के-कैसे कैसे रूप हो सकते हैं, इसका कोई ओर छोर नहीं होता. प्रत्येक लेखक अपने आप में एक प्रकाश स्तम्भ होता है, जहाँ से वह अपने विवेक, संवेदनाओं और प्रतिभा से बेहतरीन कलाकृतियाँ गढ़ता है. पर कुछ रचनाकार विशेष होते हैं, जो लीक से हटकर अपना सृजन करते हैं. यून फुस्से उन्हीं में से एक हैं. मेरे लिए वे एक विरल साहित्यकार हैं, जिन्हें नोबेल पुरस्कार देने से उनका नहीं, नोबेल पुरस्कार कमेटी का मान बढ़ा है.

गोपाल माथुर
9829182320
Tags: 2023Aliss at the FireJon Fosseआग के पास आलिस है यहगोपाल माथुरतेजी ग्रोवरयून फ़ुस्से
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Comments 3

  1. Shashi Rani Agrawal says:
    2 years ago

    यून फुस्से : एकरंगी तूलिका से बहुरंगी काव्यात्मक कथा -कृति का अनूठा प्रजापति

    Reply
  2. Jeeteshwari Sahu says:
    2 years ago

    यह गोपाल माथुर जी द्वारा लिखित अद्भुत समीक्षा है। इतनी सुंदर भाषा में लिखा है कि इसे पढ़ने के बाद तुरंत मैंने इस किताब का आर्डर किया। आज हमें ऐसे ही किताबों की जरूरत है जो हमें मनुष्य होने के संवेदना का अहसास करवाए और जिसे पढ़ते हुए हमें जीने का अनुभव हो।

    Reply
  3. Anonymous says:
    2 years ago

    अद्भुत, समीक्षा पढ़कर ही पाठकीय संवेदना विवश कर रही है कि शीघ्र उपन्यास पढ़ा जाए।

    Reply

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