महात्मा गांधी और कुम्भ मेला सौरव कुमार राय |
इस वर्ष प्रयाग में आयोजित कुम्भ मेले की काफी चर्चा हो रही है. हमेशा की भांति हजारों की संख्या में श्रद्धालु रोज संगम में डुबकी लगाने पहुँच रहे हैं. कई राजनीतिक दलों के अध्यक्ष और नेता भी इसमें आए दिन शिरकत कर रहे हैं. साथ ही बुद्धिजीवियों और शोधकर्ताओं ने भी कुम्भ के सामाजिक व आर्थिक पहलुओं पर नजर बनायी हुई है. कुम्भ कई मायनों में भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक रहा है. करोड़ों श्रद्धालु हर बारहवें वर्ष प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में से किसी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं और नदी में स्नान करते हैं. ऐसे में राजनेताओं, विद्वानों और पत्रकारों की इसमें दिलचस्पी स्वाभाविक ही है.
औपनिवेशिक भारत में कुम्भ जैसे मेलों पर ब्रतानिया सरकार की विशेष नजर रहती थी. इसकी मुख्य रूप से दो वजहें थीं. पहली तो ये कि ऐसे मेले अक्सर राष्ट्रवादी चेतना के प्रसार हेतु उपयुक्त अवसर प्रदान करते थे. कई राष्ट्रवादी नेता इन मेलों के दौरान श्रद्धालुओं के बीच भाषण दिया करते और पर्चे बांटा करते थे. ऐसे में अंग्रेज कुम्भ को लेकर काफी सतर्क रहते थे कि इस अवसर पर आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ के बीच कोई ‘क्रांतिबीज’ न पनप जाए. दूसरे, कुम्भ जैसे मेले से किसी भावी महामारी के फूटने की भी आशंका बनी रहती थी जिससे जनस्वास्थ्य और लॉ एंड ऑर्डर से जुड़ा गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता था. कुम्भ के इतिहास को टटोलें तो वर्ष 1844, 1855, 1866, 1879 और 1891 के कुम्भ मेले महामारी के साये में संपन्न कराए गए. कोई भी अनावश्यक रोक-टोक धार्मिक भावना को भी भड़का सकते थे. इसलिए भी सरकार का सतर्क रहना जरूरी था.
1915 का ऐतिहासिक कुम्भ
यह जानना दिलचस्प है कि 1915 में हरिद्वार में आयोजित कुम्भ मेले में महात्मा गांधी ने भी शिरकत की थी. इस संदर्भ में यह एक ऐतिहासिक कुम्भ था. यह वही साल था जब दक्षिण अफ्रीका में 21 साल बिताने के बाद महात्मा गांधी स्वदेश वापस लौटे थे. गांधीजी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सलाह दी कि चूंकि एक लंबे समय तक वे देश से बाहर थे, इसलिए यह जरूरी है कि भारत की जमीनी हकीकत को जानने के लिए वे पहले एक देशव्यापी दौरा करें. उसके बाद ही राजनीतिक मुद्दों पर अपनी राय बनायें. गांधीजी को यह बात ठीक लगी और वे देशाटन पर निकाल पड़े.
इसी क्रम में वे 1915 में हरिद्वार में लगे कुम्भ मेले में भी पहुँचे. हालाँकि, शुरू में कुम्भ में जाने की उनकी कोई खास इच्छा नहीं थी. लेकिन गांधीजी महात्मा मुंशीराम के दर्शन हेतु ऋषिकेश स्थित उनके गुरुकुल जाना चाहते थे. साथ ही कुम्भ के अवसर पर गोखले द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज ने भी स्वयंसेवकों की एक बड़ी टुकड़ी हरिद्वार भेजी हुई थी. उन्होंने गांधी को भी यह प्रस्ताव दिया कि वे भी दक्षिण अफ्रीका से उनके साथ आयी स्वयंसेवकों की अपनी टुकड़ी को लेकर हरिद्वार पहुंचे. गांधी इस प्रस्ताव को ठुकरा न सके और रंगून से कलकत्ता होते हुए हरिद्वार पहुँचे.
‘हिन्दू-पानी’ – ‘मुसलमान-पानी’
यहाँ कुम्भ जाने के क्रम में कलकत्ते से हरिद्वार तक की उनकी यह यात्रा उल्लेखनीय है जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में भी किया है. इस यात्रा के दौरान उन्हें हिन्दुस्तान में बढ़ती सांप्रदायिकता का एहसास हुआ. गांधीजी यह यात्रा खुले बिना छतवाले डिब्बे में कर रहे थे जिनपर दोपहर का सूरज तपता था. डिब्बे में नीचे निरे लोहे का फर्श था. इतने पर भी श्रद्धालु हिन्दू अत्यन्त प्यासे होने पर भी ‘मुसलमान-पानी’ के आने पर उसे कभी न पीते थे. ‘हिन्दू-पानी’ की आवाज़ आती तभी वे पानी पीते. गांधीजी को यह देखकर सहसा भान हुआ कि हिन्दुस्तान में सांप्रदायिकता का जहर किस कदर घुल चुका है जहाँ ईश्वर द्वारा प्रदत्त पानी जैसी जीवनदायिनी वस्तु को भी ‘हिन्दू-पानी’ और ‘मुसलमान-पानी’ में बाँट दिया गया है.
खैर गांधीजी हरिद्वार पहुँचे. लेकिन उन्हें हैरानी हुई कि उनसे पहले उनकी प्रसिद्धि वहाँ पहुँच चुकी थी. इसकी मुख्य वजह दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया भारतीय मजदूरों के बीच किए गये उनके कार्यकलाप थे. ऐसे में गांधीजी का अधिकांश समय लोगों को ‘दर्शन’ देने और उनके साथ धर्म की या ऐसी ही दूसरी चर्चाओं में बीत जाता. अंततः वे दर्शन देते-देते अकुला उठे. उन्हें एक मिनट की भी फुरसत नहीं मिलती थी. नहाने जाते समय भी दर्शनाभिलाषी उन्हें अकेला न छोड़ते थे. दक्षिण अफ्रीका में जो सेवा और सत्याग्रह उन्होंने किया था, उसका कितना गहरा प्रभाव सारे भारतखंड पर पड़ा, इसका अनुभव गांधीजी ने पहली बार हरिद्वार में ही किया.
पाँच पैरोंवाली गाय
किसी-किसी दिन गांधीजी चुपके से शिविर से बाहर घूमने-फिरने निकल जाते. परन्तु अपने कुम्भ भ्रमण के दौरान उनको लोगों की धर्म-भावना की अपेक्षा उनका पागलपन, उनकी चंचलता, उनका पाखंड और अव्यवस्था ही ज्यादा नजर आयी. साधुओं का हाल देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे सिर्फ मालपुए और खीर खाने के लिए ही जन्मे हों. इसी दौरान उन्होंने पाखंड की ऐसी पराकाष्ठा देखी कि उनका हृदय द्रवित हो उठा. उन्हें कुछ लोग पाँच पैरों वाली गाय के दर्शन हेतु ले गये. उसे देख गांधीजी को काफी आश्चर्य हुआ, किन्तु अनुभवी लोगों ने उनका अज्ञान तुरंत दूर कर दिया. गांधी के अनुसार पाँच पैरोंवाली गाय दुष्ट और लोभी लोगों के लोभ की बलिरूप थी. गाय के कंधे को चीरकर उसमें जिन्दे बछड़े का काटा हुआ पैर फँसाकर कंधे को सी दिया जाता था और इस दोहरे कसाईपन का उपयोग अज्ञानी लोगों को ठगने में किया जाता था.
इसी प्रकार गांधी ने देखा कि लोग रास्तों को और गंगा के सुन्दर किनारों को गन्दा करने में तनिक भी नहीं हिचकते थे. गंगा के पवित्र पानी को बिगाड़ते हुए उन्हें कोई संकोच न होता था. नित्यकर्म हेतु जाने वाले आम जगह और रास्तों पर ही बैठ जाते थे, यह देख कर भी उनके चित्त को बड़ी चोट पहुँची जिसे वे जीवन भर नहीं भूले. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि करीब 32 साल बाद 13 अक्तूबर 1947 को अपने बिरला हाउस (वर्तमान ‘गांधी स्मृति’) प्रवास के दौरान कुम्भ-कैम्प के अपने अनुभवों को याद करते हुए गांधीजी प्रार्थना प्रवचन के दौरान कहते हैं,
‘मैं 1915 में हरिद्वार के कुम्भ मेले में गया था. वहाँ मुझे अफ्रीका से लौटे हुए अपने साथियों के साथ भारत सेवक समिति के कैम्प में सेवा करने का सौभाग्य मिला था. उसके बारे में इसके सिवा मुझे कुछ नहीं कहना है कि वहाँ मेरी और मेरे साथियों की प्रेम से फिकर ली गई. लेकिन हमारे लोग जैसा कैम्प जीवन बिताते हैं उसे देखकर मुझे कोई खुशी नहीं होती. हम में सामाजिक सफाई की भावना की कमी है. नतीजा यह होता है कि कैम्प में खतरनाक गन्दगी और कूड़ा-कर्कट जमा हो जाता है, जिससे छूत की बीमारियाँ फैलने का खतरा रहता है. हमारे पाखाने आमतौर पर इतने गन्दे होते हैं जिसका बयान नहीं किया जा सकता. लोग सोचते हैं कि वे कहीं भी मल-मूत्र त्याग सकते हैं. यहाँ तक कि वे पवित्र नदियों के किनारे को भी नहीं छोड़ते, जहाँ अक्सर लोग आया-जाया करते हैं. इसे लोग एक तरह का अपना हक समझते हैं कि अपने पड़ोसियों का थोड़ा भी खयाल किये बिना वे कहीं भी थूक सकते हैं. हमारी रसोई का इन्तजाम भी कोई ज्यादा अच्छा नहीं होता. मक्खियों का दोस्तों की तरह हर जगह स्वागत किया जाता है. रसोई की चीजों को उनसे बचाने की कोई चिन्ता नहीं की जाती. हम यह भूल जाते हैं कि वे एक पल पहले किसी भी तरह की गन्दगी और कूड़े-कर्कट पर बैठी होंगी और किसी छूत की बीमारी के कीड़े अपने साथ ले आई होंगी.’
वे आगे कहते हैं कि
‘कैम्पों में किसी योजना के आधार पर लोगों के रहने का इन्तजाम नहीं किया जाता. कैम्प-जीवन की यह तसवीर मैं बढ़ा-चढ़ाकर नहीं पेश कर रहा हूँ. मैं कैम्पों में होनेवाले शोर-गुल का जिक्र किये बिना भी नहीं रह सकता, जो वहाँ रहनेवाले को सहना पड़ता है.’
इस प्रकार हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पर चारों तरफ फैली गंदगी और पाखंड को देख गांधी विचलित हो उठे थे.
धार्मिक स्थल बनें पवित्रता, स्वच्छता और शान्ति के धाम
यह कोई पहला अवसर नहीं था जब धार्मिक स्थलों पर नैतिक पतन और चहुंओर फैली गंदगी ने गांधी का ध्यान आकृष्ट किया था. इससे पहले 1902 में काशी की अपनी प्रथम यात्रा के बारे में उल्लेख करते हुए महात्मा गांधी लिखते हैं,
‘मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया, वहाँ जो कुछ देखा, उससे मुझे दुःख ही हुआ. संकरी फिसलन वाली गली से होकर जाना था. शान्ति का नाम भी नहीं था. मक्खियों की भिनभिनाहट तथा यात्रियों और दुकानदारों का कोलाहल मुझे असह्य प्रतीत हुआ…. मंदिर में पहुँचने पर दरवाजे के सामने बदबूदार सड़े हुए फूल मिले. अंदर बढ़िया संगमरमर का फर्श था. पर किसी अंधश्रद्धालु ने उसे रुपयों से जड़वाकर खराब कर डाला था और रुपयों में मैल भर गया था.’
गांधीजी आगे लिखते हैं कि मैंने वहाँ ईश्वर को खोजा, पर वह न मिला. दूसरे शब्दों में, उनके अनुसार, जहाँ गंदगी हो वहाँ ईश्वर का वास हो ही नहीं सकता.
इसी प्रकार 4 फरवरी 1916 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शिलान्यास समारोह में दिए गये अपने चर्चित भाषण में भी गांधीजी कहते हैं,
‘कल शाम मैं विश्वनाथ मंदिर दर्शन के लिए गया था. उन गलियों में चलते हुए मेरे मन में खयाल आया कि यदि कोई अजनबी एकाएक ऊपर से इस मन्दिर पर उतर पड़े और यदि उसे हम हिन्दुओं के बारे में विचार करना पड़े तो क्या हमारे बारे में कोई छोटी राय बना लेना उसके लिए स्वाभाविक न होगा? क्या यह महान् मन्दिर हमारे अपने आचरण की ओर उँगली नहीं उठाता? मैं यह बात एक हिन्दू की तरह बड़े दर्द के साथ कह रहा हूँ. क्या यह कोई ठीक बात है कि हमारे पवित्र मन्दिर के आसपास की गलियाँ इतनी गन्दी हों? उसके आसपास जो घर बने हुए हैं वे बे-सिलसिले और चाहे-जैसे हों. गलियाँ टेढ़ी-मेड़ी और सँकरी हों. अगर हमारे मन्दिर भी कुशादगी और सफाई के नमूने न हों तो हमारा स्वराज्य कैसा होगा? चाहे खुशी से चाहे लाचारी से अंग्रेजों का बोरिया-बस्ता बंधते ही क्या हमारे मन्दिर पवित्रता, स्वच्छता और शान्ति के धाम बन जायेंगे?’
व्रत का लिया सहारा
बहरहाल, पवित्र स्नान का दिन आया. गांधीजी को बताया गया कि 17 लाख लोग इस कुम्भ के अवसर पर हरिद्वार आये हैं. निराशा के क्षणों में भी गांधी का यह दृढ़ विश्वास था कि 17 लाख लोग पाखंडी नहीं हो सकते. उन्हें इस बात में कोई शंका नहीं थी कि ये लोग पुण्य की तलाश में, शुद्धि प्राप्त करने दूर-दराज से साफ मन से चले आए हैं. गांधीजी विचार-सागर में डूब गये. चारों तरफ फैले पाखंड और गंदगी के बीच 17 लाख पवित्र आत्मायें. ऐसे में गांधीजी ने प्रचलित पाखंड को देखते हुए भी उसका विरोध करने में अपनी असमर्थता के प्रायश्चित स्वरूप व्रत करने का निश्चय लिया. इसका उल्लेख करते हुए गांधी लिखते हैं कि
‘मेरा जीवन व्रतों की नींव पर रचा हुआ है. इसलिए मैंने कोई कठिन व्रत करने का निश्चय लिया.’
उन्हें अपने यजमानों का ध्यान आया जिन्हें उनके भोजन-पानी के प्रबंध में अनावश्यक कष्ट उठाना पड़ता था. इसलिए गांधीजी ने आहार की वस्तुओं की मर्यादा बांधने और अंधेरे से पहले भोजन करने का व्रत लेने का निश्चय किया. उन्होंने चौबीस घंटों में पाँच चीजों से अधिक कुछ न खाने का और रात्रि-भोजन के त्याग का व्रत भी लिया. इस प्रकार कुम्भ का अवसर गांधीजी द्वारा लिए गये महान व्रतों में से एक का निमित्त बना.
गांधीजी लिखते हैं कि कुम्भ के दौरान लिया गया ये व्रत उनके लिए कहीं-न-कहीं ढालरूप सिद्ध हुआ. इसकी वजह से वे कई बीमारियों से बचे रहे और उनकी आयु में भी इस कारण वृद्धि हुई.
हरिद्वार के बाद गांधीजी महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन हेतु ऋषिकेश स्थित उनके गुरुकुल पहुँचे. गुरुकुल पहुँच कर उन्हें असीम शांति का अनुभव हुआ. गांधीजी के अनुसार महात्मा मुंशीराम जी ने उन्हें अपने प्रेम से नहला दिया. इसी दौरान उन्होंने लक्ष्मण झूला भी देखा. उन्हें बताया गया कि पहले यह पुल मजबूत रस्सियों का बना हुआ था. उसे तोड़कर एक उदार-हृदय मारवाड़ी सज्जन ने बड़ा दान देकर लोहे का पुल बनवा दिया और उसकी चाबी सरकार को सौंप दी. गांधीजी की नजरों में रस्सियों की अपेक्षा लोहे से बना यह पुल प्राकृतिक वातावरण को कलुषित कर रहा था. उन्हें यह अप्रिय जान पड़ा. ऊपर से यात्रियों के इस रास्ते की चाबी सरकार को सौंप दी गयी, यह बात भी गांधीजी को असह्य लगी. गांधीजी ने वहाँ के सन्यासियों से धर्म, जनेऊ धारण करने और शिखा (चोटी) रखने पर शास्त्रार्थ भी किया जो रोचक है.
इस प्रकार अपनी कुम्भ यात्रा के दौरान जहाँ एक तरफ महात्मा गांधी को प्राकृतिक कला को पहचानने की पूर्वजों की शक्ति के विषय में और कला को धार्मिक स्वरूप देने की उनकी दीर्घदृष्टि के प्रति अत्यंत आदर का अनुभव हुआ, वहीं दूसरी तरफ इस अवसर पर पाखंड एवं गंदगी के प्रसार को देख दुःख भी हुआ.
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सौरव कुमार राय |
पढ़कर खुशी हुई।गाँधी जी ने हर क्षेत्र में अपनी सुधी जीवन-दृष्टि का समावेश किया।वे सत्य के अनन्य आराधक थे।वह कुंभ की गंदगी हो या हिंदुओं का गैरजिम्मेदाराना रवैया उन्होंने किसी को नहीं बख्शा।गाँधी जीवन के हर क्षेत्र में मिसाल की तरह थे।